वाननक, डॉ > छू पी कक." हे *फ टरनेओ (६78:4:« मासिक पत्र नौरक्षीराविदेके इंसा5उलस्यं स्वमेव तनुषे चेत । विश्गस्मिन्नपुनाधन्य+ कुलबत पालायिष्याते कप ॥ / सासिनोदिलास ) समाग २ ;: अगस्त १९०३ 229५ एप्कएफप्पफजछपप्फ्प्प्एफकप्जए एप पफ्पपफफ्फ्एए्छएपफ्फफएपए एएएफएक लेस्च “ पछ नियमावस्ो .. '( टिप्पणिया | ! छाक्तर गाजेन्द्रलाल सिद्ध, * हम भा, १४ का कक्फा ये [८ ड़ प्श्ट « क्र ++ कृक॑ आंख प्यार <+ धक्का 2८८2२: द्त्त्र्ह्ड औ-ची, | बज क+ हि: कक 7 4५ कर, ०9 शक । 8 कद कक प्लस | सोउहम्‌ हे कि . एल ः | रण .. जातीय साहित्यालाचना फ्लो जावशयकतारण४ ही | द ध ,. विज्ञापन आदि ०... ने9 रा मय | प्रीपाइटर ओर प्रकाशक रूट (६ "6 . अीखघुत्त मिन्‍्कैसबैय जीहरी चाज़ार जथपर 2 | हे झझ// एक्‍कल एिलओ आखए .... छ| (2 कस पता खत यश फ्ि्फि्ख्िसि्स्स्ल् एड ण्ञ्््व्ब्श्च्ल्न्ब्श्स्ब्ब्य्ध्त््ल्श्य्न््ज्त््् पत्ल्ल पल का नियमावली । १-४ समालोचक ” हर अह्जरेजी महीने के अन्तिम सप्ताह मे निकला करता है ।! २---दाम इसका सालाना १॥|) है, साल भर से कम का कोई आइक न हो सकेगा न>)]का टिक्रेंट भेजे विना नम॒ना पा सकेगा ॥ ३--- समालोचक 2? में जो विज्ञापन छुपेंगे उनमें कुछ भी मूठ! व अतिराज्नित द्वोगा तो उसकी समालोचना करके सब साधारण : को धोखे से बचाने की चेष्टा की नायगी; कोई विज्ञापन विना प्री जाँच किये नहीं छापा जायगा ॥ ४--आई हुई वस्तुओं की वारीर से समालोचना होगी, किसी की व्यक्तिगत विरोध से भरी वा असमभ्य शब्द पूरित समालोचना नहीं छापी जायगी, जो समालोचना नन्‍्यायपू्ण और पतक्तपातशून्य होगी वद्दी छापी जायगी ॥ जा द ५--जो पुस्तक व पोथी जघन्य अथवा मदहानेन्दित ओर सर्व साधारण के लिये अद्दितकर होगी उसका प्रचार ओर प्रकाश बन्द करने के लिये उचित उद्योग किया जायगा | जो उत्तम, उपकारो आर सवे साधारण में प्रचारयेग्य होगी उस के प्रचार का डावत पयत्न किया जायगा । इन पुस्तकों के सुलेखर्क्ो को प्रशंसापन्न द पुरस्कार प्रदानादि से भी उत्साहते किया जायगा ॥ समालोचक से विज्ञापन की दर कु पहली वार अतिपरक्कि न्न) छ' बार के लिए ,; “) के छपे विज्ञापन को बटाईे ४) बष भर के लिए एक पेज १२) हट --तमालोचक के लिये लेख, समाचारपत्र, पुस्तक, मूल्यादि, गआहक होने की चिट्ठी, पता बदलन के पत्र, विज्ञापन के मामले की चिट्टी, पत्नी, सब समालोचक के मैनेजर मिस्टर जेनवैंच ( जोहरी बा- जार जयपुर ) के फ्ते पर भेजनी चाहिये ॥। मेनेजर # खस्ाहोल ः "ट्रिक +स्ट्रिठ हज 4सक। भाग २) जयपुर ऊगरूतव ९४०३ | चड़या ! | अ बंका - पघ्ड्प्पाणया आज 'सभमालोचक' अण्ने जोचन के ह्थछ जे फी पूरः फरव्ते छ्वित्तेय वर्ष से पथ चघरला हे | जगदीश्थर के घनन्‍वचारद्‌ के उत्तर उच्त सह्ठारदझः छोर हिलेणियों का की चन्‍्यछाद है जिसने अपना फर्तेंठय पालूय कियर | लववाण्ज उसे परदि- पघ्यत्‌ से अपने फच्तेठय के सेर्य फास करते वी शर्त दे । गतवष छिन्दी पक्षाषा के लिए अच्छा न्ठों वीतार | देए प्रदों व्ते स्वासी, दी पत्नो के सररूपाद्क फोर दे। पत्र अनपनन्‍्ल काल सें कोन हुए। ससालीचश के चाएकों सो सखज्याः परी झाच्छो कहालो नही छाप्टली | कई पत्च सथा काल ईफसिखदा रहे हे तथापि “छिलदात्ताँ रश अन्य शुभ लक्षण शे | छिप्दी प्रेमी लान रक्‍्खे कि उन्हे कित्तदी की सजिल ले रण छे | बद्भूछा में उपेन्द्र किशोरण्य जोंचरी दी. ए ने प्राची- ले काल छके पक्चत मोर सबल फम्प्राप्य फन्‍तणेो फा पजय अध्छा सचित्न दर्णान कल्लिखा हें उसका अलुयाद हछिनदों में भी छीना चाध्टिए। कथा कोई हिन्दी प्रेमी यत फरेना ? प्रथधाग का बज़्ाली सच्योणी “प्रदासी” सरस्चती ? से एक वर्ष पीछे सलिकरा था, किन्तु रूरूको ऊग्थावीत उन्नति भर सरस्यखती: कर रूप कछलकाता एँ कि-- ज्न्क्न्कु भर समारलसीफचक | ४ सहेव दशमि; पुश्नेमार वहति गदेभी | एकेनापि सुपुन्नेण सिंही स्वपिति निर्भया ॥ ”! चित्रों झाशच में यह पत्न अद्वितीय हे | छिन्दो प्रें- सदी ! लरा इसके छेखकेई को सूची से यल, छ.. बी. एड घ- पति हे कस देख कर लरिये और सुद्द ठो छिपाद्ए | सती राखिदलो, घरन्चर, छात्र, अवनोन्‍्द्वनाथ प्र्तति केएच ञअ च्ापकर रब चल पायर ऐ। देशे फे ऐतिहासिक खि- वरुण प्री इललें बहुत अच्छे स्िक्षलले हू । चैन्न के 'प्रवासी! में छाकर सती शचन्द्र ने प्रदासो बड़ लिये फे कर्तव्य पर एक लेख लिखा है, उस में फद्टा हे कि युक्त प्रदेश के घारसियेर फो अपने झशानदुएस7, पूज्य बद्भा लियों पर से शअद्भा छटठ- सती जएतेर है किन्तु जहाँ लक छत जानते हें यह खडुालियों का ही दोष ले | थे गये सें अप्कर अपने को यहा जरलों से अरग ससाले फा बचकर साइन जलैठते लें आर कपझो फ्री पक्षपात से योस्य देशियों को क्री पददर्लित करनाए चाएते हें । ब- ज्रालियों को सानना चाहिए कि अखधिक शिक्षित होने के प्लारण जालीयलर उत्पन्त फरने छा कोफा उन्हीं पर है आर सप्तोणेंता से अन्‍य स्‍शानल बालो का दिल खहा करना बुर हो छे मल मल ल मल नाल आपाद के “फ्रशसी?” से रचिदसेकत ९ अजऊविजऊापं फा सित्र सरेन रज्»ो से चबहुत्त सुन्दर से | ऊअजविजऊझाप का रचुनचश लअप्टसतर्ग फे छन्द्‌ में छी छिन्‍दी अजुदाद पच्िडत सरस इसण्ठ न पम्ो कियप था । रूसी' सके साथ पन्‍न छेजे बाले “झुदशेन! ने जैसे फैसे ऊपना बच ३ का ज्यज्यः २ ( वेशास २८६०) भय दिखरयाः ससालोचफक | है है । ऐसी उच्च ध्तोटि का पत्र दया हिन्दी मेँ दिना सांस छठे चिकल छझ्पे सदहों सफता ? दया दस सुघोग्य सस्पादच्छ अपनो घीमारो जीर बहुकारिता के आगे इसे सम्द्वःल ही नएछी सकतें * चइसहो देशाख की संख्या सें “उपन्यास और समालेरे- घक्क? च्रीसक लेख यद्यपि लेखक को “नमकहछ साली! दिखा- ता है तथापि सन्देह होता है कि किसी ने सरलचुदय प॑० साधयप्तलाद फो रपना '(शिखण्ली! खनायर है | छोते फ्राषा सपन्‍यासदे के प्ररोसे नहीं जीसकफो | चिन्लित्तजिस को शा- ल्लि देने के लिए हचका उतना ही सउपयोग है जिदना प्ी- जन में चटनी फा; किन्त्‌ कया हक चठनोी से जपना पेट प्र स- कले है | अधिक सिर्चा. जाली घटनी चटनी का कान दे फ्री दे गी, फिन्तु क्रोजनर फा फास पचिन्द्रकाज्ता! से एक असस्फत जातकों ससूुमव सानकर कधया कया बिरलूलल्‍्ली घाले बन सफती छें उनका अच्छा नसूना है, किन्तु उसकी घ्लैसो प्तैसो फ्री नक़लें ली रदी हें | घन्द्॒कानत! सल्‍तति' में तो बालू देवप्ती नन्दुन ने स्वयं लिलिस्स लिखने प्की अरूचि प्रकट प्वो लै। ऐपे ठप्तयाणोंफे नाथक ऊझौर नायिका खाली छदसाशो के हाथ की शु छियए हैं; से सनसे जान दे, न शक्ति | सर्येसलाजनिराकछूत दरेनेल्छ फ्छे नाविलों की दहाई देतीबेर लेखफ चने यध नहीं सोचा एि उअसम्मल चटना प्रभावशालिनी लेखिनी ने चरिज्ञांहुन परने को बम्टादरों ली है, उसकी तुरचा में छमारे लेखकम्मनय काले नयीं सो क्पा है! छत! जऊित रेनेल्छ स्े.सायिलों के लिए हूम लू को दृदकारते थे, उन्हीं के भरोसे द्विन्दी उपन्यासों फी द्विसायत की जाती हे || विजझायत मे सेंक्तछों सस्तद परीर अ्क 5 ससालोी पदक । सस्ाजरेपफॉरक आर सत्य उपन्यास छू उनकी छोर तो दे रा फ्री गह्ली जाता खीर पराचे कट्टे रोसान्सेज (२0क्‍7पाटछड) छा जकरऊ करे जातों हैं । सह योरोप को खीसारी के दिनों से अन्य है फरेर छर्ें की दीमोर करने से फसरन फरेंगे। सिलिस्स उतचा ही ससमझद हू जितना “हुमा?” दा “सास सुख फार चोहुर! उसपर एक लाण अच्छा उपन्‍यास भी यन सकता छे, फफिन्सू काशी घगा सा तूफान ! दाह !! । सफणयवत्य सच्चा पर कोई छूरी नहीं फेरता; भह भी मापा फो उत्तर मे खझपना पाए लोेछ रहे हें | बेस्टेश रए सभा- घ्ार जे इस खिचय से छिसादी है छोर आवश्यकता होगी लो छथग हो कलम उठायेने। उच्ाग कफ एऐन्दी में क्ाजियों को सिन्दा करने घाले उ- पपन्‍्यासी, पर क्री रृश्चाप्ता गरेास्प्मर पमोर फछ पन्र सदए सत छें! किनलत उन के उरेप पा भिशादा फ्रारत गीदन फक्रे सर घसीय सम्पादर छी ६ | ठीक हे “€ दुदों दयछघातक, ?। काशी के एफ फऋद्टे छपन्‍्याघ “जाटयर' में एक राजपुल यधा- छः के चातार मिला संरेर चार उछ्के मदहुए बनाए गए £ अरर मुसलमान पादयाह के उसे ध्याएने का पटयनत्र फर हि 7. रत हें | यए रेनेल्ठ यो लसे ही खघिलरजले उपन्याभी में से एफ कवे फसालुपाणए रे सिय को हु “5 के उदाकऋुरषण्म राप शाएटा- किया हें। स््स ये सास दपरुेखफकश जिदेशी मरने की सरिद्ए इसे फ्रारी ८गाने छी या राएप्रएव मी | बा उचर किसी ह ब्याग नहों यथा * ? यह प्रापा में मेले फरोर्शी उयन्पास जगा -ऋक ऑनजा- माह +पॉनलन..॥.. कमा. कम बन लाइ्एज स्राना की फल... डा व्यक्त का... वक्याना- जगा खाजक वन आप पी पाय.. स्वाद व्यव्त पमाव्य काफी, जिस... वीक पानवमना, हा । बिक भ्स्ने | कं. औीच., हमे अक." अहम उपन्याप्त ही समालोचना संगालोी चद् में लिष्लाए | >रमा ०-० -भम्गममुकिम्पानमजननॉक्गि- समाली चक्ो | 5 सूननआओ बिछते हैं किन्तु क्षत्रियों का कुठार अपने साहित्य पर हो च॑- लता हे | नही नहीं, बद्चछा उपन्यासेपर सहयोगी प्ा्रत- मेत्र के लेखों कार्पसल सिला जल्द हो शुरू होगा | सी ची बोतल ली पह ले कि यदि राजपूत सच्चे ही कुछ फास करना चाहते हे तो उ' हें ऊच्ित है कि पुराने लेख पढ़े और झपने (/+०)४८७ ) (छ-फोी शी से दस कलड्भ कथा को फ्हूठ एिद्वू फरदे, लद्दी लो दप- प्घासखों के मज्भुग घत्राए और दर छोने परक्षी फारमी और कप नी इतिद्वासों में यह लाल काली रु्याद्दी से लिखी हर रह्ेगी। सेयों के प्यारे पं० कदरोसारण्यणजों फो सेचसय झआए- नल्‍्द्‌ कादूृरम्बिनोी निकलती लो के किन्तु सवच ५७ को कादू- स्थिनी को तरह ! दो लोन अडद्भ छी साथ निकलते हे । ये आये आकार से यदि यह प्नल मिकले तो 'हौने से छगन्‍ घ! है | माया सावआददि की वध सत॒लि की जाय ? इस रा कद्रोे पे उपन्‍्यासनय जलाने में ,क्षी “चौचरो जी?! कोर ४छ्विन्दी प्र- शीप” के प०्बालकृष्यजी भट्ट हिन्दी फो नही भूले है यद्ध स पका स्तुल्यमहत्व है|“ फ्रेसचन जी” अपने सब फाच्येर फी एक पी सो प्रकाशित करदेंती पहिनदी पाठकी फो झुप्तीसा ही । आऊफल एक ओर पम्लनो ऐसा खिषय है शिप्त पर हिन्दी प्रेसी टझछूटको लगाए हैं | वद्द य॒क्तप्रदेश क्री सरकार छा हिन्दी-ऊदू को खिचली बनाने का उद्योग है । शासन- ऊत्तोओ के हाय में भप्षा बनाचर इस छ्ी देश मे है | हम इस ब्रात के पक्षपाती नहीं है कि हूपय्े संस्कत शद्दे को # रवो की जाय, फिन्त सस्कत, प्रावश्यकता पर हिंन्दी प्ोो / ६०|०-7०० १) ऋूचानजछ छर प्छठस दे, इस में क्या आपत्ति टै? सरकार के घन यत्नो के सामने सच्चे द्विन्दो पे प्रेमी याद प्र द समा चप्स | रखे सि नश्सेंलः समय में अद्भरेजे राणा से “फरएसीसी! शब्द्‌ बलात्कार ले छुछेड्े गए थे सिन्तु ससय पाकर वे सब लिफिलगए और अब € सेकसन ' ही की प्रचानता है। घुस बर्ष फाशी नायरो--छचारिणी सप्ना का कास फुछ छढोला हो दिखाई देवा दे। छफाशेीे के कर सज्जन सक्षाफे कार्य फो संशयत ऋछट्टले हे, भयवानू करे यह झूठ है, फिन्त यदि सत्व है| लेश झूम सब को छड़ो रऊूज्जा की बात 'है। श्ाशा है कि इस वर्ष को रिपोर्ट इला चिन्लाणरों को मिठा देगी, किन्तु सक्षा के साफ के जलीचे रासनगशेर राज्य उ्ह का अहु बना हुआ है, य् फैसो छज्जा की बात है! विन मिनमिन न मीन आर से स्व ते व्ले साखिक पशञ्च. # क्रारतथन्त . ने सराठो, ग जरएती और िन्दों लोन झावषाओं से अपना कलेबर भ्रूपित किया है | राष्णद्रक्नाजा के प्रचार सा यह महुत खच्छा सपाय हे | कया फद उल्सरही बद्ध'ली, गुणरातों तथा भरा- वी पत्र ऊपने को हिल्दरे से द्वेभशाविक्त फरके सार्वजनिक सखायषा प्रचार नष्ठटी आारम्घ फरगे £ बड़े छर्ष की बात हे कि कुछ दिनों से ” राजसूथात सलाचार * ने उन्नति ऋछाररूस पी है| बरसों की घिस चित के बाद खाज उस सें ' सूलचन ! छोर “ पुराण? देए लेख अच्छे लिखे गए हैं | ससर्थेदानजी की उचित है कि बोरता से अपने पत्र की उन्नति करके उसे उच्च फोर्टे के सराठों चन्नों की तुलना पर ले जाब। कऋारसफ्रेव ! का पंत वी तथा '* चेंडुटेघए का सराठो, गुझुटराती सदुधीनों उचित समालोणक् | री आदर करले है | बद़ालियेा तथा गुणरातियों सें छिन्दी फो सत्ता जनने के लिए उचित है फकि--- ४ छत बाच्ते?? कौर ४ रा्जब्यासलससाचार ” सन्तद्ध पहोजांस, ईजेस से छिन्दी सर सापाओं उथा उन के प्ाएकरों से स्पञथ्े फरतो रहै। - नेह मे ले सबल तक छसम यही जानते थे कि पवित्र दमपति मेंस धे उच्च चित्ररें को, जिन फा पदी लण्जा के सारे, पकबिन्नतर पे ख्यश्कछ से छोड़े सजलुण्धव्य लेखिलों नहीं उधगःछठ खउकतो, धरे खााजर रखने से प० फकिशे!रोलाल गोस्यर्मी ?४ए०) छरते हैं, सजऊे लूठसे हैं, किन्तु अब सालून छुआ कि बला- ल्फार, पाशविक दुराच*र, छत्याकाण्छ, विदृषण अथति के सद्वेगजनक चित्रों सें क्री सह सधिक रुचि से एश्य09 क्र- ले हैं! लोलाबतलोी, लाछइली और तररा को छज्जा यों उचा- छी जाकर सही भो छा सकती थी, क्योकि उस का उचाड्ध- ला पवित्रवा से खुदारसित था , किनन्‍त देखते हैं, गोस्तासी जी को गन्‍दे फिचत्र उछचाउने मे क्री सजप आतर है | कलछाव- ली की गन्दी फझठखेलियाँ खालो लोॉजलाघतलोी के सुकाबिले छे लिये ही नहीं बताई गई, फकिन्‍त उचन्र में लेखक को रूचि स्क* लकती है । णाहानपफरारर ऊीर रोशनओआरशर का कल्पित वच- सिचरर इस सिये उएछो लिखा गया कि ऊस से सारए के पदिि- तर चरित्र पर छाथा पड़े, किन्तु इसलिये फि लेखक फी इस चरणोनो में मज़ा अत्तः है ! को डी चपका फो चक्ू करने की कोड पधए0800 06०४४&0५ क्व थो, ईक्े उठ के दिया नाएठक्ष के सतसासरोचक | हो अचूरा रह जाला + चपला को व्यलछ बरम्बर घचाकर गोस्वासी जो रेनालड को उस घृणिन चत्राई की नकल (फ्ष- दो नकल ) फछफर रहे है जिस से 375 7270७ फो फड्छ दफ़्य पूरे सर्वेत्ताश से बचा दिया। सम्मव है कि गोस्वा- मोर जो इसी राह पर चलने [२०४ [,6० 0र्क की क्क्कल क- रने फो बहादुरी लूट छर छिनल्‍दी सा हछित्य प्हो गन्दा करें आर लोलाहतोी की घद्दच का हार देने की उनसे मअतिज्ञा सी को हे | छक चसरेचार्थ को लेखिनी से-उस लेखिनी से जो जुविलको का आअमिनन्द्व देसी बेर फिसों दैष्यब समाज के प्रंथी छेन्ठ की कलम बन जाती है-एसी घटनाएं नेक्त- लगना हिन्दुओं के लिये, हिन्दी के लिये झौर साहित्यसातज्र के लिये लज्जा की बात है।-जिन पदिन्ोों राज कल की ऐयररी व्ती घरह परफ्ाट॥-9००१ छा खबपद सपेष को खरबरपद कर रहर था, पादरो लोय ऊउरप्ष स्त्रोत को रोकने के लिये उस के विरूह़ु चसोत्याजो के चउरिज्रहुच करते थे। कया छुतार राच्छाचर ऊपे पंलित्न चर्रित्न लिख हे नह सच्छते था हिन्दी ऐसे कासरों की सापा हे 7 यह छे जो ररे बादुशथा ः व्ली बालाओं पर चने च्छ ठे दइलडा सडने ओर आअवलाओंं कुछ कस चर्रानाध्य बगो कहानियां छी झुना छरे ? छसारा स्वर सव्चारखाने ले तती की आधरज की तरह भछे हो छुना ले झपए्ण, फकेन्त हस अपनःर कतनवप सदझमकले च् कि हिन्दी पररक्तेंदी इन प्रपऊचो के बिंउद्ु अपील करे । इन के पक्षपाती कह सकते दे कि अन्त से सच्चे क्ला जोलधाला दिखाकर हम उपदेश करते है, किब्तु इस में दड़ी भूल है, पसलके आज समाहलीचक | १९ कल जी फास कर रहों हैं वह बढए जारी है। फगदगुरु गद्दी के स्वासी का जितना बल चह्दी है ठस से अधिक बल से पुरुच- के उपदेश कए सकती हैं | उदाहरण का पूल भी घडः ' सक्रसक है । सो पीछे ७० पशरठको के जो पर ते! चठना छ- ' ढलते हो वज्त्र लेप छद्वे! जाती है और वे परिणास को नहीों दे- खरे। सलुण्य की पापएवण प्रकृति परिणास से शिक्षा च लेकर यह फहती है-“असुझ पापी का पराजय असुक चूक से हुआ हमसे उससे बचना चाहिये”? अन्त को दे! पक्िये में दे डे देश्छे परपो धो सारने और बीच के ऊष्यायवों में पाप कथा लिखले का फल “कब अच्छा दे या? बीमारी का छाल जानना हो रीग है, छ्ी मार ही शेग के वर्णन मे रोकते हैं | पाप के सास झा जानना होर ब्रा है, उस रहस्ये, से परिचय देाचा ही पाप &। “सुख्यस्तू- पाय एतिेषां निदान परिवर्जेनस्‌ ? इलाज से रीकला ऊऋषच्छा है | परेप कवि ने खब कहा हे+- दशक हैं एक सहाफ्रेशाच, करूप है ताकहं सर्वे यात | ह निछ्लारले सात्र घणाए अवश्य, अत्यन्त ते ही करते सलुष्य | देखे जु लाप्ओ हस जारवबारा, _ तद्ूूपसे है परिचे हतारर सहन फरें तत्ल्थिति केश दधपः से | - सर्मंस अआशलिड्धन दें 'छिया से। प2096'8 ग्रि58989 0०॥ 48 शेसस्वासीजी के ग्रन्थ सर्यवसाल से कदाधि ममर नहों छेश! सकते, यदि वे इस रोति का यो छो शलुसरण फरतलेरहे । ब्र्‌ ९२ समालोचक | '' लारा ?” लपन्यास में स्थल भले ही बहुत हैं। नायि- का तारा विचारी ऊबेच बालिका है जो बात बात में र- स्पा के हाथ फो गूडियां बनो है। रक्षा के मौढ़ छलो में जिस से।ले पन से ददढ् सिल गहने है वद्धी मसस्भव ऊपौोर स- ल्देहजनक है। इस “आओी बैल मुझे सारो” रछग से स्तन च्छों में कूदना नई बात है। और फिर इस भेजी कन्या से रसी- ले कवि ले बह पक्की चिटह्ठी लिखाई है कि वाहइ ! ४ हिन्दी फालिदास की समाऊोचना ? एूछ ८६ में पं० सहादबोर प्रसाद द्विवेदी लिख चुके हें:--- कररूह् पदैपुच्पभान; अथोस्‌ नखें के पिकहू जिसपर सिट गए है इसका अनुवाद किया गया हैः--- “जह छुकुद्ाार छ्वेत होत नहं दाय” अनुवाद की बिलक्षणतप का विचार छोड़ * नह” शरद को ग्रास्यदर को तो देखिए | हमारी जोर के देहाती थो- रूघे हें --- “छल बालन जा नह ते लेके फोटदे तक दांह बरि उठति है” , जो नह यहां जाया है वही मेघटूत के अलुवाद में नो आया है | ॥॒ सरस्वली दे ४, एष्ठ २०७९ में * गधषत के आकार औीर परिसलाण” में सरूपादफ लिखते हे; “झहं भी *ली क्षांलि बन जाते हें इत्यादि” उस बात सें हमे छिशेंष धयपल को कोड़े आसश्यकता न थो किसत छहसारेसे दशनशाःरस्त्र के रसिक को ण्ड देखकर यछ्ठा हर्ष छझमा कि सूरोप ने १६ वीं शत्ताठदी में “ मैलोन्राड्ड ” समालोचक !' १३ लासफ दाशेनिक ने जो क्षणिकर छि का सिद्धान्त किया थर ससक्का जाज २० थवों शताब्दी सें सरस्वती के सन्‍्पादुक कि रूप से हसें ससमथैन सिल यया | सैलोबन्राहू का सत है मन ति कण सें समिन्त सिनन्‍्नत्र सरूण्टि होती है. अयोत्‌ को सत्ता एक क्षया पहले थी, वह अब नदे तरह सिरजी गई हे इस लिए वह नहीं है । ४ ट्विन्दो कालिदास के ससालोचछ ” अगर “गर्सेंसजचार के लेखक” एक व्यक्ति नहों है क्योकि पछुला ४हसारी तरफ के देहालियो?को छिंकारत से देखता डे और ठूसरा- उनके रजिष्टरी किए महाविरे को प्रयोग करता है |! न्‍ ४ मे कह सरस्वती सें श्रवीर ससालोचक का चित्र अब बिलकुल बेसीक़ है क्ये/क्ति पं० सहाबीर म्रश्नाद ने सलालोचना को फलस हे तोड़ रो---- “कलकत्ता रिव्यू” नासी प्रभाव शालो पत्र से सोजा जांयडा जिला सारन के वनोक्यलसर स्कूल के यतरू का छुक पत्र छपा हैं | उसके. विषय से हमें कोद्दे सस्वन्ध नदूँ/, तो भी हम उसे नफल करते हैँ--- ४ जिस अवरत फो फिसी वजछ से लड॒का नहीं छगता ह्ढ वह फिसी बोफ्हा या वरम्‌ह के कहने मे दो राझला के बोच से असनान्‌ करति है | अबर वहा झपने बरण्जर छत दो- खरड | चरके उसी पर नहाति हें इसके वारे अफीन्‌ उन्‍फो हे[ता हे कि जेर इसको पहले लघेगा ऊसिके। इधछ्द देश्ख जिसमे सके लठफा जहीं छवातो हें बह लागेगए आराकी उागरी पसयवारिणीससपझा बेर उचित हे कि स- स्कत की छाउ्रद॒ सिया के लिए दौडने के पहले इन परे देशियें' के! छिन्‍दी लिखना सिखादे-।ै रे ससालोप्क | समालेशचक वे बदले सें ले। चहत्गियी दर्शन देते रहे हैं, उच्छें सक्यादुक और अक्ताशक हृदय से चब्यवाद देते हैं । खच ली यह छे फि इनप्ठी कृपा के बिना हस ऊझपना पर्तेष्य ऋष्ठी धर सकते जऊौर सहयेगियेंः से भी मिवेदन है कि स्मालोचक को अपने बदले में रुवीकार कर उसका गोरण बठाए | ५ डे नेट सह कई सिद्नेंः को राय हे हि ससालोंचक में केवल ससा- लोघना ही च निकला ऊरें किनत्‌ साहित्य के फ्िन्ल भिन्न लेख सी छपा फरें। यछ ४७। ४ ऊछ्ीनें। से.ससालोचछ तौ वैसा ही सलिकरूवो है और यह उंरूघर भी वैसी ही मकाशिद को जा- ली छै । इस पदिलय सें दस घहयोगियेंग, पाठकों तथा छिल्दी के मेलियेंग की सम्मति चाहते है, यदि बह चार्द ले ससलोचनार दो ससालेशचना लिखी जाय; यदि वे चोर्हे तो साचारण सच्द क्ादि के सासिकपत्र का ऋस लिया जाय | अवश्यष्टी ससालेचना को मचाचता (अलि भो) रहए करेगी। बा आज डाक्तर राजन्द्रत्माल्ल मन्न । ( सुसमसालोचक ) किसी प्राचोच संस्कुत कवि चने कहा है किवरसन ही ते विद्यामभ्यास कि वा परभेघ्वर सक्ति का हो, अर्थाद ये दोनों व्यसन बहुत उत्तम हैं? ब॒रे किसो प्रकार चह्टी हें। देश और काल के अनुसार छमारे इन राष्ट्रीय सनुण्यों फो अपने लीवन को सार्थक फरने के लिये और निज जन्ममझूसि का उद्धार करने के लिये उक्त दीनों व्यसन अदलछ दे । इस ससमाल्लदफक | ९७) , अकार के अलेक सत्त प्य छोगये हैं जिन्हो ने उक्त ठयक्नों से छी छयकर अपना जीवन दिला दियए है। डाक्त र सित्र भ्ो इसी तरह के सनष्य थे। इन का जीवन केवल िद्यावयल- साय से हो ठयतोत हुआ है | इस व्यवसाय से छाक्तर सित्र फी इलनी उन्तति हुईं कि इनके सत्य में उतनी फ्िसओर अड़ली को नही हुझे | प्ऩारतबर्ष और विलायत के पठित ससाज सें ऐसा फोड़ स्थान नहीं है जहा छाष्छर शित्र का लास परिचित न हो | यह सल इन के विद्यायीरव से ही छुआ है| भारतवर्षोय ऐत्तिहामिक व्यक्तियों में इस का प्रथम नास था | छत दो अनन्तर बकुदेश में क्‍या प्रतवप सर में कोडे भारसवर्षीय प्रातत्ववेत्ता नछी हुआ | जो दो चरर हैं वे इन के समकालीन छऐी हूँ प्लीर अब सिज २ ग्दहों लें वास करते हैं | मित्र की जीवनी बहुत बडी है उस का लिखना इस समय नहो छोपकतः, तीफो सक्षेप से कुछ दत्त लिखते हैं।- रे डारूर सिन्न का जन्म कलकत्ता सें सन्‌ (८२४ देंसदोी से छुआ था। बालकाल में बाबू क्षेत्रधीष को पाठशाला रे आर गोविरद्‌ विशवाक को पतठशाला में अध्ययन छरना झा रसरभ फ्ियर । इन के साथी दर्गाचरण ला ये | कुछ दिनों बाद छाक्तर सिन्र पढ़ने में बहुत तेज निकले और खूब चित्त लगाकर पाठ्शालीय गुरु की सश्च विद्या हरली । गुरुजी लथा ऊीर लोग डाफक्तर भिन्न को छछ्ने लगे कि यछ बालक अवश्य फोड़ स्वनामचन्य पुरुष होगा । इुश्वर ने सव याकवों को सफछ किया, अन्त से डा्तर सित्र जैसे हो हुए । १६ ससाल्तोचक जब अवरूयथा के सोलह वर्ष हो चुके नव छाक्षर सिन्न ने, छाक्तरो पढ़ना प्रारस्क्ष किया ! उस से भो अच्छी योग्यतः प्राप्त की और पतठशालरा को तरफ से बहुत कुछ पररितेत- पिक मिला | 4देिलायत जाकर पाइचात्य शिक्षा यव्थाथे छहे।ने पर शायद्‌ डाप्तर सित्र चन्वन्तरें हे!जायेंगे इत बिचार से बालू द्वारक्रनाथ टागेारर ले उाक्त्तर समिह्से विला- यत जाने के लिघे कहा आझोर उह रुूइयं की चलने को तैयार हुवे | इस दोक्षा से हाप्कर सिनत्न के सन में घिलायत जानए घर होयवा परनत डःक्षर सिह्र के पिला ने जब इन का विचार झुन्य तौ उन्हों ने इचर उचर की कद बाते कही ओर घसेच्युत लथष्ज्गलिच्युत हेलजाहेकोज़ी फ्लीतियां दों, लंथ जाक्तर सिन्न क्य उत्साह हलत हछोवययथा। ल्यझ्पि उस यात्रा के न धोने से डाक्कर सिन्र करे साविष्यत से सथा सांपत में तो बहुत हानि हुद्दे लौनी वह ईश्वर की कुपा से उत्तम वैद्य छहोगये आर डाक्त पे पढ़चा ससाप्त किया | इस के अच्चल्तर क़ानून पढ़ने लगे,बहू भो घोड़े हो पिनों में समाप्त किया ।यं रहा क्तर सित्र को आत्र पूर्ण वैद्य तथा वकोल सानहता चाहिये । झुतनए पढ़ने पर भरे डाक्तर सित्र को सन्‍लोष नहाँ छहुआर और सन में दिचारा कि अनेक प्नायाओं की सीखना और सन का आनन्द लेना उचित है, तब उन्होने अतिपरिश्नस से संस्कृत, फारसो, इड्भ लिश, जमेन, फू०छच, लिटिन सापाभों भें अरूपपस किया ॥ उस के बाद अनेक ग्रन्थ के देखने में प्रयृत्त हुले और उच से कब्चे एक मसाचोन लल्बों का अलुस- स्चचात्ष्द किया ऊअमरेर सलासो ऐेतति हासिक हीगये | कोर पु सिया- टिक संश्साइटी बगाल के जनेलो में कई लेख देने लगे, यदयां ससाशोचक | ९9 तक कि सरलों तक लियम से इन के लेख प्राचीन तत्प7प- नुतसन्चान के निकला छरते थे। डाक्तर भिन्न २३ वर्ष की अधरूया में एसियाटिक सोस73- यदटो के पुस्तकालप के असिस्‍्टेंगट लाइब्रेरियन हुये | यह स्थानु बहुत प्रतिष्ठित था पर इन को सहज हो मेंप्राप्त हुआ। अध इसोसे छातक्तर मित्र फो योग्पता फा परिचय सिलता है। सन्‌ ९८४४ इसलजी में नक्भ॒/ल गयवनेसेयट' ने राज- खाद! के तथा जुखोदारों के छोटे लछके के लिये एक पाठशाला स्थापित फो, उस विद्यालय के छाक्तर सित्र डावरेकूर नियत हुये ओर वर्हा बड़ी येग्यत्त से करयेफिया, उस पाठश'छऊा से जितने र'छापत्र निकले वे सब याग्य तथा नेज फ्ायो में प्रदोण छघे । फलकत्ता स्यन्िझिषपल कापारेशनम स्थाएएऐतस देने के मांद थेडे दिन छाक्तर मित्र उस के सफ्तासद नियत रहे। ऐसे हो कितने ही अधष् पदों फी इनप्ठीस भपथित किया था जिस का लिखना कठिन है| झाष्तर मित्र अग्रेजी बहुत उत्तम लिखते थे यह उन के शत्र क्ती ल्‍्वीकछाए करते ये | इन्ही ने एसियाटिक सो सायटो बद्भाल के द्वपरए बहुत ग्रन्थ शुद्ृकर फे म्रकाशित किये हं। छर एक ग्रन्थ के आप््म्फ्त मे अतिदिय्तत ससिका (7 0<(४2- ८०१ लिखते थे | उच मे ग्रन्य वी बहुत सी उपयोगी बातें तथा ऐतिहासिक खोज अति उत्तसतां से रहा करती थी । यदि छष्क्त र मिनत्न ने जितने ग्रन्य सस्कस के प्रकाशित फकिये सोर अग्रेजी अल याद किये छच्च फा तथा फटकर लेखी का संकलन बकियाजाय तो दो हजार निबन्च संख्या होतो छे। १८ ससप्तालोी चछ् | इस के सिद्याघथ साक्षर सिन्न के स्िक्षसिसिसल ग्रन्थ ये हैं- # [000-4वै"'फ्ाड ” # उपपेतायओ (छघछए७ ५ 4कध्वणरााढ8 (27558 ४ 'च०घठ668 ए छैिगाडंटपए० शैं0प्रडटा।ए68 76 ऐ७]0७- ]6886 उिप्रतते।8ड0) 7४८/वप्ा'8 चदछु सद् सहा ग्रन्थ हैं इन फो देखने से हाप्तर सित्र के पमाच ज्ञान का परिचय भमली भांति 'मिलतर है । ये सब ग्रन्य बहुत सान्‍्य हैं जितने ऐलिहासिक ह्ंग्रेज हैं वे सब इन चन्यों- का अपने निरूच्चों से बहुत भसारणा देते हैं। यह्ञां तक कि ऐसा फोडे | ऐ तिहा- सिफ सिश्रनल्च न छीगा जिस में छाक्तर लिन्न फाो काम घन्य धाद के साथ ना हो | - स्खथमासचन्य दाक्तर मित्र, लूडन्ग, अमेरिका, जसेच आदि देशों की सभाओं के ऋानरेते सेम्बर थे | और फ्लो फहे सभाओं के मेन्बर थे जितका सकलन करना फठिन हे। इसघी सन्‌ १८७४ सें फलफप्ता युनिवर्सिटी ने, छाक्तर सिन्न क्लेए “ डाक्तर झाफ़ काज ?” की पद्वो(दी । और गव- 'गेलेक्ट से (०777 ) और ,' रॉयबहादुर ” की पदवी मिछी | जब ' राघबदहादुर ” फी पदुवी मिली उस ससय बच्चाल के लफ्ट्नेन्ट गबनर ने डाचक्तर फसित्र फो बड़ो स्तुति की और चन्य्वादों से वपपकुल कर दिया। डाप्तर राजेन्द्रलाल सत्र समालोचना के सिद्धान्तेः के बड्टे पक्कू थे। उन की दृष्टि में इस देश के बासियो में जो भूलें थीं, उन के प्राचौत सानने सें जे! आपत्तिया थी, उच्का उन्दीी।ने दिनचा पक्षपात क्ते सी कार फरके खयडन किया है| और फिसी सन्त षय के। यदि ऐसा गुरु कार्य सौपा जाता ते वह र््वदेशिये। के पक्षपात म्रभृति से- अपने विचारे के शुद्ध न रखा सकता | सालो चक | ९ छाक्तर सित्र ऐसियादिक सेासाइटो जद्भएरक के उक्मापति प्री रहे थे। यह प्रतिष्ठा फियोी सादइतमासी के लःण्य मे चल थी। सन्‌ १८०९ फो झुजझादईं से सिल्‍ऋ्र के से सटसयग्लेचक का रुवगेंदास छेयया [!! ( शिरजां ) ० सोष्ह्घ। ( 3॥ शाह पिएछ०0) ४०वें ) “सो5छथू” वह मे छू-यछ बात भारतदपे के हिल्दू को खिवाय और कोले उल्टी सहलर । इसी लाल के कटने से ऐछ्ि- न्दू, छिन्दू ले, पत्ती से हिन्दू का दिन्दूल्व है, हिन्दू कर हिल्दू- घस है। 'सोडएस! हिन्दू का लक्षण है, हिन्दूत्ल फा लष्छय छै, हिन्दूचम का लक्षण »े । - बाल क्‍या हे ? सर समर लेनी चरदिण । मे ब्रह्म छोर ऋष्गाणड, रूण्टिकाचर दौर झछि इस दीन पर कया भेद हे ! छूघा सब्यन्ध हे ? छस घिघय में प्रधायल' दोएरे सत हैं । एफ चतस दी यह दे कि क्च्थाणछ झोरीर ह्ारण, सलष्ठि- कप्तों फीर सछ्टि एक ऐी पदार्थ हैं रपन्व ऋक्य हो स्पण्छ कर उपादान छे, रुछिकतसो ही जाप्ठि का उपरदाधप हें | चपदाद किसे फछते हे! जिसके द्वारा फोह व्रत + एसिल छो बह उस वस्तु का चपादान छे | जैसे उफतिका घद़ दाए उफादान | फल एवं छस चल के ऊजुतसार त्र्स की पदाणे ६, कअह्यप्यछ इयर उसरे पदार्थे से बना थे | लच्जाण्ड अचछ्छ ले पयक चही डे। इस सल के बारे से चछझ्दी शकाच सात है; इस शलजसलच मी फेरे भर अवान्‍ज्तर बालेंद्हनचा ऊादश्यक ईरत्यी झाणेपही फाशे- सो | दूसरा चल यए के कि झ्जय ऋच्चाणछ से, र्ूण्टिफसर स्ट- >> ्‌ु २ २० ससालो चदठ | फिट से बिलकुल पथक्त_ दे । स्ण्छटि के पहले रूण्ठि का उपादा- न कुछ भी तू था। सरपण्टिकाल में प्प्टिकर्ता ने खपनी झऊ- सील शक्ति से लू सालूस फैसे जगत्‌ बचा दिया | रूप्दिकर्त्ता स्थयं जो वस्तु 3, रूण्द जयस्‌ बह छधब्ठु नहीं डे; उस धस्ल से विछकुछ एथफक्‌ और सिन्त म्रकति फी चीज है।इन दोनों सत्यें में प्रघधम सत हिन्दुओ का है, दूसरा फृलसान मभप्ृति पा । यह नसष्ठी कि म्थस सतल पज्ञारत से बाहर फप्रीर छह प्रचारित ही नहरें हुआ । व्वत नह हु कि जैसे यद्ध भारत सें पल हे बेसे और कहीं नहीं | इसे फछिए चह्द ““प्ारत यर्य के एिन्दुओं का सत” इस चास से मसिहठ है | दीनोां नतों में फ्रीन सत्य हे! क्षीन अछणयीश्य से १ छस सत छ्तो दो प्रकार से स्ीसांसा छो उफती है मोर दोनरें ही सरहष् से हिल्दू पर सल छी पक्का समालूस छोता हे । पहली बात यह है कि जगत यदि जगदीशबर से एघक_ है लो सिर छगदीश्यर मसीस नहीं छो सक्षता, उसे सत्तोन हरेना पड़ेगा | जहां दो बच्द लो वहाँ पोई की सखसोस चह्ठों दो सकती दोने ही पदाथ्े सस्ीस क्वलोगए | कूस्तान प्रेभ्नूृति सपरचसोचलच्णी यह फहते है कि जयगदीघदर जगत से ए- थदः हेश्कर क्ली जगत्‌ सें विराजसान है झतएद ससोस नहीं ड्डे | किन्तु फामतल से उलेन विद्यसरनच छीन7ए अरेर जगत छी- सा-यह दोनों एक खाल नहीं है| | खत झुघ पागदोश्वर य- दि ऊगत से फेदल विद्यवसान हो है, जगत्‌ चह्टठों है तो जोग- द्‌ में सूयदीश्वर को छोछकर फुछ फौर क्री है कौर उस के होने छी से जनद्ीश्वर की उसीस छदोसर पा | जहां दो था उससे रचिक वस्त हों, वहां सीसाान प्परिष्ायें से | ससालोचफ | ९१ दूसरे बात यह है कि रूण्टि का फोडे-उपादान सद्यी था, इस बात को हस पादना नहीं कर सकते | फ्ोदे वस्तु एक बेर कुछ की नही रही हेश यह कल्पना सनुष्य को शक्ति के बाहर है, सलुष्पय सल के लिए असाषच्य है | सन्तुण्य उसे संतेष्य नही सफता, इसको चारणा चहीं कर सकला, सो णो कुछ नहों था, बह अचानक हो पडा, यह बात कैसे सन में आले?!। जो इस सतल के पक्षपाती हैँ बह कछले दे कि जगदीश्वर को शक्ति ऊसोल है, उसे कुछ भी असाध्य नछी है; ललुष्य जिस जात पो ससफर प्री नछ्ठी सकला,उसे वल्ठछ अनाथास कर सकता है। अतएव शिसखलात की सनुष्प चघारणा नहीं कर सकता बह खअससरूसल वा ऊअसत्य दो यह कोई बात नदी । यह हे से! दीक फिन्त जगदीशख्॒र के सब कुछ साध्यायक्त है, यो सालकर सब्य कुछ उससे किया यह फछुना कोई काल नहों | विचार फरले छी जो घह सब घाुछ कर सकता हे बढ़ी उसका मकत अखीसत्य और प्वनन्तत्व है | किन्‍त्‌ असोसम भर असन्‍त जानते हुए उतने सल कुछ किया यह साननेफी फीचे आावश्प कता नही | ऊतएवं जिस भणरली को रए्टि पो सनुष्य दूक नही सफते उस प्रणाली से जगदोश्वर जे राण्टि नही को--- यहध् कछना ऊगदोश्वर की शसोसश्ति और उस के अनन्‍त- सन का अश्वीकार करना नहीं है । यहा विचाये विषय य द है कि झिस सत के सनरसार स््ण्टिक्तियः सनपष्य के लिये वुर्लाष्य है उचच खत के. अवलस्थवन की आधण्पकता हे कि छी | मत्यत्तर सें सब ही यो कहते हैं कि स्टृष्ट जयत्‌ सम छउटा जागदीश्वर से इतना अचस असरीर चिरूष्ट देँ कि ज- गत जअगदीश्वर की एक पदुर्थे भानने से जगदोश्वर चर समचछोपदपष्त | कल सिवान्त ऐो अदलाशणबा क-कली होती है उसे सि- तान्‍ल ही चल साधचश३ पड़ला है । किन्तु जयदोश्वर आयल घदाणे का स॒/्०ज्टफचलर है-ये! कहने से जयदीश्वर की कयए सलनी छू ल्‍ साचरना चहों की गदे, उसे ठलना ही ऊयस सही दिलाया गरए! कया केंयल अधथस पद्ायथे होने हुए से खण्म होना डोलार है, जच्न काये करनी अथया खरा प्रदुधय छतलस फरद से कया छाल नएों होनएर छो- चः! लोक मे रशली दुश्चश्चि ऐोने हो से जचघस होता दे ! उच्चरिन्र होकर भरे यदि दुर्नीछियु्णे पुस्तक लिखें लो कप अचधम चएछी छुए + लरे लगत्‌ को आपकृष्ठ पदार्थ कुकर इ- से जगदोश्वर कप राप, सिेकाश वा लिपच ना कहने से, इसे ऊूणष्द पदरथें ही पहने जे व्या चैश्चए दो सान जा गीरव को रक्षः होनगदे ? जो यह ऋछले ६ सच के पाल छस नहा स- सम सकते; सबसा बोलिशास्ज व्हेला ह खो वही जाने, उन व्या सावचसयोद्रः लिपयप्ठ ससक्कार केसर छे सो वही कह स- छठे हैं। इस दिषय से पीर जो उचक्तठय छे सो आगे चलकर (3 5] कहेंगे | परज्ल दने/ सते सें फीन उा शच्छा है इस फी सी* सांसा फरतने फा एक ऊझोर सच्छा उपाय ले । जरा उयान ल- यत्कर देखने से जानश पाश्सकता है कि दोफें सलतेः ले दिशे- घ पार्थक्य नही है।जयत्‌ णछायदरिश्यर छ्ता रुप दिककाश बा दि- बच्चे है, ये। ऋहने फप जो अर्थ है जयत्‌ जयदीश्घर की सह॒ण्ठि है यो कठ्टनों का क्री अचे प्राय। वछ्ी डैं। खष्टि औरेर रूण्टि- कर्ज के बीच हें कया सम्बन्ध ऐें यह एक पार्थिव दुष्टान्त ह्ारर लत कछ ससम्य0 ज्ञा रूकता ली। डहोीकमपियद उसधनसा समात्ठ/चक्त | २३ शेवसपियरत्व एक पठार थे हे | शेक्लपियर रचित छैनछेट कर चरित्राद्डन आए हो पद्रथ के | इससे कोई तन्देह नही फकि छसलेट शेक्सापियर से एथक पपरथें छे | छैललेट का चित्र शज्ञन सब उपकरणों से छसहर छें, साखस देता हे कि स्वयं शेक्स +रैेयर के चरिन्न से घह सल उपकरण चत्तें ये। इज अथोे में शेक्सपोसर ओर हेमलेट दे। सित्त पदा्े है | फकिनत और एक अर्थ में दान से बडी दिख्िन्नता नहीं है- णार्थोच हे- च्सपोयर जो है, ऐेनलेट भरी वह्छी छऐे । ऐमलेट के शेडघपीय- र से रिन्‍र छोले पर की छैनलेट ले कुछ ऐसी चीज है झो शेक्सपोयर से ही पाई जाती हें झौर फिसी व्यक्तियों नहीं पादे जपदी | उस '“झछ चीज” का चास शेक्सपीयरत्ब, हे क्सपोयर झर सार शेक्सपीयर की म्थयिसज्छकर था शेद्सपी यर का शेक्सफेयर-जो शेक्सपोयर का कोई एफ पाय दर कार्यव्िशेष नहीं हे जो शेक्सयोशघर के सफरभावय फोर सकलकाय से है, जिउके गण से शेक्सफोवर छे पा शे वसपीयर के भाव है, और किसी के या और किसी तरह फे प्रात नही है, शेक्सपीयर वे फॉोये शेक्सफीयर के पी फार्य है ऊोर किसी के यर और किसी तरह के कार्य नही हें, बच “कछ चोंज'” अथोत्‌ बह शेक्सपोयरट्व शेक्सपीयर छा सार, शेक्सपोयर की अशिथिमज्जा वा शेक्शपोीयर का शेक्सपोयर खाली हैचलेठ में ही नहीं है, शेक्तपोथर रचित छोटे कड़े सलेलरे समर चरित्रे। से छे-लीयर से, शिरणडा से, प्हालण्दाःप्त में, ऋोवेरन में, सेकबैयथ, सेकछफ, शाइलएकऊ सब चरित्रा के | सिल्न रचित फिपो चरित्र में बह शेक्सपो८षरनत्व नह्दीं अर शेक्सफपीयर रचित सिसी चरित्र से सिछ्तत्व नहीं। ( ऋसश; ) २४ ससालोपवफ | जातीय-साहित्यालोचना की आवश्यकता ! ( अलुबाद » कुछ लोगों की साहित्य पद का अर्थ सुपस्िचित हे घर क्री उस का लक्षण बताने के लिये हमें कुछ थोहःण बहुत परिश्नस स्वीकार करना पड़ता है | इस उठाए हुए विपय प्होी आलोचना में सुभीलः हो, इस ईलिए बसेसाम काछ के एक सचघाल लेसक फा सत सक्तेछ में विवरण ऋऊरते है| ह्ी- पदकोछ ख्रक साहब के “ साहित्य में घसे ” और “ जीवच में चघसे ” दाचव्य दो व्याख्यान पुसतकाकार धकाशिल जुए के इस से से पहले में वे कड्टते दे-लिसिल बस्लु सात्र ही साहित्य सही हे । सास वी कछेख में कुछ विशेष शुण रहना आयध्यफ है| पहले मतिपाह्मय दिषय का उच्चस्थवाल्यक्त होना रैर उत्तें दर्शलाचछल से जिद जिन सिघयरे की अवता- रचर की जाय थे छन् सब का उच्च काल और उच्ध चिन्ता से _ पूर्णा हवाला | दूमसे बर्षेच दशा हो जल्‍द पझावा यश अश्लो- लता से बर्कित छ्लेःनए, संयल जौर लालित्य पूछ हेाना आए- घश्यक है | सल दिपय के चाररें तरफ उसके सो भाग छेसे सुधण्जद़ु और पललवित छोकर उठाए जाने चाहिए कि पढ़ते प्रमाण हो पाठको के सन से स्वभावहइन्द्र बस्त के देखने के से आनन्द का सचार है जाय । शुबदद जीर अलड्जारों का विभ्यास, फोर रसों का तसा- घेश करके विपस को ऐसा सरख झकीर स्पप्द करना ध्ोता हे जमा समाजऊी खष्छ | २५ के उसे पढ़के पाठक यही समझे कि लेयक ने सगात्मानन्‍द में उब् छर विषय नीोरव मे सत्त छोष्तकर लिखा है। भथ्ष से है बात लो यह है कि साहित्य फहलाने के लिए उस में कल्पना शक्ति की लछोला खूब खेलती हुझ होनी चाहिये । इस फल्पना शक्ति का काय देश मकार फा है। जिस ग्रन्ध सोशल को छोटाडे बाई से एकटही विषय फिन्त २ लेखकों के धााथ से सरस था नोरस हो जातर छें, उसका सूलू यहा क- ल्‍ल्पला शक्ति है। क्ाद के खिलासो फो, कस ज्यादा अपने स- झिनिष्क सें छुल सब शी अल्ुशव करते हैं, किन्तु उसे सुश्ुज्ञुल और खुललितल भ्ष्षा में व्यक्त करना किसने छारदलोी जानले हैं कल्पलर शक्ति का अपक्षरव हो चसका कारण हे |जीन शरीर में जेसे रक्कलसज्चारून डोता ऐ, भिन्‍ला ज्येर पक्राछराशि फ्री वैसे ही छलपनचा शक्ति के द्वारा उपाप्त और फलमानित देते हे | यद्ठ छकल्पना शक्ति ही साहित्य फा फस्ाद्य है। किन्तु छ- खक्कई एक ओर प्रधान कार्य है----इसके बलसे हर लेखक आए- दुर्श पदाय की सुण्टि कऊरता ऐै | एस साछि कर रथ पेंकेलरे नए पद्श्य का बनाना सह्ठी है । दृश्यसमान वल्लु॒ओों के स- प्प से की यह सछ्ठि क्रिया 'सिंद लेश्ली है। जब कल्पना लेखक के हद्य से आाविक्षल लेती ले, तेः लह छसतः हे, क्षेता है, ऋोच से अधिकद होता छे। पेसादेश से छिद्टूल द्वोता है. क्षय से कांप छठता हे, जहाँ जि प्राव का मयोजत हो- ता है, उसे छी उसकी लेखिनी सिक्ाल देतो छू. भाव क्षे शुरू ऐोने से लेखपफप्ा प्राण स्वर्गीय झानन्दृक्ता ऊप्तीग करता है छल्पनां। यदि घिकत सस्तफ फा आअधश्चरगण न फर. से+े हा र६ ससालोी यक | सखसफो किया झसबाप्ताधिक खिमस थे छी होती है इससे रृष्टि वस्तु भी सत्य होली है। लेखक प्षाव में शरावोर होकर, था नन्‍न्‍द्‌ से सतवालर छ्ोकर को लिखलर हे, दह छुन्दर ही हो- ला छे, क्येंंकि सीन्दर्ण अन्तन्िहित शेंस ऊीर आनन्द का बह्िविकाशनात्र छे । इस कझौोलदर्य से जोवनख्तेल सदा बह ता रहता हुं, यहां तक कि जो इससे रपश -करते हे उनके प्राणे। में भी सजीवत्तर झीर सरसलाग संचारित दोजादती हें। ये सप्॑ बाय का ध्बवंस नही द्वेला वह सदाही रवीन रह लो हे। स॒ुग यूथ से यज्ञ सासद प्राण में उद्दीपना और छत्त जना का संचार कली हे।घग यग में यद सानवमाणों पर सात्त्वना कफरोेए शान्ति की चारा सीचती छऐ। कहना फज़ूल है उच्च अद्भ के काठपय में ही यह सब गुण सेलले हैं | इदचीसे अ्षक साहल ने काठस को छी उच्चतम सा- छितल्पके सथास मे ऋलिधघितल रिया लिजले हें--यह गुण यदि सब न होंतो साहित्य से कुछ लो होने ही चाहिए । शिस लेख में इन में से एक भो चही बह सामाजिक छा ठयरवारिक दकृष्टिसे उपकारी छा ज्यलोद्मनक हे सकता है, किल्‍त्‌ उसे साहित्य न्‍्यव नही दिया जा सकता। ऐप सलिम्मश् री लो ऊेख और ऊपर कहे झुए उच्च अज्गभ के काव्य सें साहित्य के कटे मेद्‌ दिखादे देते हे | साहित्य फे इन लक्षणी से म्रतीरल होता हे कि सासव- परिजन, साभजसझाज और तत्संखुष्ठ जगत्‌ प्तो लेकर पी बह ( ऋनशा। ) ॥| आओ ! आर वज्ञापन घं० सहावोरप्रसाद द्विवेदी को फोन नहों जानता ? घह् हिन्दों के बढ़े प्तारो फवि हैं | उनफो फविता से जो शब्द्‌ का, अलडद्भार का वा भाव का निपम्चताव होंता हैं बह फीर जगह सिलना सुश्किल है | उनके कोड ३० करवयों कर संग्रह हमने “काव्यसज्ज़ूधा” चास से छपायों है । टाइप, कागज, सब कुछ बहुत्त बरढ़िय है । कविता के प्रेसि- ये के ऐवा सीक़र बहुत-बिरला सिलझला है जघ वे ऊच्छे कदि की अच्छी कदिता का अच्छा संग्रह पर सके | अब उनको सेक़ा है, उन्हें अपनो२ रुचि के अनुसार बहुत बढ़ि- या कविता ए' सिलऊल सकती हें | उन्हें चुकना नहों चाहिए आर मरूटपट |) भेजकर एक प्रति खरोद लेनच्नो चाद्विए । पुस्तक सिने का पता--- सेससे जेन वेव्य एण्ड को जोहरी बाजार जयपुर छ ससालेःचक का प्रथस प्वाग, अर्थोत्त प्रथम दर्षे की फाइल अहुत बढिया लेखें से सजी प्राध। ३०० एण्ठों फो है । सल्य ९) जल्दी संगाइए, फापियां बहुत थोड़ी रह गई हैं । ' मेनेजर । समालोचक के लिए अच्छे औरेर रूदोकृत छेखें के लिए ससालोचकवित्ता मूल्य फट दिया आसगा | छेख चाहिए ?! मेनेक्कर जयपुर एजेन्सी । यादें झापको जयपुर फी प्रसिद्ु दुस्तकारों को चीज़ें संगरनो हें तो उचित है कि और जगह ठयथे अधिक उ्ण्य ले करके छझुखारे यहां से झच्छीं चोौज_ संयवश्ले | दाम उचित लगेगा, रोज ऐसी एसिलेगी कि जिस से जयपुर को कारीयरी फा चसझ़रा। जाना जाय। सांयानेरो छोटे, पत्थर मक्राने अरेद पीलल की छूत्तियां और घरतसत, लकटड्ठी का कास, सौसे को सोचाकारी अभति सब चोज़े उचित सूल्य पर भेजो जा पतली हैं | यदि ऋाप यहा से संयवायेगे तो हस विश्दास पदुंला सझते हैं कि खाप चोखर न साय गे खीर उदा के लिए जरहक हो ऊायेगे। जयपुर के झुन्दर दृश्य के शुन्दर चित्र अलरूय झीर शेसिसरस्िकि चित्र सोर फोटो, हाथ वे घनाई बलढिया तसलचोरे, आपको आज्ञानुसार फ्रेजी जा रूकती हैं । सुफ वार सगाइए तो | इसारे यहां के चितन्न आय इद्भधुलेएड की जाया करते है और सुप्रसिद्ध सित्र पत्र से उत्तक्ों अच्छी क़दर फी है ॥ मेस्स जैन बेद्य एरड केः जौहरी बाज़ार जयपुर इधर देखिये ! झाप को हिन्दी का सच्चामेसी समककफर हनने आप की सेवा में यह सतालोचक का दूसरे द्ष का पहला फड़, समिजवाया है, आशा है जाप जैसे उदार और हिन्दीहि- तेपषी स्वोकार कर छस लचुपत्र का गौरव बढ़ाओेंगे, फौर साथ ही स्वीकार पत्र वा झतति झल्प मूल्य १॥) भेजने को ऊपर करेंगे | मेने कर भाधेना सजिल सज्कन॑ हिन्दी अभियों से मपना छिसादय साफ फर प्रधम्म वर्ष का मल्प मिलवा दिया है उस प्तो चन्यवाद हे । छद हस उन सहाशयों से क्‍श्रार्थना करते हू, भी घराधर प्र लेते रहे सौर वी. पी. जाने पर छीटा दिया, मूल्य सेशने सी रूपए फरे यार छूसारें पत्र वापिस भेजदेये | खनेशझर 4 ३ सा ः 788|5(087"8[४०.। 25 ह ॥ 8508 ली ज कक हे 73 ९५३४ मे शप्है कि व 5 हक, हर पट) जरा ला सा सका 2 पी नि मी. सं. मम साआम ० मम नील नस पक अल बन नि वियमकदयलर कंगबशरपऋहयामहन्‍क "मकान कभर्याएल०- न. दर -यदडिदरफिगाटथ रीयल पिपमी कर्दतंक: फर्मिक्न "0 क्ा८<-पूकरक्कलरी वर भहल्‍+नमागूजट कभी ज >अणा सया मभभनान-- सन वंअध 9०००5 ॥# ४०० न भाइन्म ना. -भतायाक-दाभा ७५ >न- (“गा +००+ -नथ--६७ हे कदर डट 40४) (2 सटे. ४८2) के फजजर 5. फम८ट 5 री तन 0 पट अख हिल जप ८) २०-५५ जय 7 न रू 2 23 ६53 डे ५ | 4 पिश्टा का कि कि, मे 2 बे क जल (0४, ग 004) १६१ ९2. 3 ४ ्् / (८ ध्ट मि। 4 | ४ ++ | ः ही 2 ् ष 2 । नही हि हूँ. रे ' 2 57 कि रथ नह व | य प्ज्‌3 पु 4 पा ( ह का लिया पी १क. ट्‌' कप) (50 «७ लासिंय पक 5 2७9 #क दिस पर्स का 2७-०->>>>म+- न ८ | (१ ता न ५ ई$ | (2) नीरकीरायियेस हस्दाइप्लस्य त्थमेण लनयें चेन । ( ( ट््य विश्त्रस्मिप्नचुनाधनय कुल्चन पालाशिष्याति क्ष ॥ *| । ! 3५5 ट | ०. ।|क्‍ कि | भामिनायिल्‍्चह |। ५ हर! षे जिन 208 २.5420८.06442224202 520 24:580/06404:4502.८0 20 202००६/६ 7? ४ 2०० दस न्‍म 5 | खितस्वर १६०३ | आइ रेड पा फिट झाराा | पद्पल स्टार २००३६ अडू 2४ ४८ हा आज हि कि का न] हे ८... 52० 70 ६ (४ पर ल्रचर कु ए कर्क एक ज्क र ज्ज़स्फफ्फ्र्क्ज्क्क्क्क ज्क्क्क्ा+_॒ 7, धि ल््स्ल पृ -। कप ढ। दल, बी. " ! + पं ' ४ ट्प्पाणएणया जूक 2 स्स है | प्‌ रु ४ हे हज हि पसल्ट्रप्वली को खससालोपघनागः हर 9 “7 प्र ५६१ रत पास उु्ले +ई, हो, ५, ५ ॥ ध ! | ६: झ प्रोी5एथू ४३९ जे ; छठ 0॥ - शिह १.७ -< ल् थे जाती पसाएित्यष्छा दध ना पी आायश्यफर्ता ४६ ,: । कर +. तप कण है ई ४. पिज्ञापर ऊोर प्रा प्विरयोंपपदा अापरदि ६१ :, । न ऊँ ध १ तक ध्क थ ् पु कह; न ड्ज़ जब ए ब्द्ा 228 नह ! (पी १ प्रीपाइटर ओर पकाशब 2 स्प् हे ९५ रण रा खीएतसलि०्सनवबच अाहरी बाजार जघपुर पर प्‌ ष आप ++ अाकऋ-.. ++ न ब+ +#क अर न 0 पलक, (बरक अब ४7 हल के ; 3 ९, | ु [., ८ ही, प+ हि ु ि निधमाचली | «» »« १-- समाल्तोचक ?” हर >अग्रजी महीने के अन्तिम सप्ताह. ४ निकला करता है ॥ ह के २--द्वाभ इसका सालाना ( ॥ ) है, साल मर से कम का कोर आहक ये हो सकेगा ने >) का टेकट भेजे विना नमना पा सझगा। , ३--४ समालोचकऊ ” में जो विज्ञापन छपेंगरे-लनमे कुछ. भा मूठा व अतिराज्जत होगा तो उसकी समालोचना करके सबे- साधारण . का धांख से बचाने की चेष्ठा क्वी जाथगी $ कोड विज्ञापन बिना पर्स « जाच ये नहें छापा जायगा.॥| 3. , शा 2--आदई छुई वस्तुओं की बारीर से समालोचना होगी, किसी की व्यक्तिगत विरोध से भरी वा असम्य शब्द पूरित प्रमालोचना नहीं छापी जायगी, जो समालोचना “न्‍्यायपूृर्णा और पक्तयृतशुन्य - होगी बही छापी जायगी ।॥प्रारित -पत्र। के मतामत के उत्तरदाता स्रणदव' नह हैं ॥ “- कम जो पस्तक ब योथी जघन्य अरग्रेवा महानिन्दित और संये साधारण के लिये अहितकर होगी उप्तका अचार भीर प्रक्नाश॒ चस्द -करने के लिये उचित उद्योग किया जायगा । जो अत्तेमें, : उपकारी आर सर्च सावोरण में प्रचारयोग्य होगी उप्त के प्रचार, का उवचिेने प्यल किया जायगा | इन, पम्तकौ के सलेख छा की प्रशंकाएश वर पररकार प्रदानमंद्रे से भी. उत्त्ादेत फिया जायगा ॥| 2 इससायलोचखक- मे विज्ञापन की दर 2. 5४, ्‌ हि 295 - -.. - संदलोी,खार प्रश्िपाद्धि " मजे का, ५, छो यार की लिए . ह ही लि, /... छसे विक्कापन फी युटास भर) * खुद चर के खिये धफ पे “ रे ्ि ई६->-संसालोचद के लिय लाख, स्ताचाशएपर। उस, पृलया।। ६. आह होने की सिट्ठी, पत्ता बदलने के पत्र, विभाषत के- मामले रह सिटी, पत्नी, सच समालोचइक के ,मैससर मिस्टर लननेश ह जाप थी जार जयपुर 3 हे पने पर भेननी चाहिये के. मअनखर ७.2 #. समाडोचक । 5६ ४८&द&-४<& 8“: <८्- भागय २ | सितमरूदर ९७०३ [ यख्या २४ सम्पादुष्हीय छिष्डणियाँ सस्ालीयक होना मह॒त्च फथर सी छे | जोन्पन साछ- ब्र फो कुछ्तो पर दीठना कठिन क्ाथ्यें है । सनालोचक फाए चित्त सऊदार और साय विद्या लॉदि दा हागार चाहिये। घिहारत्नल्चु ९प। ८ ०३ गजल बार पं० किशोरी छाल गोस्वानो जो के उपप्या- खो पर की चोट लिया गया था छससे एऊ भर रधुनके एऐे चपलछा को लज्जा नहीं के गऊ छ्लै, ॥दःच्छ्ु चसदी य॑ सीदागमिनी फरीर फासिनसी का सदीत्व यन्‍दी सलरद्ध खतरे में लायर गयए है। अय एस चपलए वे प्रकाशित दो भर्गी फें घारितरोों को सन्चोक्षा में कुछ एेखसे में समर्थ ५ । सचनत सो सहो जशछभना के दि उपन्धौय रा साच पघणएः कक. री दंपर सृदरफा शा शचट्यचदा के १ पल 0 पक गज शीट दबर सापापतसार छोगमसर फोर छ्े उप पाएइशएण एप फाएए "०५४८2 ५ करे फो् चपला फी छ्प सेगयार ! दाग, ताएउइफे 0 किये का उपन्यःस छो साथ छा परइृनत्च न ॥ | दे एच हायिफा टर हर जार न यह गे भी इसे यछ झाशा सटी दलों पि दा क्ासो श ब प्रो स्सरे भ्रे दी यरत् पछ्ट्ये। गे फो लेए दा सं ८ 20 मम कली ( ३० 2) भाने हें । हां, छपन्‍यातों की सायिकाओं के लिये गोरदा: सरे जी ने उये सियम बसाये हो लेर न्‍्या कलर | अब, दुभोग्य के सारे शह्लस्प्रखाद और येकयसायार को छेषड फर बाको चरित्री को ते| ज़रा लेाल देखिये। छरमसादुू-- शछ्ू रमसाद्‌ का ज्येंछ्ठ पुत्र । फ़छा ओर योग्य, सादे को कलोकरों ऊगछाता है, फकिन्ल उप पर जोट चुराने का फलऊहु वा सन्देद् लाला है| बहा हो गर्सोर है, कज़ोंदारो के सही गिनला, शिन्तु घरपर ऊपएथत्ति का पहाड छुटतेही सतो-.स्मी (जिस से वह्द कद बातें छिपारछ्ा थर ) और अनाथ बहनेरे के लेाड भागता है। कैसा अपस्घद्ध चरि ञ्छे।- शिवप्रचाइ-- शा दे की पझ्रक्ति से, सपसपर नोट की चोरी का सन्‍्देह छहीचने पर क्रो, स्वयं ऊापत्ति आता हे, आर इस ईनिःस्वायेता के कारण जेल जाता है! सालती-- छरिस्पाद की स्त्री खादु्श हिन्दूरमणी, पत्ति रु को दिवदा साचकर सखिशलास छफरने वालों । ४ अपनश गछ्चनरइ कील कोल बेंच देती के, जनाव चन्‍दों केश स झाऊती है, किल्लत पति का दखि- घतास नही दादी और छ्वय रोग से पोडछिव छोतेी हे | & सीदासिनी_- श्यलदिचवा नमद्‌ शोहदीं के द्वप्रा छेंडरे जाती हैं, चाचा के हृए्या बेइडजूल छोती २ यचदती है, सत्यानः्थ करने दाल्ले ओीनाघ सीर फमलकि्शोरकी घष्सा देकर पायतली है । ५ कासित्ती--रक्षत्री फन्‍या छोने के कारण कुसारों | (३९) हरिपाप के अद्भण्ट्यज्चुम्बन को सहन फरती है और शआ्ीनाथ क्ऊ॒क्तिशोर के द्वारा नज्गी को ऊअपकर देवों कलाही से हरिनाप के दहरण बचादे जऊातो है ! हरिनाइ--एक &००वे 9 गणा8 निल सिट्छी चची आा- दूलो, जिनके उदय से दया है, किस्त फसभ्य देह में दिपी हुई | उन्‍देह होता है, चमकी दुया रूवा- भाशिक न थी, किन्तु कासिनो के अद्भप्रत्वद्भचु- सजन के खरोदने झा उपाय था क्योंकि वे एक ब्राह्मण को लत्ताप्रहार फर चुके हैं । वे बड़ी पै- रखी करते हैं असदयाय फुटुम्ब के देश्वर हैं, कि- न्तु सिड़ी की तरह विलायत पागते हैं। फासि- नी को पाशविक अत्याचार से बचाते हे । ओझनाथ-- दुराचारी, लष्पट, नरपशु | नवलकिशोर-- चरपिशाच, उसका सित्र, तयेव च | रसानाथ---शु राय स्य््ठ | । जशुलाब-- श्मानाथ की सक्ी, रसानाणय के व्यक्रिचार का द- दुला लेने के लिये नौकर कमोने संभ से फसतदी है।( सब से ग दुएः अश) । # चसेली---मलाब की ननदु | दुराचारिणों, लेहर मे रह कर बविगडी हुई, पति का स्परश उसे फ्रांट सए सालूम छोचा है | चोस्प पलि को छोड़, औरस पत्र को फेंक, एक शोहदे क्ते साथ उड़ जाली ह्ढे जो उस का रेल ही मे सर्वेत्राश कर देता हे) पदनसोएन --चनेली के पति | पीर्य दुयावान ए#न्टु उच्त- की णहय्य सुख नहीं दे, चर छोड़ कर भागते है _#न्‍्माक (३५ ) ( उनकी बहन उनको चाहती है ! | |! ) छलिता-- सदुरमोहन की सम्यन्ध में बहन, किन्त उसको 3 अपना हद॒य अपण कर उक्त के | बुधिया को सा--स्था 'लक्षक्त १ऋरल वाचालछ | अब द्वम सब से पूछते है मि उन चरित्री में छप१ कोई एक पी ऐसा है जिससे छसारे हुदय को भायोद मिले, जिससे सन आण ऊूधा उठे, लितकती दिखाकर गोस्वासो जो अपने व्तरलेंठ्य के असुमार छनारे से मोरे के «गते फोरेडो की उन्नत करे £ कोड भो नहीं, छा दो तो रछ ही गए-- फादुृश्दधिनी--भोलोी पाली, शायद्‌ हत्यारे को पं स करती है। त्रजकिशोर--उद्शर राणा का सत्र, किन्तु शायद्‌ नरहत्या व्रने व्यत्ठी । इहरणसाद एकफ्ानतवासी होता छे, सदल सो ह ८ पिशाचितो +से जोछे जाकर सागते हैं, सती सालती चरी जाती हे विधवा सौदारसिनी की दो दुफ इेशवर बचाता है । यह क्या लीला है) यह क्षमा ग्रन्यकार का कत्तठय पाछन हे ? एक्ी चरिश्र एंसा नहीं जिसपर छसारो नऊजर टिके, जिस के सुदास सें हम ज्ञीर्नीधि णम॒ति फी दुर्गेन्च से अपना एपेय्ड छुडाव | रलाब का लसप ल्फस्‍ाबर सपझरकी प्पपन्रे पास लिदाना वठक प्रसाद का धकूमा, चसेली का रेल सें सर्वनाश, कामि नी का नड्भा किया जाता यह चित्र बले, हो गन्‍दे हे । इन से क्ोंनसग ॥78]974+070 होता छः 3 हुई, कया गोस्वासी जी ये चलते चलदें चारों बहने को बचादेगे, चर ॥१0१६०८वे को तरह एक फेंग दि.सो को खा- सगी बसाकर सानेने | रे " शेसाई' जी ने एक ठन्दा भी है, ललिता का कान ( ३३ ) अपन प्षाहे सेमेस ' यहां दह उच [05०0 ॥०४7५ वने र चातह आजाए गी | एक जप्तैर झाज। देखिए--स यार छा सब सै ब्ह्ह्छ्‌ रू घलिल पल्व पर के इस्चएश्खाद का ऊअडऊ हर उस “य- लो बचे! सिदचन्ले! विघयफप्र, अधोत्‌ पापपुणय छ्कर बद- ला या दये। शहद सिलवर इसपर गोस्वारा जो एक जगह कहकएछए ऊपरले हे | 'स्ल छा ! जजब शतार फो रोति हे! जिच लोगों पका चसमे ऊोर छेश्वर पर झचना ऊचल थिश्वात्त छोेले क्यों इतना छःख उठाते हैं, छसदा ससे कुछ ससभसे चही जाता ( चपलए(, क्राग २ एण्ड ४५ ) चपलए के अज्नयो दर चाय करो र निकलने हे, ओर उसे सन्‍के छादे में झीौर शसस्वद घरित्रेत के बारे में बहुत फुछ फहनापड या क्येहि भारतेन्दु के ना टदक्क” की लरएह गोस्वाभों जी एक उपन्‍्यात का ग्रन्थ लियने वाले हें | ! गोस्वासो जी संहाराज से हसारा निवेदन ले कि वे बु- रा ने सान | हम जले! झएले हैं सेर उचके सन्‍्थप (९, सनदके लिए हमें आदर है | जब बह गझुभीर लेख लिखते छे लो बेसए लिखने वाले बहुत घोड़े मिलते & | किन्तु पप्ठको! जिस व्वुलस से लका, कलिंगरापय झीर गगायवरण निकले थे उसी कल से यह सद निकलता देखब्तर छत फहते हे भ्ली सुरत की छिपाते ही, लुरा करते हो ! ४3 ०-+ ६०४८ नागरी पचारणों रभप को रिपीटं आई है ऊच्छी के और अच्छे सीपध्से पर जाड़े है | सभा मे ४४८ से- आईडे दर है, ९७ फार्पकत्तों है, २८७७ पुस्तके हे | सत्ता ने ३४२ >> जा ( हेछे ) पुरतक् को खोज को है, जिन सें एक ६६८७ का किया छुभा आओ पद्मायखल का अलुवाद छे ( चले।, दोपदेद बी बात दी उड़े ) पत्रिका सथा ऋन्धचाराला छपती रही, रासायण मक्ता- शित छुआए हरे वाएताः हे, देछाती स्कुछों फी परीक्षा और इचतानल बांटे ग्से, द्क्त च्क्े घतिहास कर ऋथयस फएृत्त बनगयपया, वेज्लानिक क्वेएश लः2 ब्र्३ सिल्स्न्षर स्ले दोहरषप्यए जायया, रासा व्ते ग्राहफ्त बहुल ऊच ले सथापि छछ छप रहा है, सनन्‍्तोविज्ञा- सके लेख की लिये परथचिछल चनणपत दुले केश पद्क औीर अप से नगर के इतिहःस की फ्िये रूखनऊ के एक िलद्यार्थी फो घक सोहर दिए यए। सरकार झोर टेकटठलुफ फमेटो के हि- नदी के बास्तथ रूप की ियाड़ने केमिचार पके विरुद्ध सप्ता व्हसर कस कर लल रहते हैं ! फाशरे को कचछरों मे अपने व्यय से सपना चने एक भरज़ीनजीस रबसखा हे। औ-३१८-६ जब ऋषषणि्तिक भरकार करे पम्ापा के जटिल मश्ल पर चपय पूछो तो-परिडत रूघनीशंकर सिशक्र फिसल गए भार उदू सिझ्ा छहिल्दी के पक्ष एपती होफर सपस्ाापति पने से इ- स्तीपफ्ा दे बैठे | यछ बात उस समय ट्विब्यून में छपी थी झआौर छल हिन्दी पत्रों और समा को धन्यवाद देते ऐैे कि उन्होने एस छिपाने लायक खसज्जा पी बात वा छलल्‍ला ले सचाया | ध्यक्षी हमारे देश में ऐसे फर्मेवीर बद्दुत कस जो चरफ्तार के पूछने वा किसी सम्वन्धी के स्दाये के आगे अपने सिद्दान्त पर खड़े रहे । इसी सम्बन्ध में छिन्दी का लिदास, ऊछाऊका सीतारास बी० ए० ने जो उच्ता के विद्या सम्यन्चो च्छ व्फफ च्क्ा न्‍ खाद न हे काना छै, द्प््ला 2 । प्री सहस्जतजिव्छ हाफकरर कह्ठते छः कि सिपटी साएचा का पर ( ३११ ) कहना अयर्यः, अनावश्यक और असल छे। छल घरए्ऊ ल- हाई औररबाछह॒री उपेक्षा वे रहते ही उन्षा ने जो कुछ किया है वह स्तुत्य हे | कह में नई सर लेाएचद, भला यह लुर , छिलदी साहित्य सेचनदईे चीज हैं | सभा फ्री उॉचित था कि उस पर राझाद्ड देती, दे।षो फो शुधारती झीर ( यदि कुछ गण हें था) उच का उल्लेख करती | फिन्तु, शायद्‌ भूछ से सनालेचक के वि- पय मे एक शब्द भी नही लछिखा यया छे. । यहा तक कि इध का झौर झानन्द्फादुम्बिनी का ( जि का फिर निक्- लगा हिन्दी के गौरव को बात है) मरप्ति रुवीकार भा नहीं क्वियर गया | ! कया यह पत्र सभा के चही सिलते थे हह यह मे एक विदेशी पादरी की सहापताः से हिन्दी भाषियों को रायसल सेसाइटी मागरोपचारिणों सभा फा सदन घ्क- थी के बीच से बन रहा छें। किन्तु फभी उस में हरय 97०० रुपये झरे जरूरत हें | सद्‌ समाभक्रवन का कास यहा उऊ जाय, ले हमारी आरसच्क्षश्रता जीर कृतवछनसला की काल किल्‍दा फाशोजोी पर खक लगेगा | समालेच््क के प्लाडदः यदि एस में कुछ बटन करे ते छहस खचिरकतजल हेंध्गे। याँदि ९०० आादुसी रसुदया ९००) दें वार अपने जिन से दिलिवाये तेर ९०४००) रुपया बाल फी बध्त में वेश सक्कता है | और एक आपसी ज्ः ९०० रुण्पा इकट्ठा करना सुप्किल नही है । हू मं: डे यदि प्रयाग समाचार की छापी सभा की रिपोर्ट के एक वाक्य फा कुछ क्षथे ढेर सफतः दे तेर वह च है एके ( ३६ ) | सक्या रह्जस्थाल ([050?) का जसवाद्‌ ध्पतनोे चन्धनाला से छापेगी | छझादी साध 7 की क््यय, सके, मंतिदय ४७ सखझख्या वे रूबध्यत्पीव एकाशपद ने ३२ दिए पका से इस ग्रन्ध के ध्रकाशर की विराद राफल-॥7 छेागो। ८घष्‌ ने कथा राहस्था ले का धलुघाद किया ले ? कब म छपादे को सी ऐसो ज- ऊद्ी ? तेए इस सन से के दृुशाछिरयों से हिन्दी वाह पूरा श्ञस्‍्थान पाएंगे ! क्या हुन सस को उलहायता कर के सध् पी ग्रल्यसालर पो भाखिछ नहीं प्रा सफदे ? राजस्थाच के समयेदान जी बहुत दिने से दा छापने दो उत्सुक है, स- भरा यदि उनसे व्ययचीत करे ते दछ ग्रन्थ के छपिये तभी और सरपादकीय ब्यय भी दे सकेये | एस इस घाल के ख से चहा । के हे जे£ ह राजस्थान में बाक्ष सनन्‍्नुकाल से हिल्दोपापा पर एके अच्छा ऊँेख लिया है। लैडियन पर हित्दी घंगवासो भी प- ढने कायक छे | भेद औऑंद ८ झी पम्ारतचसे सह सण्डल के चार्मिक उद्देश्षो से ता स सालो घकछ का कुछ सम्बन्ध चहाँ है, तथापि इस खपाड से ( सहासलसडल का क्लाये छिच्दी मे खारन्च डुआः था, ओर हिन्दी से हो रद्र है और झव भो उह्ासणय्डल ईहिं ल्दी को छ्िसायल पक्ी शपथ करता है (१९) एस सचफते हैं कि हर्मे कुछ छछहने का अधिक्रार ह | छस देखते है ककिे सहदणउल व्वी राछली ने हिन्दी सरालारनदीसी फे सताऊाक प्को गन्‍दा व्वधर रखस्या ले । छिनदी के सस्पादुऊ छी उठाले आओगीर पते फस्से ले, कि डे लेते नेट एक शयू्ा छत्प कागया | ह्ः है 0 #पतेए एी ियवा५थी, ४ )१॥0) ६॥१७ ५४ ५8- रा £ 4 .3प१३. १६ इए त छपरा 8 १0फ्रमश्ड (8 दशयुएये /7 ०7०८ ६ ९ प्याज ( ६७ ) कि (लेखाओ केस अरेश सागरीतचाशिणी सभा फी रिपोरू पद छुखओं को स्थान नहीं ओर सयछल के राचे रह ठे पच- के पर सार पर धालन ! | के दे, शयाग ससायार, प्ारव चने प्रदधत्ति से केशव स्थासो प्रश्नत्ति के नास से, वा सश्पाद- कोपफ छग ने णे। लेख सिझाले जाते छू बह हमें बहुत हरे साहूप देए रु ओर लनसे हन्दी धछ्व्यशारनवीसी में बहा लगता | सान की कण क्लि एक बन्च! ठी ने ब्रजपयछलऊ से रप्रक्क- लिगो के चाखा दिया ते बक्षा - साज् के। चीसह जीर छ्जवामसी सातन्र के कुत्नालय ऋछने का कीन सीका है जैसे यादें काडे केने राशी के परिछल दूर दूर ठयचरूथा झों की नोटिम देकर गाशइक जट'ते हें ( हमे इस बासफो सत्य॑- तर फो चिटद्ियों मिलो छे ) वा एक रुपया लेकर स्वाथों न्चप्रकाशिप्का पर सरूसति फर देसे हें, ली काशो के परिहर्त सून्न की उघपवणझघा ऊोर चसे का देषपने बाला कोन ऋछू स॒- फता है! केशवस्यासी और निरपेक्ष को इस छ़ुद् बहस से एक धात्रिय के हारा सच सप्न्‍य पणिड्त को उपाचयो पर चचोर उठादी है जिनके सि लेशबस्वानोी प्राइवेट रेकटरो बनते है | शायद्‌ कलियुग के भ्रय से सारा घम हिन्दी अ- खब्यारों ही के शरण आगयर है और भसायाओं के पत्रो पर चस की कृपा सही हैं। 2! ॥ २६२६ ३६ सलिगसागसचघनल्द्रिका के आम सत्य के चूं० ९, २ € चैत्र बेशाख ) अद्य निकले छू । ऊथ लिशहाई दर्णेत पएञ्ये के उम्पर- ही ुः छ्ज्ठ करे वा बम दुक इसरो उवादइलल्‍ठ बने हे तो हन आशा करते हें कि इससे शुषक्त लियाद फोर प्िसाबव को प्रतो ली न रह्धा क्रेगो | पशण्िंडिस चउक्तदत्तरें शायद अर्जी के दुरश तिक मरेरण चासिक ( ८ ) सासिफ परलकों से परिचित छोंने, उन्हें चित है कि उनकी चालू प्ले सद्यामसउल को प्रबन्ध से, पछले ऋरंर आंच, यही अन्तर है कि पछले सहानणडल के कप्तरे स्वतन्चद्र थे और सरे छाजार एक ऊीर स्घतल्च बने हुए थे, वततेमानल प्रबन्धक सी छूक है, फिन्‍त्‌ ठही को ओठ से ऊग सम पक ना चाहते हैं | स्थामी जो को ससल्‍्मईतले पर जं*र क्थो ? बहीो इनले गिने सरप- सलिगण क्यों ? इत्पादि कहे प्रश्तष॒ मत्थेक सिः्पक्षणती को सूभते हैं । और उड्ठी कब्ने रूपों में पके जा रहे हैं। मायः जाठ एछछ की स्वर्णा जि दकालत केबलादु सम्पादुक चऋषरतती से ऊझो सिद्ठ किया है झीर जो सहासयहल को दत्त सान पश्छलिसो दिवर्याई देतो है, वह यह है--- “जब ऐेसेपुरुष रत्खव को पस्राचीचता में भारतचर्न॑ंसहा- सण्छल स्थाली जो को सज्मति के अनुसार मबनन्‍्च से (क्यो! दयों ? क्यो ? ) परिचालित होले लगेगा, तो भारत में छि- न्दूजोीलन के लिए सानो एक वार छी कअवोन यूग उपस्थित होगा ( जैसा कि सचघुसू इसस छिला के प्रचार से होता होता रह गया ) जले ऊग्ेज्नी परिशिष्ट प्ी-कापा शठदसयथ होने पर भी दल छ जीर अपक्क है । यहां पर छममें आयथंससाजियों से भी छक सिवे- दुन करना है। जाय ससाज को अचारक एक बड़े दूर- दर्शी पुरुष छे, शिन्होंने छपने शि८्यो की इट्टि कोर गे रघ के लिए छिन्दोी का आतम्रध लिया | इस खाल की फट्टर से चहर आय सनाजी की झानेगा कि चादि ल्‍्वामभोदवयानन्द हिन्दी को झपनी घर्मेत्रापा क्र सानले तो उचका यह-ज- लव॒र न छरोतर | किन्‍त बह्ढी ऊशंसमाज अब हिन्दी से ( ३९ ) सिपलब जाता है | फग्य ससाजियोंके आग चल उ्ू में, नियस उदू में, सल्छया करो उठ में [! सन्हें अपनो स्वासी जी के नास पर प जाब में एक हिन्दी पत्र निकाल फर यहा ऋऋष्ण यूरा करना चाहिए | क्या उनको शर्स चहों आती कि उनके बेटों को “गायचरी” कसी उद्‌ में पढ़ना पछती है,ओऔर राची में सिसकले डुए ऋपोवच फो छोड़ उनके हु पंजाब मे ( जहाँ उनका फछालिज इस छुतप्नाग्यदेश फ्री फर्सेशीलवा प्कप नसूमा डे ) एक भो छिन्दी का पत्न नहो।|| अजस्ती सुघरने का समय छे | छल प्रशंंय में दे! बाते कछता छशै- (९) झछाहीर दपानन्द्स गूलोदेदिक फालिज सें हिन्दी पढ़ना ज्गवश्यक है यछू बहुत रच्छर लक्षण है। (२) बहीं से िरूचक्त धका एक भ्ाषालुवाद निकलने बाला था, सद्द क्या ऋझुआ ? यदि निकलने बाला छहो तो छसमारी सूचला है कि उस का अलुवाद ख्वततन्त्र ही, उसास्मदायिझ्त रउकीण तह से खियछनी ले पाएं| छा, ससाजीय कोट टिप्पणो से दिए फाय लो फो हे द्वार नद्ठी | भेद डेप धह भारतचयस सहशमगछल के सए्यध्पक पसशिछत दोनदयालु के मओोजस्बटी और सथानघुर ठयाख्यात्त सद्ृष्स में हुए । वह्ध दिन एिन्दो व्ते इतिहास से ल्‍्वणोक्षरें। से किखमेयोग्प ले जि- सदित फंच आफ छशणिडया के बचक्ता एण्डित जो फीो फऊरद्वास से, दाफ्चिणात्यी के कोच लें, छावरेंडलठ ऊहूा० गोदिन्ददास के एड स दिया | यादिं स्वासोी द्यानन्द को इस लिये स्तुति कर जाय फि उन्‍हें: ने छिलदी की अजपतसोी घरेंमाणषा परनारझर उसके सादित्य पी सुछि कराइई, की, तो परणिड्त दीनद्वालु की सो मसटक से फठक तफ ऋरर कश्नीर से फन्‍्याकुघारी तक हिन्दुरे ( 8० ) की राप्ट्यापर बनाने के अनन्‍्यततत स्यल उपाय उपसथाल में बलंचे के ऐएलूये चनन्‍्यणाद देने चाहिये । जब उरछ पशिहतजी असतसर पिशर/णपेल के लिये लाख उपया इकहा कर सकते हैं, ते। छपा वद्ठ सवार सहात्खा अपने पाच साल ठ्याख्यान सायदेप्रचारिणयो उमा को सही देघकसे खलिखसे सभा का सारा द्ारिद्ृर लिंट नाय और हिन्दी फो सबरे ग पष्ठि फी नोंघ दृक छो जाय मेड शेर शेड सहयोगी चेहलेश्वर, प्रारततन्तेत्न लार प्रयायससाचार छो उनको उदार समालोयना के सिये चनन्‍्यदाद है। सयाग ससाचःरर से निवेद्र हे कि २ सम्पादुक सवार हे थह रएस्प ले। नही छिप सकतए तथापि उत्तका पता स् चने में आपने सल को है, “हनारी ओर के देहाती”? यह पद्‌ सम्पादुक द्विवेदी के हे, हनारे लछ्ली ( २ ) प्रकाशक सस्माद्‌ करो प छा 808- 8)7५ व्यक्तियत नो हें दवाथ नहीं छाल सप्त्ते (३ ) उसने और सछ छिपाले घाटी बाल दो जाप सरका कर मो न कं 5. सर ( ४ ) एरिद ऐ ऊख्ूरस छाई सिन्नो ने सशपरद € सुबालियाच दे लिये। #द >> ४ + छाताला सपत्याहो मे प्रॉजियों धो फपइव्:े पर फापने ० फार सिऊादित्यण परत उासुद ( 77 शुरू फरने फी पार न गे ++ शिल/8, हैं; घ्त्‌ हु । जे का $ कक 32 ञ् 4 है है, ४] ्ञं ४ $ पर ञपपये #तलिद्र एथ परशोेंदिप: फिडप्फता हे | ९०, पद व्याकमन आन भमाइ+-प्राांसमेकओक.. आडाज+ पमीकम्मुक...ध्पोडाधाा-बहिग ल्लियों प्रो कु दे एपछ >-ए7८४ इ१:5५०५: फ दृ पूरा न फे-जुह ब-कू- बन. हरी रू हि हि रज ञ्ल्त्चू प्यज्ञ व; ते री जान लड, पिन को #ीय न्‍्लजा> आन. के. द्एं न्ज्कुक ३ अ ६, ६११८७ /5॥ ६१5, ६» धरने में रू ध् सो यहां लगे | आम व रन उसकी उक्त | ४६ श्िनर संगायें थी. पो- फेबने का जेश पंचतय उपाच पं& द्विवेदी थे वेहवेश्वर मे सिखा के, सलालेचक्क के मष्छाशक ; फीे उसस्डे भुरुदे यो रावण व । यद्यपि उन्हे ने उदाण्ता से की परी. ल्ठछी लिाटाये तथापि यदि यह खिरलखिलर रहर लोड उब्छें इाधकों आर्ििक्तारियों फो सूचना देनों दागी खेद उससे दक हे सझ उपन्यास सस॒द्रों कफ ज्ञान मपफ्ाशथ परचर पछ्ेगर | यह फऊड छिन्दरे छो में दपोईं १ भेद नह मेह जेए के फूछ वा सतल सेकर छाजसप्षर की बाल पहनते छाले ज्येरखिणिये ये ठयाए गए है।, दह् यदि ससाफिाएप्त से प्रबल असाण चेडऊे ले! घडरे रूपए हेए। छर्में ऐसे करूँ छ- साण सिरे दें क्िनत एस चहटीं जश्यसे फि एस जिचय सें छप ब्या क्षर सफते हैं | एक छपी जगछ से छेसे ४। ४ फिज्लत्पय स्रेप्तऊले छे | ऐसे देदज़ों फा शिराजला देशके छट्ोीमाप्य से री हेपतर णे | | ! हर कं मे छल फ्रौरतसिन्द के / कहा करूणाशिएव देशव सोए? पद से गुचगणचारले झुएू यहां पहुंच थे कछ्ि:--- पेलथ काल सस जैन सदन खजुर शाल संधारो | लाफोी चर पट उपाए फुर्ण्ठिय छसरो बेर सुरारो ॥ एसते ही सें ज्येश का सुदर्धद मिरा | खैर, सब छिन्दी साखिकर पएशूदके ये या दशा समफकछे। सिचस्चर ९९७३-- जा श्विद्र १९६० सरस्वती ( सिलचक्णर २१४०३ ) झुदशोल ( णयेछ्ठ ₹८€६6 ) छिन- नदी मद्रिष ( ऋाचे अफ्रे् ९७०६४ ) फाचूस ( सिदच्घर ) ऊप- ल्यरख ( फमसत ) साघन्द्फादुश्थिनो ( फाल्युच्न (८२८ ) ध्् कि ध्ये सनालोघफ | सियणरगसचन्द्रिका ( चैन्रन-बैशासत १२६० ) हे मे डे£ सुदर्शन में अब फे छरफटेएम पचिरोे के बजाय एक लेथे का काटून है जिसमें दरक्र्रा नरेश दो! सघसूदनसंदिता के बारे से 'रासस्थ स्वस्लि ,रोदबणाय स्वादिद्द,, फा पएटे दिया गया हे | फाहुंस अच्छा हे | हिन्दी बदुप्वासी के पए््ज्च ब्दे पखियटह छापे से छ्न्दो ्स््‌ सपदधास साहित्य काफ ध्राद सा छेश्गया ऐ सिसे सरस्खली के 'शाहिल्य ससाचार" खरसर से सिटा रहे हे । फक्ारतसितन्न के छेर मो एच सअड्ग सें कुछ प्कशश्न करते हे । छद्शेत को चले || ज्येष्ठ्यी छुद्शेन सें अऋछुत कुछ पाठ्य झऔौर उपाधेन है। घशणिडत सिम्र जी फुछ छिझते हें बह शुद्ठ छदपका उद पार ऐी- तप्दे दुरुल का घाटी! | सादे लेखो ले उसनपमीे ठप्फ सता दो एफ दार है जो णछ्ो कहीं दूषय छचे पर भी प्षण ही लहै। प्रार्थना प्का नज्ञाव उच्च थे दोफी सुदार सेदी तरें? सटकसर से | ५) भै६ डेह शेर सारवाओसी विशुद्धादन्‍द्‌ विद्यालय की एररेफ्रे्ट पर ( परे एफ सस्पादप्त लिप के आन्दोऊम फा पाल ऐ ) शाुद्शे स ह< इकणों की उपेक्षा, कुछ रुपयों फो यउबड़, सल्‍्छल पक्विप्लाफो घोर उद्/सीएलर, सारवाडियों फी जाततीयतार दाग भण्ट दी चा अभृसि दोष ददिफाफर झलाएँँ देखा के | एशफ्नी उसे ४ फि विद्यास्गर एवेडसि फी सरण्ट थदा सी समतल व्य विल्ल- हाननदु ली सती छदि था मतिश्तिं देरी उगहिए, पीर सा- रखाडियों पी सस्‍्कछत फीर िन्दी शिक्षापर फोर देशा चा छिए । रानचन्द्र वेंदान्ती के संस्याधकमरूुण का भसवपूर्ण य रासालोचक। प्‌ घेन छत लिए असल्लेषणदायफ छेफि वेदाग्दीजी के रुण्ये छा की घइतले दिनी याद निफलने पर प्रो उससे अषपक्षी उच्त पे खंनयास फर हो सेन हे | के अऑध अ+ स्त्रयं खादर्श के लेख में खुदर्शेध छट्दथा है फि कुए में सांग पछो है किन्तु एल उसके “पदिरुग दे आअचेरा? ध्वीद “स्तर किसका हे” छेखें के। पढ़कर फएते के कि फुए में सांग कान गये हे झीर सुदशतन फ्री उसच्ते फऋष्क थे | सालम छरे यार हे प्िल्दी बाले फेर सपने साहित्य का छामोयो पैाययर है। अफ्री सुमद्वारे यहां ले छी ८या, जेश तुन यो प्रन्षें के जलाने खहपते पर उसाछः हुए छः ? हे ले! बाय सजः घोी--- सुदर्शय सादे चागरी मयारणी के छेख, रुचुशूद्णसरशिया और सनम चसे दलिझठ्ठ सब लेखे। कले। सिटा दे, चागरो प्रचारिणी सफ्ना अज्लोऊ कितचाओं के जला दे, प्रा्येसनाज प॒राशों केए फिफया दे, झाराएण को सफक्षा उपन्यास सो हेाफरे फरदे, राए- सापूलसदासना बेद के जश्यसेेच प्रफरण से छेकर ऐसतिश्षासिक्त ( | ) उपन्‍्यादें सक के गरहामन्पछ फरदे, पर्िष्य सशस्वीर- प्रसाद्‌ सरेलरराल जी० एू० के रप्ण्येय फ्रेश फछटिडा जेशोल हे देदं-यस, पल इछ्ेयगा खास न बसेगोे शासरो, छुस की ससाप्ठोघयः के रहो से माय बेचकर बेठरारयथ | टाटा जिठे। छिन्दो ! लेशे सपूरतों ने घेरे रण पूजा फरदी हे, अब पेरे विसर्जच कहें देर है; थेर रद्भासागर सें वा पजानयापो में या कूलासाछे के शेष्णाता है। जाए देए यसछीने से लऊाने खाने पी चूस है--प्रचानसभाचार क्त्नियों के गाली देता है, स्का्थोच- प्राशिका ने श्ाहलणो केश ल॒ुरा कहा है, स्ारतसिन्न वैश्य ऊर शूद्वों के! गालछो दे डाले और छस अपने दो क्के गाली घछ सला झकोपघषप्ठ | दल देखे अणेर जे ऊफ्े खाले याशद्वे। परे सरत उपदा साछित्य खुहदृपर कार शाहले। नह नह नई फ़छ्छा फेई बह्ल है? उपन्‍्याते। को फ्िसायल शे।ने छभी ले! घछलनी कि अन्द्रृद्धाप्ता छरे सल कुछ) अरशद सपालछोचक सशलिलि का प्च्चद्ा किलर लेर ऐसा कि सल कुछ; छुरे- उप- स्यास सलाए जाने उन लेर बरठू राससण्य छ्े पहले व्प- दाची। आर खुदशेय के उच्त्ों प्िलायतल प्ले लेश उन ऊचे घुरों मे और फाज ( पइयकिये ऐि बवेकुटेशलर नो पणिशत सा- चथधपसाद फो वितेर-चालफकिली फा सलर्थल्छ फछ्र ) बेड्डडे- शखर मेंस मे खुद्शेनच की नल के विरुद्ध अंघ पिसे छम्जा्थ। ४ ईछ्ेलान झासोतस छलूण ज्येद्धा खतसतलोलारं जिघरंससि सखा- यू! $ हि पघ औ 3५ पयिदस सिश्मर्ें एफ हु स्वाभ्षएदिक आुण है कि वे जशुत ससदू चा08ए76९8 ७779 ४६७ ऋरूरसेडईँ, उद्देश्यान्दर ईचियफारे हें । सर्प र्ष्त सेझता ने पनन्‍्द्व॒व्तस्म्ता फेसिलिसन को सिछलला भ्ाछ्ा शरीर रूघय॑ दिचित उसे चरित्र सासक छऊज्लस पढना का पलुदाद फिया शस से पणिएत सिख फ्रनातले६पु-- गोरे अमडीयाएे सो सिख दी साथ सम्साय ले फीर खिययारे रूपएणकाय सियों ब्य्यी छाए है जिये >> (८.77 से! सब खसस्काय १,, यह एक एं सी रू छम्मे से छम्बा आशदनी की चध्ची भरशसपफप्का सेधासिफि सिर ही फरें कि थद्ध पलुसान अत्मतिपल्ल ( देने लरद ) हि यथा सछोी ? फके+े ६ च्औ सह्टयेागी सेसटेथर खे हमारा निधेदतन हैं कि धम्म इस ससरलेए्छच्छ | ४५ घीले दो राउरले | सांसेसल सिश्र खिना रकेसी 85070९७7787+7 जा- सिसिलेश के संस नहीं सफ्ते झऔौर घादि छुर्मले उससे लेख परे हूं लेए खद॒श एक न एफ हंठटा उनसे छेछ छीरकजा करें| खास वे चपछार से छचारए खहुत स्थातः लेकियर पैखर आयहनी छार छस ईलेषपन को छसम एछछ समलाहेगे सब दक्क दोनों पक्षों से छूछ ऊीोरर परे आा्ल उणों होछी पायनी। छणागससापचारर छूस लिपय पर छिख ही दह्या छे। मई डेह प£ खसुठ का सलचछल छधारने से लिष निष्ठलललए हे खीर र- जपूत फ्लो उपच्यर्स साण्श जी जो ली एक ऊाऊके विय सि फाश्लछा हे फी “रा्जपत दी लेक सलराछ से सास से खुदशे- चले एक साहपहित्यरेयो के दिया है| रा्यूस फी राजपुल आखे की उस दे शथप्तिफक सल्देदडाद ऊीर गरूसरिर प्पाफ की देखकर कैप सिना जी रह सफती। हसने गलसापर फोर फछा चर उसे छल यह फिर उछूयस करते डैं--- “सीअर मात जो यह हैं कि यदि राजपूस चउसेंपी कछ कछास द्षरचा चाएते है सो उच्छे उचित छे कि पृशने छेस्ड पट्टं और अपने ण्ाए० से इस कलडकथया को मठ हु करदे सष्ती नही उपन्यायों की गज्ञारप्रधाए ऊरेर दा होने पर कभी फारपी जीर उसेजी इचिध्ाली में चछ जल फाएी ध्थाहो से लिखी ही सहेगी ,, एफ चाल ऊभीर है। छत लोय कासख छरणा सहर जपरूते। फॉजेल जासव्ह रुघरये स्थायी देशहकऋछऊ के चरित्र पो छऊम्रेज लेग्ग स्‍श्ाय; देसी वर्ष सक चाह्ठी ससभा सद्ले उसकी दछ्ियाँ कप्त में से निकाल फर प्यासीएर रदकादे गई , उसके सछ- प्यत्थ से उन्देश रहा | दशछोद्धछ ले ठप चसरोत्सर चत्पुरूष रे ६ समहलेश्चप् | से धारित्र को छिकेप्यरर फरके उसे खछ अहुसच पदिलाथा ली दे से राजाओं को चहीं सिलए है | राजपुतों को याएहि छ कि ऊपने से कार्ोएल लत्पन्त छरें। क्‍शप्त लि से बवाप्तप्तों ० पा6 76० सचसों चने पसथशेद का सियस श्ाडा प्र- छल लि, वी साहित्य में चछूता है | यदि राशपुल रा- जऊजपएनों के सदृश्न्त वरिज्न पर ६० फीशसपररितल फेर ५० सि- य उपन्यास घचादें लेश धन शाह सफले हे स्ि २० यण से पहुदे उपन्यास संघ ज्लाग जाएंगे | राजपूलों फो उचित हैकि छेलिहातिफ पचिज्रें: पर सच्चा जप ऊथयर रहु उदण्वे | येसती अभी छजारे एक सित्रन्ते लिख पर पुछा हे कि राजपएूसेए से छिलदी के किए किया हो कया के जो उसके घनन्‍धों छा चा- श व्दराले है ? किन्त छस जानहे डे कि रक्छपूल छिल्दी छो रूलुत कुछ सझगयतला स्वर रकते है और ८ साटाावसा कै- छछ्छ ऋच्थें। के च्ताधल्प सके ऊपी छोगी । उह्यपयि छिल्द लेखदार पदृएरसोी आदि के झूलऊछ अज्छों घर सार इसजाच छेप्रपर फथका्‌ जहों छेर सकते, रुणोेईके पाए पा अलुसरण खर छाधुकरण को सेर पाप छी हे औीर की छियायतद कृजिस ही है लथापि देखवया चा छिपे कि कौर प्रायाओं दाले रिजफूत' से छैचे पेश काते है| सिल्दी वर्क केश दी घश्त रत्चकऊूप्पए झोसी सद्षरछा व सायरपस (€ बक्ताल खुदशोनच के ) द्खिायर ही धधाछखिये | मे: सुदर्शन ने पाछे प्रथदयाल पता छो सरथिया रिया दे वह हछथए सायपुण्णे हैँ खौो॑ सतससबय्या फ्लो ठीको (! ) कार कहे योग्य है | अब के सुदर्शन में देवल्नत के मति जाहुबी का टकडलर चह्ीं आपयर, खसाखल पुनदुरशंननलल या, ब्ल् नम श्प+ हड पक समासरीचपफ ) ४१ भारतसित्र से घं० दुगरेश्साद्‌ सिश के ऊसुण ने छूछ अमियाक्षर प्यार छल्दें का नससा दिया है | यह झत्द शि- न्‍दो से सथा पह्तीं ६, भ्रारतेन्दु और राधाचरण गोस्वालरे इसे प्रयोग कर चुके छ | सरुक्षत ऐे पि छहस को फूविता सुल् सह ले लत्ता हो, फिन्‍ल छतारी हृष्ठटि में चच्चित है कि छोच- छर धवफथि यससदेश फोई ऋझौर छन्‍्द्‌ चुमं। पयरर, बद्ध 'छि- ये। फी तरह दिचा छिलते २ पढने और जल, फो लो, बो- उसने छे, सीची चाल से पढने से आऋछछा सद्दी सालूम देवा । मे नह नह खिलसू्णर फो श्ररण्घली में पं> घापूदेव डो फर जीदख- अरिचम्र अच्छा है| सादेदेशशक प्राषाका प्रस्धाय क्रो ( एचररे सिरटर एछले से लेख के खाचयार पर) जजउछा उठाया ययर ऐ | फाण्रिता राच्छी है | खिहुएरी शिललाज पुण्लके को अपलोचयपर सम्पादफ प्विजेद! की ही रछरना पछी, घिरी छपरा फार में पे डालकर सो रहे हैँ। पारा पी सदा ले दिल्ली ले छिल्दी स्यगे दल्यपेस करली थी न ) काशी की सम्रा के निलेद्ल पर बद्भा- छ के उश्फरेद्र मे छत्त रीउसो का देछराना से घिवाद दे। 3 ८ हि तर० ९९ सिलसूलर के परयन्ियर मेँ कांगड़ा ( पंजाथ ) से एक ऊग्रेज की चिट्ठी छ री दे। उसमे लिखा है फि यद्यपि कागर्ड व्ते ऊआदनी बुद्धिलान्‌ू, खिद्य रशसिछ, श॒ुण्णी खैएर योग्य है।ले 8, धथापि उनकी शिक्षा छा कुछ छबन्‍ध घष्ठीं हैं | ए- न ल्‍छ प्को परोक्षा देखते की उन्‍हें २४६० सोत ऊम्रत्सर जाना झोला है जार घहां जाकर वे दराचार फे सन्टेन्‍्स में ते। पर- स है! हो जाते हूँ । उक्त खाधल ने फांगछे में परीक्षा पा केल्द्र कायम फरने के लिए पंजाघ यू निवसिदी प्तो दो वर फि- छड सचालोचघकफ | सा, फलकादर साशइवच ये परीक्षा दे एत्छ च्ते लिए पापधा द- फ्सर वहन की देखा फछा, किन अंस्ेज पेल्यरों पी सस्मति छीचने घर भी पत्षाक्षी फंल्वरों के मिशोच से यह वास स्थी- छल बा झुछ्दे | यशने पशाली ( यदि साइप ठलीफ फडसेहें दो ) च्श््तन्दे दे श्पीः प्व्ष्ट रो पर सख्त कई च्िग्दा स्पस्पो त्त झ्ों दे- का चाहले सो सर का साल स्घत्ल हे | ध्यझ्न छि कर्च छूटला सुखित। रथास सह्धंध कः ह६ हेहि दडुकेएस८ में च्र्रीवसि सियां परीक्षर लेसखर छह छतफ्लाय सही एोजी छापपी छोर से पहातयी है, सभूच छूपाजी हैँ भौर पुण्छण्ण्छ्व सोलली है। ६8 जांघष्ठ फो समोरैणसिदी सिझलार खसक्ता सि धाएणेफीत्लटसथ मई साठ फोधचेध ने सक्तापति के सा- खत्त से पे सादण किए बह माहुप छाज्छा था | उच्देसे फट्टा के एड घुध्यफाछवों से सैक॒ड़े प्रध्ि प० उपच्धास पर्दा छाते हैं, फिज्त पछाह से देर उपस्यास पढ़ने के रुघाल छुफ इंसि शास पा परीएययरिल पतला लिए छापपारी हैं| पुश्त- घछासठपों पा ८ूद्डा उपयोग एशण्शेड ० वर्तणात्त८९७ झसलाणतारपों से देखे लेंसेपरयते पुरमतकालयों मे प्रवाणयसणनधय दटाए हाय, छोर सन पखसदष्याऊध उतर पिप्रय शिक्यास्तप एक सख से कह रा! | सा्यले शेर यू शिदशि घटियो मे करकतचोे ८ रह इिलेरी कुथ हे, वीर सद पी शास सात है। एशियाटिफ सोमारट बदल पायी शरद में २। ३ व्यास्याथ सर्खधाचारण फों द्विखुणाएगी | दया सक्िछिसि टी फर्मोशन फी प्रेरणा से <. स्पति टिया सी फच्पावथ फर्नो परथलेगी दा परोका भात्र नें सब्सुट्ठ सहेयो मस्त रे स्सषप्छोचफ । ३ आशू-प्रणल--सझ सभा से स्वीकृत चन्द्रावलछी को समालोाचना । (१) ४७ सुश्तफ दी लेपाक फीडरे छि्नतर यठू पे सारुसली सिंह गछरणार हैं | छुच्सतकछ अच्छे टाश्िप में छपी हु ले सलिससे प- हने से खुगलसो झोली है | बपब्परसवृ्ण अऑष्कफिस थी अच्यध्ध घाद्द विश्वेश्वरणसर्त ( दशशोरं )>के जिक्ताठ ग्राहकी एऐो पिट्टूरे सररेर शल्य लेखला दिये । (२) घोछ्ठा शयरद गुण इस से आधा है। खाये पर्ठक फिसी झशप्तार छुससे शिक्षा क्रीणाप्तकरणफर्ले छै। आजकल दस प- स्यास लेखक बुला उक्ीछ बरणरें से पुस्तक फझर दिया कर- ते हैं | एपे परे झाल है कि घसफे लेझूपफा ने खपत वो इस दीए से लष्दप्छिया है | उपन्यास लिखने का ढरे पिया पला- झुलप शे कि खलिसको देखिये बह प्सी चार मेँ छः चलएर जलता हे | जिसकी खियलेफी फषिशात्ि झुझ उसके उपच्यास ही लिखने व्ते छत लेखबी उठाई | उइलोसे झपफ्स्थास लिख- ने घाफे प्रत्य। ऐचेप्टी ऐरेगैरे छुआ करते हैं। श्षेष्होंस व्या- रण फेरे हरथ से छल सफत नहीं ऊरेर साहित्य को एक पु- स्सक्क फ्री चाष्ठीों देसी कर वे ले जापरले ही हें कि झुहु और ऊच्युह् हिल्‍्दरे फोसय हे, एर सपने छो द्रव शखिस्साड़ उ- सपभाफार कार्यूज झीर उपाही प्ता चारधश्य फरनी सचार उपस्ययलों से दीण मरने पर उसारझाे छ गये । इच्दरें फारणो से झ्ोट्टरे अआाहदता हे घष्टी उपन्यास है दोप दिख देला से | नहोंतो दयएर झपन्यास छेसश ता सात हीोसर ? एदाएि ऋश्ी | (३)घस परूदफ में खझुतसी अजहियां के उ्मेंसे घोडोसी सिस्छला रच पृछ ८-' स्लझुर को कोठरो चले! ३९ समाछोचफ | ” १०--यहछ्टी लॉचतो झुझे रश्लादिच व्यणित छिये रएली है” ” १७-“बहू के दु।ए जरतसा का बर्लन करसफू” !? १८--“द्रोपदी के चोर खेचने को दृशर! 95 ९९--“उसस चाल सछुगःरझूतप!! ! २१-'जीलदू के फररेटे उछछलो ऊंची? पाठफ सझूययं देखले पिड सपयेक्त वादयेः के रेखाक्धितस्थले। में लिद्ल धनी फैसो जशुद्धियां हैं| पाचन फीर पुछप को भणु छ्वियां क्वी फल उ्की ६ | उनका उ््लल हझो एोेचे फर देताहू। रेखाछ्िय शब्देर पर घ्यश्न दीशिये। पृ्॒ठ -“नैने बड़ी भारी सूखेता की को झ्वी के भुछांछे में खागशे' / १४-“थोडे दिन छुआ! ” १४- लाप खूब कहतो हो” ? ह१ैल-+किषप चल फो साला हो? धन! को प्रयोग झैसी अवोग्य रीखठिसे हुआ है वह निम्न" लिखित दापषण्के रजयलोकस साथसे सिधोरित छोज़ायया-- घृष्ठ ४-''उठपश्य हो न रूय सकता घा? सपूर्ण्रत से “ न! फा मयोग दहीया यहीं धाहिये । में लोगों के मुंद् से घहुचा सनाकरताथा कि सिंएाए दी लोग 'ने ? का प्रयोग ठोक नही फरप्ते है फिन्स अघ तो इ- सर्मे परिवर्तेच देखता हूं | विहार घालेई ने इस कूछ सी कर मशः सुथारक्तिया खीर दूसरे म्रान्त वाले मूछले आगे र्ट। इस पुस्त॑क के बहुतेरे वाक्य की में फे अकाय से खब्त कझोनये &े | उद्ादरण के छिये दुछ धाक्य नसीडजे चइाटुदुत व्रत घ-+ ्््च्यपद आअट्फार एप. $ >,89 ४ ह्ाप हर कण पछठ ३-४ क्षियवली प्रखादु उठकर छू प३ घा भरा ग ससाछोचक | ५९ फोठरो में घनन्‍्दु परदिये। मे! ही के नहीं रहने से इसको क्िंघामी भशुहु होगई दे। शुद्दकप ये दोगर। “उगबतीप्रसत्दु ने उठकर .., , ,. ..बन्दु करदिया? ? ११-/लछ का फास दाय उन्तको उसार के सज फांयों से बलक्ष्चित फरदिया है”शसका शुद्ध चल्लेख यों होगा। बहू की काम बाण ने, .., .... दिया थे? ” १२-बादू जी बढ़े चाव के साथ शीघ बुलायः पे”! » २३- घास सक्हिण देखते छी बड़ सन्‍्माव से जपने पाल बेठापः ? ॥ रेशे- युत्र सन्हें पाप का पाछ दिलाने झे देसु, जिदाचीश के उसकझ्ष घालिश की उप्य के सोनों घाइदोमे ने ' नहीं है । पाठक | यदि जोर कुछ देखने को इंचछा दे। ले। कुछ फ़््चर ख्यत्त दीजिये छोर घिचारिये कि पकैसो विछल्षण र- सा छू--- पृष्ठ १२- बा कूणी सुक्ते रण छ्वोने लछेगे!” यछ्ा सुर ये रुक छेमे छगेंगे! बाहिये। ५» ९६-“यछ ढया सेरे से घाध्र ऐ” परे से! फो दगह सुकसे! छशानर झरशद्विये | 9 ८४- पीर खेंदने की दशा से पठसर देख '” “ घपठपर ! शठद ठीफ नहीं है। इसे प्रालीण फछियां बे!ःझतो हे। देख? शब्द भी अशुद्द पै। तू! खिदमा चाहिये । पृष्ठ &---“फरासाप देख अय(पफ़ देश गये” में यही जानतसप फि * सथाए़ ' दाह फर शब्द पे ? फदृ प खसवादषप फर च्यपमथ देर | » प घुरोशिलकी फौर छाए रुयप कर रहे छे ” किया कर । । ला “न ग सयात्तरेचदऊ । इछी ४ ्यट्टिजले, उपोंकि सक्रिय का लि सिछले कर्ता दे समुत्तार छिप्ता ही । 9 ए---सलारू छुआए रहा थै ?! यह फियार ले! दिदित्र ही 8(“ चलइर छींरएः हैए! दा खिगएड राल पछलवर है | ४ 97 लेश्ए सत्यायाश झाय? 'सत्यालाश! सदुसाणा फा शब्द है थदि छिच्दी णे छिल्चया की था सेए ित्यानाश छो खाया छिखका उचिछ था | ४5 ९६7 फपनी सणजदूदी केले फिर जाय ,, “' देश रूपये से छीी स्फेर लाल ? उन दोलों घाकयें हे लिप्कर फिर व, शछिखणए अच्छा दिला | ४3 3» शूल पे चेरे सश्य बहार सक चलने फेरे फछर ऐप या अधेकाणे ही से ! ? घाठफक ! देखिये ऐसे फपुणों वायप भी लिखे फले हे | ७ रछ-- क्ूस्य सा बआदुबष्सों दोनों ऐै! चलाए! व्ते छापे करिए! शुघ्द फा ड्रानचह छप्एजा थर | 33 ९४--- घिन्ण इच्छा प्को सिह छेद उपाथ सोरेजले खचे ४ 9+7 झाज्ाद में ऊा फहारों फो कथयाना दे घर खाये घल खाद्यपों से जिफक्लरिज्ञों पा झोप ऊना युक्ति गत चह्ठों ले । ख्एयच्छला देएफ ले। इच शच्य सें एसे फरे हुये के कि चदि चअथ फा उल्लेसा फियर काथ सेश उयथें (लेख बढ ऊायना एस प्का उदाछष्टरण फ्से घोद्टा देदेतर छू -- पूछ रै४-- व्याी राह ! छू० १७-१८ 'लशासर रहा! ६ १९--४ खउलछाए फरोऐ ७) धै- सन परकोपाणों देर रा है ” यह सुझ्चावरा ठी' शो है । डर ससालो चकछ | ५३ पू०१९५- उसछेश्वारे हुई रश्लिसाफायेर फो ? 'हजडबाने! फा सुहायरा मार! के साथ लाता है रश्िसि' के साथ राह | » रैने- झूला ठरठराले? ४ जूवर चटखाना! सुशावरष् है । 3 3 - शीघ्र पगछी दे” री सालूस पुरोद्दिल पगडों सांगसे है खअथवजा 7कसोी को देखे है ? यदि पाझो छान्थने से सफिपाय दे तो यह सुष्ठाखरा सशुद्ध है। ७ ९े- नीलद के फरोटे” नोग्द का सरोटए छेतालै' फरों टएः जनध्ो। झस पुस्तक छफो खत्ण्यथोजना फ्री विचित्र ढग को है | खत दथएछी में शाशय हो सही प्रकट छी ता । उद्'छरुण फे छिये दो एक घाकय परे उदुष्स करता हू | छ०६- ऊसू बहते देख स॒ुस्द्ते बा दुःख छुआ सीर रात प्र सुझे सोीनद्‌ चद्दी मादे थे? उपयेषक्त खादये में पहली किया सासाल्यतन छोनो चाहिये मौर दूसरों आसरख सूल। दर्चों कि पहले दुःख छुजा लद्॒यन्तर नो नद्‌ भछ्ठी आडे | ५» रैछ- खुशो से बह फूले नहीं समासी थी स्वपनी तथ्यारी इसे व्ो कर रहो थो जबोष झक्ोष्य से यह सोचकर सम है। खाती हे कि चर कर साला पिता भादि से समित्ठ ध्वर प्पपनी छाती ठली फरू। फूस छष्क जावय मे फिसने काए्ठ इफटी हुये हैं | कथि- सो फो रोसि ऐ कि परोक्ष से झण न छरसे २ पेसए लियले हैं सामो सत्यक्ष देख रहे हें। कोर सह उल में एक क्षण सस्ता जाता है | परन्तु यहा तौ सपण के खदले दृषण पेः गया है | पृष्ठ ५----'पुरोह्दितज्ोी कोर बहू कपः रूर रहे हे बएू श्वशुर के कोठारर से बनदू करने कौर पुरोष्टित करो पाप दच्छा ५४ समसात्ठोचस्स | . जान झपने चर्स रक्षा के हेल सिवाय पर भेश्र के किसी की म देस्बाः यह व्ॉक्‍ह्य योजना वेसो निराली है| इस को सेंपाठ- को छवो के लिये छोड देता हूँ कि थे क्री विचार करें जौर ससमभे कि इस का भगशय क्या दे ? (४)जी पाठक किसो प्रकार उपन्यास एढे बिना सही रह सकते वे इस फो ऋघ कर सकते है । अभारा चीफ कष्णजी सदा २६---८-- ४३ सनन्‍्म्री प्रशन्‍्चफकाररेपीवचभा 275... आारत पत्म। खुली चिट्टी--- राजपूव महासभा ऋऑरैेर राजपूलपतन्र के नास अखगडैेश्वर्ये भघात--- यह्य पि छझस ऋ्राक्ष्णों की स्थार्थी कहने में संसार को स- थ जातिया+करस्पिटो शव कर रही हैं, लथापि आप लोग जालंते है कि इसरो सी निःस्वा्थे, नहों नह्ती, स्वाप्थेद्विंद खारति ससार में को नहीं ड्डै | झीोर खूगह ली 9778000296879ए ० (७००४ िद्वानों को रदेतो स्थापल करफे पथिछठत लोय सब से जचिक शक्ति और, आराम के छघकदार बनते हें, कि न्‍त हमारा देद जालना और सहत्व उसो में ससाप्त शेता- है कि संन्‍यासो छहेर जाय वा चासलपाल खाँय, किन्तु जगत को अपने क्षानफ्रायक्ार का दारिस सनाए । त्राद्ध में सब ली गे पिलरो से मांगते हैं कि छझसम किसी से प्नोख़ कल साणे, कि न्‍ल हसने वश घछूृणित पेशा उदारता से अपने ऊपर जोड़ लिया है । स्वार्थ से नह्ठी, किनलत इस शुद्धि से कि ससार थी ससारछइऋ चरण) | ५४ हे फनम से कम पेतन लेफर उतप्ते ऋझचिफ से अधिफ साछ दे। लागत में छो छुछ जझ्ञानपाश्ठार है वह हसारा पी दिया है। पाप भी एस छुफ्ती छुद् क्रास्तनणाशि में से बहू विनगारियां सिफर दार देशेप्पफार पर रहो हे जो ऊौर जातियेए से सा- ८ जन्‍न मे को न हे। किन्त छसारण यह महत्थ छ्त्रियां के भरोसे है। समत् है कि खूठे के घल बछठा चावे | छनारो घोटो बेटी रोटी सखूगोटी के बयानों छाले आप है, और छसारा जाप का स- दा से सद॒भाद गहा है | भाप फे राजएि जनक को छससे तास्छुष से जाल घाह्र न्ठी किया किन्स उस से कानोपदेश छिपा | जाप के क्रीप्स फो एसने पित्तामछ साना और आझाप से यों फो छसने सवतार सान फर पूजा और पुजाया | खापने क्री घर्मंस फठ से हमारी सहायता को है। भापफे अर्जुन ने दीन ब्राह्नण की फुटी फी रक्षाक्के लिए १२ वर्ष का वनवास नहा जौर पफ्रगयान्‌ रासचन्द्र ब्राह्मण कुसार की काल झत्यु के बचाने के लिये रुवयं तपसयो फो सार जाये ये | माप फे फ्रौदयड के भरोसे हसारा वेणधव दणह है, आप च्हे तरफस के भरोत्ते छमारे वेद हैं, जोर जाप के अभय ऊँ प्रोसे हमारी वाफ्सिद्धि है | “विद्या छ जे श्राह्म- णमाजगास गोपाय भा शेवचिण्टेहसस्सि ”” किन्तु हसने वह प्रसाद सब फो बाट दिया है। यद्यप्रि आप में से कई सज्जन घस स्रष्ट हे! गए हैं तथापि हम उन अन्तद्रताओंएं को देखकर भी यही कहसे हैं फि--- ; यही खास उरभयो रहे अलि गुलाख के मूल । है है मडुरि वसलल्‍त पुनि एन छारन के फूल । फिन्त चसोवतार ! ध्वायंान्चभकाशिका सॉसकफ अण्ट रा ६ ससारकोचयक | पुखु्लक ने इसें लेतइरशर गाखिया दी है, और आप के गरु- भो प्ो हकारो पदेा से शूपित किया है | कुछ लेगग फट्टते है कि थह्द ग्रल्थ राषयपृुत सहासभा ने बटयाया है, एफ रा- सा से सुपवाया है। क्यों ? कया भाप सरेोा केएा सारन का बहादुर लेते हे ! अऋपनो गीवबेपर उ६%% ? रूसरप्द रहे, खा छययणोे के के आपने दिया है, वध अलि सच्छ है, उसे खाउपयण चलेत्तिगेय साहछिया की प्रासि आाज ही फेफ खसकसे है, किनल क्राप्लणे! ने आप को छो दिया दे उसी के खल्र आ- प आप छू, और ठस से आप अलग नएछी छे सकते जम तक के जाप (सज्लुष्य जाति) रमुष्यरव से दब्तीप्ता ऊ दें। खाप का जनेक, आप पफो वरोचारा, भाप के वेद सब्य छसादे दिये हैँ । छलारो व्वपीतोे वा घछिससा ते ले उच्ते हें, और अद्य छर्में गाछियां दियाते हे किन्सु लहों, चसोलसारर | यश सभ मुठ है| झाप का उस ग्रन्थ से सन्‍्ञअन्चध नश्ी डे | छसारोी जाति ले ऐसी सा- ट्सचिस्ख्त छहेर गये थे कि एक रुपये के लिए उसी पुरतठझ पर संसलि करती है कीर याछियां मोर धक््क झाथदो मैं! दिए नल इसने क्षजियों के जीते अरणते सन के गुरु आध्मण ये गाछियां खाय, यदू क्‍या आप की स्॒‌ ले केा शोसा देचा हे । आप का कंठाश आदर फल हिन्दी साहित्य पर पर सछा है, आप अपने कई यहे आदर्सिया की सिन्दा के घन्य उस्‍ठया चुके हें, कृपर करके अपने गुरुजा ये, अपन गुर पओे के इस सिन्‍दा पग्रन्य को फ्री फ्खयादें, यहा दें, सिंदा दे | खमार छाने ते। कि छबत्रिय अध फी येः क्राह्मण को २- का के लिए जीभ छद्विक्ा सकते हें, भय भी उन में पृरासा सांवत्रियल्द शेप जे । एस "ऊछट्ठट फ्या फा सच, धय करना क्षद्ियों ससात्तो अप | ५9 का अस्से हे वही शत ग्रथ पर पो उचिषश समझे सो करे सही से, हम हऋाहझमणोा फा से कोफ हो ऐ '" रजजो को छिरय पतन्‍्तु जिपद्रसतासा कृत्त स्थागतम्‌ ! जय शोकत्ण ! जाशीबों दुफ---- एफ ञी ए. ल्राषह्मपण रूपा फरणझे सब समाधार पन्न इस त्रक्ष्णणों! को सुदार को नष्तल व्यरे | ९ 2 साधष्दम । (गताऊंट १ एछ २३ से आई यों ही सफर भानव सुष्टिकप्तों के सस्खन्घ से यह चास पक ही था सकती है । एव हुस रूचा फा स्य यह है कि णो खीोंतसी सरूष्टि व रणना करता है उससे उसका सिज एुुछ या घुछ निशत्य रहता लो रहता है | शिस परिसाण सें खह लिश का कुछ या फुछ निद्चवतटव है, कस से फस उसी परिसाण म॑ सानदसष्टा और रूसद्स्तुण्टि के विषय से फछा जा सफ- ता है छि दोनों एक ही पदार्ण है; और सानवस्द्रष्टि बा सा- नथस्तच्टण्दुा ये साछएवकसष्टा को लद्थ फरम्े कएछ सफले हे कि सोउडह्ठसू | शिक्षपीयर का द्वैमझेंट यदि फाल्‍्पसिक स्टर्ष्टि श छीकर एसारा सतुमशहारा सा सभीव या सचेतल सर 9 ह्वीत्ता सो लूस छम जेरे बअ्छा प्को लद्प फरक्षे फछ सफकसे छे- ४ सो5हस ” ।थैसे खध्ध क्री शेक्ठपीयर फो लट्षघ फरछे फए सकता था--सोउछस्‌ | कारें से कारण सिर घोले पर 'ी फ्ाए- थी कारण मे रदैगा थी | रूपछान घर्सोखलस्जबी सर पेपीय दा- ओपिफो को कमी इस सात फो स्वीक्कार क्ियर हैं।अतएव सृष्ठि में छट्ठिकर्ता ऋषश्य है--सुछहि से सर एफत्तो सम्पूणरू- ही ससाएी सदर | पेज एकक छ्वी सही सफचा | झष्टिकतों को फस से छस सहाष्ट- फा साशिफक उपादन सो करसा ही ह्लोगा। सनन्‍तत:; उसी अश फे सम्बन्ध से लष्ठ पदार्थ रलषिकत्तो को रलपघ पारफे फछष्ठ सफलता है--सो5दस्‌ | कछने से पीर्क दोष सही, फहछना हो कोेठय है । स कहने से सण्टिकप्यों के आरश्तत्य छा अस्यी- फार करता झुआ । एव साप्दकर्त्ता के झरसितिएल के मस्योीकार छी फाश सास नरास्लिकता है। डलएँव कबलान प्रश्नसि दें तबरए- दिया के सलालुस्तार पी श्च्ल से ख़्यप्यड पएचक सहीं दै। सरूण्टिकत्तों ले रुूण्टि एधक नही है। एस रस दो अलुमार क्षी सर्तल्थ छकट्ीी है, दो चलहीं, ऋजल एकट्दी हे, दो नहीं । दशलिफर्मीए्ट फेरियर ने प्कहा ते ुंः.. 3.6 0775 8080 06 €६85(0७708 73 &7 €लिययोी गाय थे ॥॥ा एटापराह7676६ 897६।॥688 ऋापय) 70987(९0 छपरेस दाश प्रकलि के सरषच्य हअच्छेत्यभाथ से संयुक्त एक डी अन्‍ब्त चैतन्य फो घास्तव सत्ता है लीोर कुछ सी सदी है । जतएवब रूथ्टि से सटम्टिकत्तों को मिप्ह रहते पर क्रो, प्रीर फिक्र कह्फर दिवेचना करके यु क्ति मसिहु छोने घर यह धर श्य स्व्ोरोकार फरवे 2 कि सृष्टि घी फ़द पे सो सपण्टिफत्तर फी मोर रूद्घ फरके फड्ट राफाता हैं->लो5इस्‌ । सतठएय विष्हाशद्ाद्‌ कौर रूप्टियाद्‌ दीनो हो पक्षो में छरसिट सौर सर छझिटकत्ता का एफत्वच सिशिस्तसत छुआ | यहां एल गुरूसर सीमलासा आश्रश्यफ ह्लीटी है लो कश्णला नर प्रभाल को सर है तथादी श्र च्ेकपघ झपफले छः पक त्मायडउ मे को भले घरे उम्रयक्िय द्वठ्य देखे चाते हे सतो कैसे सम ब्रद्सायछ फो जय फ्छें, फैले लिक्त बअरीर कधुर को एक प्ष्टे, सुरान्ध कर दुर्गन्ध को एक कहें, दया फोर निर्देंययला को एफ कहें / | । ( स्ममश: ) ७ फेरियर-'इन्स्टिट्यूट झाफ मेदाफानिक,, सौमर अन्‍य देखें।। समालोयफ | छ्! जातीय-साहछित्याद्योचना की आवज्यकता । - गनाडू पष्ठ २६ से ऋाये खिरखित हेत्ता है | ससाझ का उद्यसल झीर आकाक्षा, प्रदकत्ति खीर सनिद्धत्ति, आष्या और प्र म, नोति भर प्रस यह सदा «ही साहित्य का छपादान है | साहित्य पे उच्त सवव्यापी सालेफोएमफ लक्षण न्‍यारे २ देश और ससाजण मे सरूवतनन्र आफार मे प्रकटित हिलते है | उन्‍हों से जादीप साहित्य का उद्भव दाता छे | शादों का धरक्नाव, अलड्भरपरोी का मलेद, परातत्व का वेपन्य, प्रवाद ऊादि से एकता न होने से भिन्त २ द्वेश की रचना भणालो मे वहा ही पार्थक्य देखा घग्ता है। फरूलपसा फा धिकाश मी फिल्त शिन्‍्त देशो में भिन्न फ्िन् प्रकार से प्लोता है। एमारा देश यूरोप नहों है, छसारे देश के छाल व्यू और ऋतुओ फा वैचित्य हेरता, छमारे रकूतरापता, गि रिपवत, नदनदी, छमारे पशुपक्षी, हमारे कीटपतज्, सदो- परि हमारे वग्लफवनालिका, छमारे युधकयुवति, छसारे सदुदद्धा, एहमश्या घरकाहर, आपछ्एरविहार, आचारनोति, धल्ल कल नी लो विलूग्बल॑ का सा नलष्ठी है। और सही सल कल्पना फ्री छोलाभनि है, देन सब मयउलन्बनों पर हो द्ाल्पणार ध्मो सस्‍्फत्ति हैे। ले सब गण साहित्य से रहते हे, उन के विकाश फर झ्ेच ज्योही किन्त छेागए, त्थे।ही साह्टि- स्थ का आकार की जातिशेद से फ्रिन्त छ्लेगा || जासतोीयसाहित्य को इस भकाते की भ्रूल कर हस अग्रेजी ऋरेर सस्क्त साहित्य क्ते मतुझछ दिभव को देख कर सोचते है, ज्ञानरत्नो के इन सकल सधूपससुद्रों के रहते ब- स्ला के बड्भोपसागर में वा सराठो के अरब सा से गोता *ज. ६० सतलाल््टेसक । सारसा लरेस की हे, फिल्‍त हिन्दी साहित्य पी सललैया में देसे योला सारा जाय + किनल एस को जानना उचित है फि लगत्‌ ने सना मकार के खाद्य प दाथों फे रहते भी छुसा- रे देहपीोपषण के लिये किन को, सग्रह करके अन्त व्यझशल घ- सतत करके, छम सादे पचाते है बद्ी हसारे छाप आते है, बेसमे ही इस सकल ज्ञानभाणडार में हो कुछ शिफ्त णोव दिए- यू छे, वह दसारे खातठीय, सिफ खाहित्य के रूप पाकपान्र ले स॒ुसिद्ठ ह्ाकर हो छनारे फऊालोयखओजोयन के रखरष्तत से परि-« णत ह्लोया । चाछे किसे जासकायडार से ज्ञान सद्भलुत फि- या जासख, उस में से झी छुसारो अक्लति का उपयोगी है दही ऋहसारे साहित्य में र्थान पण्सकता हे। एक ही भूमि झूयछ पर लानए मकार के सक्क रहते हैं । फिन्‍तू सब छी ऊझपने अपने पोषणोपएीयो रस दर आछ्टाद च्छा संग्रह करके सपने व्हलेलर का यठव करते छे। लजिलना चाही, सतना सले दी पेट में भर लो, किन्तु जातरोयजलीव- रू गठन हे लियें जितना आादणयक है उस के सिदाय सम हजस हरे नही कर सकते । जिन्होंने अग्रेजी साहित्य का इ- सिहास पढए है वे इस बात को सत्यता फ्ोे यबाही दे सक- के हैं | उत को सालूम होगा फि जिस ससय अग्नंजी फष्मी सति गति प्रकृति जैसी रद्दी, उत्त के साहित्य ने क्नी उस सस- य सें उसी का अनुसरण किया है | मकत बात यह्त है फिले- खक जिस एक वा उस से अधिक पझाव से शराबोर झोकर लिखता है, दी उन भावों से रझुण्लो उस फा हो हब; ख्््लि रह है यह नहीं; किन्तु बढ म्ाव था भरत ससर्छि सारे ससाज की नसचस में अनुभ्नतिष्ट है। ( ऋषमश' ) विज्ञापन . यप० सहावी रघनाद द्विदेदी को कौन नहीं जनता ? बह हिन्दी के छडे भारो कथि हैं | उन की कविता मे जो शरद का, अलज्भञार को था प्वाव फा चिभाव छोता है व और कगह सिलनाः -सजिकल है | उनके कोई ३० काठपेो का एग्रह् छहतने “ कावयसज्जबा ?” लास से छपायर है | टाछ्प, झखागूज ,सतब्र कुछ बहु बढ़िया है। कविता के प्रेमियों को ऐसा सोफा बहुत लिरला मिलता है जब वे अच्छे कवि को अच्छी किला का जच्छा सग्रह्व णा सके।| अब सन को मौका है; उन्‍्हें- अपनी २ रूचि के अनुसार बहुत बढ़िया किताए मिल चक्षतोी है | उन्हें चुकना नही चाहिए और मटप्ट ॥) भेजकर एक प्रति खरोद लेनी चाहिए | पे“ घुस्तक सिल ने का पता-- . ' - 'भेखसे जैन बैध्य एयड को । ड . जोहरी बाजार जयपुर कं 'ससालोचक का प्रथन क्राग, अथरेत्‌ प्रथस दर्ण की फर- इल छडुत वढियर लेखों से सजी शायः। ३०० पृष्ठों की है । सूल्य ९) जल्दी सयादए, कापिया बदढुत थोढो रह यदडे हे ॒ है हम मेने जर ससालोचक के-लिए सच्छे, और स्वीकत लेखो से लिए समाऊोचर्क घविन४ण मुल्य भेंट दिया जायया | लेख चशहिए ' ह गा सैसे जर रा 3. 8 हज] बी है इसचना द्र्ः अकु तीसरा वो पी. से भेजा लायगार। हि ण न्‍क। ४ क्या || फॉग्तुक्ष प्रयागल्साचार, भारतामसिन्न, साम्तजोब्न, हु रत पन्स अ्फ्नर | एच सलब्ादों चलते समथतार: ) 5 - ८: ४ 7 प्ज ट्र रख हे * हि गे 8 | 2. स्घर दार्यथ । ॥ हि रु २ कफ हि - धन्यवाद पृथक -आधिस्वीदार.. ., संमाचारपत्र और सामयेक्रपत्र[ बदले में). ओीर्धेडरेश्चरसचाचार, छिन्दी बगवासो, फ्रारत चसे, रहे दे छू भीपहि सो / २१ शपुन, सुद भर जोपालपांत्रध्ा 5 घन््य प्तद्फ्पा ह पुस्तक । का * 'पघं० यक्चधाप्रसयद्‌ अधितिहीजओ---रचंधादिकाए _., - प्र/४ सारध्यण पा५डे सखी, ए -काऊकनिर्शेय - * - ही £ शर्रे,एयड को, पटना--- अपने से हू मसिथासि: सखड४् राचर चरण मोस्थामों चान्‍दालन >-ऊछीत जे रत्ण उरिलाफएमः हर धान प्पर स्छ्ठे ध््शलकाएह्स एंचड' सनसूने कऋाश्सय कार राज फे हैशी सोजे भी भेजे है । यह #् डे हैं, चला है भरेर हे ड़ देशी होने से रहायता.के परत्च है । -. | * है दा ऐै ते | « आप हो हिन्दी का सदामक्‍ेनी सममाकजा हसने भाग्य पी चेवा में महा सरालोचक छा दूसरे बचे छे पछ्चला अड्, . क्िलबाया हैं, आशा' है भाए जिम सदर :ओऔीर पिस्द हित $ ँ जब्ग |: पृ | डी कप पी स्तीफार कर एस लुपन्न, कार गेस्ट हदामिये धरोर साय ही स्वोकारे पत्र,छा छासत अल्प सूल्य शा सेन कर हपर ॥ बा, कब 2५ यू फैन हनन: ०-४ ई [ के फ्... कहाए पु न “5९ ं ध्प् » | ब् पु क्र रे | | | ; | के ही कक, + धार्थना कक » « पल सष्जन छिन्दी, प्रेमियों ने मपधा शिसाय साफ ,, , क्र प्रधंण घर का सहाय सिवा दिया हे उस का चन्मदाद , त है कि: | जद हम उठने सहाश्ों से प्राधषना करते हूं, जी घद छप * ' छक खोने रहे कोर वी पी ज्आाने पर हरदा दिखा, छुट्म भा तत्त की कपा कर था हनार पत्र दाश्ण्स अजदिय | | 4 १ व कं संनेछर, 3882578/"8 0 ४०. उ 25 विशिष्ट दीपपवऊकों सख्या री | 09825 व्थछाह कप 2 550 265, के 4.] मसलन विधा अमन कल ला 500 >> 9 ६१ /२०० हा > | ख :3 पक 29 छ कक जब जा बट है 34: [ ) / हे 3ज, 8! प 7 का 2 *्‌ हि ॥;ु ४ |] पर बे न्ज॑ हल ७ लि हु | नक हा (९ ह/# हू हब हे ॥॒ ॥ 7? ५ है रे ३ आद 9 ि ् (!) ४ 5 उजाला ६ है शी 4 77 4 का हे रे 3 ऐ हे | हर श 772 » ४-० बऐ+7“ समन -+--+ 24% । री ) |) 59५९ सक का हु ई ] श्र 0) ७. सासिक पत्र & | ' नीरघस्तीरविचेके हँसा$इप्लस्य त्वस्रेद तनपे चेत । 2), ; बा बीत5 #*- #5. न्यू विश्वास्मज्नयघुनाध्ल्य कुछतनत पालायप्याते के ॥ ही | ह | ५ & १७ कफ बनी कक ग/ #... हट ! ( भसाम्मिनीविल्ास ) हा 7 ८60 5202220 4020 8 05.20 80028 0८242205/00/0/.0 /&/&/ * ज् रच भाग रे ि अच्बर, सवरुबदर १६०३ अभड़ १५, ९९ इज एफ प्रएरफजछ्षरु जल जफु रु रफज्ज छ फट ज़र स्ज्ल्ए जज ज्ए कफ - &#“"5. * छछ खाम्मातयपा >४८ »( हम चहुत पसलनल हुए »८ » % व्प्पणियां चक्र ट ५, 20000) न ग 28 ८ '+ पाकर ना. कप -ट2ए पूजा का ज #कनगा-औ- १ उक ! कल करना तर श् मल, पाक ५ है आव _ 320 | ह ध | सहन कक जहा कि यनन जज अच्छी हे , ( भार्तमित्र ) हु आक ० 8०. हू नह / प्र २. ये हे। ( प० महावीरपसाद हदिवेदी ) , 7१ृ॒ हद 435. चः हो. 2४ £ हे >>» कातृहलाधंय, मभज्ञ, विद्धाद, सम्पादक ><»< हि शुं है €्‌ पाण्डत साधथचश्रसाद मसिध्य ) ४) र तन कर 5 है. प्रोप्राइटर ओर प्रकाशक / ८ का #"5. स्‍्ते थे ० ह हर + प ओऔ० सि० जनचेद जोहरी बाजार जघपर े के | ) | | | "€-2-ड -<मथ -धसटड सीधल जाया सदा अप “८८5८० २-० पा ६ / खत ' जिकाममभाा-।* पी "“कनी... आता हम्कमन्मक री ] पट न आन बम न्र् किन 2 ज़रा ६. $+ रे रत श््ज्ना फल ४ ले स्ब्ज-->--२०6+ 5 « ००८5 का न्‍् पलक 7 ग्लास मास स्टेज हलक |. ध्पः १६. ५ पा ५ . २०२ | ठः 2:9८ ह + हा जन्यक जा व पं हि कान प्छ है 2: पा 2, प्र हें | 5.) ध्जू्च का हा है | डा हे ५7 किड७० दर ० ॥ ६-८ ८ + ) ] चछदघबचर। १ सारवाड़ी एसोसिए्शान से निवेदन ( कविता ) , ( छे० शिवचन्द बलदेव भरतिया ) 6 जल खसुदशान की सदाएछे . . ... पर , 89 ३ काजर की छक्ोठरीः की समसाकेचना . -. .. . - «» <£ छ8छस्ोष्चम (लि० प० चअन्द्रधर गुलेरी, बी ८ ) .. .. ५४ ५ जातीय साहित्याकोचना की आावद्यकता . ... श्ण्प € राजपूत झीौर हम ( २ छेख ) .... .. - -- एऐ९ह > प्रेरित पत्र .. ,........ .- पक आ8 उ00 अडबोल अंक ८ खेर भी शिक्षा ही हे प 3 , ६१३ ५ व्यय ( ले० प० दयामधिहारी मिश्र एम. ए आरे पे० हुकदेबायविहारी मिश्र वी ए ) न ११५ १० मालती ( ले० शिवचन्द वलदेव भरसिया ) -. -- एौईैश्इे ११ सम्पादकीय टिप्पणियाँ .. ,.. .,...०-- «०» ** रे १२ सामायिकसाहित्यस्ची .. ... . ... -- -< १३ प्राधप्तिस्शीकार, विज्ञापन आदि । 7-०... ८-82 >क्षार <फकमयााश ४ +-.२-:+ वाशभामि रंख्छाओं के लिए उपकान्स लेख | श चब्यय २ गाजराती साहित्य की चक्तमान दशा ३ चअम्वरलेन की पालिसी ( सअथशाास्त्रस्सम्मेन्धी फेस ) खसडी बोली पच्च क्वा मानन्‍्दोल्‍्ून पर मुच्छाफाटिक नाटक ( गणपणा ) ६ हदिन्दीव्याकरणसस्वन्धी फूछ लेखा ७ कविता, समालोचना; प्रभूति प्र विक्रमोर्चदशी की कथा का भादि । धारा इइ भी, पके... 20. कु. ० १-३ ब।ाारभारअाआआत “ ग्राहक मूल्य भेजना न भूरे ,, #£ सझालोचक | २५ धिााााााााााा 80 लए ३ हल ॥ «हु ७५ हु ुक»०३००० के. लुक हलक कक । * भाग २ | अक्टूबर, नवबर?२८०३ | अड्डे २५, ९६ खारवाडी एसीसिएचान ओर चेस्बर खलाफ काशंसत को निवेदन दोहा एसो लिए शन सास को, सारवाड उनचचथारर |! पाससे के चेस्थबर बने, करने देश सुथार || १ | सिचित्र छुत के चाम यह, अधरण हमला अपर || कया शाणा अपनो घचो, शब्द शेप स्ि।घ्यर | २॥ रघली ले के ऋपस फो, बने इसररे ऊोग ॥ बंषा उरग्रेज खुद्ायने, काने सोच परजोय || ३ || क्या कीनो द्वित देश को, सचदा फसाति छुघार ?|। चार विदेशी सास फो, कया पायो पराधार ? | ४! विद्यर श्ीसोी ना गयो, सोछ्ठ बनन्‍्यों ऋषफ्कान ॥ राह रेस खुघरी रह, भाली गोल चयान क ४ । ररी समाज मुझ से बक्षे सीच,शयद अशीोण ॥ शोभा क्‍या इस में घड़े. छोदे लगन दशणोझ ॥ ६ ॥ सती पी शिक्षण रूपा दियो, धंधा गरेनो उप्फार ता भछहतनसी चदी छाट भे. स्िसा स्वोइ-चघर घग्र 7 9 8 फएथा कीरी परदिश में, लाफर किस स्पीशर 7 ॥ ( छफ ) समालीचफ। बया बढ़ाय सिज चसें को, कीनो पुयय मरारर 7॥ ८॥ व्ेमर खिलास छ्वाथ मे, ले देखी क्षण एक ॥| फपा है चित्र सलाज को, राखो अपनी टेक ॥०८॥ ले खग्रेजी सास को, साधहदच खनो न ऊा || सनन्‍्छस संझाम ऊानकफे, करिये सुखी समाज्य |! १० | छोक | कोनी करयथुनिटी भलो न, युनिटी प्तीनी न रे लेक्‌चर, खोला ना णशह आपफेनेज, घिचया पाली न की दुशख्च र || चारथी चास असोसियेशन, बने कानसंके चेम्बर, त्यायणे चर थघिलायतली न, पहरे देशो की खम्बर ||११॥ ना घ्तासर्स फ्विया यरोपियनल सा, खोली कहां कम्पनी, खली चेम्बर खोल नास चर के कीनी हसी झमापनो ।। /सा शोखायस, नो? दिना, अधिक वा स्त्री को दिया शिक्षण, लेके नागम छूथा रिफानेर बने, त्थागे न दुलेक्षण ॥ १२ ॥। वमन्यर पुत्न विवाह फी नल सुचरो रोतति, स्वक्तोयोत्यति, हो के न पमतदेरए प्रचार खुघरे, चला चसे मे सत्लत्ति ॥ गाला लद हुआ न शुद्ध कल में वे गोत अश्लोले बा खली नस असोससएशन किया, अदा बढ़ी ना हलवा |।९३॥ खाता लन को अफ्लीष्ट घनने कया योदयय ठयाएिख्टर [ क्या बालू बचरने उत्तार पड़ी £ छोके सद॒ए मिस्टर ॥| लेडी कर स्छर छ्ाथ के पकड के बाकिय लम्ह्े च््ष्ट छ्व कछोडेश थे उनके मअचार कि को लेको यही इछ हे ॥ ९४ ॥ लेसा साहस सास चार ससने प्यारे! किया है यहां, ह्लैछ शीघ्र दिख्द्ये स्वकृति फो छोके यथर्रुषो सदर !- समालोचक | ( ६० ) फैता है अपना ससाम पत्तित प्रत्यक्ष देखी जरा, दुःखग्नए्त छुआ कुणेति पथ से छाद्दे सभी में खरा ॥१४॥ असुंबर [ यह सेपे प्रार्थना हाथ जोछ, सुरघचघर छुजनोी को झूढता शीघषत्र तोहछ | प्रचबरए कर उन्हीं का घश दया विचार, यवति जन सदा हो श्रेष्ठ रोति प्रचार || १६ || को शिवनत्न्द्र बलदेव भरतिया २४ -६-०३ 55 कुत्ठ जाक्य + भादे सेरे, बक बक और हक्कर; क्षणरुथायो, सूरखेता से सरा छुआ, भठा ही है। उच्चा काम हो, जिसे तू इसानद्दी से फरत्ता है; सदर रहता है, जेंले कि सर्खेशक्तिमालू जगत का लगाले बाला | तू सदर कास के साथ खटडार रह, मसशमा ' वग्ेरह्त को बक बक करने दे | कालाइल ल््ड ( 29 ) -समालीचक | सुद्शन की सुदृष्ठि । शामिनामापि चतासि देवी मथवती हि सा। बलादाक़ुष्घ भोद्ााण भहाभाया प्रसूछति || ( दुरगा[पाठ ) तो कथा गद्यक्ाण्य के विषय से आभनिष्णात मअण्सनभ्तक्ष सोभो को ही सब नकल करते जाय ? हि ( गद्यकाव्यमीसासर एछ १६) रस] सुदृशश त व्फ़ो सुदष्टि अल उपच्यासों पर झुई है । उसको लोन सख्याओं में उयच्यासों छो प्रतिष्ठा पर लेसक फो आ- स्था की अलनरूया सण्छो तरह दिखादे गदे है । यह वो फो दे बात नहीं कि प० साचवम्रसाद ने किसो बाल, की एि- साॉयतल करदी ली फिर उसको न्यायथ्पत्ता में सन्‍देह को न फ- रना # | तथापि, जब से यघ् विषय छिंढा है सुदश न और जोवेकुटेश्वर ससाचोर अपने अतो की बहुत कुछ छथारते सुचारते एक दूधरे के पास ले आए है, यहा तक छक्षि अधव उनका मिलना बहुत दी सुकर है | सम्भत्र हे कि सद॒शन से बात कीत फरणया एमारे छी पत्र का सानचघधक हो, उस लिये, “सिन्न॑ स्प््ठतया बदेत! के अनुमार हम दझुछ बाते कह देते थे | ( १! ) “हमारी समर में यह बाल सवाद्ध पूणण न द्ेस्ने पर भी लनिर्श्छ नही कही जा सकती 7? कि अपनी -पस्तक/ +कम्णु-ह नकेल ->ा---पम गे मम जन. डी गा # ए आभिमानी मुरालेया ' करी स॒हागिन रयाम | झरी चलाये सबने भले चाम फे दाम ॥| सउसःाफोचक | (9१ ) के ले खजिछने से समालोचक काशी के उपच्योसी को निन्‍दा करते हैं। अथ तसालोचक।; सुहृद्सुत्माह्-क्यों जी | लो के सुलझसीोकतल रासायण की िन्दा छणों नही करते जो काशी के उपब्यासों से कई गने अधिक जिकती है और जिसे छायज फर कोड़े प्रेस सुखा च रहा | काशी कालो फी युरूतठ के की फोर छोय ऐसे टूटे कि धहाथें हाथ सब सतिया उठ जाय!” छएसके सोटीे बुधि से यही फारण हो सकते है--८ १) च्हाशी घालेए से अच्छा लेखक अर कोड चद्दी ( २) काशी चाले उपन्यासा से अच्छे उछपज्यास ह्वो नद्ठछझी ( ३) छोगा च्छ र्चत््ि क्स्थजिल हे पहले दी च्कारण ठ्याप्तिग्ररल है, यछ ली वह भी कह सफलता से जो छिन्‍्दोीसाहित्य में चार दिन का कभी बनिष्पात हे। इससे फारण ३ शेष रहता है इसी लिये समाऊछोचनजा का जन्म हे | विशेष रुचय पर विशेष व्यक्ति लद्पच्यव ही जाय तो दसरो ब्यासल छे | ( २ ) हिन्द्रध्नें पर व्याख्यान देने वालो से तलनाए ( लैशाख, पृष्ठ २६ ) इसदे कया भाने ? साहब | सूख चसो- पदिेशकी फो दो अन्चाच॒न्च स्त्तति ब्ही। जातो छे, च्या बेंसे छो सूर्ख उपन्‍्ययसकारोी की कभी अन्चाचुन्ध स्तुति कों जाय उस घूस चडक्ल का परिणास सच सोचे ? सहयोगों फा यह खयाल छीगाः कि उसने ऐसे वच्ताजी जो चूरण बाली से एक घेर रपभा दी है तो भट्ट उपन्यासेः को कभी बह सिल्दूा रूरे और पत्र, जो उपदेशकें को स्तुति फरले है, क्ये सि न्‍दा परे? लो एस सुदर्शन को बचादे देले हे कवि उसे ९०॥- ४८४ स्‍लिले उर्तोपदेश, अयोग्यसुर से लिक्ललने प्र भो कछाक्म ( 5२ ) ससालो चक | ्न्क पहुँ चातर है, उपन्यास सुधोग्प विद्वानू से लिखा जाने पर भी खिला उसाच हो है | (३ ) एयारी वाले सपन्‍यासी के पहले आपके प्षणहार में कौन से उपन्यास थे ? साल लोजियें कोड नही, ली फिर! गद्यकाव्य सोसासर कर ऊपर लिखा ठुझबा पढ़िए । | ( ४) अखम्भव का अथे-साचारण दृष्टि से जो घर्त सम्भव भ दिलाई दे, उसे अधस्मपव साननर छिप्ता हे। विज्ञाल के प्रचार के पूर्व जल की एक ससूचा छृठय सश्ता जाता था, श्च्ति जब अवझो षया ने उसे लदजान और क्षारजान फा पाल सिह्ठ कर दिया, तो “अलस्भ्रवा! 'सम्सव ! हागपा। सरूप्षत्र असझरुर्ुथ की कल्पना सापेक्ष दे सही, निर पेध्ष १0०8० ५५ नहीं हो सफतो तथापि इस स'पेक्ष जगत से हस जिस प्रकार . सात्रारुण्श द्वन्‍्द्रो दो भेद को मिटा नहीं सकते, जैसे छी ध- रूसब जउसस्मव के खेद को भी सही सिटर सकते | वदि अ- सझसय शशशद्ग बन्च्यापुन्न प्रशाति तीन ही चार फथों से रूढ़ हो तो डमने ( ८५) मे जो बात लिखी है वछ्ठ घ० सिश्र के लक्षण से सिलने के कारण सम्भव है| ऊशशख्ज्भ अभ्वन्‍ध्पा- छुत्र या अकारण कार्य क्या सभो सर्द है को: असस्थव ज्र जो सम्बन्ध वे, धहंरे वरच्यापुत्र अवन्ध्याघुत्र 2 सी पविप्ताज्यलतावच्डेद्सख ली पररूपर ठयाचिवःरया छोने चा- ट्वियें, सम्भव है फि अवन्ध्यापुत्न भी फोर्ड पदुर्थ असम्भव है। | चन्द्रकान्ता वेदान्तियों के पढ़ने के लिये चह्दी चनी दे बनी है यण्सदरुसद सेद को न समिटासकने चाले अध्याप्तछित्तो ने लिए | इसी लिए उनकी द्वष्टि मे सम्भव अखस्थव का सेद्‌ री न्त्त समाछोधक। ( 98 ) नहों सिट सकता | कृपा करके कोई उसमें बतलाने कि छोटे आदले का बडा शब्नना और लस्बे का ठिननचा बनना शश- दियाण सदहुश है वा नही ८ (५ (६)(७)ऊकादम्बरी ,सकमेथ आर सेरी प्राहस या फो फ़ । रूसरण रहे, जगत्‌ के मल व्यवदारों मे कोदे न कोहे बाल पेसलो रह जाती है जिसको छस खिसा देवी प्र्नाव सानन्‍े समनन्‍्त नहीं उके | फो डे घढना साथारण पक्तियो पर चली जा रही है अचानक घटना ऋस का बदल जाना वा रुक्त ऊानाओर त्दुद्दारए अच्छे बा बुरे फल का उत्पत्त होना, यह जगत्‌ से खिरला नएष्ठी है । निरेधश्वरवादो इसे प्रकसि फीोी खिललदाल सानते है और देश्लरवादी इसे परसेश्वर फो 'निर्णोष्यछ्श'क्ति लात८४2० पा परिचय सानते है। यदि लाटक आऔरर उपन्यास 777 07 06 70॥घ॥€ प्रकृलि के अआदेले का काम देते हे तो स- सम्मे ऊवश्सय प्रधानतया सालुष प्ाबों छा चित्रण आवश्यफ हुणगा । क्ि्त सालुष पराबों मे ]07/28९70६7670 (, ६९।९११४६७ ए, पूबाल्खिय प्राय सवरद प्रसलि छोते हैं | छिसी सन्तुष्य को प्रेयलों मश्तोी है उसी काल मे अज्ञात फारणोसे उसको दुःख सत्पन्न हुआ किसी फास मे विच्न होनः है उससे पपले ही से अनुत्साधइ् जो विराजसान हैं | इन घटनाओ छा कया किया काय ! घ्न्ह्े दखाने च्स लिए साटफकी से 0ए77०७ 79९८767"७ दपए ;८०४ €< 70900979 हैबीकलारप्रदिष्ट को जातीहे जो पे/णा9 0 पाए नादकोय एकता के घिरुद्ठ नही हीती। क्रादुम्बर में छोते सा थिकाका लीन जन्‍्सतद जीथधित रहता है बह उपन्यास प्फे परिणास के लिये आवश्यप्क जल बह सपनल्यास दे चघरसवप्णोः - ने ्रजुस्यत है उसे पयवः फरने से फद्े खातो फो जप सारे ५ ह्रीं जन्‍म (कह). सनाऊोचफक | जावययी बेशक, किन्‍त्‌ उसे अऊयक्ी कर सकते हैं| सेकवैद भे यए आणश्यक हे कि मेकवैथ फो उसके प्ाधथी जीवन की _ सूचसा मिलखाय, ७ीर उसको साससिक ष्सशानि्ति घाए वोज सापड्ी।साथक्षी साथ उसके ह्राथसे ध्वशघ कस मभोकराएजा- य | यह सूंचनर और आगे चलकर उसकार चीख खालर नाटछ के निपम्राने के लिए आवष्यक है। उसे चाद़े भ्रूत॒लियाँ करे छा अषप्काश दा णो करे, द्व्न्तु यह ग्रन्थ से सलिकाली क्रो ऊाए- सकती है । भेरोप्राइस मे ल मालूस स्वम्नविचरर महा च्त्हा गया है, किन्त यदि एसमे छी बे की छात याद ली तो वह वहा है जहा मेरीमाइस को झूदासिनो का फही. दिवाएं - होने बाला है और सेरीपाइस अपने बासदूत्त की चिट्ठी से रुदा- मिनी के पति के समू्े होकर बचने को बात जतऊातो ड्टे ऊौर द्वामिनो के विवाह्यन्तर ने भांजी सारती है | बह्दा नी उसकी ५१३४३४००० 7९८७४५०५ है। लेखक अर पाठ घबनररए रहे ढीगे कि इस फाकदुललयणना से छसलच्मपा फल लिका लेंगे. “फिन्तू हसारा अद्विप्राय सिद्ठु होगया | इन सब अ्न्थो से अपंस्फथचयटना मौंणरूुप से प्रवेश को गई के, उसे निकाल तो पग्रन्ध कि एक या दी अंद्भों के अतिएिएह जौर सब्चय की पड़े कति नही पहुंचती । चन्द्रकाल्ता में से तो जरा ऐथा- पी को निकाल दीजिए, क्या रहता हे * सुखी खाल अर ऋड्डियाँ और देवकोमन्द्न जी की भ्षद्दी भाषा | यदि शबदूरे के सजाक को क्षत्ता किया झायथ सो, छसम कह सकते दे कि पर्स उपन्यासी से विचित्र घटना कफंया फो सट्ायता प्तरतर है किल्‍त चन्द्रकान्ता से कथा विखित्रध॑ंटना फी- सहदृप्यसाः जि अ्मक ससालोचफ | ( 9७ ) करती है| ऋरीष्ट और लेहर लुलू्फ की लात कुछ ज्यररी छे किन्तु समके लिए की यही णाल ससष्ठि रूप से लगती है । घथसझेपणोी के उप्न्यासो से दिचिन्घटना गरेणच्ाप से कहरे- चयसे डालो जाती है, फिल्‍त फौछ सरीखी लें उससे आश्रुूभत होता है| फौष्ट और नेक्तोस्ेल्सचर से ऋात्साक्का देयनर जी- र बेद््र छुल्फ में मेडिया बचना मपअधथपमसे ॥«परा०पे है शेण चघंटनापएँ उतर प्राकतिक हे हवा बोच बीच में लादि सूत्रेलि- लान फर दियर जाता दे | चन्द्रक्नान्ता इल चबकसे पे एक क- दस बक गदे है | उसका था सब्लति का फोएई अध्याय उठपए- लीजिए, देग्विएगा फि खसमरभय घटना फीो सिकाले छाद उसमे कुछ नही है ,--- 20 78 ४00 ९9209 70 08 |0०:७प प०7॥! आशधयाड़ फे खुइशेन से ऐसी छोर एुप्ठटि के लिए सुद्गारए्क्व- स सादक का को नाय लिया गया है ध्रीर अन्द्गक्तानला छप- सती लेर रानायण फे सीला हरण फो को ऐछेवागी फड्ा गया थर । यों तो इन्द्रदन के यूद्ध क्रो छा सरसा और पणियों फो बात चोत की ऐगारी की चाछे जला कर जेद्मगवारू की भी चन्द्रकानता पका दरक्कील बचा रूफते हैं आर संस दि- न एक सिन्न के निवेद्स एर हसने भह्ठेतक्रक्परफ शतिकों क्की पफ्रोर्ट्ड और फप्रांटेक्शन पर-घटर स्वर था किन्त शुंद्राराक्षश् को लेल मो सेकलेय खौर सेरीपाइस से अन्लछूल होसदे। घहाँ भी लिचिशन्र कलांए गरेणतथा प्रधाय दयर की सध्ायतए करती हें और मअचरनकंया लिचित्रकला ऊों दो साथ जाच- ली नही फिरनो | एक कौर सजे को बात देरिफएप। दःण्दरूआ- रो, सेकलेय, सेरेप्ाइस, फ्ाष्ट वा सुद्दारफ्षण पढ़ने पर कया ड़ घ ( छ६ ) ससमालोचकर । रुूसरण ःझुता है ? नाटक पाज़ों फी सवीवता, उनप्ती चेण्टा- छू, उतका चरित्राह्नुन, उनसः ठयशादार, कया फा परिणास प्रति ! दिचित्र घटनाओ फा टाका अपना काम कर चुका आर सारी णछोशाक में टंकी प्ही' तरह बहू अब दिखाई नही देला | घन्द्रस्ान्ताके प्रेमियों को उसी की शपथ है, उसका' सारशायण किए बाद क्या याद रहता है! कथा पड में गई, च- रिज्राहुनल की बाल ही नहीं, चरित्रो में समोचता की क्षात कहा, प्प.षा हरी नद्ठछी, केबल ग्रेयागे देवी और िलिसस जो रह्या- गज [ आर खापघ 8 । गयडे शोचे ऐयार ए4]8॥5 ० ॥78 709५9 (८) रुपनन्‍यास का सुख्यगुण खिवचित्रचठना है! सच्चे ही; तो फिर इससे अच्छा उपन्याच कौन है कि “एक हाथो के पोछे एक ग्रीदछ्ठ दौंहा हाथी डालहाल सो गोद्ठ पालपात, छः- _ थी कछुक्त पर चढ़ा कि उसने कहा हट हिट? पर चढ़ के यो- दृछ भी ऊपर चढ़भआाया | सासने नदोके दूसरे पार चीबो कपड़े चोरदहरत्था उसने छोका तो उस छोफ पर सवार छीकर हाथी पर चला गया” उत्तरीक्षर सज्गुत और कौतूहलबधेंक: छो सही फिलतु छी खिचित्र! भ्षरपेढ हो, जायकेदएर दी , फिन्‍त छ पटलनोी डी || कस्तर कस कर समाधान करने तो बेठ गए, किल्‍त यह न सोचा कि जब रोगी पित्तज्वरसे असिस्तूत छो- सा हट ते उसे अनारदाने फी 'वटनी ही अच्छी लगती है । कौर फीडे भी प्नोजन उसे अच्छा नहीं भालूस देता । किन्‍्ते स्वरूय आदसी छी आनते हैं कि दुए्ल रोटी सें क्यए रुताद्‌ है । अत एवं छसने कहा था कि ऐसे ठपन्‍्यास खीसएरो के पल थे लपण्यासों ( किण्णाध्ाएश्ड ) ध्तो सकल ले | सोसार आ जे ससालोचक । ( 99 ) की रूचि खोलने फा फकास इस चटनी ने दे दिया अशथ वबपर ऊत्म प्र इसे ही खायर फरोगें ? पेट तो दशःलरोटोस हीं प्षरे गए | ( € ) चन्द्रकान्ता में फो डे दोप नछीं है, यछ दाध४ नही है। ( ९०) इसके गुणो पर भी ध्यान देना उच्िल दे । ( ९९ ) गद्यक्ञाश्यपोमासा को दहाडईे शापथद्‌ इललिये दी गछहे हे कि उस सें चटना के सभवासक्षत छोने से का , ऐलिहासिक, फल्पित और सिछा शेद्द से ( पृष्ठ ५२, ५० ) उपन्‍यासों के भेद्‌ नामे गए है ( काॉररिफा ४२ और ६५ ) किन्तु पं० व्यास के उननचास अलेद, झे करोड्ठ, एकचालीस लाख, ऊठानवे हजार चार सी उपन्‍यासों में इस चार घट- की को छोड बाक़ी कया छुए ? गद्येकाव्यमीसासः मे से एश्क टुकड़ा झापर दिया गया है। एक और सन कीजिए। ' देश- फाल आदि के दशणेन में स्वक्लायसिद्यु वर्ण न करे अरुधात्ता- विफ बहुत रूठटपटाग सन हाके! (पछ ३८) एक कौर भो लाल कई | चाहे गयद्यक्लाव्ध का सन्नपात छहसएरे प्राचयीीपम मआचायों न्‍हें फर दिंवा ही, फ्रिन्त बत्त सान उपन्‍यप्सों को रह पट पश्चिसी नमूनों पर हुदझ हे | यद्यपि पल्‍्चतन्त्रपमसतति से छलनेरे छूरे ए- शिप को कथाप्रबन्ध सिखलाया था, किन्त बत्ते साल उपलयालों: को रचना जीौर जीवन मे सगोपीय उपन्यास बड़ा भागे पागर ले चुक्ते है | साहित्याचाये का लेख प्राचीनो को भूल पकडने अआऔर पणिडताडई से नए नए विक्राग धक्वरफे फुछ दिव्द्शेन दिखा सफता है, किन्तु सुतेप का भी इस विषय से चने खाने फा अधिकार है | फाइचाट्य देशों में उपन्यास परे शत्पत्ति और उन्नति दो दम एक स्वतन्‍्त्र लेख से दि्खिलेगे, ध्यलन ( 9८ ) ससा को चर । शल्न्सु यह प्रस्यक्ष ऐ छक्ि सूरेप के समी देशों सें दिचितन्र खेलकारीे रोखेल्सेत स्को रखना मारी गछे हें | अब के उपन्‍यासों सें “चरित्रों का दाशेनिक खक्य- सपा, राजसिलिफ ओर सासालिफ क्ाक्क, द्वटिश गशहचपों छा उदार जद ससमालोचना पघू्ण चित्र, वत्तेमात्त दुरा- घारोे वे दिरुद्ध मल ईिहाद'! पश्या जाता ऐे # “उपन्या- सी को अस्यिेक बिक्की अऔरर अधकचरे सनुण्यो फी उपब्यास, लिखने फी भवत्ति से यद्मथ्िि ठीक उपनन्‍यासी की चाल नहों पान्ने जातरे सथापि यह मत्यक्ष छऐ कि अश्लेजी ओऔपचन्यशसिफो फो दाल्पना छोछ गछे छे | सही नहीं कि इड्लेएड शाकृतिक पत्तियों बाला होगया है, फकिन्त बहा व्यापारी उपल्याम,, जहजी उपब्यास, सालाजशिक उपन्पास, साख ज्योपन्यास भी फैड गए है | जयीग्य ग्रल्थ २० बपषेदक लोयो फी स्त॒ति के पात्र न रद्द चर्कणे | उपन्‍्यासो को साहित्य शक्ति के कम होने से लबतक घक्ाबट औरेर रूकॉबत जारी रहेगो। पाशवतक सार/ चिठणाप्(0 7009 रोप्लेन्मक्कालका पप्तादव मिटक्कर जौर सच्छे साहिन्य दगे रथान न लेद्ेशगा?। (१२) उल्ान्‌ शि शब्दुस्य सथोगधिषय आहोपुरूपिफा सात्र ईएसलफकाधथाचाए | जिलला प्रशोग ऊप, सेर, अन्त, पेश, आादि। शब्दी वा है सदयाता हो उन उपच्यासों का मो रहने दीशि ध्डापित स्पथतस्ि, बा गौ रख उ्मा' की सलरज पतन का हयरेग धो ८ छ्तीछे से स्निए इतना छी प्रयोग का सिपय है कहता ऊ हो है, रघधालताष्टि से ठोक दे ) _़््् गानाऋिम्आलण... जम ज+ 3.3 न्वजण- कृगारीाजणायव्याातम का साइन 44 ३55 ७ ८. २०7१2 ३75 समय न्ज्न्न्नीं ०, तट ॥7ैहत जे धद्वाविशंत 26 लता जज सम्राल्प्रीबक | ( 9९ ॥ ऋण (१३) “कया सम्भव है और कपा असस्अय है, यद्ध जानना छो सजनुण्यके लिए असस्भक्षत्र है? सर एक बाततो अससरूनव सि- कली | चन्यवाद[ इस बवैेशाख शो खड्या छा उत्तर देते हुए - सहयोगो जेडडुटेश्लर ने बहुत कुछ इचर उचर जाना घाड़। ऐे कद्े झेर अपासक्िक बप्ते कछ कर झासक्षिरु बाततोको टाला “आर छापने सलधोरगियों को ऊागे फरके रथ पिकल भ्रा- शना चोदा के | तन सल बातो की आलो चत्ता यहद्धा करचे की अआल्णयकता -चहीं, किन्‍ल श्री बेड टेघश्वर की शान्ति ऊौर सौ- स्घला फो जी स्तु॒लि फ्ो जाय बह यघोछठी सै | दिना सिला- द्‌ के फिसी बातका पूरा सिश्चय सह्ीं छीचा, शायद इसी लिप सुदर्शन ले उयेष्ठ को सखया में पइत बारे मे 'फर फिखा | समा झधिकाश यद्यपि शुप्कृब्रिवाद पर हो सूरस ता छ, लथापि उस की कुछ बातों पर थोड़ा शछुल लिखफ्तर बस लेख की, और इस विघय को हम सम्राप्त करेगे | ज्येछ कर सुद्श्रेन -- एछ २० झपति- ( १९) “जब जानते हैं कि ऊोचपुर आर जपसुर के नरे- शो ने सुगल बादुशाहों हुए ऊरूडकिया दी थी, इस कारप्य उन्होने उसससय सुखलत्तानों फो प्रसच्चचर के लिए कुछ न सुठ राुखा? | प्रथस साच्य से द्विलोीय सिद्ठ किया गयए है, था दोने अलनुसानो में अभेद हे व्ग, दूसरे ले प्रथस सिद्ठध॒ कि- था जप्ता है ? यदि इन नरेशो ने लड़किया दो थीं इस बात फो सउद बस मर्ठ जानते दीं ले ? (+ ) निज के प्रेस में चाहे को ऊलॉप शनाप छापे उल्यादि ( ए० २९) पत्रउस्पादक जो यन्त्ररलदमचारझक फे शा जो ( ८७ ) ससालोदक ! फतलेग्य की एक कर दिया यया है | यो ४09ए० दिघकाना ठीक नही | पत्रसस्पदन और हृष्टि भे होता है, वा और व्यक्ति से होतः है ग्रन्यमुद्रण आर से | ( ३ ) यरद्यांप सदातरघसंदोपक वे लिए हमे सुदशोत का सा ही दुःख हुआ है और उस ्पयमे छमारे विचार उससे सिलते जुलतले ली है तथापि यह दोष वेडूटेश्यर पत्र फा नही है और न यह कहना ठीक हे कि 'कया सारवा- डियो को च्त्ह्ू बेटियों के लिए धो लेड्ूटे० बर का सटहाएहसपर- द्‌ रतिकछ००,, जैसर ही होना चाहिए? | स्र्म किसका हे ! ( ९ ) “चन्द्रकान्ताम)ें ससम्भव करते नही है कोर बैसो साश्य्येसधी घटना उपलन्यासमें दीपावस् होने ले बदले गुणा- वह ही है” यदि ( सदशन को जोीडना चाधिए ) ऐसी घट- ना गीणरूपसे पचान कथा की सझहायला करे और प्रचान कथा की ख्प्जीगर फी ददारिया ब्वी तरह सपालों ओर खि- गाछती न फिरे. जैवाकि उसने चल्द्रकान्तामे सरणेट फिया दे। ( ३ ) नैयायिक घुरत्घरी को अनेद्वः उमकी दु के चनत्मा जिणी है| इस लिए फि सम्भव और सम्भवाक्ाद, और अमरून- घ कौर असम्सवस्पप्य फो परस्षरा समानाधिकरण सानता हल फीर सुदर्शन की तरह उन्‍हें परम्परसकोयों सही कर देता। झार- प्यकार ने सी लिख है *पसदबस साख; शब्देरेव शब्दान्तय चप्टे ' तो छेडडूठेश्वर फा लक्षण बुरा क्‍यों है (३ ) उनके पतिरिठत पतन्नक्ता मिट्ठान्त- सम्पादुक श्नि- ज्ञेप की रुचि से उद्देश्णविशेष का समचघेन सता है, माथशही ः समालोचक | (८९ ) घाठकफोंमे क्री अधिकारीसेद छोतए हे ॥ कड़े पाठक उपन्यास वन्य कला नली चाइले, उसके लिए "“झसल्ये बत्सनि स्ियि- लवा तल सत्य ससोहले” करना पड़ता होगा। यहा हम वेद्डृटश्थर का पक्ष नछ्ठी ले हे हैं, केऋल जष्तठप कह रहेहें | ( ४ ' अतम्पस्थ का लक्षण खला झछर समन्धय करनर--- ४लऊुद्दयसावच्छेद्कासासानलारचिका राय, सम्प्षत्रापायनों वा अऊ सम्सय:” उस लक्षण का छुदशेल ले खान फन किया है। “उछप्य ह्रासवद्धिससमथत्थ” क्षो लक्ष्य से ससानाधथि करण न- छीडहे। .- - ह (५) पुस्तकप्नक्पश कासना से सत्य का सुकुट, गो री ७ सदी पाले जो लिखें रत सम्प्षत है, अच्छा छस लिए फट्ठा फि नागरो छचाएरिणोे सभा द्वारा प्रकाशित छुआ था, यह तीनों रुक्तिया उत्तर के योग्ण ली नहों । दरणजपूल की नेक सलाह लेखके कोग्लेखवः फा छहस इस लिए उत्तर नहीं देते कि उसने अपने नास फो छिपाकर च- संग्रन्यों लक पर फ्ाक्षेप किया है तथापि फष्ठ ३८ के उसक्के फयनपर हमे एक छोछय फछना हे । 'अग्रेजलसाल फका य- यथादत्‌ चित्र लतारनेवाला रिनालल्‍्ड के ससान घुरघर उपन्या- सच लेखक फ्रोडे न हुआ न हे” “लजैसाकि करांवती औनग चप- ला से छ्विन्दूसमाजका यथावत्‌ चित्र छतररनेबवाला प० फि- घॉोरोलाल गेरस्वासो छा देवकीसन्दन के समान चरंथर उ- पन्‍्यश्सलेखव्त कोद्दे न छुआ न है । आशाढ का सुदर्शन देखप्ठर सुदशन पा पक्ष फरने फी' छूछछा होती हिै। वास्तव में खबहुच बफवौद्‌ करने के ( पर ) शसालोचक | लिए मत्यहु पन्नों पर छप्ि पर सीने कम्मल को. ज़रूरत है। ग्रश्लिपची के लिए विचरारे रूझमपाददा दश्यी बने ते। फ्पर साहित्यलिवी च्छे छेद कप रजाडइस उच्दन्ने ऋष्ठदडप लिपि 9 । यत्यपि उण् लेख में प्रध्चोद्न आ्थराजाओं के सिरहु बहुल कुछ भपावत अपातठ्य द्विवय है और इसी से उम्र विघदपर बहुत घःछ कफट्टला भो उचित चढहीं, लथाएिदों एक बानें ज्छ्के देते है -- ( १ ) एण्ठ २७ आध्रयदाल घक्त्ाषा, शम्रति-यदि व द्रम्ापा ले ध॒से शदद और पनन्‍ण दिए तो उसके दोष न-दिख- सर यह कहा का क्‍यध्य है ? वद्धिनान वडद्धालियो ने बादि लाषाआाल उछपल्‍यासादि शब्दों पर विवाद च किया तो छंणा इस भी रक्तथीज की लरद जैछले उपन्धासों पर कुछ न कहे ! ( २) “फ्रालारुत्रणीय सद्राराणाओं के उत्कप केलिए वंगा लिये।ने जप कल्पना की है! यथा अशझसतोीका सजीमयसे प्रेम | क्‍ये। ? दुर्बेल बच्धाली अपनयो ऊातीय दुबे छता फे सासने विशुद्धदठ॒चिर वीर राजपुर्जा का क्या उतडप्पे करेगे (३) जगन्नाथ जी की सूत्ति-फिन्तू वि फोडे अ्ज में न जाकर जगन्वाथ जी पी सूत्ति को ही देखकर दिश्ार दाचे तो हिन्दुओं को अससूय जआलियो के रूद्वश पूजदा फह्देगा साई छही चाल उछत्त निपुण ला फी झानि वाले छउपन्‍थातो फी है । ( ४) सेघनादवधघ भर नवीनचन्द्र फे फ्र्पे मेंत्रुटियां लहीं हैं। भाह्यल सथु ने तो इच्छापूर्वक मिल्टन के अलु- ऊरण से, रावण से सहालुम्मत्ति दिखाई है लीर देखशनच- पिम्र की नमुयराभचरित्र में परिणस किया दें। म्रश्नात्त समाएछ्तीचक | ( एप) सेवलक आदि से आथ पफनायों का फल्पित भूगला बनार कर ब्राह्मणों) कों अनाय पक्षपाती दिखाया गया है| इस ग्रन्‍्ण पर “ऊंनविश शतलःब्दीर सहापारत” देखिए। ( 8, ) ४८ उसोे गली कप! जिन से अञ्नसतलो प्छे हारा सहू- राणाओ की प्रशंसा सगे गड़े हे । ( ६ ) ४“ श्यतन्जचेता मारय्येफणलि!” “प्रारतवर्षोंध कवि कछिसो के दास नहीं छेति! ठीक हे | और उनयोी स्वतन्त्रता कुछे रूपया न मिलने से अपने भनिन्र के जानो दुश्मन बन जाने सें वा एक एक रुययेर स्थायोन्चप्रफाशिका पर सम्स ति करने में शेघे होती है | इस स्वतन्त्रता फा ऊंपयोग क्ष- जिये। पर हो होना चाहियें | (3 ) “स्लेच्छे। के अपर्िजं छेंत्सद्भमें दुछ्िता अरपण की” धीरे चीरे | यह बागत अमत्य हो, यह अभसमफ्रव नएण्ठो है । (८ ) नागरीप्रचारिणीसभ्रा के वाधिफोत्सथ पर ऐे- सी पुस्तकों पर विचार देश जाय- चटष्ठीं ! कदःपि नहीं ![! जिन लोगे। को खछड़ने का स्ैवन्ाव है, बंह किसी का फैसला क्यों सानेगे ? फिर जिस पक्ष की जीत छहोगी उसे 7706ए०४८ साले में प्रयोण लोग स्थार्थों सौर अज्यायोी न फहेंगे ? भऔ- र दूसरा पक्ष लागरोेप्रचारिणो सका फा शत्र न्वबन जाययणा: पं० सिशञ्च ने सह्ासयडल की वर्षो की लछादईे मिटाफर दी केघा कर लिपए भीोर दस लडादे फो दिने के खिचोर से मिटाने प्यी उनकी लछालसा है. सपा फी सौरय फाश्यबाए्ी से यह यचहछा डालर हो न जाय | छिनदो पत्नी पी भे डियाघमान स्व॒य छी चुप हैे। आयगो, नहों तेर सभा में भी पघया होगा-- रे 75५ ( ८४ ) सूप्रलीचफक । उच्चरुूहघोप्प जेलव्यमधस्थरवेदपण्डिवः । पशिडलों पांदि लचेय पश्षचपातों निवेश्यतास ॥ (€ ) जो लीग न्यायालय में राषापूतता को केजाकर क- छ्ठ. का सूत्रणात फरयया चाहते है वे कदाधि उनके या छिन्दी माय के छित्तेषो सही हैं | अवश्य | ( ९० ) साया सौत्त-बणा ससी कारण छुआ है का रणान्तर नही ? चघन्पसाद के लेखर्से यह पढे कर बहा दे हुआ कि छद्श न सम्पादक को! चले को चन्द्रफानता के छ- दले सलबीगासायप्ण पढ़बावे । भ्रगवान करे उत्तक्तो चले। किल्तु उन्‍दके सतत में चम ऊरर नीति और बलल्‍लू के, और काव्य साहित्य और | छम यह नहीं मानेगे | यदि लिर्जांव आस्यायिकाए अससभव जीर अद्भजुनचटनर सात्रका सरल ख के करके मभलुख्यजगलि के उपादेश छ" गहंणीोयथ चरिषत्र का अद्भुन करके विल्‍ास में भी उपदेश दे' लो क्‍या ड्ानि हैं ? यदि नन्‍येति छरीर फाठणए--झ्लुरख्य चारा और विलास के घोच में पुल कवजाप लो क्पा ह्ाईन है ? अलुष्ण्जाति के लिए सनुणएय्जालि चचो मे अच्छ" विष्यविद्धाल्य नही छे मनुष्य कटी दवाई (घर्मशास्त्र) रज़ामन्दी से नहीं पीण्गे उन्हें छाप््याधिका पी शक्कर में लपेंट कर सत्य दिये जाय | स एपोगी झसाकरे “गगोश कुत्रोणों वानरं चकार” तो मतिलिस्स क्रो पल ल्त्त्लो घटना वे (लि व! भ्ृ गार करे ने किया है,मस॒प्प- पालिकर मस्पत घटना से फ्तरे आश्यायिकाए उत्तनोी शी इर- जीद है शियनी मनुण्पजाति भर समुष्पणाति का छॉतलिहास | “बअचता पर) और “विज्ञान और घाजीयरी” घिलास ऐीन्ने गिन ससालोचयचक ( ८४ ) परक्षों ज्ञान है, चच्चो और होनेवालो बातो को जानकारी है। क्या यही शब्द चन्द्रकान्ता के विषय में कहे जा सकते हैं ४ उससे ससय दया नष्ट होने के साथ जानकारी छयपपर छुद्दं | हां, छसने झदे सनुध्य ऐेसे देखे है जो चन्द्रकान्तर के दो तोच पारायण किये बाद सेजसिह बनजा ते है, पायलरे की तरह पह्चिलिया से क्ातें फरते है, पत्ता हिलता देख फाप सठते है, किसी गली का सोड देख चौंक उठते हें, प्रत्येक दक्ष को लिलिस्स औोर प्रत्येक खण्डछहुए को क्रद्खानर सानकर सित्रे। के साय बोग जाने सें सो-हिचफते हैं । खहयोगी उसे सहों यह पक्रयानक सत्य है| चर चर में 22०१४ १५४(-८ए(८ धरे घठना र्की आदुत्ति हो रहो हे। हमसे क्षय ले कि हमारा सहयोगी इतनी अधिक बाले। से अछसनन्‍न न हो साय इससे हम उसे साज्जलिबन्चध क्षसा सांगते हैं और हसारा वचष्तग्य यही है कि हमने अपने हरय के शु- हभाख, भले सत्र से, मलाई के लिए, उसके सासने रवखे ढे । कहे लोग हमें यह ऊऋहेंगे कि खुदुशन जापसे अप्रसच्त छोग- ए, -- “ससालमिसण्ने कऊबदयशिदाहुरय ह तुरुष वरूणो ऋुणोलि? ( 9] ८5६ | ३ ऋक ) परन्‍्त छहस इसोसे सन्तुष्ट हैं कि सुदृघ - भणेत कृपासे हूलस-- _ हल “अआलारिष्स तसस्त+ पारल्लस्थ ।? इस लेख मे हसने सुदर्शन व्ते हे सते का दिधादु इस- लिये फिसए है कि वे छी लिवाए के योग्य दे | इस फा अखि- ऋय यह नही हे कि और पन्नों के खिचार सब्य सत्य एेँ, चह्दी सही, कहें २ तौ ये इतने उह्ेश्यख8 छह कि ऊनपर कुंछ कफ ३>ममयाड. यो ( ८६ ) समालोचक | छताही ठोक नही | सुद्शन के विरुद्ध कुछ कहने में हस्त क्- प्रत्षा लौक़ाप्य सममते हैं | किन्तु र्लखल बाल जो है बह स॒- दृशनत सम्रकले यह उपन्यास-उर्वेशो हिन्दी, एाठक परूरवा की झुचारने आई थो | जब देखा कि परूरवा हातिमतांई के किसे छोर घुलबुल हजारदारुरां ही सें उलका हुअए है तो हन्द्ू ने यह वर्वशी इध को दी ।॥ उर्वशो ने अपना फास कर दिया है और अब फऊब्‌ राजा ने राजकायें छोडा हें को उर्दशी जाती हैं | सजिसश्छिल्म का रूथान ले! खिज्धानचर्चो ले लेगी और ऐेपारी का स्थात्न गये- धणा | अपने पुत्र आयु फी एिसा के प्य्स छोड़कर अब उब शी चली । पुरूरबा भले किटना ही कहे “हये जाये सनदसा लिप घोरे ! वचासि मिश्रा कणवायर्द लु” ( ९ ) “लिबतरंस्व छूदण लग्यते में? ( ३ )तो भी कह तेश यही कच्तों जायगो के म्िक्ननिषसुपसाससभियेव” (३ ) द्रण्परता बात इवाहस- सा? (४) यह्मयावक्त कि जियोगसे एप रूरबर यह कह बेटेगा।॥ स्देवी अचद्य प्रपतेदनाचव्रत्‌ परावते परमा गन्‍लवा उ। अधः 'ना---.-ा-4---नुर-याहिननन-भ०3-> मम» पाना > «०-०० ५०+पिननम-५>ममान- अरियात“ी+74%-पम हम ००-०० री -००नध न नदी "नागा "मेड. ( 8 ) है प्रिय ! जरा ठदरा, मिलकर बात कर। ( २ ) लोढ आ, मेरा जी जलता ह। ( ३ ) पहली उपा की तरह में हट यह | ( 9 / में वाय की. वरह पक्डी नहीं जा सकठी | ( ५ ) श्राज में सदा के लिये रवाना होता हूँ और मुट्टूर से न लौटने को ( मरने को ) तैयार हूँ। प्रकाशमान्‌ में मृत्यु ही ग्ोदर्म घोऊंगा, भर पझलेही भयंकर भेडिये मुझे खा जाय | समालोचक॥।]। (५५9 ) तो उस्शो यही ऋट्टेयी--- “*पुरूर वा सा रूथा सा प्रतशों सात्दा दुकासोे आश्िवास उचन | न जब स्तद्रणानि सख्यानि साले सालाबइकाणर हद्यानधेता ॥ (६) (७ ) यहो ऋचादुसमार का अविनाशी नियम छें। अनन्‍च- कार मिटासे को उपा आाहे, सूर्य के आले छह्वी बह चलो गहठू ] सपका कास हो चुका । ओश् | री ज्‌ प:छ लड़ जे देश देश के, काल काल के, शब्द यही सुन पते हैं । समझी सहात्सा “ठोक चुनो” हो ऋहते सद॒ए दिखाते हे | ठोक चुनो, चुनना हो तो, क्षिक, सदा का, होगा । अचनन्‍लता के पद मे से आये तसम्र फो देखे हे। योरो ! तम्हे पारितोषक को, पया ब्रक्तछ छी बेठे दें । जत निराश हो, कास करो लुम, यल सफल दो होगा | - गेटे ॥ प “२७७०४ ऊटक फसल लत ( ६ )-पुरूरवा ! मत मरो, मत नष्ट दो, अमेगल भेंडिय भी तु ते खाय । ख्रियोसे कभी सदा की मित्रता नहीं होतो, इनके हुदय ता जरख़ के हुदय से कठोर ह्ंते है। ( ७ ) ऋग्पद, मण्डल १० सक्त <५ एल सस्वाद्‌ (प्८ ). समालोचफ | आरा-प्रणेतू-समाऊछोचक सभा से स्वीकृत समालोचना। . - काजर की काठरी । ( १९ / इस सपन्यास को, चन्द्रकानता आदि के प्रन्थरे से रचयिता श्रीयुत बाबू देवकोनन्दन ने +लखा है | आप ने इस भ्न्यथ का पूर्ण झधिकार अपने प्रेय स हद का विशेश्वर मसादु बसों ( उपन्यास दुपषण आफिस काशी ) को दिया है । सूल्य ॥) जाने है | जिसे लेना देा थे उक्त खर्मा हज से ले सकते हैं | ग्रन्थक्वार; के सत से इस पुस्तक का अ्चाच वि- घय ऐप्पाशो हे, क्योकि प्रस्थकार ने इस का नास 'काजर को प्हीठररे” रक्‍्सखा हे । ह ( २ ) इस ग्रन्थ से किसो पकार मसाद शण आअरयया है, एस पुस्तक के पढ़ने से ऐस्याश रखिडियो क्री चलती फिरती चालो से बच सकते है बल्कि सल्हे सन से एक वारसी चुरा छो जाय तो आश्वय्य नही | घुणाक्षर न्याय से ख्थी को प- घतिप्षक्ति"फ्ली इस में द्णित छेग गई दे | - (३ ) इस पुस्तक में अनुब्बन्चचलूष्टय दोष है | डसफर त्विषय ऐस्याशो है इस मे ऐस्याशे को दुदृशा दिखएलातों उ- चित थी सो नह्ठीं हुआ वरन सायकफक छरनच्दन फ्की श्यषटो की ऊपा से,सरला सी एक अच्छी पतिमश्नता नारी मिली। पारसनाथ का बान्दी रणही सेमिकफर सररूए फे रहस्यों का अफट करना कछ फ्देसल ओर लेजोड सा जान पडता न्लै ब्योंकि रग्डी सब सेदो के जानने को पारत्न नेहीं है यह प्रति घिफ्य्यय डुभझाः । साले चक | (7९ ) पिला को अधिकार लहों है कि अपने पत्र को छ्िभो कारण था किसी अवस्था में रणछीब जी करने" को अफ्षा लो । इस लपन्यास ने यह झरूपच्छ तपकत्ता है कि झुरसन्‍्द्न अ- पने पिता कल्याण सिह की अज्ञा से छादो गयी के घर आने जाने लूगा। यदि ग्रच्यकार किसी कारण से ऐसी बातें, ऊी समाल के एकछप्रगी दिरुठु है, लिखने पर लकूाचार हो हो गया था लो उसफ्को उचित था कि हरनन्दल को फाजर की शेख सहीं लछगले देलप ) पर ऐमाः सहां छुआ छू० ९४४५ प० 2४ पढ़िये झथा लिखा है (--- ८ इसके बादु क्या हुआ मे कहने की फ़रूरत नहों हे ध््गादि'! यह चवचाजह्ूृप मिट कंरसा है ड़ छानजन्रन बेष्रघा 5एर- सन में सुद्द के लल गिरा और उसने प्रसंग दिया | क्‍पा “इच्च पाप सें हरनल्द्न के पिता का साथ क्री नहीं छुआ [| यह पुरुतक उपन्यास के लघणों में काले केसों दूर है। सपन्धासो में रहस्यसयों घटनायें ठलस्पेडे ले साथ बहुचा हु- ऊा फरती है परन्‍त अन्त में ऋमश; सारी बालतें,.दर्षण सो खरल जाती हैं | कोई बात भ्रन्यक्ार के पेट पिटारे से छिपो नही रहती है | इस- में कद बतें छिपी हुई रह गे है। जेते+---« | ९--महफिल द॑ दिव क्‍ल्माणसिह् फी फोडरो सें जो पिटारे के छत से उतरने की. रहसूपसयी घटना हुय9ं | उसका सेद छपन्‍यास फ्र से कही नहीं खोलहापर्ा है| क्या इपके बारेभे पाठक काशी जाऋर ग्रन्थकार से पूद्धेगे ! २--कादी रण्ही के डेरे से आकर रामसिए्ट वे सासले ( ४७ ) ; शसाऊकीचफ | छरच्ेन्द्न ने जी सदा अर लिगलठा हुआ पुजा अपने धाप को दिया वह कैसा था | उससे कथा लिखा था। कैपा य ज्त्र था कि कल्याणसिंकछ पर लमनेपेता जादू किया जिंससे यह ऐसा अन्चा होसया कि उसकी अपने पुत्र का पेय्याश बनना पशलतद आइपगया ऊखोर पत्र को कुचाल पर'च नह्ठों किया | ५ पका फो छाल नहीं खोला गया है। ३-- अपने चचा ऊछालसिह्न के सन्‍्यास की सू पना अपनी याची प्वो देकर पारसनाथ छबेली से साधइर आया-करीर लो* कनाथ को विदा फ्लिया । इसके बाद एफ चिट्ठी खशी २ लिख फर अपने खास नोकर के हाथ किसी दोच्त के पास भेजी”? | शुस चिट का फ्री छाल फह्ीं नहीं खोला गयाः है | छरलनन्‍्दल के यादोी के डेरे से छौटकर जैसी ढिठाई - खीर बेहयाते से दाते ऊफपने पिला फलयाणसिद्ध से को बेस बातें ध्कीडे भी ससाज सहन जहीं फर चकतला है। उस पर भो छहरनन्दन ऐसे नोतिकुशलहू सधूत के शंह से | यदि क पूत छ्वोलता तो कोई हामनि नहीं छोती जैसे।--- कल्यण्ण०---( चौीौककर ) है !| | ( दर्नन्दूल से ) क्पोंजी/। लतम फटा थे [ छरसनद्न--बादी रशडो के छेरे मे | आदि आाएा । #स के बारे में कया लिख १ सौ नागरिक (छिन्दी) सपचु कापा ही फह सफ़्ता हुँस सस्कफत न सुज्नलाओं की पाया कौर कू पञ्णाओी | याँदि इसे पुस्तक फी पक्रापा फो “ चोचे का सरकदा। ' फटा जाय त्रि ठीफ॑ छठे | क्योंकि इससे थोषठा २ शन्तालीचप़ [| ( €९ ) ' खज भाषाओं फर धानण्द लिछलएर णै। घोड़े से उदाहरण अणीशघहु णोचे लिखेबाले 8ै--- ( फारत्ती-अर्थी ) सज्ेद्शर, उसा, बाजुकअआदा, शक्त, खूनखाःर, काक़तवर, शरीक, रौनक, शाएइसपंआदि श्वस शेणो के शब्द लो पुस्तक मर में पेसे घणकते ह जैसे बरखात से छरो दूलों पर खोरचघएछूटो ! सस्‍कृच-- मीसिकुशरलू, विश्ञास, खन्च्या, बुद्धिमान, अश्क्षय, सम, आश्चर्य ऊअरदि ! पजलजाबनी-( तहमीलदार कियर छुआ था, ) शादि | अग्रेजी-छाइन-फैस्न । पात्र लेदु से म्राषा फ्िब्य? होती है झसा में इसका पिरेणी सही हूं कि छिन्दो में दूसरे प्ञा- था पि शब्द नही छिखे चाय परन्तु एक छा दे/ना चाहिये। गदद्दे और घोड़े का मेल चद्दी सिझाना चाएिये | पूसरो हरा - था के सनी शब्दों फा मथोश सीना चाहिये को साय: छिन्दी स्घरूप देशराये दें ! एच गनन्‍्य से सशाधिरें की अशुद्धि ( जमयुक्तता दोष ) भी हैं।--- | जे शुद्ध सूरत छनाफर. ., लुह यार सुटदफिझ ,. सतठसेएड ढाक बढालकेो चाय जनालऊर हे ठाठ काठ ,» ठाद साठ चारा ददुऊीअफऊ , दात्तायद्क्रीअल ; सभरछ खुलाव टालशउपत्त दाखछमदछुलछ जो “(6४२ ) खलारो चेक | छु० ६२ पं० १५४ 'पारसम्ाथ छा मुँह काला करुंगो! पुं रूण स्त्री का मुछ फ्ाऊहा फरलसा है जे कि ही पुरुष का। एू० १७७ पे० ९६ कं चाकबा जामा जोड़ा से लैस' हिन्दू पिल्ताएं में रझचाक़बा नही पहरले हैं। इसके फाॉं्िरिए्क कदे भट्ट भोरग्राम्य दोष भरे छावप : भी भयुष्त हुये हें जैते---अडस, खल्मजखुक्षी, छुछूघन, जड़ी अधथसद्े आादि | ऊवान! और 'रसटफर को 'झुबाना और ख़ुटका! लि- धत्तर सी विचारी पिन्‍दी का गला सलीभांति रेता यया है। सयाकरण का अदा -पु० ४४ प० ९५ 'रुसने सी फेघल एसारे राछमसिंह की वो चोसए देने के लिये रूपक बान्चा हुआ था । अफेसेफक-किया के करों में ने! विभल्कति नहींलगरई जाती। २-ए० ९१३४ प० ३ 'भव्र तो लो कुछ करना है सुस्छों मे छरला छे को! वबिक्रक्ति फे स्थान ने! कसर? बयर विहार-से जले? उड़ कर संयक्त मरदेश में जा पहुंचा | ३-णए० ६! प० १४ बढ़े खुशी को आतकझे' खोलिद्ध फा पिशेषण स्रोछिज्ष ही होता है पल्लिड्ध नही | घड़े के रुथान में बच्ची शेष्द छोर चाहिये | ४-पू० ९४ प० १२ 'में शाप से बहस करना उचिप्त स- . छ्ली समझता! | करना बहस फा 'अशेषण है कस लिये इस- फी स्न्ीलिजफ़ु दीना चाप्टिये । ७-घछू० ७. पं० ९१३६ घालतली हुई चिराण! चिरश्य शक पुल्लिए हे | इसफा घिशेषण च्वीलिड्ध कैसा | यथा--- समाछी चक | ( ९४ फिरांज़ों हुस्न है. ऐसा लबे रेंजीन जाना का । चिराश आकर बुझेगा हिन्द में छाछे बदरूदाँका ॥! ( आपषाद ) ८-प्‌० ८८प० ८ ऐसी रोड कि सके छिचप्की बंध गई! मुहायिरे के अनुसर॒र इस बाद्प में छि के स्थान में 'छो? देप- ला चाहिये | यदि सस्थन्य कारक छ्ली की मधिफ विधघक्षा दे, सो की! बिशक्नक्ति किखनी आअाहिये | क्‍योंकि 'छिचको” शब्द सखोलिज्ग है| यथा "द्विचकियां जाने ऊूयों बीमार की”? | ४-प० ९२४ प० ८ खिर पहिले यह ललाओ एफे वे रूपए चाहती हैं ? ! यहा ले” एक वचन“बह'के रुथान में प्रयोग फकियः गया है सो अयुक्त है। यदि कहा जाय कि घऊादूर में बहुबवचम है तर रण्छो को माला का छादर | उप पर भी परोक्ष मे | समा कोर तसाशबीनी दोनों के लिरुद्ध ! | . ९०--०ए० ९३६ प० ५ 'छरलन्दसय खाख ने खांदों फे हाथ से पंखी लेना 'याही जादि'घखसी लेने की चाहा इस वाक्य सें से यदि 'को” उद्धा दें तो 'लेना!होी सफता है परन्तु चाएए किया सो सतंया जशुद्ध हो ते | यदि स्परोलिश लिखना छ ती 'पंखी लेती चाही लिखना पा | (४)इस पस्तकको केबल ऐश्याश सरीदू सकते है | छे सर से अवश्य लऊाक्न उठायेगे।| दूसरे कोग सानाजिफ सियमों के लिझदु होने के फारण यदि आदर प ऊरे ली शआाश्वव नह्ठी ! फैचे न्द्किश्पर रु संन्‍्जों पागरों शफपाएरण पुृरयक्ताय प्वारए ( ०४०» सक्‍ास्ाष्यक | सोउह्स्य | ( गताडु ९३ ए० प८ से आगे ) एसफाम्थम रचरतों यह है कि जब विकाशयाद कौ साप्टिदाद दोनों ही में साह्ठटि और रटष्टिफचोकःर एकशल्ज प्रमा- घीोकूत छ्लीचुछा ही एे, लो फिर कोच की ऐसी आपत्ति उ- ठर्ने में सस्र्थ लछरी है | द्विदीए और ए्रचान उत्तर यह है के यह सल सखिफिन्तता प्रकत विक्षिकता पाही ऐै--यहट्ट सब विश्विय्यता सज्ुण्यफी झजस्था विशेष फा फल या सपलकिध मात्र है | सजुषण्य जिस दृर्य फो सिष्त क्षषकर प्ेंकदिता है कोडे पशु उछो द्वव्य की खलिशय सधुर सानकर पेट सरके खाता है। सलुष्यक्ती द्ष्ठटि २ सो रपल है किसी एक पक्षोको ठुण्टि सें यछ्ध धालर है | सथूल अवच्धामें सिन्त सिक्त द्वठयों के सित्ष स्िए खाप्लार ए्रोर स्वाद रहते है |रासायनिछ खि- प्रलेषण हारा घह्ी हृठय सूक्ष्म धावरुया को प्राप्त होकर एक- छी आद४रर चारणकरले दे कौर स्‍पाय; एकदोी स्वाद देते दे। स्थर आपदागरने एफछीी बस्स रसूथलू शन्द्रियोकी मिल्य शिदत- रूपमें प्रतो यान छोती दे | सरोपीय वेक्षानिकोने सिद्द फि- शा है फि ताप, दंडित कौर खालोफक अ्रभृति ली सब्र स्थल घदार्थ स्थल इन्हिसोके हारा घतसे च्यारे न्यारें खनुचूत हो- - ते हें, सूक्ष्मसकारनें मे सघछ एकछ्ीी पदार्थ हैं खल एव जो जगत से विश्विन्यता करवे जाये खाली हैं दछ भक्त खिएि- खतरं चह्दो ऐ-स्थर इशल्द्विय सम्पत्व सघुछ जअवस्या फो व्यल उपरूडिय भात्र है | थो स्यल :इन्द्वियों फा शासन फातिऋद करच्े स्थछ पफरथरूथा से उच्यत छ्ी<सूधरुक्ूप दश्शोेच ध्तरते से नी ससालोचक | ( «9 ) - ससभथे हो गए हैं, उसके लिए उागतसे भले बुरे का भेद चह्ठीं हैं, म्रकद विभिद्वता भह्टी 'है | उसके पास तिरू सचुर का भेद सहों छे, सुन्दर फटिसत फर भेंदनदी है, पाप पुण्य कसी म्रभेद्‌ नही हैं| जो स्थघूल क्ुण्टिके शासनर्से रहकर स्थल छू- छिट से देखते हं--बहो केयल सिक्त सचुर, पाप पुयय प्रम्त- लि विफ्िनल्नता दर्शन करते ऐ और थछ्ती समझुत जिशसिन्नताक्े सीन छोफर नासाधिय क्लेस प्षीय करसे हैं और अवनसि फो प्राप्त दोते हैं। यद्य जो हस उाहुपदा्थ और चैतन्यक्रे थ्ी- चर्म प्रभेर फरले हैं यह क्‍या ठीक हे ! आधुनिक सूरोपीय विज्ञाय फट्टता छे कि जठजगत्‌ ही चिन्‍््मय अगत रूपमें फू- ठट पड़ा हे, | मथरंत्‌ झडलसघसे विम्सय बना हु | हचस प्री नित्य देखते हें कि हवस शिश सब जह द्रव्योंकी प्क्षण फरतले छूँ रह फेतल हमारे जड़ शोशित भौर जछ अस्ियप्टी छी दू- द्वि नही ष्ूरते हे किरत एसारी चित्ताशक्िक्रो भी दृद्धि ऋ- रते हैं| शुक्रशोणशिस समुद्भूत सरतान केवल जटठ नद्गी चेल- ना सम्पन्त फ्री होते हे | तोही हमारे गुरुतुल्प एक ग्रन्थक- परे लिख गए दें ''लड छगल चिनन्‍मय ऐ” £ | लतएख कैेपे कहें कि जछ पदार्थ और चेतन घदाथ फिप्तपदाथहें ? कैसे यह नह्दों कहें फिछल स्छघूछ अवस्या में स्थुछ इल्द्वियो के शासन से हें अत- १2 ान्णया.. पा ७+० ० पक३ ० नया मा या >-- पा मी "०००० नम अ+ 3-७3 >> 3“ *- *"“नन+++33+43-33.->++++-+-ी.--->+मइमम-"- ७3४33 ५45०० ७4५०४ 83७3 33 -.“..." "3५४38 5५७33 ++ ५४333 कम... आ.7०---पाका “गा #5 देखे, स्वर्गीय भूदेवमुख्येपाध्यय सी. आइई, के “पारिवा- रिक प्रबन्ध का उत्समंपत्र ।” यहा यह कहना अनुचित नहीं होगा झि भारत के प्र॒पुत्त विज्ञानाचार्य अध्यापक जगद्दीशचन्द्र बसुने सुकु- मार दिज्ञान से जन पदों में चेतना पूरी तरह सिद्ध करदी है ( अ- नुवादकत' ) ( €६ ) खसमाऊलोजक । एल जद कर जोर चैतन्य फा एकल्व देख नछष्ी सफते । कैम न कहें फि ऋडत्े चैतन्य [की एक पअवस्था सात्रही है! कैसे स्व कहें [2 झषच्छ सदा स्क््डताशून्य चसेतन्य के लिए जु- रख फेर चेतलय एकट्ठी पदष्थे है? किन्तु त्रष्यायउ से पस्नीसर क्‍प्रकस विभिन्कसा वां वैपरप न होने पर को यह तो अवश्य स्वीकार करना होया कि ब्रचक्मा- दबध को एक स्थूल अवस्था है | ब्रह्माण्ड में प्रस्त विभिन्नता नहों है ठोक, किनत्‌ एक प्रकारकी विश्थिन्नता है। यह विशकभि- ऋता स्थूछतल्व का फू अथवा स्पशूलरव का अऊ्ु वा लक्षण है। मल एव स्वीकार करते हैं कि ब्रच्मायड में कुछ स्थूलत्व &। फिन्त उसके होते कैते कहा जाय कि ब्रह्माएछ और ब्न- हा एकछ्ली पदार्थ है १ बअचलायड में थदिं स्थुछत्व रहृताईहें सो ब्रक्मरणग्ड और ब्रच्मक्ो एक कहने से तऋचछ्छ को कमी स्थ॒ऊ कछ्ता गया फोर त्म स्घूल है यह बात कहने से उसको पर- पपुण्यरूप विभिन्‍नता कमौर बैषमस्य का विषयीभक्षत ला चीन करना हुआ। इसका उत्तर यध्व हे कि ब्रच्मायष्ठ का स्थुलत्द सथ्रह्धाण्ड का मित्य गण था निरय की ऋयस्या नहीं छै-प्षप्प- स्थायी गुण घा शवरूया सान्र है। एवयछहडुण वा अवस्था प्रद्द स " झस्लित्वड्टी नहीं-केयल सणिएफ अबसूपा फी क्षणिक ठपलदिध सातन्न है| इस गुण वा अथस्वा में मत भसितित्व नहों है भष्ट सझुल छी जाना जा सकता है| भलुष्प को राव, दूं प, छी- मस, नोछह, मभति कितनी ही स्थूर मकत्ति हैं ललुण्प शितनी देश उन सदर स्घूछ मद यो के छ भोभमत रहता £े उससी देर _ उसे फेदल फुछ झ्ग्मस्थायरी एव विफिस कायोंका सार कः सलात्वो चषछ्छ | ( €$ ) दणछ्तेश्न हुस नाम से फछ कर फानभर चारिए। यह मो उच्द विफ्रिल्ल ्णपरुघाएी फायोके अघोच रह फर अपने को प्रति सुद्ृते अलग अलग भावों में अनुमूस फरता दि-अपनवा जोन: अंग्िख सुटढ़ छुतिश्चित सुस्थिर ससमसतासय अख्तित्थ है उसे ठलुभव नही क्रतर ऋथदा नही कर सक्तता | स्वच्छ जलमें दादर के घाद खादऊ फीो उाया पडने से जलकी जैसी जा- कृति होती है, पैसे हो छस फो आाउपाटिसक आकृति होजआए- तो है | फिनत्‌ बाद के साद्‌ बादुल की छायर पड़ने से 'स्वच्छ जलकी को आफक्ति दा खस्तित्वथ है यह जैसे स्वच्छ छल को प्रकत भाकृति था अर्तिस्व नहीं है, सिप्त २ पफ्रा- थो के अचीन हुए सनुषण्य की जो आकृति था अल्तिस्य है बह मो वेसेही सलुण्य फो प्रकत भाकतिवा मस्तित्व नहीों है । किनत सनुष्प ज्यों ही लोस, सोह, सात्सयंप्रभति स्थ॒न्ल ु डन्द्रिय सूलक स्थुछ भअदत्तियो के शासन फो उलांचता है त्यो ही बह्द एक सद्॒ढ, निश्चित, छुस्थिर, सुन्द+, सुनिसेछ, समान अत्फार का चारण मकटपट डहो करलेता है | सगत्‌ सें कोई क्री उस माफार का परिघरतेन वश लि- फार नछ्टी कर सकते | तब सन्नुष्य का जाफार या प्मस्लित्ल क्ेचों व्वी छाथा से बिसमुक्त स्वच्छ जऊ के आफार था अऋ्िल- एघ के अनुरूप वा समान है । अतएवं समा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड में जो स्यलत्य है वह क्षणसुयायों अधस्यासातभ्र हे अकत अखि्तिलव नहीं है। प्तएव बतऋछलकफे खाशिक सायथासय सणस्थायी रूप के ब्रक्ष से छी उद्भत या प्रक्षिप्त ्लोनेपर भ्ोे प्रदर तद॒द्वारर दूषित चष्ठी छोतर, झसीएकि ब्रह्म भित्यतासय के (०६ ) उर्ालीचछफ ! अत एच अभित्य दहएश्श छारले का नहीं, एवं मा उसके भ॑- चीन नह है वही ब्त्म फे जभीर है| सूसका कारण यह है कि बह फ्री ब्च्छ को इच्छा से सम्भूल ढै--एन्द्रजाल जैसे एन्द्रआालिक का इच्छासस्प८& है जेसे यह मरी खष्स को बृच्छा से सम्भूत के । एवं प्॒न्द्रशाल जेसे ऐेन्द्रजारिक्न के प्रकृत अस्लित्व को रूपशे नहीं करता, जैसे सह भी हक फो रपर्श नहीं कर सकता । यह्ट फ्रैसे क्झूछ रषप चारण करता है वा स्घृछत्व मकाश फरता है, घह वह्दी-जानता है। कि. स्‍स उाहे जिस फारण ने करे, यह जय अपने फो लेकर शाप छी इस रूएकाः चारण ऊरता है तर और कोड मात ही न- हों है सझतो । दूसरे के बारे में 'प्रका बुग' कास फरना फछा जाता है। अपने को लेकर प्क्ता खरा फाभ करने प्रो फोदई बात हे नछी हैः सकती | अलएवब ब्रह्मायह् में स्थूल ल्‍ल्घ रहने पर भी अ्रह्मपण्छ और बन्रकछ्छ एक है एस बात पे फट्टदने में फोडे दोष हो नहीं सफता | फलतः ख़त्मायह्ठ यारि ज्त्तछ को रलूहप करके कह्े-घोउए-तो श्र्मायठ सब बातो का सार छ्ली फछतए हे। ह हम से से लिनने हसारे शास्त्र नछी पढे हूँ, अंग्रेज़ी शारू ही अधिक पढ़ा हे उनके लिये यहां दो तौच बातो फो भरी सांचा फरने पी चेधा फरते है । उनसे से कछ कुछ कएछा कन उते हैं फि यदि प्रह्माग्ठ खत्म ही है तो न्रह्माण्ड में शितने पद! थ॑ न सय् ही ध्रद्य हे । ओर ऐेसए होने से लत पी ग्रह, क्षी ब्रह्ल, दक्ष भी बछछ, पत्थर भी न, इट भा प्रत्तनपय ही ब्रह्म | ऐसा छे।ने से अगदीश्मर एक भहीं छुला, कवय खनाऊोचकफ | ( ०४ ) से कितने प्दाथ 2 लतने ष्ठी सगदोश्व ः हूँ | न्ठ जुसप्छी खपेसा फौर हूृ/स्थास्पद्‌ सात हो नहों सकती | जा ऐपसाः तफे छरते हैं वह ब्रर्म किसे कहते हैं सो यही आसलते 'भीए सो: बया है यह मो नहीं जानसे | थे यह नहीं *जान्‍्पते कि ब्नक्ष एक ही पदाथे है, विश्लाज्य नह्ठीं हे, एव श्रम फे- घल जान के द्वार जाना जा सकझता छे चक्तु या भन्‍य किसी शन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं फिया झा मकता | अतएय घे लघ यह कहते हैं कि जगत मे खिलने चदार्थ हैं वे ब्रह्म हैं तब थे इन्द्रियातोत पदार्थों को इन्द्रिधप्रण्यक्ष पदार्थों फे भवस्थापतन्त करते हैं। उनको और एफ भूल हें कि जहा धप्रकत संख्या भह्ठीं हें खां स खयाअप्रोप सा कल्पना यही लाती है | जगत में पदारयों की संख्या हे, रुपूल इन्द्रिपक्वारा जगत्‌ देखते हां एप क्रप हो जाता हैं | प्रकत ज्ञानचछत से देखने पर कगत्‌ में स्िन्त्र फिन्त पदाथे था बहुसख्माफ प- दायथ देखे नहीं जाते, णत्यत भनिष्न भिन्न एद्ा थे एक ही पदा्थ फे रिम्हि फिन्त रूर आकार धा अवमण्यः जाने जाते हैं। आधचु- मिक सूछम ओऔीर उम्मत खिज्ञास ने पस्नी हस खत को सूचमा सारमभ्सम फी हैं । अत णष श्रह्ष जैसे स्थूलूचक्षु से देखने प्री चीज नहो दें झानचल्त से देखने की चोज़ है, ते से हो द्रद्धय के साथ ब्रह्म गड छा कगत्‌ का सस्पक निण य फरतोी बेर सूगस्‌ को स्थ्ूलपद मे न देख कर छान चद्दे से देखना उ- चित हैं | ज्ञानचछ्तु से देखने एए शगत्‌ सें पक्ररचिक पदृण्ये सह्दी दिखाई देंगे, एकाधघिक श्रत्य भो सही दिखाई देगा | 5 इुससे घात, आालचल्तछ को छेाइ्कर स्थघूलचद्ा द्वारर कै ( ९६० ) घसमालरेचक । हि ज'ते सोडइुघ इसका अथो यह लछे पछ ष्ह्य घट अथवा अचतत्‌ ) हो बडी ण्दाथे है । यह ्य हैँ किझख्य कदर ह84 तो केसे कट छ्ोकि क्रद्ल रद टाह्यारुड फो छम पदाणे कछले छे लस इस छजुृदक्ष_ पत्ता रु बार ऊछकोी हू जच्य बा जगदीश्वर कदना हुआ ? | भ- ऊझस सझुद जा एदाश हे एच छीटा जल भी बह्ली पदार्थ हे फिन्त ऐसा च्टने से एक छींडा खस्द कूपा समुद्र डहोीगया | स्ू ले छल रे कथा समद्गर के लिखि लिसमिड्धिल खेलते हैं चाप थे तास्का चप्ले हें, सलुद्र का सह्ामलप उद्रूल होता ह एक छऊड़'ले जो पएकुरथ है ससब्स देछ् फ्री वह रदाथ हे। दनल छत्त से क्‍यर एक जशद्धालि देह डे।! खास का एक मय जोे पद हैं, सन को शही पदार्थ हे। <पन्‍्त यह्ध कहने से सच फा शृक्त भाव क्या सन छे ? तो फि- र मेल सकशक्तिलास, सर्वाननद ऋहय जो पदार्थ ने जगत परे सही फदाथ हे थो फकटले से कैते फहाजाता है कि लत से बेल पत्ता चद् दठ एक २ सर्वज्ष, सत्ेशक्तिनान सचिदग्नन्‍्द ऋ्छ हुआ + सो5डहसू का प्रक्तत झ्थ सलमाने को चेष्टा चकत रचे से हो ऐवलार परऊाप लद् अप्ता हे | लिनकी दाल ऋण एड हैं, उसमे से घडव से थह्ट फह उठते हे फि बक्क्छ अलि चहत्‌ पढने है | खअलएव जब देख- [छे लगत में सनथ्य की छोडकर ओर जोड़े वा और त्काय नहा दारताों कु । 270 £#४ नस छ ऋ्रक्त महत्‌ नहीं 6, कोइ- भरत “६ करके उभत्‌ और जगदीएवबर के एकल्य रूथरेकार 653] दी चाय ससाऊोचफ | ( ९७१ )' करके जगत के सकल पक्ष को महत्‌ कहे फहते है कि जो सब णद'थे अचेतन है वह्सबती कीच काल करते छह लहों, जो पद थे देलत हैं उच पक से सनप्य छो कर आर कीडे महतकाये झरता ही नही क्लेतलल खात्मभेव्ग रे हरे नियक्त रहते हैं। यट कण ठोक दे १ ऊगत से दपप् कोड एच एंस। सस्य चही था जब यहा सत्तण्य सही थे ?! अन्त उस रूनुण्य्शूल्य जयत्‌ ने हो कथा सलज्य एससल नही ऊफिये!? यादे ईजछ है ली छथों कछते हो कि जगद मे छो रूनुणष्य नहीं से चछह् महत फाय नही करते वा कर सक्‍ते ।! लस आपत्ति उठाओशे में सूरोपीय विज्ञान का खिबक्तेंसादू नहीं रा्नतर जा नहीं ससकता | ऊजच्छा वही सहो | तुम समनुण्य दो-- अतएवन सम सघछत द्वी--यछ्ट तो सानो, यछ तो ससफ्तो | स्षि- न्‍्त कट्टी ली, घत८ -ऊकिनका आहार फरले हो, अचथप्त क्षयत से प्ये मक्नण्य नही है, दे तह््नारे देह मे कपप्र7जऊचुर कब्ते इसीलिये तसम जगत्‌ मे सहतकाये कर सफ्ले पो था की कुछ ! याद चटष्ठो-छे ली कैसे ऊछडइले हो कि ऊपर मे जी सा- लुष नहीं हू वे सहत्तुछाय सक्पादन करते ही नहों ! तल जिस सतेप की इतलोी बडाडे करो हो उछसा झतेप व्या सि- हा,ज आयझ्त कथा कठता हे ? बाउला ह लि फ्थित्री दो ीटा- /- तमन्णमगाए- कक शा कला घ्ट्ठः जाक ऋ्रधागााढ-.. मधाकागगी- हिना म जया व्यणाकण का... पुर ७ ज्झल # | परम दशा छाद्े हेघात सचातासत, ऊअष्ाप से ऊकक् रत पद पे बज का अाओंक.. बमम जाके यह -ग्पानाकामूकण इलाका का ह। कम, छह जग ख ९ ने लय एाउइ जी 4रच्चशा रत उलह्तासड्सछ साचन फ् / लागे आठ कथा नल आवलन्नलऋ च्पस्द्ध प्र हो ं दी झ्रेन्चिक्त पा 5छख व्याक रू ष्टो झा का कऊच अ्रसमजाजओ। #६ ऊऋछहछतर जक्ञार, ४ सास सका ऋः तार डे पल तत्पर 'र...-आआ-.३.बक्‍.फ्ा-->ीअमम-० आन... -मूझीमाओ डा. नाम - ना हरा पा डा -वैनपाक गा ७००>+-७--२०७#-+-:४००० "राह" "गायक # रम्प्रदायक अब भे इस रव्द्‌ बत उबर नहीं पसा गयहे +छ> ( ९०२ ). समालोचफ | लो फरते हो ख़ लणत्‌ का ही कास है. सच्छारा जो चर्वेशव है, खिपुल ब्रह्माण्ड फा घट्टी उद्देश्य हैं, भ नष्छ ब्रह्म फा अभी बडी सहोश्य हिैं। ती तम ऊ नते नहीं हो कि अनन्त अच्य की दृष्टि में शुस बालू के कण भी नछीं हो | तो तुछारे सन में यह नहीं है कि ऋसोस अन- स्‍त बाच्य का झसीस अनन्त छत्मायठ को टूल से सालूभ किस लसीम अनन्‍स उद्देश्य से तुम इस राजा सजा पधत प्रौन्तर छता पता पशु पक्षी, कीट पशरु चूल कादा सथ प- दाथो को समभप्व से उसी एक उहेश्प फे साथक सासकर अप्तीस वेग से अनच्त भागे पर छूट रही है | तुम क्या मय फहने हो कि जगस्‌ में सानय के सिघाय सहस्‌ ऊोर कुछ न- हीं, मानुप ठपतिरिक्त महत॒कांर्य और फोई करता ही नहीं सी छुस् प्ारत के हिन्दू हीं दो। “सो5छ” पमारस के हि प्दुभों की घात है | तुम ती पसारतथ्े के ट्विन्दू नहीं। पीर सम कया सारत, या युपेप, किसी देश के पक्रत मनुष्य नहीं । कड़े ऐसी आशद्धा करते छेपफकि मनुण्प आदि पापने रूप ध्रद्म सरनले, तो उसके अहडद्भार णी भोसा हो नहीं रहे गी। हुम कहते हैं, मह सही, सलुष्य जम अचने की श्रम सासणे पा ही छस के अहडद्भरार का सशाश झोगा । णी दिन्दू फड्टता दे प्लोडहस” खड़ में हूं' यह हिन्दू यास्तवर्मे फहता हक किचगरा में साली में दी खह नहीं हूं, को कुछ है समय ठष्टी दे लइा संग ही शर्त मे बहा एक को झछ् कइने से मटट्रार या मन ईमान करने का अजसर ता डपााय कष्टा है जीर खड़ा सलुष्य दरपने को सापदइो फदता ६- धोीटएम' यह सह ज्य-ेंगंए . इता खजगात्दोीचक | ( १५०३ ) काण लो होने ही ए हों पाता, फिद पष्ठा अछुत्ता फा रुपान फह्ठी हैं! पारस के साहित्य में भी हसफा प्रमाण नहीं है। सरो- पर्मे एक सरय चस के सास से अनेक अत्याचार और हत्या- कायड हो घुके हु। पोटेस्टेन्ट और अन्यान्य चर्स सम्प्रदाय के नेक सह पुरुष सारे गये हैं दिनत उनने आनन्द से प्राण खिसजेन किया है सयापि सपनेर चम विषयक सतल को पर्त्याग था परिवक्तन सष्ठी किया। उस खड़े इमिहास फो पढ़कर घिस्मित्त कोर फरमस्कत हें ते हैं | फिन्‍त्‌ उस्फरसाहित्य में एक ऐसी खा- स पाझे जातो हे,जी फ्रारस्फे साहित्यर्म नही प'द्टे जाली । बहू क्षास यह हैे---ठन मद्य सहापरुषोने घस के म्पस ले च- मेच्यत्त होना भस्थोफार किया यह नहीं, किन्सू ात्मस्वा- कोल ( पति रात७७छ) ]पवे 276९॥४ ) करे वुहाह देकर अस्यखी- कार किया | डस असाधारण थीोरत्व और महत्व की जड़ में कझालम या अह दिखाईदे दे हा दे | दिन्द ओके साहित्यमें प्र- इ्ाद फी फथा वैंसो ही फथा है--वैसी था तद॒पेक्षा अधिक चीरस्य भीर सहत्थ फो कथा हे । फिन्‍त उस कथा में अढ था “आत्नैव” का लेशमाशत्र भी नहीं दे । उस कथामें विधभ्णा विद्वेपी हिरणपकशिप ही अछह वा जखात्सेव को छतिजुत्ति है-पहछ्लप्दर्म अहू या जालटमा का बिलकुल अप्ताव है | मक्ता- दने अपने नासपर, आटमस्थाचोनता के नाम पर सब यन्त्र- या भोको सहकर अन्‍्तपयेनल जेपष्णयचर्स चा रण फियप हो सो नहों, शिष्ण॒ुले नास पर सञ्ञ यन्त्रणा सहन करके उसने अल्त ' चर्येन्त घेष्णबघर्स चारण किया | जह्टा किष्णा हरी सब है, ब- हा मह्ाद झोद क्‍या दे ) विष्युपराणर्मे प्रद्धादू चरित्र परंड अर | ( १०४४ ) ससालोचछ, ज्_-क फरले से खाहुम ही ऋझाधरगा कि यह चारस सत्य हे का चहीं। झसा। स्िए एज्दु भा के ऋाहित्यसें, घल के कतिहरसर्र, ऋ््त्य ऊआोर वोरल्ज का कहानियरेसेऊछ या आत्प्रद' की यनन्‍च भी ऋटी-छछ्च्रेत्नलम्धथी सरोप के चाहिए्य में, घर्स के इसिहा- ससे, लहत्व और वीरत्व को कहा नियोमे अह जा आात्मेय यह छी मत्क हे । आर्तके 'सो५ह' के भारत आरैर सूरोपक्ते लॉचसे सहद्ध आपने खेद घत्पदा किया है, आारतकोा योहक की सपेला इचला झऊेछ कर दिया हे। भारत का जोड़ प्ररतके छिन्दओओ को बछ्े गीरत को छोज्त है | सनन्‍ण्य वही परद्नहर है, एक छिन्दू की छोडकर ओऔर कोई भी इतमी-सदी भाव ना को भावित क्षरने से रूसथ नहीं है, डरेर सियी को ऐेली बात सोचने का साहम हूँ ही चह्ी इस बिशाल बालकी सच- लमे चारण कर सके छेते सानपिकर-सवियालऊला ही और कि - सी को चह्ढही किनत खझ्ु ऋछकर अफिवानरऊ सहूेत फिया खाता है । चोवउह किसे ऊछते है, सह यदि ससवक्त लिया जासथ सो छर्चिम्प्प्न फकिखर ही ला पें ऊा सकता! ऊऋरजिसान-ला भहलझ्ार केनए हुए छिला कोच फ्री उस सोउद्ध का अधिकार) लहरें ठी/नय! सउपधनद॒शी सहासतलि डेन्‍्द अशके सूक्षत्तम अलिविरादट भोडहेका अधे--प्रक्तत झ्ष्हयजझ्ञान प्रकृति ४प्त्मप्कान हे. छरपार सी सम नल, अरप४ सीसम साछुस-सझ कप सामक्जरर, सब का भहत्व, च्द् का एच्ल्ड उपर अच्य पस्ध्खा पे शयचतज्ए हे | उच्च द्ओ के सोडछ कहने मे, पहन्टआ कक सकी, हचष्मउशाा।, 7 हे वक्त, कऋ्च्काशा उस ्चउ हे ससमपन्त घचरोट्लना कअउलचुष्य ध्स्खीपर और छ्तज्ती का टेघ्ट ली लेते | . का जयपुर | ९४८४-०३ भ्ड तक साले शपछा। ( ९०५ ) ग्ल # फ्नछ जल तक दाय साहइत्पाजछाचंना छक श्प्कल्ल्ता ( गताझुू १४ छ ६० से अग्गे ) लखाऊ के प्रक्‍ाव को सका ऋर जो लिखले है, फुदा क्षा- लाला है कि दे पसाज फपे साफझी जा चक्र ओवर घी उपण्यया फरले हे। हसारे चुद्य के छिपे हुए पाया का ऋलकानप् ही लेखक का व्वास है इसीसे ऊसे आनन्द शिलिसा है इससे ही घाठकी को आनन्द खिलता है। खालीेमघसा हिक्तम और अप्लीोयभाया छहस को को पसेखप- ते हे तह हमारे अश्थिसउ्लांगव को ऊाता है जिन नशेज्ञए क्र कदम हनी स्लर्फ चयन छू की सोहिती झूरत छतारी छलपरार से प्रामित हरेली है वह उामतलक छूसारे साहित्य की रपाल ले ध्यले सलघतक छस'प्रे खसलाए में उसका सूलप सही सादे उस को यह अमजाव जान णले कि छपारे साहित्यसे कुछभी सीखने लत्यक चसर्षी छे तो लथणथ करे पूणे करने पी ठफ्बस्यथा कर्चों होयो। शभावदान हे उठ्ो चन का जनयिला है | रोज रोजही यदि छसारी आफए- छा खनतो जाय, ता हवस रे रापहित्म में ऊद्य अं व्प्द्र ष्ट उशगले ऊंस कुछ लग्य को जोड़ सकते हे | को छूम साणणेपि छूसारों प्ररते लासोय न्ाहित्य के मछणज के लिए उप घच्छ हुई मे | इससे इस देखते है किमातोससाहित्य रूए दुर्धण में सालीसजोदन केने प्रतिधिश्चित छोता छै सौर बही जाती- साहित्य हसरे ऊझालोीत जीोचन के गठन से कास देतलः हे | आतलीयणखरहटछित्य ले मसलिफ ऊकूत ससा्जाजञ्र से 'फोडई दो दिखादे देने से उस हे घतिकारपोों चेष्टा स्वसावमे ज्री दो सकती है योही लसाज की अवस्धा क्िणंय छर्ने के एिए लाइलीयसाहित्यालछीचना पं बड़ी प्रचास आाथवज्यकछगाः जै। ( ध्ूमसुदरा: ) ( ९९६ ) बराक चा ! .. राजपूत और हस अवश्य ही उपान देनेके योग्प होता णदि ठुमके ससा- लोीचक! नामी लेखमें “अयोष्यलाके कारण 'गरूभीरता का भास नही है! सन्यसयमियला का परिचय! कहीं यद्ध काफुप मूठ सूंठ बादू रामकूष्ण को प्रसन्न करने को तो नहीं लिखा शा? खूब अलादरके यचनोसे इसका लिरस्क्‍ार किया था" शायद बासू राशक्तच्ण' की खुश कर लेना चाहा ड्लो” “साल भसगयाद भी सुचरने के सदले भौर फ्री शिगह्ेगाए परिखावे को सहानुफ्ति!? “सयडियों का सा याकप! “बेतका धाफप “मूठ सूंठ साहित्यप्रेंम ठ्याजसे क्षत्रियोंक्ो निल्‍दा करता भोर यात है? सम'तसोचक को अठ यड खात्रेंपर उयानही स देना चाहिए! “समालोचक नामकों करूद्धित करनेयाले रूस पत्र की पेमी चाहिवात सालो? '*क्पने ससालीचक ला- सकी दूषित करना? दत्यादिं सीदे खाक्यो के परपोग मे उ॑ सकी गस्सीरता'ओऔर पोग्यता का परिच*«+ न होता | हिन्दी पढठित ससप्या को हम खचाद देते हैं कि उनके पुणणअल से एस कलिकाल में पेसे शिष्ट पत्र विद्यमान छू इस लिख का उत्तर देने को यह सी ऐसी प्वापा और भरवों पर उलर भए- के, किनलत यह उच्च साहित्यके नियमो के विरुद्ठ हैं । हूं, राक्पूतके कुछ ऐसे खिचार अग्रकेद्स लेखमें प्रकट हुए हैं छो हिन्दी भाष'के [प्र सियो के जानने योग्य हैं और जि नके लिए उचित है कि राजपूत की एड संदिया जाय | भा शा है नागरी प्रचारिणी सफ्तप्के य्क्षमवेशोरसख पर रघजपूत दो 'घम्रिसशणशिफपचन-न- सासरियेट मनाया आायनसा। जया ्फ़ ४ की ससारठीयक |... ( १७9 ) (१)घमालोचक फे अलुप्तार या लो हिन्दी क्षाषा के चघ्दे धप- पन्‍्यासो को कुछ न फहना चाहिए, या प्रशंसा फरले व६- ले उपन्यगसो की जिरदुता प्तो जाय। (२)पारतजीवन ने सनालो घक्क को व पर उचछटी सीचीो छु- नादे, और राजपूतने प्रतकी पीठ ठोफो तो घस्ताऊंप्यक फो जन्‍मप्र के लिए पहले पन्न कर फट्ट रशत्र और टिलो- सका ऋोतदास छोजाना चाहिए था | (३)अबतक जो ससमालोचक चट्टी बोला दी उसे अबभो अऋप- नी जीक्ष सुह के प्नोतरछ्ठो रखनो चाहिए । समालेरेचकरने ” पछ्ठछे कप्ती कुछ भी न लिखा एससे झब इसको सहालु- भाते दिखादेको हे। (४)राजपूतने ऊौर स किताने भी गगवाली हैं ( घच्य | णः चु।! ) और उत्तपर को लेख लिखे झायंणे, किनत सईदे र- सालोचक में जाहूगरकी सनकी रूस चाहती भालो क्र हो- उपाय लो ही ससालोचऊफः प्र जच्स सप्तक् हे, भसहीं दी--- “लस्थाजनासरेबासरलतू जननोवलेदशका।रएज: कि कूत सेस जातेन जननीयक्लेशादतवारिएाःश (५)सा हित्यजिष बद्ध पुस्तक होने के फ्ारण, उपरयोसादि 8- . झतफों से गाली हो सी क्ली, फोद उत्त दे दिपय नें कुछ थ कहे | उमालीचफ इस खिचित्र सूस लिझी अपने पाल ही र्च्खे। * (६)राजपूछ समासी घक के सम्बन्ध) स्ि्एाफी पुरुदलें लिए वाफर दिखाना चाछता दे कि यह छब्परके प्तिबी दापे ते! ( फिवना सदार और उपकारो व्यापार हे !! ) पु हर ष़ | ( १४८ ) समसालीोेचक | (39) क्िण्पत मेँ धमालोवक नासको फलद्धित फरनेवाले इस पन्न की ऐसी घाप्टियात बालों पर राजपघुूतजी दृष्टि नही देंगे। ( शाप अपने ग्र'ड्वक बढाने की चेटा कीएिए,चा द्ण- छू शादी का सच घहाइए, बखुदः इन दाहियरत बातों पर द्ाष्ट रच दे )। स््द्ाल्ल्घहहशादर कततन सबलाना कंधमांपे झुदयाआइसस्ताह्दा: सम्यवन्ति । समालोचऊ-खम्पादफ | जाहिद फे सिरपे जमाड़े तड़ाकसे ! आदर हाथ घलरहे है कि अच्छी पड़ी नहीं ॥ ४ रप्चाएल ” छीररस से रेद्ररच में सधिष्ट दोयया हे। फेबल एसी पछेए को , छस “ मोहसपी मसादसदिरर ! परेदार छठ लाब्थे किये एक पक्ष में रहीं खडे हुए हैं खीर सधथ्यस्चदतचिफी रऊुफेका यत्त कर रहे छें, था यों फाइए दोनों लसड़ाफोको ऋरछ। झुझे खाते की ऋसश; दवा! ला! कहसकने व्छे लिये , अपने सास्दिष्क को नहों देच चुक्षे है, राजपत ह्सररो पघ्साद झेहाए ले बहादरोरे दाता हक ! वकनन्ल शृपम्प +ए्पथेचुजादी” ले सफजपुत पर सब ही खसर फिया हह णोए है रफ्मग्न सदन शुग घणा कैसे कद्ध बनाय ) सनते कक री ने. सोच प्नच परके एन्द्र यह कहता घधा फि “ सर एस पृच्यों सके खाक हम भर सा 7 रब्ज़ू थे बशर !” था / झेरे सन्‍में खातो हूं फिर र घीोटर दुर्लभ घर कृन्त उदार राश्युत सालादार से एटा पी पददी पहला हाएता है भानों राजपूत अपने फी फिन्दी सम्यादपत्री पर आभ्रण्तो सानता हो, या सारे धाहहत्प फा जा ससालोचफ । ( ९०० ) फैसला अपनाही कास सानतलर हो | राजपूल का उत्तर उद्धी के समान सक्चुशब्दों से दिया जासकता है आरेर उस प्ायाको उपयोग करने मे हस असम हैं | कहना चह्ती है फि “द्द्ल दृदत गालीगेलिसन्तो प्तदलत; ,, | ९५ अक्टूबर को राजपूत के योर्घता फो बानगरे इंच शब्दो में दिखाई देते है- इसके लेखों का छत्तर देवा अपना आर पाठफेों कर सखय नप्ठ करनः छे,, “ 5ब्य बाही का भ्से सत्तर ?? * जठपटांग छिल्दोरेष्ल फो बाले!! “ झूल जातक करते ” इत्यादि | उचेक चन्‍न्यवाद हैंकिलमापचे अपने सर ते रहले की हसाशे “ सल्यकत्ियला का प्रो परिचय ? देर सखानर है और छघतारे प्रेरितपतन्न से आपके $चिरा में दछर प्र क्तर- य हुआ हे। उत्यप्रियतर तो सदि जाप उघशुसा छलार दे लो! ऊझीर बहुत छगह दिखाई दे , क़िनत खुछों चिट्ठी को घात के माप पचा जाले दि्खादे देले है।सुलो पिट्टी का ले- खक तो यह कछता है कि 7णजपूच उस गलदी पुरुतकछ कार भप्वार बनन्‍द्‌ कराये , मस्त यह बात पत्रमेरक हो फामको हे झसाररोी चह्ीं | हा बाल गोपाल रास ने तो यहद्चो लिखा है कि जह टिप्पणी सनकी पफिखो नही है फिर “पसन्द च को? यह फप्य के रूसितिष्क से केसे समा गया : अन्त में राजपूत अपनी जातिफी की छिल्दो सेवा गाने छगा ऐै ( क्‍यों “ जजनेरके पत्र फो था किसे भाद की छह दिया होता और उसे सिरोपाव देकर रलिखनबा छेऐ ईकि छिन्द्रे राजपूतों पको बादी से ) उन्द्रीएनि रूस वपाते उूपय सखेना- पपर्ेशु पे | ( ६९७ ) ससाखेचक | छहनारा को यही पनिवेद्ल है कि सदि आपको “सफ्ाालो- ध्दयक छी सश्पादुक क्‍्तेंडयल्ि दिस्तु सलियलिका छच्छी दरह पता स्ायण है पे जखुदा अपना कास करे, चाह क बढ़दावे, बारण करें, जिस विषय से सापफा अघिकार नहीं ) 4 सार ्धिं है “| रो *| ४] दि हम हक १4 ४2४ रा ! / ॥2/ जा / 2! पं 9 रा 25 पछित ससाउसे ऋपील करते हैं कि को राजपुत ने जी गालियां दो शहए । इसे तो गालियां खानेंका शोक पर पद्म इच उच्च साया फो कब तक सछेंगे। याददि एस ऊअटके ते छमको उज्के दिपय में कछचा झछीटछ दे ॥ जुर्ोेक्षरोषि बषभपण्येकाल्लतलों सि/ल्एड्रॉ3] _ दसाली चफ-सस्पाः दुस्ष [ ६ // ॥६ 27 ५ £! *-, नै /7% धर किक, | 4 श्न्च क्र हतं घ्हन्प | 4] ०, | 0 2 «४ 20 8 2) 70! 2 ४ 2] न ल्‍्न्छ् आप लोग यर्डा क्यें। झाए पर कांप नही जानते फेन्त फेघ चार्जेन से लाए से यू को प्रषन शिया जा रहाः कै इस का उत्तर देने के लिए+--- इिश्यर फो इश एपिो में उस कर्नशेत्र मे, तू कया फर रहें हो, ऊझूछहाँ फि की दान रूछही छरतर बह सीयता है था चोरठा है! | सुम् पद सघिक्क 'र दे यदि तुन यह उत्तर दो क्षि छम दक्षिया भीर सालछगजारों ही वसूल करते दे, कौर शिक्षार खेलते £” | फालाश्स ससा ऊछोचऊ । ( ११९ ) प्रीर्त-पत्र । सन्‍्पादक सहाणशय ! ह सितस्द्धर को सरस्यलो में जो “पृरछी'! कई लेस रूपए है उसके दिपयले जाप इन पाक्तियों को स्था- दीजिए । यह लेख विवाद गलत थिषयधर है। अर्ने तध्क के चसे ससार में घखिदयसान हैं जो एणथ्की फो चपटो औीर स्थिर सानते है| विशेषत) आछुनिक सिद्धान्त छकल्तारे जेन घरसे के म्िलकुछ जिरहु थे | अतएव ऐसे खिवाद भतत विघ- पोपर लेच्य चष्ठी छपने साद्चिए | सवदीय-एफक पेन %.# जैन सट्टाशय के इस सतसे छत सम्मतल नहीं हैं मट्ी नहीं सत्तके रुप के एम विलकुछ विरुदु दें | यदि बे, या और फीई छिन्‍दी जरनने वाले जेस “दी चनन्‍दा दुए झ॒ज्जाए का घर्वोन्त सपसवती में लिख शेले तो छल कह सफले हे कि उस के छाप्ने में समपादक को कोये आपचि स छीगी | शिल्लाघ दी चितल उच्नति नें किसी चरस्ेका इजारए नद्ठी है तथा मा- चीलछ यार की सिद्ध प्रने था बचाने का चपाय उनका प्र काथशन है, ल कि उनके विएझद्गु लेग्ोकी णोषाना । योही फर् ऊं)ग “नप्गरीमदछारिंणी सका? को रसेशद्ल”? के रॉल्हार अनुवाद छपने से रोकते हे सह ऋमकी बड़ी सूर ऐ। वददि ससेश मद का इतिहरस दृषिन दे ले! सचा इसिहास कहा 9 खीर क्लीन है ? यह कया दोषद्शियों के सनन्‍हूक से बन्द है ! दृबित प्रनंयथ के छ परदे पर सी उसकर खण्डन मी हो स- फला कै, किन्तु सब प्रत्थ को छपने से रोकरपा घड़ी सारी भू $ (९९१२ ) ससालोष्यक् | ल छे। यदि देवर साइबव दे अन्य का सापालुवाद न छपा होता ती प० साधनप्रसादु उऊप्का खश्डच कहां से करते! र- सेश क्षादू के इसिहास के विरोची इस बरस प्फो भलते हे कि रसेश बाद स्वदेशी हैं, चनदे लेख को दृष्चेत कहना भीज़ रुप कास रखता है | चला० घ० सभा को कोड ज्यपत्ति न हो- जो यदि दुत्तके इलिहास का खबड़न कोई छपर दे | किन्तु इस लिए कि दुछ हठी ऊकोय किसी अन्‍थ फो खरा समझे, उसे छपानला हो नहोें था छस पिछयपर लिखना ही नहीं यह कोई बात नहीं | विज्ञाद हठचर्ची से सद्धस्‍ी एललखा, च- लता हे खोज ले, अऋशध्यद्सायसे | ससालीचक-सकफ्पादुक | ++............... रा 5८०० ०७४८० 0मलथा ८ प-+++-+-+5 घसे सम्बन्धी सिवालियेपल को बदुत दिनो से सछते आये हैं, घछी अब रूपये का दिवाश्ियापव होयया है भौर असच्चा छ्ीगयाः ड्ठै | धुल द्व सन््यों के सश्चिलित चठ्दों का घछा मभाव है, जह् झुठ॒द' लच्कोां सर्दी दा, उनके सपउचारःर कर उच्चारण श्े। कारऊदेध के छस उागत, से लितने शब्द छ(र जितनी छापर सिछती झें उनमें यही उब्कपे प्रधान हैं । बार टूल यू 8 अफफ्रा हर अप अफ्लेिंब धो 7 है ससमाछऊोष्दक | ( ९९३ ) खरऊ भी शिक्षा ही है । पेप्न | डरिए थक पक 3 का 4 की ( सिलमभ्कर १९०३ के कशेश्पोरेरी रिव्यू में दाफ्थर इहचंसन के लेख का सारांश ) ड़ ग४ खत धक्का (“ससालोचकर-सरूपादुल-हारा सन्चिप्त और परिवच्चित ) एकति कितनी ठजाउने यरली हे थह् देस फर सबको ही विसल्‍मय८ होचा हि, --कर्ई जीव सप्ते है, लदिया करने सील सट्टी की बजा कर ले जाती दे, लडा हे में, सद्य पान में, जुआ से फटे छोगो कर सझनरश होता है, यह प्रछति छा “उद्धाकपन बह्ठा भारी #रूफ है | किन च्य'न देने से प्तोत होगाफि चद्द दूजण चहष्ठी शुषण दे। सत्यु एक प्रकार को फिकायच हैँ जिलसे टूठे हुए समोणग, छक्ृति को छडिया से फिर गढ़े जाकर, खदिया रूपों को चारणा फरते हे; नदियों की बहाई सोलो सही स्जुद्र के तले ऊाध;र ऊजल फो “'डेल्ठ। के रूप से सलुण्य जाहलति के लिए नये लिघास और कज्षेत्रब्नतती है, एु- द्वु छा “दिव्य” बोरता प्रश्षुलि ज॒ुर्णों का पैदा करने बाला है; सद्यपान अयोगरयो पो दाता हे आऔरर झूत शाज्यस्थापक, खोजी व्यापारी के कर्मों का फुछ बढा हुआ नसूदा है।छप- लि और ऊचभो मे कछुत कन होने पर की उनप्तो जचनी है । फोही छमारे ब्दोदल से “बहुत सा साय प्रथा जाता है? यह सुकार सुनते जाती है | जोदर में हल चलते हे, सीचदके हैँ, फरले है, फिस्तु कया जोघन फा दी सलिखाई अश देकह्- ६१६४) ससाकीचक | जजम फो चराने. के लिए फ्रोए्४-फकोएले के सन्‍्णशदव में नहीं उयतोस छौतछा ? छस जीने के लिए खाते हरे है, किन्त खाने के लिए की हीते हे | खाना, शक्ति पाना, उछी शक्ति छे लिए फिर साफा--इनी चक्र के एन छूस रहे छे | दाश्ध निक कीणग शा छी इच बाल पर सुझारले झाए है किसलुप्य जालि जा किलनर की सथय छस छाड देह को खिलाने पछरुापे सजाने में यतील छझ्वाता है, क्रिस्तु अब छूम जानने झथे हें कि इस स्थ्थे की सल्दुरूरुतर सही रा सिफ शक्ति कौर ऊाच्यात्तिक झुण मश्प्त छेले हैं, तो अचदे फल फल पाने के लिए क्षद्दी जडों में जल देला कया सू्खेता है; ये डी बालके का सिसने ( पशथक्षत्ति ) है कि दिला प्र- सोजन -के कार्लेः सें, स्लेल में समय खिला दे, और भवद्यौन्‍य चासमि व्छे। की द्वछ्ठटि में टह्ूछतला फिरता शैलान क्र खास है, लैठकर सन्रोत्रपएठ करवा जयदोश्वयर का साथ छहे। निमसर्ग खलाल्कार का पात्र हे । चमरेचाय, पाठक सीौरडपठाने लाला स्ष्व ख्द्ो चाः द्ट्ले जे बबाएलपफ कफ सट्ठी क्रेया, अधाल ने ठक्तर पढनां छ्ली पढ़ना | पका दुच्चिया एक सराय है, यहा से दूसरी जगद्ट जवाब दे ही के किए जाना हे, तो क्या चस - छोटे से जीवन को यो खो दिया जाय | हाय रे ! अब इन अधिकारों फी नहीं चलने पाती | न्‍ हे सदा छे रानते आए हैं कि सन ब॒ुह्ठचि और इल्द्रिय सद् सच्ची बाते के बने बताये शत्र हें किनन्‍त भय छोीोय जानने लगे हैं कि प्रदुत्ति का छठ ही सन्‍्सान का बीज है, सिसमे सी घलवती #च्छा हो उस क्राय्स के भलेपने का लक्षण है | (ऋमश,) ऐ ल्न्कः व्यण हे ( प० ऋयामतरिहारी मिश्र एम ए और प० शुकदेवविहारी मिश्र दी ए लिएित ) हिए' "मिली लक हु नंणभज-+++८४हसछ >फऐे फसे्आड आज छमत एक ऐसे दिपध पर प्यपनो, अजकुसलि प्रकट फरने बेठे दे कि जिस का खिचार न्‍्यनाशथिक रीसिे पर उप्ती सन्तुप्यां फो अवश्यमेदर करना पड़ता है | एक ए. वाकर ने अपने ऊपेशाच्ई नासपः) पनन्‍य में लिखा है कि इस पिषपय ( ठयथ ) पर सर्वदेसप्थारण का ऐसा विचार रहता छे किले यिनए कुछ लिखे पढ़े भी उप में पूर्ण ज्ञाता हैं परन्तु दास्तव सें हस शास्त्र के सिद्दान्तों पर ध्यान देने से ज्ञात हेश्वा है कि प्रति सेकछे ए8 सलुण्पों पर जपव्ययों होने का फम्मि; योग छगाया जा सकता है। कल कोग ससभते हैं कि द्रव्य छा माप फरना साज्र दुस्तर हे परन्तु उस का व्यय एक सत्यल्स सरल छिणय छे जिससे प्रत्येक मलुष्य को रवतनन्‍्त्रता- “8७६०० «बन स्‍शाा७०. ०७० नम रन 9 पा. ००० अत माह मम + मूड --ना-4+"मूइ; -ध-थ+नीक----जी पर "पाह मूली ५५५ ५४७७४ +333333++3३«.33<.>3>3>3>६3कियआ 33-9६...“ -पूह “3 "दरार नाक --++-हिकगिगन-+-3ी-गी पक नक*-गान--, कक“ किक “वात कफ आए ए “एफएएण या आााा % इस लेख म हमे परवश बहुत ऐली वात लिखनी पडी हैं के जिन्हें पढ़कर कांतिपय मनुष्य हम पर बहुत ही अप्रसन्न होंगे अनेक्नो गालियां देने लगेंगे ओर हमें मनमानी उपाधियों से भी विभूषित कर“ द्वेगे ऐसे समहाशरयों से यही प्राथना है कि हमारे भाव को समझ कर तेंब कछ गडवड मचावें हमने जो कुछ लिखा है वह स्वार्थ एवं ईपी चश नहीं बरन देशहिताथ । पर्‌+- " “हत॒नेह पर करिंदे जे शंका | महिते अधिक ०००००००००७०” | 9 ( १९६ ) समालोचक | घूर्वेंक छप्नी ही इच्छप्नु कऋल उड़ने पर छोड देवा चा- हिए । परच्तु यह समुन्॒ति किसी अंश सें क्री सानतीय नहीं] सुव्यय का विषय यदि उपारजन के धान ही नहीं तो उच् से कुछ हो फतस फठिन है। अपव्यय सेन केवल इततसी हानि होती है कि उत्तना द्वव्प निही हो पज्वता है खरच यह भी है कि बह फायानि उपाजन का बाचफ बच जाता है। यदि धल छउट्दे कहे क्िलारिये केश दान न दे लो उतना घन रुयथे उस हो यह तो स्प्ष्ट हो है परनन्‍्त बह्द सडे अपने उद्‌र पालनायथें कीई न फोध फास मी करे झरर देश सें उतने ड्व्पोल्परदूक शक्ति खबढजाय | जांच से ऊाना गया है कि हिन्दुस्तान मेँ कम से छम ५९ छाख मसज्ुष्य ऐसे हैं कि पिन को शारीरिक दशा खिलकुछ दुरुएत हे परन्तु जिनका पेश। छी क्ेबछ प्नीख सांगनः है | ये भनुण्य यदि कास करे तो साल फ़र में भारतवर्थ को आम कमर से कल १४-६० के रोड सुद्रा बढ जप्य | पर नही इन छोओगें के “ दाता भरा _ करें! यही परगपुरुषाथ सम्रक्त पड़ला है| हरास का पेया _ स्षिघ सनुष्य की सिलने लगचा है चह अवश्य ही किसों का- से छप्नदीं रह जाता, सो ऐसे सहाशयों फो कहता ही कपः कि है ? कट्टना तो है उन अब्चे, दानी फझछ्ठछाने याले शुखो को को एन्हे छकतरते हैं [यदि एक भजुष्य फे खाते का व्यय केबल चर पेसे रोज सानलछ मद्यपि घिखसंगों छो इस देश रे दस से कस दी तीस झांसा अविदिद अवश्य हो सिल जाता है) ती भी ये २ छाख यंडे फत्त से फल श्र फरोड़ सपथा अतिव्य शइकर जले हैं।, यदि सही रूपया यहां को सभझालोचक्त | ( ९९७ ). लिलद्या एवं शिल्प धाणिज्य को चच्चति में ऊकगाया जाय तंग क्या भारतवर्ष कर यही दाल रहे जो क्ाज पिच छूम लोरए देख रहे है ! परन्तु यहा खुबला कौन है ! फुछ क्री छलोले कि “परच्चियी उसूपता का चफ््सा लगाए हुए” होने का शोर सचने लूगए | छोर गाकछियो को बोछाड़े होने लगीं ! अभाने भारतवष | लेरी उच्चलि का समय, बदि ऐसर समय लेरे भाग्य में पुन; बदा छफरी, अभी जहुत दूर है !! अस्त ड्रूठ्य को खतायुच बाली गदा # के ससान ससकना चा द्विए फि जो युद्धकत्तों पर प्रच्तेषित करने ( अधपरेत सुव्यय से रूगाने ) से शत्रु साहार करतो ( अथोत देश छे दुख द्रिद्र फ्री सार गिराती ) है परन्तु अयुद्दकत्तों पर छूटने ( अथोंत्‌ अपव्यय सें छठले) से क्षेश्ल यह सहीं छि शब्द सह्ार न करे धरन लौट फकए अक्तेपक ( अधरित देश ) का हो विनाश कर देती है / प्य- घरेत्‌ उच्च को आगासि द्वृव्योत्पादक शक्ति घदर देती है ) सन्नी कारण है कि सरणावरुथा में देवज़तन भोष्ल पिसामह ले अपने फियतल, पौच युधिष्ठिए की यह उपदेश दिवर था कि सदेखश अपन्य आायवब्घय उयत्त सुनते २हना | घदास्चव में व्यय झीर आाय में लषाही चनिश्ठ सम्बन्ध है, कया कारण है जो अकेला इद्धलिएछ जो वर्गफल में केबल अजचदेश कार दूना होगर, सससस्‍त एशिया से पचशुनों द्वूल्यो- व्यादक शक्ति रखतए है ९ घछ कछ सारला फि सआाजकर उस का खितारः कुरलन्दी पर है नितानन्‍त दया है। परसेश्वद सन्‍्धी की सहायता फरता है जो स्वयथ लपनी सहद्चायचा ४६ इसका दाल महाभारत द्वोण पर्व में वर्णित है । 'ग-बकननककन्नी आप एए थी *7:8--8 कक. “कह 7एए 7 किए छ िि-एएाट-फ“ायय ज४ पका - #िलने 20७ 7 - “४० एक ननकनननन पक मय - पान कक प+++ ८5» काल ">> मै -४वयक+न+++मा एमा पान कै >ल्‍००- नमक" ४ कम "5०-०७. _हतकपमकप-कपम-+- १--4----2-ामक ( ९९८ ) ससालोीचफक ् कर्वे हे अवथोत्‌ जी उद्योगी हैं| कया वहां सहस्यों काथ्णो- लप ऊफिछो देवी शक्ति क्वाशा सब्यापित दो गये हैं $ जी अपार सन ९८४३ है में १३ चीं-२४ थी. शताब्दी (70०, 0॥6 घ2०७ ) की सम्यता रखता था बही भाज केबल ५० बंप दे परिशुम से सरूयता के सर्वोच्च शिखरपर चढ़गया है। एक सह चसय था कि छछगला के एक मसिद्व कवि ने लिखा था कि “दर् देश अरू चीन असमय जपान” और ४० दर्षे हो, से उसी काछि के जीते जायगसें जापान ऐपा बलशाली ही गया छै कि जिछसे बड़े २ झरोपियल देश तक्त मकर्िपित है! घरि एम सक्तधार लिचारे ईफे इन सब आते कर क्‍यों का- रण हे ली हमें सणट्ट चेंट्त छ्वलोजायगा कि यह उन्तति केवल कुगीलिये! हे सुधार और ऐसे ठयय करने से डुऐ है कि जि- ससे देश फी उपजास शक्ति बढ़ती है, परन्तु आप से कोई रुपए रपशा रदखे ? देशघहघितलेघियें! को अनुसलि पर यसन क- रले चली बात हूंर रही आप छेपे सलुण्ये। का गांछिये। से स- स्टार छरते है | इस कथचव फा यह ता्त्पये नही हे कि प्र चघलित रीतिये/ के पक्ष पाली लोग देशहिदेषी छीते छो नहहें, बेक्ती अवश्य देशहिलिपी होते हैं परन्तु उनमें से अधिकांश सहाशव झद्शचित्‌ इस बात को कस जिचारदे है कि पहले अद्या ज्लैर तब परमाएमा-इस मे सन्‍्दिद्द चट्ढी कि साथु जहात्सः एथिंबी मदछछ को तुण्छ छसकते है पर हस ली- गे की यह भारी श्वूल है कि एथ्वी के कासे से लगे रहते घर सी हम यह घशटद्दाना प्रते हे कि हम चर के सामने उसे झुक भी नहीं ससकते । पेसा कहना निरा सेठ हैं। घोड़ी ६7 समाऊोचक | ( १९१९ ) बातेपर मूठ बोलना, साधारणत; सत्य का भत्चाव, अका- रण एद अनुचित क्रीच, नहःन्‌ ऊीम, दुपी दत्वादि इत्यादि ती छन ऊोगामें कुट २ कर भरे हुए से और फिर भी पूर्चो पा बहाने करना एसी छोचने। का फछास है | साथारण सनु- पघमण चाहे जिसतसा कहें कि छुमस चने के सानसने और सथ्य खाते को सिलानल तुच्छ सनरभूते हें पर छुस सिडर होछए कहेंगे कि ऐसा कट्टचा एटदिम कूठ है। केवल बा स्तथिलछ भमहात्यर लोगो फो ही ऐसा कया फबदता दे भीर शेप छोग अपने मुद्द सियानिद् भले ही धरना फरे, बस ऐश सोदशः हे देशहित्तेपी यही हे जो यह थिचारते ले कि फन्‍्यप देशों के फला फीशल के सामने स्थदेश को रसातरऊ स पहुंचने देनर चाहिए, जिन कररण्ों से हल झछोग अन्य देस्‍येरे से फन हे उन्हे एटासा चाहिए ओर चकदेश को उच्चनायस्या मे पहुंचाले का पूर्ण उद्योग करनाचाहिए। हरवात से * चसे चम” दे पचिल्नलाने दालों का किया पए् न हीया।लोप्त, इपरे न्नोच, छासटयता इल्थादि में पलनर भी तो सद्दा अपसे फी घातलें हैं पर इन में फशसने बाल से फुछ की न खोलकर झप- प छरीतिये के खुधारको ही पर कये। जिगइछते हैं ! जापको ऐसी दशा देख आप के प्रसिद्द सल्ावारपत्न दक अपना सहेदे कतेंठय सममने है कि रानले, भाडप्रकर प्रभृति तक को अच्ु- सतलियों का फाठा खटडस करके खाप वही प्षको को चिरच्याय: जखनयथि | सासाचारपतन्न सरे फ्री देखते छे फि यदि छूस सत्यर साते हनाने लगें तो हसार+ पत्र इतना फाहे फो चलेगा । खरा पाचघ सास उहस्य की बापिक साय फो लप्ट करनो धप हि. (६ ९२४ खससखालीघपप्स | फोनसी लद्धिमारदी की बाल है ! बम ये लोग भी सिवाय ठछकर सुदातो कहे ओर ज्यखक लिखते हो चथष्टों !! प्रचलित रोलियों छा अच्छा छलाला थे छोय ८छालचा लापना दर्तव्य- समसस्‍्तये हैं क्‍्लि इस बार छोलो बे जू <वर पर एल खुप्तलिदुपत्र ने कब्तोरिं फ्रा यावा तक य॒च्चि सथन कोर उचित वकछा इद्यचाय ! सखपषऊफऊा उसकतधऊ्ध बा बमान्ल न्ल्ह्त अदला झसजाय सन्तों पर जसाली है तो यदि कथारें या कर उम्का सदद न उत्तार दियर ऊाय तो भज॒ुष्य सार सर लक खझसय रहकर न ज्षा्से कब॑ए 3 चकलालल कम उछवथाः चक्कर “60० 8 ०22: तप फ़ो य भरी तर सभा कि विशेष) सिरूर हो ग। के छोग छू छऋ्: नाते र्ि मो उपरोच्त सक्तिलिखता अभजुडिस ले! इससे दवपए | एक मच- छिल रीति का उन्दधी मे यक्तिझच्त द्वोन्य लो सिद्ठुसर दिया !! सस्लु। छुफझादर फापरचकी ओर छपाधद दीजिये। यहाः साप्टीय सब ९८9३ में अनेतालेऊ छोटे छोटे रूचचन्न खेति छ्ि राजा फहनीा मन चित न धो चर आर लिन सेंशाय:र धलस्व जा पान विज्लवाजित या इन डेसियो ऊूरये जापाचोपष सन््राद उाली का सास चात ८३ साधलार घर | शापाचद बन कुछ सध घबरा सप्रेप जे प्म्रमणाण् गत ज्तण खड़ा की रधउणज प्रधा- सिपों की देख ऊर छत का पएछ विधार छहुछा कि दापान रस स्टार संय्छ छोटः मर शजे छत भार आर । न उफ छ्ष्य धर फद्पपि सदी शो खत्ततों है हल; सचद्टिया सीट धार यन्हों न हन डेखजियो लछोचोे ( राणाओं के दिऊठ आारदोलन पर्चा धारल्स कर दिया । स्सरण रहे सलाउीचफ। ( १९९ ) के विरेची नहष्टीं बरन जाएपन के हितेच्छ थे उन के आर दूरे- झछन का फल बाष्ाही सच्तोषजनवक् हुआ दयोंकि छेसियी छोग सन पर कहद्ध न छोकर उस को सिष्पक्षणातता सनक गए ओर सप्नों के यही सिएफय फिणया कि उध आंखो पर वडोगती चष्मा चढावे हुए नवथुवक्को! छा कथन छिलकर अआरर साननोय हे, से दिना किसी छहाई फगछे के उत्त केए- मे। ने अपना अपना राजपद सत्नादा मिकाड़े। के ससमपित ध्यर बे रुबय उस पी साचारण झज्ा प्ही उपाधि ग्रहण को | घन्ष हे ऐसी देशप्रियतर और रुवरथेत्याग केश !| लिस देश से ऐसे पुरुण खतेसपन है! झकणर उस उप को झप्तोी ऊच+पतन हेए -सकतेर है? से। उठी जमथ मे झापान ने दिनदूनी रत्तचोगनी उनन्‍तति फी | दिच्ारने से चत्त छीया कि इसन-ठेसियो सहानु- भप्रायो ने छक रद र छा सलेदानल सा किया जो हसारे यहा अनेक सलुण्य किया करते हैं सन्त केबल रोेति दी से है | बहा उर्जे- दम करने के दानी अपना सलेस्द किसी त्राह्यण देबताफी ससर- पंप कब स्वयं सपत्तोक फिसखो पिएफकचअेतदब्च सलाग फर सनिकल उायगा | अब घहन्लाह्लण सहाशप कदादिल्‌ यही #रेगेफकि उच्च रुपये को चाचा प्रकार के शपवययों में लगरखें पर साथ लीजिए एि बह ब्राहइमण एक विचारशील पुरुष है तो भी एक घत्ती निर्दन धोगपा और एक निधन चनो | इस से दिशेष उर्त दाल से देश के लिये छपा परिणास सिछला * लिस पर क्री दान देचे दालए आय; ऐसा दाल है जी द्रव्घ की उप्तचत रीति पर उ्वापएर सें न्तियोणजित कर देश की उप्जाकऊ शक्ति घर सकत्तर है पत्र दश्नपाञ् विशेषत; पज्वस छा सलठा। छ्तरे क्ज्कि ( ऐएश२ ) - ससालोी चकछ्छ | फक्षे इस के लिझत्ु चदलापए भी देखी गए हैं। साफ जी ख- सलः से घूना का सुबिशाल र्ज्य दान द्वारा पाकर पेशवा खाल जी विश्वनाथ ओर ससके बशजो ने उसे बड़ी ही यो- व्यत्ता से चलायर और ज्ाहइलणों को राज्य खछचालन में घोग्य- ला भलोझासि खल्थापित फर दो | परन्‍्त ऐसे २ उद्दाहरण बहुत कल पाए जाते हैं और विशेषतः सर्वेदास णाने दालों से सि- करूले छोय अधिक होते है फिर इल सब बातो की जपचे दोजिए | एक सलुण्प ने सर्वेदूात्त किया ओर दूसरे ने पायए पर उस से देश का कंया स्ाक्ष हुआ ? देश का रूष्फ केवल द्रव्भोत्पादक शक्ति के बढ़ने मे ले | जापानी डेवियो लोगों. जे सर्वदाल कर के देश का दिल साथन किया। यदि वे अपने अपने सालुके पृष्ठ एक ब्राह्मण फो दे देते तो जापान में क- दाचित्‌ ऋल लक्ष छोग बाजारों में फ्वष्वर रूएण ही फपििरते छीोते # हानो छहसारे थहां फ्री हैं जापान से कया किसी देश से चद कर दानी यहां चह्ढीं हैं राजा हरिश्वन्द्, बलि, परश रास भर फण ऐसे दालो चबहां हो यए हैं जोर आज फल भी बड़े २ दानो इसों में वत्तमान हैं। छमारे ही खिषय से सुफ्सिदु न्यायाधीश सेल साहब ने कहा है “77 ०07 ७०प्रा68 2977[.8 धए 50 20098 पालमशबइछए8७७ एधी $8 छणाय- []]87०8 0/ ६ 8०, एवं साधते वैं#४ए, 89[९४ टौघ78व॑ 970060700 एफ 855छणाफएेए ६08 9७]0]08 १७४४०७ ्छ[ 8 हए अधथात ( ऋ्रमशा+ ) % सनते हैं कि जापान में लोग नंगे फिरा करते थ। जब [म- पाड़ों का राज्य परे देश पर होगया तब उन्होंने नंगेफिरने वालो पर छदुगड की व्यवस्था की ओर तभी यह छणित रीति बन्द हुई । अध्या शक ४7 २ए ४. सजाजता कोष (९ )कैसी फूली यपवयन-लतला मालली चार-गचएर ? छीक्षे सत्ता, खु'भित ईिंया, गण दे वायु गया ॥ - शोपक्षा भारो सिरख इस एछी फीन नर सोह प्ले छा हवा ऐसे शुत्त खसथ से क्षग क्यों छोछ जाछे | ॥ ( २ )देखे प्यारी सनिशि दिस जहा | बाठ सोल्कठ पारी, दुखी डोफे छल बिच रही सेर सक्के छूप घारो | ती को जाया अतर न अभी लुब्च जो था रवतंद, हा छा | कैसा छिथि अद्य तू | को क्रिया अन्य-सन्न || ( ३ )अब रखि कुछ मो पी रोज पसके सुकाछे, प्रदन सुरक्षि लेक्के दूर से भ्राम जावे $॥ उलद बरस धझारोे खूब इश्को रुलाले, पति -वचिछर अबलर को छयों जे फोडे सतरवे १ ॥ ( ४ )सघुकर अब झायर सूठ सर्वेस्ण खोयर, दिगत-कुछनल-पत्ना सारूसी देख सोया | ॥ अछ सुरक्ति कहां दे | पेड़ सूकर खडर छे ! पतलि-दिरह लुरख डे, प्रत्य-दादी बहू ले | ( ४ )ज्ली की शोसा पति हे, छीोसा पति फो स्वक्तीय नारद हे ॥ - अन्‍च्योन्य-भादग ऐेसर, चैसथिस्स जन्‍-सहोपकारोी हे ।॥| ता सफिशनगढ़ शिव्चन्द्र बलदेध प्तरालिया ! २३-१५०-०३ प्् ६ ९२०४ ) संसालोचच्छ | गुण दरेष के सम्यक्‌ दिचार क्षा नाम समालोचना है | की सज्जन सदूधिचररपूर्वेक समाठोचनःर करते हैं थे रत्न- परीक्षक के साल केवल अपनी उन्नति के ही सच्पाएफ नही है, बरन्‌ उस व्यपपार के भी उनच्नायक जौर साधक हैं लिस सें सनकी विवेदना शक्ति का आधिपलय है। झद्शेन ३ | २ ससालोचक में जनतक पूण पविद्दता और गन्पमीरता- जन छरे तब तक बह समालोचना बसे दयौश्प चदों ससमर जा खकता 4 राजपूत ३० | ९। ०३ - है| # संस्पादकीय दिप्पाणेयां # सीथपोट के दृटिश एसोसिएशन में सर जे. नासेन ला- ' छचरके व्याख्यान का पूरर सनुवाद राजरुूुथान ससाचार में निकला है | उससे जाना जाता है कि प्राकृतिक पदर्था के सिधा अजाप्ती सानसिक शक्ति क्षा बढ़ाना बड़ा उपयोगी है ओर यह शासकेा का कान है | इसलिये राष्ट्रसम्घन्धी द्विषयेा मे. विज्ञास फो सम्मति ऋवश्यक है ऊीर इसलिये दी उक्त सक्षा वैज्ञानिकों को पालेमेण्ट बनती हे | असेरि- का मैं -२३४ विश्वविद्यालय हैं, उसेनो में २२ इठलोसे २१ बद्धलिणछ से १३ और जारतय् में ९, यहो नहीं, जूसेल सर- कार एफ विश्वविद्यालय को इतना घन देती हे जितला दढ दिश ढ्वीपीं के सारे घिद्यालय पाते हैं। अतएवं ३६० करोड़ रुपये फे सूद से ८५ विश्वविद्यालय, कई अच्यौपक् छोर अबन्च बनाकर फरीयकर परंचरां हिस्सा हो रक्‍्खा -जाय। ससशलोदक | ( ९२९ ) पसारददासी घतनर तो साहस नहीं करते कि जितना फीजरे व्यय छोता है उतना शिक्षा के शलिपेझागे, फिन्‍ल वे सग युग कृतचन्न छ्वोगे यदि ब्रौड रिक साहब जितना रूपया एफिफ़ाकी फौज फे लिये सांगते थे ठतमाही विद्याविभ्य से हिदुरुता- निये। को दिया जाय ऊौर फोस बढ़ाकर उच्चशिक्षा के हर अंद थे किये जाय॑ । पा - बड्े लोग फछते आगे हैं कि दान के चोड़े के दुरत न हीं देखने चाहिये, क्िन्त स्क्ाटलेणड के सनिपुणजन ऋइस खिथस प्हो नहों सानते। एग्ड्य फानेजी चासप्ठ चनोचे रुफ़ाठद ले एछकी यनीवसिटियें को २।३ करोड़ छा दाच दिया पएूसपएर नचेशनछऊ रिव्य फछ्टला हे फि इस दान से .स्काटलेयड झा साचभम्द्ध छुआ है. कौर उसके वासियों को रुघतन्त्रताः फटगई है | विश्वविद्यालय कानजी के गुलास बनणायिगे घिना उसको आधा हे प्री ल छिलासकेगे | घिन्ा काल दे वैज्ञानिक, लगड़े घर्मथा्री और किक्षिस्त साहित्यवित्‌ टीडोद्लफी भ्रालि_ देशक्ो छालेंगे | अप्षागे कातजी | यादि तप अपने दूत का शर्तांश क्ली प्स देशकेो देते दो सदके लिये तस्हारा रतोन्नपाठ छीलता। स्काटलैगड से शायीरफ शिक्षर के ब्पियर्से एक सरच्कररो ऊसतीश्षन बैठी थी | उसले फकह्दर है कि रुकाटलैंयड रे विद्यार्थी वास्तवर्मे दुर्बेछ होते जाते हैं | आयलेण्ड से हियुण विद्यार्थी दवादे लेते छें ओर विद्याथियो से से दो सलिहाई दुवादे फ्तो्‌ जहो परदथे | और प्ञारतव्ष से ( १२६ 2 समालोचक । बच... बा". व अल बजा ्ः _ लालका खालिकाओ की साथ साथ पढ़ाने के कद डिद्वाच दम लिये धिरोची हैं एके एससे उरगिचत्रयठल मे शिथिलतलों छीजा* ती हे | टोली साइबमने ६० बालक और ४० छब्पाओंफो साथ पढ़ा कर यह निश्दय किया है कि बालिकाओं और दाइयों हे होने से माऊको सें सल्पययर और भलाई जायई और कच्थाकरों में दृढ़ ता आसत्म-चिसेरता छरीर जान बढा। बाल- को ने स्ीजतिका आदर सोरछा। तुणेे तयडे सरस्वतों ” अं अआापयाह का खुदशेच भी निकलछ काया है फोर अपनों प्राधीच कोतिके अनुघार अच्छा है। अब के तवल्कारीप- लिप के एक भसन्‍्त्रकी विश्तुत टीका दी यह है । यदि सम्पादुक सलक्ष उपलिषदी की ऐसी. टरेकर बना दे तो इससे अच्छी बाल जीर क्या हो सकती है फकिन्त्‌ एक शर्ते है | - ' घ्ठ यही कि यह टीका क्री चेबर के भ्रप्त जा दर्शनथाख सो तरह उअचरो न छोडी उपाय | लघ्न्यासोरं व्ते चलने सन्पा- दुक जहुत कुछ सरूछुल गए हैं और सालस छोतर ऐ कि में- श्लि लेखों के विचारों के पक्ष झरने में, निर्दीष छोने पर सो उन्हें वथा छी छोगोकफा फोपभाजन होना पडा है-] जबती चचालदा इतना छुचघर गया छ च्द छ्ष्छ ९0प०(६07 ससोकरण रस ठोफ छी समता के | याँदि देखा जाय सती प० साचदेप्रसादुफाश फूथन भी ठोक ही. है, उपन्यासरें को समालोचना क्षा जलाने पशाने सें जो दीखकपनच डोरछा है और जिस प्रकार ईहिन्द्रपत्र सम्पादको ने एक सार पर अछापदे अलापले उसे अतिकट ््् है संमालोचफ | ( १२9 ) खना दिया है उसको देखते, उस जोशकी ठयडा करने के लिए सुदर्शन का लेख समघ्िछझप से ( एुयऋ एथक्‌ नही ) ठीकही है। ऊस्त, पं० साचवप्रसादु ऐसी बातो से ऊचीर न हो । सुदर्शन का चौयादे अश झौोर एक पिन्न भट्ठामण्यल के अनन्त मूगडे को दिया गया हे। ये लेख और चित्र किसी समाचरर पत्र की दठेसू फेफो संख्याकी शोभावढ़ाते । साद्धि- त्यसेवो' सहाशप फो अब सब्र छीय पहचान गए हैं औरर हम उन्‍हें पहचान कर बहुत दुः/खी हुए है। हमें यह भाशा न थी कि प्छहाशोके एक सज्जनन्े २ वे २० महीने पछिले जो “सा हिल्य ” नानक लेख लिखने को प्रतिज्ञा क्षी थी उसे एक सारहित्ण्सेली यो सिबाहेगे | किन्तु क्ाारतसित्र ले इस विषयपर अपना पुराना उफान सुद्शन पर छांटा छै।प० साचबप्रमाद्‌ अपले चित्तरें दस बरपत्ते लिये बहुत द।खरे छोगे। इस समुद्रस- ल्‍्यचन का विप निकल चुका है खीर अब उचित ऐ फि कोदे शड़ूर इस खिय को पीजाय जौर दोनों दुल ससुद्रमन्थन से लाज झाये | छस भी इस बिपय के अपने ऊेवको न छापते ्िन्ल के कारणों से छलने उसे यथादत रहने दिया। लक नह १). श्र पक. हिन्दी खबाद्‌ पत्ने को इस भशाएरित के सुसुलको भनक छिन्दी बद्भवासी के फानेत लक भो पहुंची छे। जि जदृश्लत का से सुन्सिक छू बढ दीदानो था # 75% 7१५ ३ धो हे ४५3 पक लंच कक ८ कल पर २8 स्ज्ज्य पे पन्नू जो केकाल मे खारतबप--माॉफिसर रोपडेशथ्खिस ने, राप्ट कथासाला से इस सासका एक ग्रन्यगुम्फित फिएा हैं! उससे री ( १२८ ) समालीचक | कद लिछक्षण बाते हे जिनके सुनने की झसें ( मोफ़ेसर साए- हब के से पाली विह्वान्‌ से ) आशा न थी | घीमेसर साहस - के अनुसार ब्राह्मणों के लेख व्िश्वासपात्र नहीं हैं | चन्न य॒- वहुमि, कासोमे उसने अपने ही फो प्रधान सतायर है | फजिन्त समझो छातें देशभर की बातें नही हैं, व्ीद्वचमंसलेवाचारण के उद्योग का फल है फौरर राष्ट्रीय उन्नति से क्ाह्माण एथक रह गए थे । जैने। और ब्ीोड्वेए के भनन्‍थ, राजपूत्री के लिखे हु- थे ओर इस ग्रन्थ में उसनके ही लेख भर्घात पाली अन्य से बुद्ठ भगवान्‌ के निदोेण से लेकर क्तिष्क पर्यच्ल काल का ऐड- त्िहा सिक पित्र देनेका सत्स किया भंथा है। इससे प्रा्चीस चइतिहासमें कई मभन्‍तर छशक्षित होते है | ब्राह्वणे! के अनुसार तो “नक्रह्यशे/ दे अधीन स्वतन्‍ज राजा ” यही सारतवर्पीय राज्यम्रणाली थी कछिन्‍त पाली गन्‍्थे। के अनुसार रण्जतन्त्र के साथ साथ ही एजातनन्‍्त्र भ्री पाए जाले हैं ( ऋबश्पय ही बो- दुघधन सर्वेशाधारण की समानता और प्रह्मालल्नच के जन्म का फारण हुआ छोगा )। चऋचरदी सशोक के शिलालेख कौर चरित्र बौद्ध ग्रन्‍्ये। सें पाए जाते हैं किन्‍ले अ्राहनणतन्ये से उसका नास को चधोीं है ( कोडे नताबने तो अशोक के पीछे के जाहपण ग्रन्थ कौनसे हैं । ) उपने द्वाह्मणे। का भरूछर दी ला सिटाया थर | घर्मक्ियय में प्रोफेसर साएब ऊरहतले हें कि ब्राह्मणग्रल्यां में प्रजा का चस चहीों है क्ष्न्ति ब्राहइवप ण, प्रदार पर जो घर्मा चिपकाला चाहते थे वही चघे लिखा है, न्रा- ऋगणेतरों स्ले साहित्य में बेदिक देधाओं कर झह्िरि अधिक खपत फराने वाले यज्ञों की चचो नहीं है ( झूरेपीयआ आचार च सभमाक्ोचछ | ( ९४२ ) भान बेठे हैं कि ब्राह्मगशनत्रुओं छः कहा सत्य है, और क्राजजणोंका सिय्या | इसी तरह जब यह कहा चासा थे फि त्रपह्मणो ले इूषों वा चणासे बीड्रोंका था अजाका विश्यास लेही वर्णन फिया बेसे ही यी क्ये। नहों कछ सकते कि बाद ग्रन्थ लेखकोने द्ेष्य से घात्तवचने का अपलाप किया ? ) यज्ञोी के ऊधिक व्ययशाली होने से तप अथोत आत्मयक्ष फो जष्टि छुददे (नदी, बीहुरें से खेकडों ब्षे पहले सपनिषदोरों यह ह्ोचुको थो ) ब्राह्मणोंका जादुर था, किनत्‌ उत्तना हक था जितना कि वे बताते हें | उप ससमयपशञत्तण जोर परित्रा- अक सो छहीगए थे जिनका झादर ब्राह्मणोसे कस न था और उस ललाद से निराश छ्ोकर ब्राह्मणेने झाश्रमद्ल्पनार को, जिससे घिना शहरथ रहे और उद्ठ हुए फोदे सनुण्य परित्नाए- जक न बन सके | उनसे और जातियें फो पक्षी उन्याससे रो- व्ठा किल्लत उनको चलो भहोीं । ब्राह्मण दो ग्रन्थे। में लिखा मिलता है कि आश्रमघसे का पालन दीवा था, किनन्‍्त वे स- त्य छाल चद्दी कहते, जैसा उनकी ब॒ठ्धिमेंहोनर चाहिए, जेसए कहतेदे (ऋाश्नसचर् कौद्ेंगे बहुत पू्वे बल चुका था, भाश्रसमको कैदेएसे बचने के लिए हो तो बीद्ठ परिन्राजकोने छुगनउठपा य नि- कालकर ब्राह्मण मिज्लुओोका अजुकरपण किया था ) कनिदश्ष पे उत्तर फोशल, सगघध, वत्स, अवन्ती ये ती मुख्य राज्यथे बाकी उत्तरप्त़ारत में कुल ९६ छोटे २ राज्य थे, णिन लें मररुपर सस्बल्च और दिग्रह ऐप्ले रघते ये, खीौर काहीं २ प्रमातन्दर की था | जायों फा खागसन पञ्जाव से गंगा के फिनारे २ छुआ फिन्त सिन्चु चले फिनारे उज्जैन तक जौर तराई ले सकल ( १३० 2) . ससालीचक । छोकर तिरछुल लक प्रो आये को गति हुई चथी। दाफ्षिणात्य में बहुत कम झाय्योें थे। पदाडी आये चसे और शासन सें स्वतन्ज मरकात के थे जीर असाथ्य सें क्री शान्ति कौर सासाजिक बन्चन विद्यमान थे | ग्रासगोष्ठ यर ग्रास सच हो हिन्दुओं की झथाल चाल थी, यावब की चरायाह सर्वेधाचारण की सस्यत्ति पी, करेर सिचाड़ें री सिल कर छझोलो थी | गाव से बाहर ऊनसोन केची ८ रहन नहीों फी जाते थी | खियो को सूषण ज्यादि ही सम्पत्ति थी और सातथा से दृश्यसाग भी रिझता था सहोजल ओर सहति- बाए के ईनस्यस हृढ थे ( अशोत जातिब्ल्चन था )। रफ्जा. ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र, चाणरडालछ, पक्का यों जालिमेद॒था | फर सत्रिय अनचाय मो थे | जातियों हें खेद (ब्गपत्कार छीचे से) कश् का परिव्दच न सो छोतार थर करीोंर उच्च जातियो से अ- लुलोस झतिलोस विवाह हीनेपर झो सन्‍तान बऋष्सण दा क्षत्रिय दी रहती थी (हैं । ) डुद्ठके सस्वादेर से सब्सो फ्रिलःतत को निन्‍द्र की जर्द छे ( इससे तो ,जाईतले द्ढ झुदे ) आय से अक्षी क्षत्रियों से ऊपर होनेफा और फ्रदिय कहाने की हिता- कत चहों दिखाई थी (यह “छिनाकर्त” बहुत पहलेते थी और लीडुचघस इसी फो लोडना चरहलाए था) जएतिक्ते लिए कोई शब्द्‌ दही चहो डे, रोचन और ग्रीक्त लोगों सें यदि जशतिभेद होता दो प्रारतवर्ष में भी उस सय छोता ( चउद्तोव्याघातें, आीद्भघसो कया तोडसा चाहता था ? क्‍या जालिघरे कौड़ों के पीछे जम सक्का १) सगरोंमें मश्कार घोते थे। घरोरेंद्रलान, फोच, जन्‍्नागार, भोरी मेंसूलि कश् पता थे । श्वद्ह फे ससमालोचऊफक । ( १३९ ) अतिरिक्त उच्चछा बनोमें पक्षिया के प्नोजना्थ त्याग क्ली होता था | राव, गाडी से व्यापार, फिराये को पुलिस, और तार- रूबेके माइवेट सिक्कों से व्यापार भी पाया जाता है। चानन्‍दी के राघनियसित सिर न थे ( वाह | ) व्यापारो, उयापार, खितज्ञापन पोर सोहरसात्रमें लेखकर मयीग, दिद्यपक्ता फणठ से ही पढ़र पढ़ाय/ जाया, साथ परिन्रश्णफोके खादुर फा वर्णन करके “इसाफी णण्ठ शता5्दी में पस्नारतदप?”' का यह चित्र ससाप्त द्वोतः है । ह सन्मदिसच पाश्चात्य झपनी दशा फो खझौर देशो के इलि- हास मे पढ़ने कर उद्योग करते है | स्रोपोय लक््ष्टए नो राजाओं! पर पोदे प्रश्राव छाला,भौर उनके झौोर राजओएके छूस आलपर लडाइयरं हुददे, यही बात भ्ारलवघ से दूढ़नाः चाहले हैं । जपनी छठी शताब्दी की सम्यता से बढ़कर समरूपता यहा नही दिखश्नप चाहते | और ब्राक्ष्तप्प तो गालि- यां देनेफो हें हो ॥ | 2 मेक ओर । मे साघसंन्धासी-छशछट्टीर के सौफेसर जोसेनले इस घिषपय पर एक ग्रन्थ लिसः है| पश्चिलमें साचुत्थ घर बैरएपग्प किसो कालमें था, किन्तु भारतवर्ष में यद् भस्थिज्वर फोतरह जच गया है| इसका कारण यहां का जलवायु, मास तल खाना, और जन्‍ससे जाति सानने फी मधा बताई गई छै जिस से हिन्दू जातिभरका उत्साह लंगड़ए छो गया है। राणलेैतिक पर- वशता के फारणसे प्री भारतमें सदासे साथ है| विदेशी चाहे उन्हें देखकर घृणा फरे, किन्त त्रे प्राची के चिहुस्वक्प झे | ए्‌ हु '( ९६२ 2 सरसालोचफ १ धाश्चात्य, छोरे सोती चाले राजाओं! को ही प्ारतवर्ष कर आदर्शसाने, किन्तु साधु फक्षीर वा सरच्ची ही प्ारतबषें के सच्चे आदर्श हें खोर उचदग यहां जड़े आदर और प्रभाव है| अवश्य 'हो इनके होने से देश को छत्पादकशक्ति का विनाश फरके सुफ्तसोरे।! क्रो संख्या बढ़तो है, किन्तु यह शाल्तिका आदर्श भ्वारतबष को जड़ तक गया है और पशिचसी शिक्षा के पभाव से लि न्टठों सकता । यदञ्यपि साचुत्व अच्छी बात नहों हे किन्‍त सपा अमेरिका फा हाय दका, हाय ठका, अच्छी बाल है ९ खतपुव अन्यकारकों ऊाशर है कि प्रारत- छासी देश ऊझोर सनकी श्यफ्तिसे सरोपके जीवन के अनकरणतमें असरूय छ्लीकर इस आअशन्‍त, लचझुभीजनो साचछ्त्य की नख्छोडे गे ( जिससे विदेशियों को यहां फ्ास करने की किसी प्रक्ारफो रफाबल नहों फिले)। हे स्‍ | स्वदेशी वस्कझ्-राजल्थरन ससाचार के सम्पादुर बहुत काल से स्वयं जउबदेशो बस्लजओों को दरतते जाते है | सभा* लोचक के उल्पादक और प्रकाशक भी इस कास में घटम- वान्‌ हें अऋर्र पहन्रसच्पादक्कों से, वा स्वदेशी चस्‍्चत्रों वो ठया- पारियों से लिवेदन फरते हैं कि ववदेशी पद्ाथों की सूचो छीर सिलने दे पदे भेजकर समालेचक प्कायरेलय की उपक्तत फरे | यह कभी छिचार है फ्लि समालोचक कायोलय से सबने- साधररण को स्वदेशरे दर्जों के मिलने का पता कत्ाकर दस फास में उत्तेशना दी जाय | और सप्ती संवादपनं के ' झउज्पादकों से निश्ेदर है कि इन बातोंका उपदेश बातों दे न्टी, फानसे फरे | ससाकोघकव । ( ९३३ कं ३६ सतल्रासमे फार्मसेस के साथ जो शिल्पमदशि नी व््छीो है उसके विज्ञापन शकर नेयर प्रभ्ृति के हस्वाक्षरों से सर- फाररे गजटों से ऊछपे हैं । उनमें दिचारेी कार्संथ का सात सक पम्ो चाही है। छथा फांसस के कर्ण चारो ने सरक्कारी कृएा था यसूगोपियनों को रुष्ठानुम्न॒ति- के लिए रवय प्रश्यादित स्वार्थेल्याग को ढकेछ फैका है। बद्दी मद्शिनो की माता छा सांस क्री लह्ठी ! । सब्यूपायो महासक्तर के। हम बधाई देते हैं कि अबके अफिये- शुन से वे पं० शिवकुमारजी फो ऋपनी-, कार्यवाही में सिला- सके हूँ | चासाकित विह्ाने। कर थे। कास फरना विरली जात है | सहांसक्षा के फिसी असिद्दयु फालिज्न के पास स- रू परे बोडिंय बनाना, नए शिधथिछ और अयोग्य फालि- ज खोलने फो अपेक्षा, अधिक खगम ऊीदर उपयोग द्वानाः | सभ्ता फा यह घ्रर्ताव क्षी अच्छा है कि विद्वार्बन्धचु ही सभधर फा सुखपत्र रहे | छहसारा लिवेदन हे पिलए खथा पत्र सिज्ञाल कर दुब्बल पत्ते की खंस्णा बलाना उचिल नही | ऊरैर _ भी के सक्माएं घदि अपने ऊपने 'सुखपन्ने””! को ( जो कुछ दिन सिसकते हे और अच्छे पत्र।के लेखवा और ग्राहकों को मदगते छे ) घटादें, तो बहुत कुछ भ्रार ठत्तर खक्कला हे । दिछ्ठारलन्घु फे सास्‍्ाहििक हो जाने से उस बहुत प्तत्तन्त हे।गे यदि उसे आाहके वा सझ्वयता के अज्लाव से फिर छीट- छर पाश्षिक्त व होता पड़े सौर यदि उसका आकार बढ़ावर क्ल्छ्+> ( ९४४ ) ससझास्लेीप्घ | जाय, बदखान जाय | सहःष्णय पत्र अच्छे हर हैं।, यह फोड वा- स नहीं | फ्रगघान फरे हमारः खर्द विहारबच्चु हिन्दी का ४ हशिध्पनत सेशन” बने । नह (५ का हा र कुछ दिन हुए, मद्गास के “ड्िन्दू” पञकी जुबिलों हीयग- हू । इच पचीस व्ोरसें यह पत्र साप्ताद्किछ से देनिक झ्लीगया ऊीर इस काल में सर्वेसलत्धारण्प भसल घ्वा अतिनिधिपना देश- क्ाषाणओों से उठकर ऊअर्ग्रेजी प्रा सें चलाए गया । हमारे हिन्दीपन्नों में श्वारतसित्र २६ थे बच में है, भौर हिन्दी प्रदीप पच्चीसव में | म्ारतमित्र ने हिन्दी पर्ठकां के दिचारेो के प्रकाशित फरले, सुचारने शौर बनाने से बहुत कुछ स्‍ाग लिया है अतणशस यदि अब के वषररमरूस पर, स्‍्वारत्मित्र कौ जुल्दिली सना जाय, तो बहुत जच्छी बात है। मारतमिन्र प्प्पनणे अलुस्तदसे २६ वघ घपहो काऊचच्छ को गति सुनावे लो वह बहुत अच्छी मालूस छोगी | - | | ९१. हेड लि श्प्( नल हम नहों जानते कि अयचससाचप्र के बन्द हो जाने पर दुःख मकाश कर, वाल करें। लिस “सत्वे' ने हिन्दी को बदौलत इलचर कमाया हर जिसका छिनदी पर इतना? मेर है उसके यहां हिन्दीपत्र कर इतने दिन जीन/श्मी कठिन -कार्ये या | सम्भव -है कि हमें यह हितवात्तरं के जन्म का खदला प्ररना पह्दार है। सब युक्तमानल के मा्देजमनिक सत को म्रदाशिस करने में ( प्रयाणसमाचार के अतिरिक्त ») भारत फोवल को यज्ञवास्‌ छीला चाहिए | खेद ह्दैपफि यक्तमदे शक ब्न्का ससालोचक । ( ९३४ ) पश्चिमोत्तर छारऊूचघल 'गूगा हो है। अल्चसमाचार का फालतिष्ठा यही है “जालो वा न चीर जीवेद जीवबेद्द। दब लेल्दि- $ ?? | सोहनी ने खड़ा आकार चारण किया है, किन्त उसके लेख फ्री आकार के योग्प द्ोने चाहिएं ५ कह भ्कः - टाह राजस्थान को अजब नागरीप्रचारिणोसभा प्रका- शित फरने ही लहूगो है तो एक दी बष्तोंका घिचार अबध्य होना चाहिए | सनते हैँ कि राजस्थान का एक सऊचुवाद्‌ खड़तिलास घेसमें ओर एक वेड्डूटेश्बर प्रेसमें र््खाए है| सो समाफोी उचित है कि इन दोनो अनुवादों से अपने अचुवाद्‌ झा सिलान फरके सर्वोत्तम अनुवाद फी' ज्रकाशित करे | दूसरे, राजस्थान फी प्रूलोंफा सुधारना प्रो अत्यावश्यक है। उस पास फो करना जिससा आवश्यक है उतना डो इसकी योस्य सनुण्य के हाथसे न होना अनावश्यक छे अतएव उद्‌- यपुरके प्रसिद्द ऐतिहासिक गौरीशहूर डीराशहुर भोफा और पशिषत सोहनलाल पहचा इस ग्रन्यका संशोधन फछिखें और राजस्थानसमाचार के सनोषी ससचेदान, बाबू राधचाकृष्ण- दास, पशिद्धत साचवप्तसाद मिश्र, हिन्दी सम्पादको्ें से दर प्रत्तिनिच्चि और राजपत सदहासक्षा का एक प्रतिनिधि, उनके संशोचन की दोछराले | पीछे यह निबन्ध फसांगरोीप्रचाएरिणो सफ्रा वश राजपूत सहाससा को तरफ से टाड के अतिरिष्त खगणलके रूपमें छपाया पाय] ऐसएडी स्‍क्‍स्बबन्ध रस्रेश बाद के इलिहरस के बारे में होना चाहिए । सिन सज्ज नो के हसने सःस् _ छिखे हे वे इस कामफो स्वीकार करें, क्रेदछ नागरीमलपररिणो प्र डी ६ ३६ ) बा । समा फो यह फरना चाहिए, पघह फरना चाहिए कहकर हर दूर स होजाय । करे न आजके सम्माझोचक से डिपटी कले >८र परशिडत शपासादि- हारो सिश्र एम. छू. मोर णएरेडत शुक्ददेय विधारी सिन्न द्यों ए. का एुक्र बडा लेख, ठघव! नानक प्रकाशित हीता है । छघप्त छेसको हम सिश्रदन्धय भो के लडे आयह से रथान देते हैं; अीरपहले ही कहरेना चाहते हैं कि इससे रस प्ती अंश छ नारे भतके अनुकूल हों सो बात चहों है | छड्ढों कहीं भाषा ही तोन ता होने पर क्ली क्षिद्र सायो से यह लेख कछिया गयप छे थे शुई हैँ दवष्पा बा पर निनद्ा पे मसत्र चढ़ो हैं | तपापि लेख को पड़ कर एक देर तो ऊहना ही पड़ता है--- () 000]2६, 5088 'ए ॥0 ॥90॥'8 पाधठप परवाह एए 8एसफ गाए छाए घटाएए इणा। +.॥ | (078 ह£ 538 डय0त्त एशग्वाप्ररपे शतप॑ 0 ज्टॉप ४[07(5 5 एड ॥095 उ९४५७ ३॥677" (3॥१९.६ 5 किनत छ्पार कोरी पान पेज व लाछात्त्ता 73५ फग ।£> श््् $0 756 7६ 33 7) ह >े 3 | ७-७ 00 दी उजत]७> 5752 > पी + ब्न्् श्गु्ो हर माउविविशेष या ससानयविशेव के पन्नों का अड्डा ता सु र ढोचा ठाझे सनात्दक को योग्यवः, सलखि, सर्ति, रूईफप, प्रदुति के ऊछयर जिनेर है | ज्ागिवियेंद की नेता फरते ७ से 3 >4 रर को सेब ज्वोी रू रूकते हैं | बा जारती ८* + छठ्झीे भी हो घफझवे ?ऋ। दो प्री की दस सहई सुना कायर कर देते 6६, टिप्यणा करने की फावहस पर पा संकाय ! - समालोच्रक |... - ( १६१ ) ” फहन्दुस्थान रिव्यूओोर कापस्थंसमाचार ( फायस्थ पाठशाला, प्रधान पका अग्रेजी सासिफक्क ) सम्पादक-बारिष्टर अदच्चिदा- नन्द सिह है । सिलतसरूषर १००३ १ विक्रोरिया के ससय को ससी- क्षा ( लेखकं-बाब रसेशचन्द्ग दत्त सो० आदई० ० ) ४ प्ञारत से हिन्दू मृुचलकसान (सरलादेवी चोबाल बी. ए«) ६ एथियो के आकर्तिक्षान से प्ना- रलतव्ष का फास (प्रोफेसर ए-« सो दत्त एम. ए. केम्क्निज) ४ दुश्पति के अधिकारों की रक्षा ( गजुजस वेड्ूटरवट्नस ) प लैद्राबाद फो केसे सुथघर॒र ना ? ( शासन का एक लिज्ञासु ) ६ समरैण सुच ,र को रोपति (डी.की, कृष्णराव बी. छू. नो. एल.) 9 घिचादुू--- (क) घरोपियन और भ्रारत , वासियों में सारपोट (एक ए- रलोइरणिडयन ) (ख) म्रारतवष सें सामाजिक सेल सिलाप (सचह्ृच्सद अली ही, छू. फावसफोटड ) _ राजपूत - (क्षन्नियमणच्यस्थस भा आगरा हिन्दी पाक्षिक) सरूपादुक-फ अर हनसन्तसिंह रखुबशो ( फद्ाचित्‌ ) १४ अब्टोबर १९०३ १ सुदर्शन के साहित्यसेवी की चष्टतर २ सुदशश न का दुष्यंवहार ३ प्रारतजीवन सम्पादफ फा ट्राग्रह > ४ ससमालोचक का अनुचित आलाप पे ्राहमगें के विषय सें छा गे समरूमईते | ६ चागरोे प्रचारिणीससाके एक व्यख्पानकाः मत्य रूप मा रा श। 9 अरित पत्न (पल्चञाब से सका सोलने के लिए ) लि नल मु ई १३८ ) समालेचष्छ | ८ समालोच ना--- दिल्‍ली दरबार विषयक दा ।| - ग्रन्थों को ७ डिप्पणिया--- (क) वैज्ञानिक और वेच्यक (ख) साहित्य झरर शिक्षए (ग) क़ानूनो १० गल सास १९ कायरुथ जगत्‌ | एछ ९८२-२१८ पष्ट ९-रेऐे बड़ी बढ़िया अग्नेज) पत्न प्र में एक ही टरण्ठां, उच्च दिच्ार सापा सौर विचारों फा फैला सत्तस लेख पाठक फर।| धन कं " दी बातें बहुत ही सन्‍तोषणनक हुई हैं | एक तो विलायत के सिश्चटिलसविस झूपी अग्निर्में तप्तकाजऊूचनवत्‌ उज्ज्वल सह पि- कुमार पाणडुरज्राबका द्विंतीयपद्‌ पाना कौर दूसरे चागरी- प्रचारिणी सभा के विज्ञानक्षोष का दोहराया जाना | दार्लिट घात्य सररस्वतकुछसणि पाण्डरद्ग ने इस देश का मुख उक्त ऊ फिया है। 'वारशवानि वह्ली” में गुणातिरेक पाने वाले म्रांजपे, चटर्जी, पाण्डरस्ध, यो मभ्तुति से उस हतभ्मारप दिश कक नाक यचो हु है । मसुर परणडरड ने गोरा द्वरीका शासम करना न चाहकर अपने भाइयों का ही शाहन चाद़ा हैं। सागरीप्रचारिणी सकता के शिलानलीए की सच्यम्रदेश से ६ शरााऊॉचफक | ( ९३० ) फा्थोीके ९, पंजाब और विहारके एक एक, सज्वाकोष्ठी छसेटी' ले देहराना । ज्योक्तिय और सयोल की परिभत्वाए' घूरी दोहरः ली गई हैं। अथशास्त्र और दुर्शचक्ते लिए सछ कसेहि- या बनो हूँ । बड़ दिन की छुट्टियोमें मा० गज्जर, बोय और छशफल्लररपप काशी खाकर शेष की शॉकी दोहराने ले उहायला दे गे। युक्त प्राज्त को सरकार चे क्षो रपना घतिनिधि ऋहीं सेजा हे और क्ोशशोचन सें सहायता देनेवाली की इस सू- चीो से घृतक्तप्रान्‍्त बालोकी सापारतसिकतवाका अच्छा परिचय मिलता छहै। चन्यवाद होे- बज़पकी ८ पजञणाओ ३ बिहारो १९ राजपूथधानर ( पणछ्जर- ल-प्रबासी) ९ दक्षिण जौर दृशक्षिणात्य ५ सच्यप्रदेशवासी 3 य्तम्ात्त जाती ० (काशी ६ लखनऊ १ आगरा ९ रासी ९) 2 ने गुलरततो सासिकपन्न भ्रारतजोदन के क्ार्योलय से एक एिन्दी' सासिक पत्र निकरकने बाला है। प्रवासी और भारती, ' बद्भालीपक, सासिक भसवोरणलजन, सराठोपन्न और पू्दोक्त , भारतजीवन-जे हमें अपने केखो के धतुदाद फरने को आज्ञा देदी हे इस लिए इन्हे चन्‍्यवहद छे। तर भह सरस्वती में हा्नेले का चरित्र, फरसिरसबी सखली और देशव्यत्पक माषा फेलेख बहुद अच्छे हे। हासेलेपजचष् के लेखक ने हानेले को गणेश, शेप को उपसादूर है, इस से कहीं लुदर्शबसरूपादक इस ऊेखफे लेखक के सहासट्टीपाच्याय छीलेका सुखण्व$ई न देखने लगे । 3७०. ८ चाह कक ञज्परः १९ ( ९४५ ) समालोघक | जान साल घानक विद्वान ने सुघसित राजनीतिशिशा- रद्‌ रलैंडप्टोड का जीवनचरिनत्र लिखर है। घह् तीन जिल्दों में २००० से लाधिक सूध॑म दाइप के एटरोंमें छपरा है औरेर उत्त सें दो तीन लाख ग्रन्थ, लेस, घरश्न॒त्ति की सहायता लो' गई चै। साले साहब ने बड़ा छी परिश्चल किया है। घन्य! घनथ |! धल्य प्रवासी की शपरदोय सख्या सें युमराती साहित्यपर शक बहुद अच्छः लेख है | बचदु लियों को पंजाब वो शीद पाल्त में उपतिदेश बचाने का परासश पिया गये! है। घन्य है सस्पादक फप्ी खिसलने घिल्दीसापर के सासधिफ पत्रों पर कुछ लिखए | जलुदाद्‌ की प्ाज्ञा लेने से बडी फटिनादइमां पछली है इससे छद्दे लोग बिना आज्ञा हो लिखना स्वीकार करते हैं। अचश्यही घह लज्जा की बाच है । ना कश्शीसे पणिछ्ठत केशव स्थासी ने हन्नारे पास एक छपी छुओ उ्यवस्या भेजी है । इसमें आपस्तस्थ, मद्चरत्त के ए$ एक वादप के सहारे से सिंद्दु कियर यया ऐ कि लो टिका लि, छउपलयन सबश्कार न होने से ब्रात्य छ्वोगए हैं, वे ब्रीत्स- स्तीसके छजाय द्वादुशवये ब्रद्वचर्थ भहात्रत ८ा उसका णंलुः पाएप ३६० गोदाच करके पुनः संरक्षाद फरा सकते हैँ | इसपर काशी, व््ठ॑ मान, दुरभड्रा और दू दी के कई पणिडतोी के एटता- क्र है| साया वर्षश्र पीता जयाया, यधी व्यवस्पा “प्रति ससससि पाचरुपया दुक्षिणा! के साथ जयपुर छे फ़गिएतों पे आपस भी भाई थी, फिल्‍ले छनने डइस पर सरनसि समाकूम ससालोीचक ) ( १४९ ) तु श्र परें न करें । भच्छो बाल दि ुवयस उपायों से फ्र कात्यों व्हो उपनोत फरने मे क्राह्मण ससये २है | सब्त में लिखा दे छि छूस दिनों व्यक्षश्या की हो लोगों ले जोधिका बचए- रदखा ऐ इस हेत यह छपाई जाती है |” यदि इसके छपा- ने से (औरों दो दक्षिणां से छक्तिवबत न करके ) ठ्यवस्था को जीपधिफा दाना लोगों ने छोड दिया हे ती ब्राध्मण फुऊूकर ओर प्रशी के फोविंदरे का गौरव हो है | ह।६5 ६ (हइबाडे लाव दी एलेकिदुक एसर->केनो नासक अगरेजो उपन्यास याद गज्भञापसएद गुप्त असुवादित | 8 ४? प्ावलजीवबन, ९६ एण्ठ, चारआने पारूप और दान जासक रीफरो के समथ, बिजलो को एवादे चाद पर सवार होफर, जन होरोा को चाटो की जा- तर ले | राहइयसें नव्यादे को लचाकर, शिजजछीसे एक शेर कहो घशप्तर, जड्र छियेर का घन्यवाद लेकर, ले पाणो के लिए उ- सरले हैं और ऊजदहें। द्वारा नह दोले से पिकारिया के आर- सण से बचाए जाते हैं | होद्तेक्ती घए्टोसे गुरिल्कोसे रू छसर, जगरिशेक्ते दने में आकर उन्हें दुगए देना, दो जगली जालिये! ला लझफर हीरो छी घादी को वहा देखा, और हमररी पार्टी का धोलेसे छीरोसे मनन्‍लए छोकफर लोौटना घता“ था गया दे। राह से गज्बापरा टट जाता है और ले कठिता- द॑ ये चर पहुंचते हे | कु फछहानी ेच्छी है । घरलभाषामें कछ्ी गद हे | एसेरि- का बाले डीगे सारने में बे सन्िपण छोसे है, फकिनत घटया उलनी झससझरूमणय नही ( १ ) अन्वय क्या है * कि ( ६४२ ) ससमालीचक | प्रथसएण्ठ में 'फकल्कानों दक्षिण अभेरिका देशको हैे। रोह्सटाउनच!” कहकर रोेडदमटाउच दक्षिण अभेरिका से बता- य३ जान पड़ता है । एणष्ठ २ में श्रेजिल ( अछिक़ा ) लि वर ले किन्तु ( एछण्ठ ९१ ) “दक्षिण से”? सैकिघकी की खाद ( कहाँ से ? ) वेलला अभतिते और पृष्ठ १७ से चासूस ही सतत हे कि थे उच्तरी ऋभेरिका से चले है और घटना दक्षिण अखेरिव्ता से हुई है।यह लिलिसस तो है दी नही कि सच में खाया सो छक् दिया | स्राणा के कुछ नमूने योही चुनकर रख दिए घाते हैं-बआाएचय मद चीज (३२) धर एक फले सें (३) पछिया चचेरा कर चूसने रलूगी ( ४ ) चिढ़िये को तरह ( ४) चातक लड़ाई (५) लुक्ककी तरद्द ( )६ ६ / सांघातक चीता चाखून और दनन्‍्तरह्टित द्वीयया (२) खचिडिया चुहचुडा रही थी (३२) गुरिल्लेने अपने सिर्जीय प्र- चिद्वन्दी को अपने से बलिप्ठ पाया (५१) यछी सदर (६०) उद्योगे सफल; कारय;( ७० ) इत्यादि । फट्ठी कही सिचड़ी की छे। पृष्ठ एप “प्रहचान खिया कि ये खोपटडियां कक्ेशिया देश के छोीगो की हे ” | मन्‍्ुवादकतो सल फो ( जहः ६ /37005735 ह्नोगा ) नष्टी ससम्पे | सजहे प्रभाते ख्मीरकन सण्ल के हैं, यरोपीय, एशियायी काकेशस गिर से जपने के फारण काकेशियन कहाते ऐ | उनको नस्ल सिन्तक छीनेफे प्तो- रुप सी लिखा गया है, न कि * फकक्केशिया ” पी देश ८ सलिसका वहाँ सरघन्छ ही । सच्चा दुछसाो छइस उपन्यास वो यहुत कासऊा बना फसे यदि पिकारी धक्त ति लाहभोफ ता सूदग बर्णेव, विजली का शत के साय प्रभति लिखदकार सिल से ईसेरयाना शा धयरते | सनालोयक | ( १४३ ) घहढदी ( ए० ३१ ) और सचियली फो शनन्‍्सनाएह् द का छाल पुछ बडा देना था | विजली कार घिचिसप्रमाश् ( प्ण्ठ २७ ) रख आअलिरश्िषरित जाप पता छे। विजली का (४१०७४ जा के से ५०१४ प 5७०0० छोडर !ैै!४५|६५५ रु5 जाते है, झत्य ब्ये ती £. किन्तु * !र्पए८८४० केचग से चेद्दी शोसे सख कैसे कटे गए | फिन्‍त झए झात झलफो छहै. अनवादकत्तों की कछ ना षी कट्टना चारढेए | शिन्के कि कदाएनित सारासचाद एऐ इफया & | सतिलिस्मी जिर्जीय फ्चाओं के एठने की अपेक्षए धर विदधिन्न उपन्यायें के पाठ हे, विशधिकरयटना जानने नूते मिप्वाय, झ्ृरिपोय जञातियाे के साइहम, उत्साह, अन्वेदण ग्रश्नति के जानने से हसारे सतसनाज फी नसे में चढ़े शक्ति प्रदिप्ठ हे! सकती है| सान छोजिये क्वि यह याजा एवादे नाथ से नहीं छुद्क, फिन्तु ऐसी याःज्शए देलून पर, रेल पर, चाव पर वा पेंदुछल, ऐसे ही पके के लिये लाती हैं | पत्राो ने बाद्य गगापध्रमाएं गप्त को होनटध्ार नव-यवक लि- रखा जे। सन्‍्छे सचित है कि सलिलिएम से अपनी कस की ले दिगाल़ कर 'बैेलन मे चार सास” आउटिक अन्दाटिक स स॒द्रो की खोज उत्तर दुश्षिण प्ुबों की खीझ समुद्र के नोचे ४०८०० फुट, धभ्मति चिपपा के ग्रन्थ लिखना शुरू कर । सहें सब इतिहास हेने पर क्ञी उपब्याभमे! से कर रोचक नह्ठों & |उस के बाद जीव, जन्त, तरू, पत्र, मक्षति प्रकति को खुन्द्रता का दर्णेच ूरफे छिन्दी पाठण्यो को चउच्ची विचि् बातो में प्रेल कराये जाय | तब्य पाठको की रुूवि चपन्‍्यांसों से छूट कर लेज्नानिक दतचान्त और ग्रल्योपर आाजायणो | १८, . २ +5. +६ है (९ ६ २४४ ) ससालोचचब्छ । ८६ झ्दृप्‌ लड़ सिर्फ यथ्‌-- ञ््रो च्त्त्रप््य्ण पाडे, के ए. स॒ुच्प्फरपु र रदेत, एछ. ४०, तीनसरने यह बही चन्ध है को ससाचार पन्नो से ८ं० सारायप घांछे आर दछ ब्द्धू स्योच्याप्रद एड से परम्पर लड़ाई क्र कारय व्तद्लों गया है | विचारः अन्च दास्तद से इस लडठाहे पे नि दोष है| एथ्दी पर सब स्थानों लें सू दोँदूय, सच्याह वा सूर्पा- धूल छुक्कर साथ नहीं होता इससे झुक जगह का समय दूसरी जयहू के ससय से फिन् होता है| इस पग्रच्प से माय! ९४० चसथरो के देशाःनतरसान घ्ती सारणी दी यई हे मोर सहसे किसो एक सथाद का सूसाय जानने से दूसरे रुधाचल का सनय जानने-क्ती रोति अच्छे तरह समकफा- है गदे है। देशःन्‍्तरन्यज पटने से किया ययवरः है, यह चाव नई दिन्‍त सतप्वशपक्त है। पांडे जी का परिश्नत अच्छा है और उन्हें उच्चित है कि ऐसे सबेरपयोनी देडामिर लेख लिसे। पज्षञावघर सरल है। रे पाछे जो अर द्ञ द््ू साहलन रे न्क्र्गडे न्प बात. ८3] शाइवेंट छोने के कारण हमे उससे कोई सतलब नहीं। शिन्‍त कहर ऊाला है कि यह ससालोचना से कारण हुई हे अतएवं उस ले इस वारे मं कुछ ऊायज पढ़े । छस तो यह खससदें--- दाद साहलसर--लसे रपे सस्राकोचमाःर में चिठ कर चाहे पते ले छमारों क्रोीजाडे सतीलेदो दह क्वाकर नुस्द्धसो परछेजी सटाराज--कालनिरणेय छप्नेंसे यर्पेझर पटटपस्टे हे बोयू उाहद चनेरे और भेरे साई फो थे इज्जूधथी घर उतताए एड एू कं कप 3 घिप्लीसा जीनने के लिए फंटसाः थे। उप्तने इच्मपिस्टर की फेरय खिक्लछीसा उन्तने को लए स्टरप च्रमप्प्याः | हि घमालीचक । ( १४४ ) दो घार मेरे जाते पर प्रीजदारों दायर को छो फॉतठी सिद्ध 3४ | स्वप्ताव इनका बहुत रूरदा ञ्लै । कालनिणय प्रकाशित होने के दो दिन पूर्व ही इस के दोच भसतलोजे जज साहब से अपनो दुदु शा कट्टी कौर सुझुहुसा उलर | मेरे भाई ने उस से गवाहरे सात्र दो | हमारा इससे कोदे सस्वन्य चही || , आबू साहब--१४ सिलस्थर पहो फिर लुझ पर कूठा सुक्ट्रभा दायर कराया गधा ॥ |॒ _- पॉलेजी--इससे की हमारा फोई सम्बन्ध नहीं ।॥ सब छोग ससभ््ठ जाँय, इससे हसने इनकी बातो को सवाद रूप से रकखा है। वास्तव बाल क्‍यए है सो इस न तो जान- उके और न फह्ठ चकते हें किन्तु दावू असोष्यपप्रसोद ने चए० २८ जुलाब ९८८७ में जो कालनिश य की समालऊोचना की है -उससें कुछ शठ्द्‌ बहुल ब ढ़ियप छे,जैसे “वी ए. बलुआका अरबी में उसी कदर दखल है जिस कदर पउालजन्त का खफ्की मे? आप लो हिन्दुश्तान में रइते ही नहीं है + + देशी' स्॒गी जिलायतलो बोल” | फिर अयागससाचार औरर लेड्ध- टेश्वर को रायों फो छप्ा कर बालद्व वाहब ने बटलायर है, उनक्छे चीतरफ यह सुन्दर रझबद्विता लिखी है--- अधिक लठता मत तक किये। कलस फास लाठो से लिये | छीछी ये अनुत्तित ठयवहार | चलो तसरिकसा छहोश सम्हार | लिखने को शक्ति नही आई। रूतठे बी. द- छिगरीे पाई । नारायण करतूत विचार | घिक्वारे जय सेरे सी घार | सघर दिछ्लारवन्धु से घाल साहल सरझ साफ / कुसड 7? कछ कर उर्जसाचारण का सतत फ़िराने रा यत्च करते से दि- खाद देते है | ईश्वर जाने माल क्यए है, किन्तु बाबू साहद ( ९४६ ) उस्ाालोसक ! दप स्थाआादव बहुत पेज हे इस में कोड़े नन्‍्देह नहीं। यह लेली समाऊकोचना दो ऐोके अशिप्ठता दिखाने वालो के का- रण भ्षी दो सकती हे । । " “घहक्र्यको स्लुस-- हमें डर है कि आरस्प्रशूरा। खहु दाकचिणात्वा+ की लोकोप्कि उत्तरवाशियों पर ही लगती दिखाई देती है, वणोक्ति यहां के दुल्ल आरोग्यद्प प मे- भाति जर चुके हैं और सया जो औषचशाःला के आायेसिमक ने सराठी से १९० दर्ष जी कर सट्लैद्यकी स्तुभ के साम से हि नदी से भो जज्य लिया है तीन उख्याक्रीं के देखते इस पत्र का सविष्य झच्छा सालूस होता है| इस में विज्ञानचचो है किप्तु अटिकतला नहीं, प्ाषा को सरलता है क्रित्तु दृष्टचा नहीं, आचीन दैद्यल्त का आदर है रिन्तु आाधुतिक चवेषणाओ की उपेक्ता वा घ्णां छछ्ठी | फ्ाषा के शेसः भें हारफ््टपन - नही हे लिस से उसे दूषित कहा ऊाय [ पेय संरक्षण चासक सानविक्त ले ब्डी थोग्यता से लिखा जा- रहा है और भाशा है कि उउसे झृरोपीय खोज जीर रीघर ऊपा्वेत पर रूदित उयास दिमर जाथया। वर्नौषधि दिल्ा- न बहुत बडुए हो, कीर आादुनिक / दोटनो की वियी* घ्थर बरे भी उसी येण्यतः से देन किया जाय, हमारे छच्छा है | पत्र अच्छा है कौर इस दी सहायता करनी ज्ाहिए। यही उस फहसकले है | प्रसेय पदार्थों पए रत देता किसी छैद्यराल का काल हे [| भायुवेद्‌ सहोपाध्याय पणिद्दत शर्ट ग्द्जर शस्त्र पदे, सथाजी अऑीपचशाहला, नचए सागपा- डा, बज्नदे, मूल्य २) साल, सतिसास, कारतधस के साथ #)| यान . सहयोगिसाहित्य की सची नल +++-+_-_ध्य्लट टदरूणर7०७......""7:+ आारतभशित्न-टिप्पणियां | चिरामतले ग्रन्धेरा । प।९। द्वाईकोर्ट में ताली। सर- कार की पदानशीनी । बल्षालियों की हिन्दी | सरस्वती वन्द॒ना । १९९। काले गोरे का न्याय | हिन्दीकी श्रेष्ठता | विचित्रविचरण । १६।६।सरकारी छिद्धान्त 'मेत्ो कालिज में इनाम । २६।८। गोर।की सनद्‌ । मन्त्रियों| भंहलचल। जैसा मुंह वेसा तमाचा। डुमापूजा । ज्ञनाना तरक्की | टेसू । महावीर जी को वक्तता (रामायण में क्षेपक) १७।१ ०। विलायती पार््ेमेण्ट | फाले गोरे का न्याय | साहित्यसेवा | दियाली के बताशे | २४।१ ०।नएस्टेटसेक्रेटरी।डाक- खातों की रिपोर्ट | जगलका राजा | प्रवासी की आलोचना चिट्ठी पत्री | आयखिड़देशवर समाचार- टिप्पणियां । हिन्दुग॒हस्थ ४।४।प्रोफेप्त भिन्‍्सीवाल | बात का बत्तज्नड। मडलका विद्या प्रचार। काच का उद्योग | ११।९। राजऊुमारों की शिक्षा । आभियोग का स्वरूप | नाथकाट का शासन । मंडल का विद्याप्रचार । १८। ६ ।|सुद्शेन ओर हम | मंडल का विद्याप्रचार | लाभ क्योंक्षर हो? सरकार के गुप्त भेद । २४॥<९। मिट्टी की सिंछनी । सुदरशनका परमाथे | जैन कान्फेस | तीन के इस्तीफे । २|१ ०। दीज्षितजी | हिन्दी के रनाल्ड। घम का उत्साह। शाशोच- निणय | ६|१०। राजाओंके अभियाग | हमारे दर्शों दर गए | देशी वाले । धरणीदादहन । १६|१०। प्रार्थना | सुदशन का फैसला । आजकल के साधु । ३०।१ “दिेशहित की परीक्षा। नगरों का राज्ा लण्डन | पंडित की व्यवस्था । (्‌ १४८ ) समार्चक ) वा हितचात्ता-टिप्पणियां। / २५॥।१ ०। राजा और रोग। गो- टिकाटिकी वाला | . रक्षण आर गेभक्षण । उन्नति ६|<९| गुप्तआईन | पुलिस | का काँट[। रुघिर शोषण | प्रमाती | अत्याचार | विलासपुर । म्यूनिसि |, भारतजीवन- नागरी पल मादिमा [| सेनिऋदुबलता । : ग्रचारिणीसभा का कार्याविवरण । नागौद राज्यपर हाष्टि । सीलोनयात्रा । १३६(८। रक्तशाषण | वन्यपशु मसोहिनी-(पात्षिक, २ शरट आर भारठवासी । संसार में अ- ; ज्नौर ८!१०) बअश्मविद्या । उन्नति शान्ति । दुर्मिक्त । म्यूनित्तिपल | वा अवनति। माहमा । राजपूत-६ ६|८, ११८. २०।९। एकता का फल | भारत | ३०१२, १५॥१ ० जनरल गारफीहइ। का भविष्यत्‌ | क्शथिविद्यालय का | उपदेशरत्लमाला। राजपूत इतिहास संस्कार | दानकी छीछ़ाले दर । । के दिगूदशेन । काचय्यमन्जूपा की समीक्षा । दा भाचिे स्लक- शिचिठ २७।२। आवादइन । नवीनस “ समाज औोर धर्म । भ्यता ओर नशे । शिक्षासंस्कार । गोपालपजत्रिका- ज्यो- देशी सम्पादक ओर कोतवाल । । तिर्विज्ञान | सिखसम्मदाय ! काबुल समाचार। जय दुर्ग | मज्ज की विहारघन्धु-सम्मतियाँ। तरञ्ञ | वाजुओं का उत्सव | साइन | १॥२| डुमरांव राज । यवेका सपा आर प्रजा । ही रहा। दरितालिका मत । नूठव- १८।१०। अद्भुत मविष्यत्‌ | | फविता। मिडिलस्कूली का सुधार | दिवाली | अंग्रज और बच्चनली । १५।२। प्रावपाशी कमीसन ॥ प्रप््त | प्राप्त । ७०3. ५७ "कामना नम्मन्याननकानमा २-०, कैम्मम०...... 2०-५०... ७-४ ३०. +-पाह० +-0-+#... हता/+-यइह--हहनगगग्गाहि।-गनि--ीआान न पर ऋषन की. भहएगीयक, .“>मन्‍मंभभ5न. आम... पा माम्मबूहिक.. बमूझण.. चम्ममू.. +--मा 3... वायु ममभाहिगादुा पका िकांंमक कम. ल्‍-नया हीगुक....8..... +काननज्का अल ५० 9-न०+प्मइई- व नाइक, ००ृत-पु-जान 3, सील रीकल पे यनन. माया. साइहुए.. "न्‍नबमयपाधमा 2म्कू- 2००--ाझा"पानगा न्आा०्पाहकमक किन काकुनममूहनया ज्यायाान- जनम “कु पेन ससालोचफक | १५ १०। सरयुपारी ब्राक्मण- सभा | खुली चिट्ठी । चेपडुककीचे चें । प्रथधागसमा चार--- १२।<। साहित्यचची । उपन्या- सचचा । वेकनविचाररत्ञावली । १ ९।&।उपन्थासचर्चा | भद्भड को चड़बड़ | माता । - २६।६। जमीदारसभा । प्यागमे गोस्वामी । भप्त] हमारा विचार | १०।१० लाहोर में गायकवाड़ | साहित्यच ना । सलाइमेकाले | अब लाबाला । १७।१ ०। कषिशित्ता। उपन्यास्त चचा। लाडे मेकाले। अबलाबाला १ माया ओर में । २४।१०। अवलावबाला। एतिहा- सिंकचचों । साहित्यप्रसंग | राजस्थानससा चार- २९२ ,५।<,<।< द्विन्दींभाषा और उप्तकी उर्च्नति । २॥९, १६।९ ,२-९।€ राजकुमार आर उनकी शिक्षा । २६।९,७।६ ० ह >> यनपम०५. नम ५६ नह भा. -तपपाकय७५क* क्या» -०० मम गाह ५. ..५०पा०--पकप्राकाणमपानपकानणयम-- पाक फैन ्णण-कग-भा----+-ऋं ( १४९, ) २६।९,३।९०,१०।९०,९४।९० राज* कुमारांका शिक्षा । ३।१०,७१०, ९०१०, १४१९० अनन्त कहद्दानी । १७।१०,२४।१०, देशीर ज्य शोर गोरत्षा | <।< आफीशियल सीक्रेट एक्ट । १२।६ कानून ओर राजनेतिक सभाएं। रूप ओर जापान लडे तो भारतवासी क्या करें !। १६।« प्लेगमबन्ध के प्रजामत | २३।< सम्पादक्रपाठशाला । १७| १० विज्ञान ओर विश्ववि- च्ालय बद्माश्रो । १८॥१० पेरितपत्र । ३१ मेवोकालिजमे संस्कृत । हिन्दी वह्वासी--- ७] < इंगलेएड जापानकी सहयो- गिता | माद में मनुष्य | रोडियम | नीचू घास | १४७।< वल्कानऊा फिसाद | रूस की प्रतिज्ञा । संन्‍्यासी की चिट्ढी। पञ्चानन्द । द २८॥<६ माताकी पूजा ।माता के 2. नरुद्ध ( ९३० ) द्शन | शरदानिंशि देखि हरि हरष पायो | भाषाकी नाक। पहूचौननदइ | १९]१० बड़े लाटप 'नंवेद्न | झखबारोमे अशान्‍न्ते | कनरी गुफा | अवरक | १६।१० लक्ष्मीपूना । नवीन पेकेसर | उ)चतपरामपष । क्षामाला जा|!त॑ । मधमक्खा | सरझचली,-सितम्वर-- विविध विषय | वापूदेव शाख्री !|अ- स्योक्तिदशक | चातकइुसन्ताप | अ- विवेकी भेघ | वषी का आगमन | खानविद्या। ग्यारह वर्षका समय॑ । एथ्वी । पृस्तकपरीक्षा । देशव्याप- क भाषा | साहित्यसमाचार ( १० चिन्न, ५ कावेता ) ध्यक्टोबर- डाक्टर रुड। हानली । दानेलापणब्चक |) कंम्रल | मरतवाक्य । विज्ञापनाकी घूम । कर और सिरभयी मछलजी। देश व्यापक भाषा | माणिक्र । सहाराणी माईसोरकी पाठशाला । पुस्तक- परीक्षा | विनोद और आख्याय का।| मनोरव्जक श्लोक (४ चित्र 3 फृविता ) सादलाल,-ज्येछ-प्राथेना । स्वामीनीका स्मारक | पें० रामचन्द्र दान्‍्ती | स्वय॑ भादश । चिराग तले दिनान+ नी न जी न कि मम आर्सी अगली 'कममकों स्‍अभिकाा जनक सतसमाफोचक | अंधेरा। अप किसका हिस्रा मपृतके। ने सलाह | हा प्रभ। (१ चित्र) आ।पाढ-प्रा थना | तवलकांदश पाचेषद भाष्य पएराखप्रप्तद्ध । हणर। शिक्ता का हास | पन्वप्रपञच | प»चपञचायत | उपन्यात्त भर समालोचक | ठिलाब्नालि । पनन्‍्य- बाद । मित्रमरणम्‌ । ऐयार। हा | ब्राह्मयणलाति । ( ९ पित्र | ज्वदवेयदास्लुर्भ आपाट-उद्दश | वन्ताषाधाव ज्ञान। गोरप्तादि | प्लेगप्तरक्षर३ | श्रावश्-- . ( तथा ) भाद्पद-वनापा पीवेशचि | एलेग* सेरक्तण | गीरसादे | सासरतह्धमसन-जाींी द- 4॥“ ज्यम्बकेंश्व रवणन ! सिख्वाव नत। को प्रतिष्ठा! । श्रवण -पन्रगपूजा ! भाद्र पद -स्वामि रामार श्र श्री पोफेततर जिन्‍्चीवाले | गवेश चहुर्थी। सिखस्वाधीवता की प्राविष्ठा | नागरीपप्रचारिणी पालक: सितम्वर्‌ -- मनोविज्ञान ! प्राचीनलखमाद- माला का सच पत्र | नागरी प्रचारिशी सन्त साला“ -चेण्पण् छे अप्का9 | ज्क्नी लय रन कन्या ||। कक * | पृ हा कुछ खम्सतियां “अबकी का समालोचकफ बहुत अच्छा निकला है ! अथ अचश्य कुछ हित करेगा कयोकि किसी योग्य सरूपादक के छाथमसे पट्टा डे ( काबू राधाकृष्णदास ) ४» २८ अफ्लीययानग्स तथागण नहीं छुआ है चोरे चीरे छो जायगा २९ २८ ( पशिष्ठत गक्गलाम्साद अग्निहोत्री ) 5 0९ 2६ बहुत अच्छा है ८६ >< 7! ( शिवचन्द्‌ बलदेव प्ररलतियाः ) »६>९ गश्फी रसता का नास नहों है १२८ सगडियो फा जा बाक्स ८» समालोचक के नानको फलड्डित करने वाले इस पतन्न को ऐसो वाहियात बालों ६ *< *<” ( राजपूत ) विज्ञापन घ० सह्तावी रप्रताद द्विवेदी को फीन सही जानता ! घघ छिनदी के बडे भारी कवि हैं | उनफो करश्रिता में को शब्द का, अलक्भांर फा वा भाव का निसाव द्वोता है बह्ध फीर झरगए़ सिलना सुश्किल है| उनके कोई ३० काठ्योी का सग्रह्द हसने “काव्यमज्जूघए” जान से छपाया है। टाइप, प्ागज़, सल कुछ बहुत बढिया है। कदिता के प्रेसियो को ऐसएर मौका खडुत बिरला सभिलता है जब दे भऋष्छे फयथि कों अच्छी कविता का छच्छ१* संग्रह पर सके | ऊग्म उनको सौष्का है, उनसे अपनीर रुचि के अनुसार बहुत बढिया फथिताए मिल सकती हैं । उन्हें चूकना नहीं पाहिए और फटपट ह) भेजफर एफ प्रति खरीद लेसो चाहिए | पुस्तक मिलने का पता-- सेसर्स लेन बेद्य एण्ड को जोदरी बाजार जयपुर, रे धत्णवाद्पू्द क घपाप्तिस्वीकार खा चज्ठ अर ्क ०4 प हर है धो ! शदचल्द्र खलदेंघ पसरतलिया। फैसरबिलास, गीता्यययद्ावली कूण्णयढ़ | सोत्याक्ी कणठी | सहाष्येरमसाद द्विवेदी, कासी-घधाने लेचरित, जल दिकिरपा ! हे हवाई नव, सरोख्िनी (:ए- सारतजीोखन, फाशी--- नि ले मेद्ठ कूगडे को प्रसिहु चढ़ / श्र छाक्टर सहेन्दुलाल चर्ग, है कीनदरण चित्राल | श हा छादर आआसटदसारयख >पच पध् सता दिनो ल्‍ छवोी.,ए. गाजीपुर बच्नेल गोकुलप्रधादु भघु र- सूर्यष्डान्तर ४ डूडू के. देद्डव्श्वर मेस, खम्बइें----- शिचिन्न स्न्नीद्रिनत्न... *-. | खडे बोली का पद्म दोज्ञाग, ह | खड़ी घोली आन्दोलन भीर लाडू अ्य पोच्याए साद, छायरी दे एहथालूस , शो, ॥॒ सुज्लणएफ्ा छू र ' + परशिडत सी का स्गाहि त्य पिंगल; सोलवी का छन्‍्द्भेंद, याहित्य। ५ [ (और कद्टे रूगढ़े के प्टागृज़) * न ह घदलेसे--- सासिक सनोरज्जन, मरतजीघन (६ शजरात्यों ) के हो; रा ह्थाचचसाचार, ; ली ' समालोचऊ का प्रथम प्ञाय. अर्घाद प्रधम दर्षे की फा* इल बहुत बढ़ियए लेखों से सभझोये शाय; ३९४ छ्य्ठों को हे. ' मल्य ६॥) खलदी संयाइए, कापियां बहुत धेड़ी रह सर हैं| दे हेने शर ॥:8॥9६79६7 00 ४५5 ३5 न कह 3: एन जे हु लू "की स्‍क ्क अआख की अली है है ( सासिक पुस्तक ) «7 | अग्रिम वाषिक सूल्य १॥) +इस संख्या का मूल्य 5) (६ का हा मनन जीवन ००... की कान४०७-- हु १ २७" छा श््ज्््ग्न्च्स्ध्य्य््ल्ब न 5 5 0 हु भाग ९ +» दिसम्बर ९९०२े । संख्या १७ ी ९ ४ इ- :७७७७७७&७&#&#&#&ऋछ७छ७छ७छछ७ऋछनट-2<-<2-- >> :>ह ६१ सम कै ४ » सूची। . .- ८ प्राप्ति स्वीकार, पश्वत्त कवर, २ 522 55 भारत बे के इतिहास” की रु रे | समाछोचना ( पं० सकलनारायण पाण्डेय ) १५२ |$: हे डाक की थेली हू 9७ ज 50 परीक्षक निरीक्षण २१७९ पथ ( राय देबीप्रसाद, वी. ए. वी. एल. 2) ४ ४0 सम्पादकीय टिप्पणी १८९ नि+/+ ः | अन्न ततन्न सेन १९० 0 अपनी वात कवर हैं. सट: नल हे कछ 5 च्रोपायटर और प्रकाशक री है. “3 ्‌ मि० जेन वेद्य, जोहरी बाजार, जयपुर इ2% डक -कपससउस्यक्रततापक्षापत कफ जा जप ता फ ता) उप >पप प उसप उस फट कक के य के प ६ राजस्थान-यन्त्रारूब-अज मर। जे समालाोचक |. - प्राप्ति स्वीकार । कक बदले में... - ( हिन्दी ) आयावते, जासूस, उपन्यास, हितवातो, भारत भगिनी, निगमागमर्चंद्रिका, सत्यवादी ( बंगला ) वंगभाषा, नव्यभारत ह (उदें ) भारत प्रताप ( पराठी ) वालवांध, श्री सरस्वती मंदिर ,.. पुस्तक | पं, बलदेवमसाद मिश्र, मुरादावाद। नाव्यशास्त्र, प्रभासामैलन, .. भारत दुदेश्ा रूपक, ननन्‍्दाविदानाटक प॑. तुलसीदेव, फफिलोर . . अ्रद्धा इकाश - पत्नालाल बाकलीवाल, वम्बरे ब्रह्म विछास एस. एस. वमेन, कलकत्ता सोने की चिड़िया ( भज: 08 2० की हर. न ओर विज्ञापनों की पुस्तक 2 _नागरी प्रचारिणी सभा, आरा बाबू रामदीनसिंहकी जीवनी | द्वितीय वापिक विवरण सेठ खेमराजजी श्रीकृष्णदास, बम्बई हिन्दू ग्रहस्थ वाबू गंगामसाद गुप्त- काशी अवदुल्ला का खून वाबू विशेस्रप्साद -काजी पूना में हलचल बाबू वाल्मुकुंद वमो-काशी . मित्रकलेण्डर १९०४ ' भारत मित्र आफिस कलकत्ता | विचित्र विचरण, जयंती, मधुमातलका, 2 भामिनी विलास हलुमानपशोदर्शाम्वकापसाद काशी रामायण पचीसी। शव मो हिल प॑, गनेशजी जठाभाई लीम्बडी। कोतुक माला और बोध वचन ( आरा प्रणेत्‌ समालोचक सभा की आज्ञा से लिखित समालोचना ) भारतवर्ष का इतिहास अानााग्यानान या (१) यह पुस्तक बंगाल के साधारण ज्षिक्षा विभाग के डाइरेक्टर से स्वीकृत और मैकामेलन एण्ड फो० के द्वारा भकाशित होकर विहार के मिडैल वर्नेक्युलर स्कूलों में पदायी जाती है । इस वे भारतीय बिद्या के सुख सोभाग्य से उक्त कम्पनी की भाव: सभी हिन्दी पुस्तकें पाठ्य निर्णात हुईं हैं| उस ने इसे अच्छे का- ग़ज़ पर सुन्दर अक्षरों में छपवा कर प्रकाशित किया है ! ह (२) इस के दो खण्ड हैं | उन में से पहले खण्ड में ४२ ओर दूसरे खण्ड में ७ अध्याय हैं। ४९ चित्र ओर ५ नकझों से यह शों- भमान है इन के द्वारा लड़कों का जी पढ़ने में रंग सकता है । टाइटिलपेज रंगीन ओर सुन्दर है। जो मनुष्य अक्षर भी नहीं पहचानता हे वह भी इस की चमक दमक को देखकर मसन्‍न हो सकता है 4 इस के प्रथम खण्ड में आय्यों के समय से लेकर अंगरेजी राज्य तक की सभी ऐतिहासिक वातें का संक्षिप्त रूप से वणेन है। दूसरे खण्ड में हटिश्ि राज्य के प्रवन्धों का उल्लेख है | पा समालोचक | थोड़े दिनों से शिक्षा विभाग में यह नियय हुआ है कि जो पुस्तक सरकारी सुक्ूलों में पढ़ाने के लिये बनायी जाव वह अगरेजी में लिखी जाकर अधिष्ठातवर्गों की सेवा में स्वीकाराये अलवाद के साथ भेजी जाय ओर उन से स्वीकृत होने पर वह प्रचरित हो । ह॒ रंग ढंग से ज्ञात होता हे कि मूल अंग्रेजी ग्रन्थ का लिखने बाला कोई भारतीय नहीं है किन्तु अनुवादक अवश्य हों भारतीय चुजन हें । (३) ॥ पुस्तक में दोष बहुत हैं | यादे उन का पूरा वणन किया जाय तो एक दूसरी पुस्तक तेयार हो जाय | देखिये केवल टाइटिल पेज के वाक्यों कितनी अश्षद्धियां भरी सिातनमोकाल+--पाम ( ठाइटिल पेज की नकल ) भारत वर्ष का इतिहास । मध्य हिन्दी चित्र और छवि सहित बंगाल के साधारण शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर स्विकृंत ' १९०२ चार आना [) ( क ) इन वाक्‍्यों में “मध्य हिन्दी शब्द वड़ा काठुके उ- त्पन्न कर रहा है । यह नयी रचना मालूम पढ़ती हैं आज तक यह शब्द कहीं दृष्टि गोचरीभूत नहीं इुआ | भायद यह मिल समालोचक | १५३ वर्नेक्युठर शब्द का हिन्दी अनुवाद है। यह शब्द तो हिन्दी में संज्ञा शब्दवत्‌ होकर सिद्ध हो रहा है फिर इस के अनुवाद को क्या आवश्यकता थी * यदि संज्ञाशव्दवत्‌ इस को मानना अभीष्ट नहीं हैं तो स्टेशन आदि शब्दों का भी हिन्दी अशुवाद होना चाहिये, अथवा डाइरेक्टर शब्द लिखना अनुचित हे उसका भी अनुवाद हो जाना चाहिये ओर कितनी ही पाठशा- लाओं का व्यवहार मिहेल स्कूल के इस शब्द से होता है उसे भी अजशुद्ध समझ लेना योग्य है | जो हो इस “ मध्य हिन्दी * शब्द का किस विभक्ति और किस किया के द्वारा किस पद के साथ अन्वय है यह तानिकभी ज्ञात नहीं होता है। में अनुमान कर- ता दूं कि लिखने वाले का आशय यह हे कि मध्य हिन्दी में (का) शरतेहास अथाोत्‌ मिडिल स्कूल में मिडेल वर्नेक्युलर परीक्षा के लिये पाठ्य इतिहास | यह आशय सो प्रयत्न करने पर भी बिना विभक्ति के स्पष्ट नहीं होता अथवा यह शब्द विभाक्ति के बिना सामथ्येहीन होगया है ! ( ख ) चित्र और छवि सहित ” यह किस का विश्येषण है? यादि इतिहास” का विशेषण हे तो इस का उस के निकट रह- ना उचित था ओर यादे इसे “ मध्य हिन्दी ” का विशेषण मान लेता हूँ तो अथ की संगाते नहीं होती | दोनों भकार से गड़बड़ ही है| बंगला में छावे शब्द का अथे तस्वीर होता हे, हिन्दी में नहीं । यादे इसे किसी प्रकार हिन्दी शब्द मान छे तो फिर चित्र शब्द की क्‍या आवश्यकता है * पुनरुक्ति भारी दोप है | बही यहां आसन जमा कर बेठ गया । १५४ समालोचक । मेदिनी कोष ( छवि शोभारुचो;-) के अनुसार :यादे इस का-अथे शोभा ओर दोएपे माना: जाय त्तो आकाइशक्षा रह जा- ती है- कि पुस्तकीय वहु विषयों में से किस की दीपि अथवा शोभा ? यादे सवोहक्‍़् सुन्दर, * छवि सहित ? शब्द का आशय है तो चित्र का उल्लेख व्यय है।. ;- '(ग) * छवि सहित इस के बीच में के! अथवा से विभक्ति का रहना आवश्यफ है उसके नहीं रहने पर चिंत्र का अन्वय ' सहित * शब्द के साथ नहीं हों सकता क्यों के यह ऊृतसघास समझा जायगा ओर “ ऋद्धस्य राजपुरुष इस के ऐसा अश्युद्ध माना जायगा | ( घ ) ' डाहरेक्टर स्विकृत ? इस में दो अशाद्धेयां .हैं श्र अम डाइरेक्टर' के आगे “ से/ विभाक्ति नहीं है और द्वितीय * स्विकृत * का इकार हस्घ लिखा गया है।. स्वगंवासी साहित्या- चाये पं॑० अम्विकादत्त व्यासजी ने भाषात्रभाकर व्याकरण की टिप्पणी में लिखा हे कि दो ,भिन्न हे भाषाओं के, शच्दा मे प्रस्पर समास नहीं. हो सकता अतः स्कूलाध्यक्ष आादे शब्द अशुद्ध हैं । इस से सिद्ध होता. है कि समास्र के द्वारा भी डाइ- शेक्टर शब्द की आगेवाली विभक्ति छप्त नहीं हो सकती अथाति यह शब्द सवेया अशुद्ध हे।.. . - ( उः ) * १९०२,-इस के साथ “३ ? यह अक्षर अवश्य लिखना उचित है अन्यथा साधारण लोगों को विक्रूमीय स- म्वृत्‌ का सन्देंह हो सकता है तथा “चार आना के साथ मूल्य समालोचक | १५८ शब्द अवश्य लिखना चाहिये क्‍योंकि ऐसी ही प्रथा है। इत्यादि कई स्थूछ अशुद्धियां दिखाई पड़ती हैं। अब में इस पुस्तक के दोषों को कई भागों में वांद कर अ- तीद्र संक्षिप्त रूप से उनका उस्लेख करता हूँ। व्याकरण दोष । (४५ ) हमारे आत्मा .. भाप्ठ हंगे ( $ पृष्ठ ) इस में .ह- मारी ओर होंगी लिखना उाचित है क्योंकि आत्मा शब्द स्त्री (लग माना जाता है | मिली हुई पूर्वी हिन्दुस्थानी-कम्पनी 'हुआ ( ३३ पृ०) इस में रेखांकित पद अजुद्ध हे। स्वयं अजुवादक ने भी दूसरे स्थल में कम्पनी शब्द को स्त्रीलिंग माना है। शायद यह “ जाएइण्ट इंछ इण्डियन कम्पनी” का अनुवाद है [! मरहहा सरदार को ( १६ पृष्ठ ) यहां विशेषण के आकार के स्थान में एकार लिखना चाहिय । नजरें भेजना ( ३९ पृष्ठ ) यहां 'भेजनी ” शब्द बोलने में अच्छा माल्म होता है । जिसकी दक्खिन का वाग कहते हैं (६५ पृष्ठ ) इस वक्‍य में "की! के स्थान में * को ? ठीक है । वहां से शिकस्त खाकर राजपूताने भाग गया जहां कि कुछ काछ पीछे मर गया ( ७२ प॒० ) यहां दो क्रियाएं दीख पदती हैं किनत कत्तो एक भी नहीं | बलिहारी है ऐसी उत्तम १५६ समालोचक । वावय योजना की | दो क्रियाओं के बीच में संयोनक ओर/ शब्द का भी अभाव है तदातीरक्त और भी करे वेचित्रय ध्यान देने के योग्य है । इस को इत्नी चोट छगी कि मर गया (२०पृ०) इस में यह सन्देह होता हैँ कि कॉन मर गया £ ' इस को” मर गया ८ इस को ” नहीं; मर सकता | “ यह ” पर सकता है परन्तु वाक्य में “ यह ? भव्द हर नहीं है। मुहम्मद गोरी के कोई ऊहुका न था ( १३ पू० ) यहां “ को वा का ? लिखना योग्य है क्योंकि अग्रिम शब्द बदुवचन अथवा किसी विभाक्ति से जबयुक्त होता हे तब पू्ववर्ती का के स्थान में “ के ” हो जाता है । विस्तर पर से उठ नहीं सकता था ओर ऐसा मालूम होता ( १९ पृ० ) इस में “ होता * क्रिया हेतु हेतु मद्धत कालिक है अत; यहां एक हेतु ओर दूसरी हेतुमती दो क्रियाओं को आव- इयकता है केवल एक क्रिया लिखने से काम नहीं चल सकता अथवा “ होता था ” ऐसा लिखना उचित हैं । घवीमारी को उस से हटा मेंने अपने ऊपर लेली (१९पु०) इस वाक्य में “ ले छी ? क्रिया संस्क्रव की “ वाघाति” क्रिया के समान सुमने और पढने वाले के चित्त को व्याकुरू कर देती है | कम में " को ' विभक्ति है इसलिये * ले लिया! यहो लि खना व्याक्रणसम्पत हैं । वह राजा होना नहीं चाहता था ओर डुद्ध अपना नाम रक्‍्खा / ५ ए०) बादशाह घबड़ाया और मेजा (३ पृ०) समालोचक । १५९७ शिवाजी लेता गया और खां को ....मार डारा (१५ पु०) इस वाकक्‍यों के रूण्डान्वथ निम्न लिखित शीति से होते हैः-वह राजा होना नहीं चाहता था ओर (वह) बुद्ध अपना नाम रक्खा दादशाह घबड़ाया ओर ( बादशाह ) ... भेजा तथा शिवा- जी लेता गया और ( शिवाजी ) खां को मार डाछा । ये अन्वित वाक््यावली कत्ताओं के आगे “ ने ” विभक्ति के नहीं रहने से सबेधा अशुद्ध हो गई हैं। इस घकार की वाक्यावली ग्रन्थ में वहुत हैं जो ऐतिहासिक विषयों के अज्शुशीकन करने के समय पाठकों के चित्तों को चंचल करने में पूरी स- मथे है । इन दोषों से वाक्यों के संस्कार च्युत हो जाते हैं अतः इन्हें विद्वान लोग च्युत संस्क्ाति कहते हें । भाषादोष । ( है) सादा ओर खुश जिन्दगी विताते रहे ( २ पृ० ) यहां मे यह दिखलकाना! नहीं चाहता हूं कि “ सादा «शब्द ,'जिन्दगी के विशेषण होने के कारण व्याकरण से अशुद्ध है।। यह वाक्य मुहाविरे के अन्नुझल नहीं हैें। पढ़े लिखे लोग इसे मंवारों की बोली समझते हैं ,ओर कहते हैं कि जिन्दगी सादी नहीं होती किन्तु रवभाद सादा होता है। उन में के पहाड़ों और जंगली में भाग गये ( ४ पू० ) यहां * में के ” नहीं बोलते, लोग ' में से ! वोलते हैं । १०८ समालोचक ! एक आवचाजू उस को कहती हुई सुनाई दी (९ १० ) यह अपूव वाक्ययोजना है अथवा पदार्थ विद्या की परा- काष्ठा यहीं समाप्त हो गद है| इस पुस्तक में आवाज कहती है और छुछ दिनों के बाद किसी दूसरी पुस्तक में महुष्य के ऐसा यह्‌ देखनी संघेगी और भोजन करेगी | उस को आवाज हु- नाई दी इतना लिखने से कौनसा अमिमाय अवशिष्ठ रह जाता था जिस के बोध के लिये “ कहती हुई ” यह विशेष- ण जोड़ा गया हैं ? उस के उस समय के वादशाह का नाम गोरी था (? १९०) यहां पाठक रत्रयं सोच कि शब्दों के प्रयोग करने की क्या यही शैली है ? 5 चुगी और ओर ऐसे ऐसे महल टिकस में शामिल हें ( १०१ ) यह वाक्य मुहाविरे, के विरुद्ध है इस में “और * शब्द का प्रयोग ठीक रीति से नहीं हुआ है तथा “ ठिकस ! यह ग्राम्य शब्द है पढ़े लिख ल्वेग टेक्स कहते हैं इत्यादि । नर चवाजकय दाष यह जातियां बढ़ती गई यहां तक कि ( १ पृ० ) इस में / यहां तक ” यह शब्द किया के द्वारा वाक्य समाप्त होने पर गृहीत हुआ अतएव यहां समाप्त पुनरात्तता दोष हुआ । ' “एक बद सोतेली मां थी” (६ पूृ०) शान्तस्‌ शान्तम्‌ प्रन्थ- कार ने क्‍या लिखा ? केकेयी के लिये 'बद' शब्द का प्रयोग अत्यन्त अनुचित ज्ञात होता है। वह विचारी कफेदानीमिच मात्र थी समालाचक । १५९ हिन्दुओं के विचारानुसार स्वयं रामचन्द्र सब करते थे । उन्हें लाकिक दृष्टि से छूरा अथवा स्वाथिनी कह सकते हैं परन्तु वद कहना सवेथा अनुचित है क्‍योंकि स्त्रियों के साथ 'बद”॑ च्वव्द का प्रयोग उस विरुद्धाथ की प्रतीति कराता है जिसे कोई हिन्दू अपने मुंह से ऐसे स्थल में नहीं कह सकता फिर में उस का उल्लेख केसे करूं £ “उस ने बेवकूफ बुद्ढे राजा से राम ओर उस के भाई ल- ए्मण को दक्षिण के बन में भिजवा दिया! ( ६ पृ० ) शिव २ यहां हिन्दुओं के पूज्य को पूरी गाली दी गई | दशरथ जी को बेव- कूफ ।लिखना अठीव अज्नुचित है। वे बढ़े धम्मोत्मा सत्य-प्रिय थे उन्हों ने प्राण ओर पुत्र त्याग दिये किन्तु सत्य नहीं छोड़ा ऐसे संसाररत्न पुरुष ॒ बेवकूफ लिखना लेखक को हास्या- स्पद बनाता है। यहां पूरा अनाचिताथे दोष है । उन्हों ने काली जंगली कोमों से जिन को आसय्ये बंदर कहते थे दोस्ती की (< पृ० ) गौतम जिस की उमर तीस वरस की थी चला गया ( १० यु० ) इन दो वाक्यों में वाक्य के भीतर एक २ रेखांकित वाक्य घुस गया है इस से ये वाक्य शीघू अथे वोधन में समथे नहीं होते जैसे गर्भिणी स्त्री आरूस्य के मारे चटपठ कोई काम नहीं करती । इस दोष को बुद्धिमान लोग गाभमितवाक्यता कहते हे । ग्रन्थभर में ऐसे दोष से- कड़ी हैं। जब राम बाहर गये थे तो सीता को दुष्ट रावण हर ले गया ( ८ पृ० ) यहां पर “ जब ' को आकाइ्ुश्ना पूर्त के लिये ९६० समालोचक | _ तव” लिखना चाहिये; वह नहीं है । इस प्रकार की अशुद्धि से पुस्तक नितान्‍्त दूषित हो गयी है | सीता थी ( ९ पृ० ) सीता आगई (८ पृ०) पहले वाक्य में एक वचन सीता हैं और दूसरे में वहु वचन | इसनी अनब- धानता ग्रन्थ की शैली को नष्ठ कर देती है। इसे छोग एक प्रकार से भग्नपक्रमता भी कह सकते हैं। शत्द महाभारत का ञये है ( ८ पु० ) यहां पर अस्थान पदनन्‍्यास हो गया है | इस का शुद्ध दोष रहित्त रूप “महा- भारत शब्द का अथे हे ” ऐसा होगा । यहां भी अंग्रेजी के ४ दि बड़े महाभारत मीन्स ” की “ मक्षिका स्थाने मक्षिका ” बनाई जान पढ़ती है । ह पाण्डव और उन के पक्षवाले जीते ( ९ पु० ) यहां “पा- ण्हव जीते ” इतना ही लिखने से उकेके पक्षवालों का जीतना स्वृत$ प्रकाटित हो जाता है; पक्षवालों का उल्लेख व्यथ है। गवर्न्मेण्ट ने अफरीदियों को जाता है इस वाक्य से गवर्न्मण्ट के पक्तवाक्े महाराजों का भी उनको जीत लेना समझा ही जाता है । तब तेमुर ने . . . .इमछा किया ( १६ पृ० ) जैसे इस पुस्तक में कई जगह वेमोके “ तब * टपका है वैसे यहां भी आया है । ' ऊव * का ठिकाना सहीं तब उछल कर चका आया। यदि 5क्रान्त ओर प्सिद्धादि का विपय होता तो किसी प्रकार निवीह हो पकता यहां वह मी नहीं है । ।॒ यह सोदायर उनी कपड़ा ( तथा ) तांवे पारे लोढ़ें आर फोलाद का असञब छाते थे ( ३८ पू० ) इस बावय मे मफेद समालाचक | १६१ के भीतर मेंने अपनी ओर से तथा शब्द जोड़ दिया है यदि में उसे निकाल दूँ तो वाक्य अंसम्पूणे होजायगा इस से स्पष्ठ है कि यहां न्‍्यूनपदता दोष है । लड़ाई शुरू हुई ओर बीस वरस तक रही समाप्त हुई ( ४७ पृ० ) इस वाक्यावली में “ समाप्त ” के पहछे और शब्द फी आवश्यकता है न कि “ बीस ” के पहले | “रही स- माप्त हुई ” भी खासी दिल्‍लगी है ! । इसे मरहहों को आधा मुल्क देना पढ़ा (६१ पृ०) इस वाक्य की योजना बहुत ही बुरी हुई है इसी से पढ़ने वाले को सन्देह होता है इसे! अथोत निज्ञाम को मरहहों ने आधा झलक दिया अथ- वा इस (निज्ञाम) ने मरहह्“ों को आधा मुल्क दिया यहां सन्दे- ह का कारण दाता ओर ग्रह्ता देनों के आगे पत्तेयान ह्ि- तीया विभक्ति ही है | &उस ने अकबरखां और उसके अफगा- नों को भार दिया, काबुल को ले लिया ओर तवाह कर डाला ( ७९ पृ० ) यहां कई अशुद्धियां है । जब अकवर खां आदि का मारना, काबुल का छेना ओर उसे तबाह करमा यथाकूम हुआ है तब पहले दो पूषे कालिक कियाएं होनी चाहिये और अन्त वारढी समापिका। वेसा नहीं हुआ | यही वड़ी भारी गड़ बढ़ है । साता ओर पिता की सेवा करनी चाहिये इतना कहने से स्व- कीय ही माता पिता की सेवा समझी जाती है न कि परकीय माता पिता की ( मातरि वत्तितव्य॑ पितारे झुश्रपितव्यम्र नचो च्यते स्वस्यां मातारे स्व॒स्मिन्पितरीति महाभाष्ये ) उसी प- १६२ समालोचक | कार ऊपर के वाक्य में “ उसके ” पद नहीं कहने पर भी ' € अकवर खां के अफगान ” ऐसा बोध अवद्य होगा। उसके पद अधिक ही है अथवा इसका प्रयोजन बहुत ही थोड़ा है। “इस की आबादी ५० छाख” (१०१ पृ०) यहां आवादी प्रकरण के अनुसार मनुष्यों की जान पड़ती है किन्तु महुष्य शब्द के नहीं रहने से अथे समझने में जरा देर रूगती है। 'ें मूर्ति का बेचने वाला नहीं हूं किन्तुं मूर्ति का तोड़ने वाला । उस ने गदा लेकर बुत को मारा ओर डुकडे२ कर डाला ( १२प० ) यहां पर दो वार मूति शब्द के लिखने से कथितपदता हुई और तीसरी वार “ बुत ? झव्द के प्रयोग से भग्नप्रकूमता हु- ३ । यहां एक वार मूर्ति छिख देने पर सवे नाम से काम चल सकता था | इस में से “ मारा ओर ” इतना अंश निकाह देने से किसी प्रयोजन की हानि नहीं होती है । फिर इस की क्या आवश्यकता है ? यहां महम॒द ने फ्रैस से मारा अथवा डुकडा किया उसका व्णन नहीं है यदिं कहा जाय कि गदा का उल्लेख हई है तो उस में तृतीया विभक्ति जोड़ने से मारने आदि की अतीति होगी । अन्यथा कभी नहीं । कई स्थरों में साजिश आजम ( इन दोनों के अथे कठित हैं) नकारा पहिले पहिल (ये दोनों शब्द दिहाती हैं) जब कि, जो कि और णहां पर कि ( इन तीनों में कि शब्द निरथंक ३) इत्यादि बहुत ही अपूर्व रीति से प्रयुक्त हुए हैं में उन का वण- न छोड़ देता हूं ! समालोचक | १६३ लिपिदोष । जित्ने, उत्ना, पुशकिल, मशहूर, वितीत, कयी, अन्स्यम, शाहिन्शाह, हुयी, रियासत, अपने हां और त्यॉहि इत्यादि अनेक शब्द अट्ट के सट्ट लिखे गये हैं जिन की ओर ध्यान देने का अवकाश मंझे नहीं है । विषयदोष । पत्येक पुस्तक में अन्ुबन्ध-चतुष्ठय होता है उस में एक विषय भी है| तदगत दोष नितान्त असझ्य होते हैं। इस पुस्तक में कहीं २ ऐतिहासिक बातें के बणेन में भी च्राटि हो गई है में उसी को विषय-दोष पद से व्यवद्दत करता हूं । आय्ये..... मध्य एशिया के -पद्चिचम भाग में रहती थीं जिस भाग को अब तुरकिस्तान कहते है ( १ पृ० ) इस पंक्ति का आशय यही हल्लु कि आय्ये (हिन्दू )। यहां के परा- चीन नियासी नहीं हैं ये तुरकिस्तान से यहां आये हैं।यह वाव निम्न लिखित युक्तियों से ठीक नहीं भाल्म पढ़ती । ( १ ) आर्य्यों की किसी पुस्तक में यह बात नहीं लिखी हुई है कि हम छोग वाहर से आये | (२ ) आर्य्यों का अधिकार ( दखल कब्जा )- इस वात को प्रमाणित करता है कि हम ( आय्ये ) यहां के प्राचीन रहने - वाले हैं तथा बाहर से नहीं आये। ( ३ ) यदि आय्ये यहां के आदिम निवासी नहीं होते तो आय्योवत्ते के अतिरिक्त इस का दूसरा नाम भी प्राचीन सुनाई पहुता | ह १६४ समालोचक | ( ४) आसमुदात्तु वेपूवांदा संमुदात्तु पर्चिमात तयोरेवान्तर गिरय्योराय्योचर्स विदुद्धाः ।१। मनुस्मृति के इस वचन से वमो से लेकर ईरान तक की भूमि को आय्योवते अथवा हिन्दुस्थान कहते हैं। अतएव ईरान ( फारस ) के निकट आपय्यों के आने जाने के कोई चिन्ह इ- प_ि-गाबर हो जायें तो वे डन के आदिम वासित्व के वाधक नहीं हो सकते क्‍यों कि वे व्यापांर और युद्ध भादि के लिये सीमोल्लडःघन भी करते हों ऐसी सम्भावना है। मनुजी ने लिखा भी है +-- शनकेस्तु कियालोपादिमाः क्षत्रिय जातयंः । हपलत्व गता छोके दाह्मणादशनेन॑ च ॥ पोण्ड्का *चोड्दविड़ा) काम्वोंजा यवना/ शकाः । पारदापन्हवा >चोनाः किराँ दरदाः खशाः ॥ € मनु ० | १७ आठ ) अर्थाद कितनी ही क्षत्रिय जाति धीरे २ किया के लोप से तथा युद्धादि के कारण देश के बाहर जाने पर वाह्मण के अ- दर्शन से शूद्‌ हो गई । वे इसे समय पोण्ड्क ( मेदनीपुर प्रदेश) ओइडू ( कटक ) दूविद ( दक्षिण देश ) काम्बोज ( 'अरब ) यवन ( मक्का एक देश विशेष ) गक ( तुरकिस्तान ) पारद ( चीन का एक खेण्ड ) अपन्हद ( काबुल ) चीन किरात ( सौताल परगना ) दरद ( भूटान ) तथा खश (ईरान ) में वसती हैं | वस तरकिस्तान में आय्यों के चिन्ह मिल जात से समालोचक । १६५ वे वहां आदिम निवासी नहीं हो सकते किन्तु इन्हें भारत चषे के प्राचीन निवासी ही मानना उचित है । (५) गायन्ति देवा। किलगीत कानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे । स्वगोपवर्गास्पदमा गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात ॥ ( विष्णु पुराण २ अंश ) यदि आखस्ये यहां के भाचीन आदिम निवासी नहीं होते तो इस देश की स्वगे ओर मोक्ष का मा्गे उक्त श्लोक के द्वारा कभी नहीं स्वीकार करते ओर, यह कभी नहीं लिखते कि पुण्य भूमि आय्योवत्ते ही है। (६ ) यदि आय्ये यहां के आदिम निवासी नहीं होते तो जिस देश से ये आये हैं उसकी अपने मुँह से म्छेच्छ देश कह कर निन्‍्दा नहीं करते | कृष्ण सारस्तु चरति भृगो यत्र स्वभावतुः । स ज्ञेयो यज्ञियों देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः ॥ ( मनतु० अ० २ ) अश्रोत्‌ इस के वाद सब स्लेच्छ देश हे । (७ ) यदि आय्ये यहां के आदिम निवासी नहीं होते तो यह कभी नहीं लिखते कि इस देश के उत्पन्न अगुजन्मा से सांरे संसार के छोग विद्या सीखें जेसे- एतदेशप्रसतस्य सकाशादगूजन्मनः । स्व स्व चरित्र शिक्षेरन्‌ पृथिव्यां सचेमानवाः ॥ १६६ समालोचक | इस इलोक में “ एतदरेश अस्त ” यह पद बहुत ही ध्यान देने के योग्य हे इस से प्रमाणित होता है कि वाह्मण इसी दे- शर्मे उत्पन्न हुए हैं| फिर उन के साथी क्षत्रियादिकों के लिये विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। ध्यान देने की बात है कि यदि ये दूसरे देश से आये होते तो.उक्त इलोक के द्वारा इस देश को गुरु और अपने नि- ज देश को शिष्य कभी नहीं वनाते । यहां देश से देशीय का गृहण समझना चाहिये। यह भी एक मुहाविरा है । देखिये आज कर जो लोग वाहर से आकर यहां वसे हैं उनके यहां जिस विद्या की अभी चचों चर रही है उसे भी अपनी ही वस्तु समझते हैं ओर उस विषय में इस देश को गुरु मा- नना नहीं चाहते | फिर कब सम्भव है कि आर्य्यों ने यहां के आदिम निवासी हुए बिना इस देश पर इतनी ममता दिखाई हो ? भेरी समझ से आख्य यहां के प्राचीन आदिम निवासी हैं। यही विश्वास अइ्ररेजी इतिहासों के पदने के पहले सब कसी को था और ऐसा ही विश्वास होना उचित है । मैंने एक वार अपने पूज्य पंडित जी से पूछा कि आये लोग यहां के आदिम निवासी हैं इस में क्या प्रमाण हैं! पण्डित जी महाराज पइन सुन कर वहुतही अकचकाये ओर बोले कि सृष्टि के आदि में उत्पन्न मरीचि, आत्रे, अज्विरि ओर पुलस्त्य आदि महर्षियों के जन्म स्थान का चिन्ह क्या भारत घषे को छोद कर दूसरे स्थल में भी मिलता है जो आप मुझ से ऐसा म्रइन करते हैं ? समालोचक !| १६७ कृष्णसारो मृगो यत्र धम्मे-देशः स उच्यते | बुह्माद्या देवता: सर्वे सुनयः पितरश खग ! धमे। सत्यञ्च विद्या च तत्नातिप्ठान्ति सवेदा ॥ ( मरुढदप्राण २ अध्याय ) कृष्णपार मृग जहां हो अथांद मथुरा के आस पास की बहुत सी भूमियां धमे देश के नाम से प्रसिद्ध हैं वहीं ध्रुनिगण सवेदा निवास करते हैं इत्यादि । यदि आस्ये छोग दूसरे देशों से आये हैं तो यहां सबेदा निवास करते हैं यह मरुड़ पुराण फी वात झूठी ठहरानी चाहिये । ' पूर्व किराता यस्यान्ते पद्िचमे यवना: स्थिताः वाह्मणा; क्षत्रिया वेश्या मध्ये शुद्रश्च भागशः | ( विष्णुपुराण ) जिस भारतवषे की पूवान्तदिशा में किरात ( जंगली ) ओर पश्चिमान्त दिज्या में म्लेच्छ ओर बीच में यथा भाग ब्राह्मण क्षत्रिय वेश्य ओर शूद्र निवास करते हें, निस व्यासने इतनी वात लिखी उन्हें क्या यह फिखने नहीं आता था कि ये बाहर से आये? यह लोग देद मंत्र गाया करते थे यह मंत्र पिता पुत्रों को ठीक २ कंठ कराते थे *”* अपने लड़के को पढ़ाते थे (२ पृ० ) यहां पर एक वात कही गयी हे वह स्पष्ठ नहीं हे में उसे स्पष्ठ कर देता हूँ कि आये लिखना नहीं जानते थे अतएव वेदों को ठीक २ कंठ करा देते थे इत्यादि । मैं कहता हूं कि आय्ये छठोग उस समय से लिखना जानते हैं जिस समय और छोग छुछ नहीं जानते थे | देखिये $-- उत त्वः पश्यन्न ददेझ वाचपझ्ठुतत्वः शृण्वन्न शणोत्येनाम्र्‌ ( ऋग्वेद २ अ० २८ बगे ) (५८ सम्राछ्ोचक । अथाद्‌ मूखे वाणी को देखता हुआ नहीं देखता और सु- नता हुआ नहीं सुनता है। भा बिना लिखे महुष्य वाणी को . कैसे देख सकता है ? इस से सिद्ध होता है कि आये पहले लिखना पदना जानते थे जो नहीं जानता था उसी की निन्‍्दा इस वेद मंत्र में की गई है। पुस्तक दान का माहत्म्य बढ़ी २ प्राचीन पुस्तकों में देखा जाता है; विना लिखे पुस्तक दान केसे हो सकता दे ? पाणिनि का * लिख अक्षराविन्यासे ” यह कथन मेरी बात को भरी भांति पुष्ठ करता है | प्राचीन समय के बाण मिलते है जिन पर राजाओं के द नाम खुदे हुए हैं जो एक प्रकार का लिखना ही है ॥ वे प्रकाशमान और सहायक देवताओं की पूजा करते थे। “ * आग की जरूरत होती थी इसलिये वे विशेष कर अग्नि देवता की पूजा करते थे” “““मेह की जरूरत है” इन्द्र की पूजा करने लगे वे बादल के गजने को समझते ये कि इन्द्र को आवाज है विजली की चमक को समझते ये कि उस के भाले हैं कि जिन से काले बादलों को छेदकर खेतों में पानी पहु- चाता है| ( ३ प० ) इन पंक्तियों! के द्वारा यह गत दिखछारे गई है कि वे पहले जड़ को पूजा करते थे उन्हें इंश्वर का ज्ञान नहीं था। यद्यापि यह वात स्पष्ट शब्दों में नहीं कही गई है तथा- पि सभी पढ़े छिखे लोग ऊपर की कही पंक्तियों को पढ़े कर तुरंत खीकार कर छेंगे कि लिखने वाले का आशय यहीं है | धसी सम्बन्धी विषय होने के कारण इस पर ऊुँट लिखने समालोचक | १६९ इच्छा मेरी नहीं थी किन्तु समालोचकीय कचेव्य के अल्ुसार इस पुस्तक का आर्यों की पुस्तक से विरोध दिखलाना मै उ- चित समझता हूँ। आयी का धस्म पिचार वड़ा उन्नत है; उसका सम्क्षना ठेढी खीर है । वे एकद्दी बात को स्थूल और सुक्ष्म अथवा आध्यात्मिकादिक भेद से कई रीति से वर्णन करते हैं । प्राचीन आये ऋग्वेद के अहम अ्ठक के निम्न लिखित मंत्र से जानते थे कि सयोचन्द्रमसों घाता यथा पूवे मकरपयत ( ऋक ) इश्वर सूये आदि प्रकाशमान पदार्थों को भ्रति सृष्टि में बनाया करता है अतः तीसरे पृष्ठ में लिखे हुए उक्त वाक्य के साथ पूजाकी तस्वीर छापनी अज्लुचित है ओर आर्यो को जड़-पूजक प्रमाणित करने की चेष्ठा व्यथे हे ॥ इन्द्र मित्र वरुण मागनि माहरथो दिव्य; स सुपर्णो गरुत्मान । एक सद्दिपा वहुधा वद्न्‍त्यस्निं यर्म मातरिध्रानमाहु३ ॥ ( ऋकफ्‌. २ अष्टक ह३ अध्याय २३ वर्ग ) चुद्धिमान एकही इंश्वर को इन्द्र अग्नि सुये और वरुण आदि कहते हैं। यास्क जी ने भी लिखा है कि इंब्वर की एक आत्मा बहुत अकार से स्तुत होती है । महाभाग्याद देवताया एक आत्मा वहुधा स्तूयते एक- स्यात्मनोप्यन्ये देवा। पत्यंगानि भदनति (नि. दे. अ० १) वस सयोदि नामों से जो स्ताति है वह ईश्वर की हे न कि छूये की | आये आध्यात्मिक अथवा सक्ष्म विचार से सवेचर इंइवर की सत्ता देखते हैं ओर सब का आदर सत्कार करते हैं।गंवार लोग उसी को कहने लमते हैं कि आये इब्वर की पूजा नहीं + कक करते हैं केवल जदों ९ ही एल छे | १७० समालोचक ।' पएदाथ-बिचा-शाली आये आधिदोषिक विचार से इन्द्र( वि- जली ) अरित और वायु आदिकी पदाय विद्या की उन्नति के लिये उनकी स्टते करते हैं। संस्कृत में विद्वान स्तुति शर्णो के वर्णन को कहते हैं सो छुग-वर्णन संसार में जड़ और चेतन सभी का होता है। जड़ के गुणों के जान छेने से चेतन ईश्वर का वोध होता हैं। यही शली सांख्य शास्त्र की भी है। यशी कारण है कि आये जड़ों का वणेन करते हैं सही किन्तु उन्हें इंचवर नहीं मानते हैं। न्‍्याय-शास्त्र की भी सम्पाति है कि ईश्वर से भिन्न सभी पदार्थों के ज्ञात हो जाने से इश्वर का वोध हो जाता है देखिये (निरुक्त से) आये इन्हें पुरुष भिन्न अथांत चेतन रहित समझते हैं । अपरमपि तु यद्‌ दृश्यतेडपुरुषदिध॑ तद्‌ यथा प्रिवोयु रादे- त्यः पृथिवी चन्द्रमा इंति । यथों एदच्चतना वह्धि स्तृतयों भव- न्ति ( नि. दे. १ अ० ) अथीत्‌ अग्नि और वायु आदि पुरुष के ऐसा नहीं दौख पड़ते किन्तु चेवन के तुल्य इन के गुणों का वणन होता है । इन्द्र के हाथ पर और वच्च धारण करने का वर्णन संस्कृत का एक महाविरा है क्योंकि देवता की आत्मा ही सव कुछ हैं आर वार्ते वणेन औैली के अतिरिक्त छुछ नहीं है। देखिये, आत्मेवेपां रथो भवत्यात्याव्वा आत्मायुधमात्मेषत्र आत्मा सर्वे देवस्थ । अवापि पुरुष विधके रहेः संस्तूयन्ते ( नि. दे- १ अ० )॥ यस्मात्पर तापरमस्ति किबिदयस्पान्नाणीयोनज्यायों उरित काश्चित दुक्त उचस्त ब्यस्तिप्टन्पेक स्तेनेंद पूर्ण पुरुषण कर इत्यादि उपसियद्र बचने से बियर की दीपि को स्चदेलखने वाले समालोचक | १७१ कुछ पहपियां ने उस उस विद्या में पारक्गत होने के कारण उस उस के अभिमानी ओर ऊपर के छोक में रहने वाले देवता ऑआ को आधि भोतिक विचार से इन्द्रादे मानना स्वीकार किया! आज कर भी देखाजाता है कि जो बड़ा विद्वन होता है उसे सरस्वती कहते हैं । आय्ये सवेदा स्थूल ओर सक्ष्म विधारसे इश्वर ही की उपा- सना करते हैं। देखिये जड़ रेल जहाज और तार की प्रशंसा भी उसके वनाने वाले चेतन की परशंसा समझी जाती है । पुस्तक भें लिखा दे कि आय्ये रसोई बनाने और खेती आदि के करने के लिये अभि ओर इन्द्र आदि की पूजा करते थे किन्तु निम्न लिखित मंत्र से यालम होता है कि संसार की सभी वस्तुओं के लिये भायेना इैचवर ही से करते थे ओर अप्नि आदि को उसके अधिकार में समझते थे । चाजच्चमे +#क कक ७ वित्तश्वमे #+१७+ ७ पृथिवीचमे 4 न््न अग्निश्चमे “” “'विश्वेचमे देवा इन्द्रश्वमे यज्ेन कठ्पन्तास्‌ ( यजुर्वेद्‌ ८ अध्याय ) आर्यो की किसी पुस्तक भें यह वात नहीं लिखी हुई है कि विजली की चमक इन्द्र का भारा है इत्यादि । एक किस्म की शराब पीते थे जो कि सोम के अके से व- नाई जाती थी ( ३ पृ० ) राम राम !! आय्ये लोग शराव के छूने तथा सघने को पाप समझते हैं इस के लिये शास्त्रों में प्राय- श्वित लिखा हुआ हे । बह्महत्या छुरापान॑ स्तेय गसुवेडगनागमः । मद्यान्ति पातकान्या हैं संसगेश्यापि ते! सह ॥ ( समन्ु० ११ आ० ) श्र समालोचक | अथोात्‌ शराब पीना महापातक है । यह कब सम्भव है कि सोम का अके शराब हो और आये कण उसे पीर्ये ! आ- युर्वेद शास्त्र का मदनपालरू नियण्दु एक प्रामाणिक ग्रन्ध है, भा- रत वे के सभी वेद उसे कण्ठस्थ करते हैं, देखिये उस में सो- मलता का क्‍या गुण लिखा हुआ हैः- .. सोमवली यज्ननेता सोमक्षीरी द्विजम्रिया सोसवल्ठी तिदोषध्नी कडुस्तिक्ता रसायनी ( म० नि० ) अथाोत सोमछलता चांद वेल जिदोष को नष्ट करती है च- चरी है कड़वी है ओर रसायन है। इस में कहीं संकेत भी नहीं है कि सोमछता नशा करने वाली है जिन्हे इस वेधक के ग्रन्ध पर विश्वास नहीं होंगे इसका अके पीकर परीक्षा करलें इस में तनिक भी मादक नशा वगेरद नहीं है । इन आदमियों का वहुत आदर होने लगा सब लोग इन को पवित्र समझने गे और इन की एक जाति अछग होंगई उस समय यह ब्रह्मा को सब से बढ़कर पूजते थे इसलिये न्ना- झण कहलाते थे । (है पृ० 2) ब्राह्मणाउस्य मुखमासीदवाह राजन्यः कृत: | ऊरूतदस्य यरैश्यः पदभ्या <« शूद्रो अजायत ॥ का. ( ये 39 झ० २०८: समालछाचक । १७9३ इस मंत्र से यह वात भमाणित होती है कि राष्टि के आदि में ही इघर ने चारों जातियां पृथक उत्पन्न ही की हैं इस के विरुद्ध लिखना सवेथा अनुचित हे । पिन तुल्य क्रिया चेदवतिः इस सूत्र के महाभाष्य में लि- खा हुआ है कि तप श्रतश्व योनिश्रेत्येतवत्राह्मण कारणस्‌ । तपः श्रताभ्यां यो हीनो जातिप्राह्मण एव सः अथोत्‌ ब्राह्मण होने में तपस्या, वेद पढ़ना ओर ब्राह्मण कुछूमें जन्म होना - तीनो कारण हैं। ब्रह्मा की पूजा से घहुत से लोग ब्राह्मण कहलाने छूगे यह बात सुझे नई मातम पड़ती है शायद ओर छोणगों ने भी य- ह वात नहीं सुनी होगी ओर न इसका कहीं प्रमाण है । ब्रह्म इश्रं वेदम्वा वेदाधीतेवोति ब्राह्मण/ अथात जो ई- ख्घर को जानता और वेद को पेढ़ता है घह ब्राह्मण है इस व्यू- त्पति से वह बात कट जाती है कि ब्रह्मा की पूजा बहुत से लछो- गों के ब्राह्मण कहलाने में कारण हुई्दं। इसी भकार क्षत्रिय, वै- इय ओर शुद्र की जाति के विषय में जो वारतें कही गयी हें वे सव प्रमाण शून्य सी जान पड़ती हैं | वैसा वर्गन किसी आये पुस्तक में नहीं पाया जाता है ! वह जंगली कोमें जिन्हों ने आरयों से मेल नहीं किया और जिनको कि आया ने छाई में जीता उनकी छुलाम हुई ओर उनका दरजा सव से नीचा हुआ उनकी कोई जात न थी इ- सलिये थे परजाया बेजात कहलाते थे । ( ४ पूृ० ) १७४ समाल्यचक | संस्कृत में मजा सन्‍्तान अथवा रेयव /अजा स्यात्सन्ततो जने ) को कहते हैं | राजा की सभी जाति प्रजा फहछाती थी और कहलाती है केवछ जमली फौम ही नहीं । - जिनकी कोई ज्ञाति नहीं थी अर्थात्‌ जो जाति के बाहर थे उन्हें € चाहे वे म्ले च्छ भाषी हो अथवा आपे भाषी ) आ- यये दस्यु कहते ये बेजात नहीं। घुखबाहुरुपज्जानां या छोछे जातयों वहिः म्लेच्छवावश्रायवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृता (महुः १० अ. ४५ एझछोक) अथोव जो जाति के वाहर हैं ये दस्यु हैं सब स्रियां आए ही अपने पति को चुना करती थीं। ( रे पृ० ) यह स्वयम्बर विवाह की रीति है आयय्यों के यहां सात प्रकार के और भी विवाह हुआ करते थे देखिये-- ब्राझो देवस्तथयेवाप! प्राजापस्यस्तथाउसुरः मान्धर्वों राक्षसश्रैव पेशाचआष्टसोउपमः ( मत्त. १ अ. २१ ज्लो. ) पुस्तक की उक्त पंक्ति सब पद के द्वारा विषय की अपू- णैता अथवा अशुद्धि को स्पष्ट रूप से स्‍ह्रकट करती हे । विधवा ख्लियां जब उनके पत्ति मर जाते थे तो फिर भी विवाह करती थीं । | ( है पृ० ) आये लोग खियों के विधवा होने पर उनका आपक्‌ धम्मे नियोग दतकाते थे किन्तु उनमें श्रेष्ठ द्विन जाति इसकी निन्‍्दा ही करते थे, वेन के राज्य काल में नियोग प्रथा एकदम रोक दी समालोचक | १७५ गयी और यह नियम हुआ कि केवल वागूदचा विधवा के लिये नियोग विधान है क्योंकि छूृतपाति-संगमा नारी के दूसरे घुरुष से प्रेम भाव करने पर उसका धर्म भाव एसिथिर नहीं रह सकता इ- त्यादि । अतः पर प्रवक्ष्यामि योपितां धम्मे मारपदि विधवा चिद्यकतस्त घृताक्तो वाग्यते! निशि-। अय॑ द्विजेहिं विद्वहिः पशुधर्म्मों विगर्हितः यस्या घतियेत कनन्‍्याया वाचा सत्ये रृते पतिः सामनेन विधानेन निजो विन्देतदेवरः ( स्ु० ५ अ० ) मेरी वात की धुष्टि इन इलोकों से होती है। विधदा विवाह यह शब्द हौ आरय्यों के धम्मे के विरुद्ध है क्योंकि विवाह में क- न्यादान होता है , पिता ने एकवार कन्या जिस पुरुष को दी उसका अधिकार उसपर होगया उसके मर जाने पर पिता फो कोई अधिकार ही नहीं है कि किसी दूसरे पुरुष को रूड़की दे- कर जामाता बनादे | इसकी झकक नीचे के इछोक में दीख प- दुती हेः- न दृस्वा कस्यणित्कन्यां पुनदेयाद्विचक्षणः । दत्वा पुनश भयच्छनाहि मामोति पुरुषावृतम्‌ ( मन्चु> ९ अ० ) मेरी समझ से आर्य्यों के यहाँ पहले विधवार्ओं का विवाह नहीं होता था। वे पह किखकर प्रवृजिता होतो थीं । १७६ समालोचक | भारत धस्मे महासण्डल और आर्य समाज भी, वेद और शास्त्रों में विधवा विवाह के विधायक वचनों को नहीं पाकर, इसका खण्डन करते हैं | यदि कहीं एक आधा विवाह भूल चूक से होगया हो और उसकी कथा कहीं मिलती हो तो वह आर््यों की रीति नहीं कही जासकती है। जिस जाति का कोई एक मनुष्य चार हो चोरी करना उस जाति की रीति नहीं कही जाती । जब उस जाती में उस ढंग के अधिक मनुष्य हो जाते हैं तभी वह चोर के नाम से व्यवदुत होती है अन्यथा नहीं । इस पुस्तक में ४७ अध्याय हैं उन में से मेंने केवल एक अध्याय की आलोचना की हे वह भी अत्यन्त संक्षिप्त डुई है। और कितनी प्रयोजनीय बातों का उछेख ही नहीं होसका है। हे स्फुट अकवर ने इस के बाद राजपूत स्त्रियों ओ राणपूत सर- दारों की लड़कियों से शादी की ( २३-पृ० ) इस वाक्य में राजपूत स्त्रियों ! यह शब्द है। इसका अये होता है राजपूत की भार्य्या । मेंने आज तक ऐसा कोई इति- : हास नहीं पढ़ा है जिस में यह वात लिखी हो कि अकवर ने किसी राजपूत की भायो से विवाह किया हे । पाचर्वे पन्ने में रामचन्द्रजी के तीर चलाने की तसवीर है किन्तु उसका वर्णन पुस्तक भर में कहीँ नहीं है । यह वात असकृतत सी जान पढ़ती दे। सेंतीसर्वे पन्ने में गांव की सावधान: समालोचक । १७७ तासूचक तसवीर है किन्तु उसका वर्णन अड़तीसर्ें पन्ने ने है ' अतः दोनों वे जोड़ माछृप पद॒ते ई | इत्यादि । समा लोचक अन्त में पुरतक पर अपनी स्व॒तन्त्र सम्पति प्रकाशित करते हैं किन्तु कई कारणों से में इस पुस्तक पर अपना मन्तव्य नहीं लिखना चाहता । सवे साधारण, पाठक, डाईरेक्टर साहब कम्पनी ओर अनुवादक विचार करें कि यह स्कूलों में पढ़ाने के योग्य हे कि नहीं । (काव्य तीथे और व्याकरण तीथे) सकल नारायण पाण्डेय डाक की थेली । (१) श्रीयुत समालोचक सम्पादक सप्रीपेषु--- चेत्र ओर वेशाख की आनन्द कादम्विनी ऐोष के कृष्ण पक्ष में निकली है। आपने देखी होगी । मालूम होता है कि सम्पाइक साहव को इसके निकालने में बढ़ा कष्ट होता हैं । मेरी राय में आप उनकी सप्रालोचक द्वारा सलाह दें कि वह कादस्बिनी का नाम साथेक करें । अथात्‌ सार के वारह महीने निकालने की चेष्टा न करके केवल बरसात के चार अड्ड नि- फाल दिया करें। इस से एक तो यह छाभ होगा कि जो लोग ग्रीष्प में कादम्विनी को देखकर चकराते हे दह कुछ न कद सकेंगे दूसरे उसके सम्पादक का कए मिट जायगा | आपका एक पन्न पाठक ( समाऊोचक सम्पादक की भी सम्माति ६ ) री १७८ समालोचक | (२) हिन्दी पत्रों में झूठे विज्ञापन । समालोचक से हिन्दी का उपकार बहुत सा हुआ और होगा | पर एक नजर इधर भी | हिन्दी के प्रतिप्ठितपत्नों में जो नाना प्रकार के झंठे और भद़कीले विज्ञापन निकलते हैं निन से देश और समाज का कितना नुकसान हो रहा है इसे आप नहीं जानते १ पत्र सम्पादक तो अपने बटाईं के रुपया लेकर अछूग हुए, भआर कानूनन ज़िम्मेदार भी न हुए, परन्तु ग्राहकों का किंतना अनर्थ नाश हुआ इस पर कोई “ माई का छाल ” दाह देगा ? समझदार वो विज्ञापनों को झंठे समझते हैं पर ना- समझ बच्चे जो थोड़ी हिन्दी पढ़कर अखबार वांचने लगते हैं इस जाल में फंसकर कैसा विगाड़ फरते हैं ! अभी मेरे लड़के ने जो ७ | ८ बरस का दे मथुरा के एक विज्ञापन में गोरे होने की दवा पढ़कर क्षट एक शीशी २) की ए*« 7 द्वारा डांक में मंगाली । रुपये मुझे देने पढ़े | वेझटेश्वर समाचार में करे पॉत्रिका का विज्ञापंन पढ़कर अपने हाथ का फोटो भेजता था, पर चि- ही मेरे हाथ पढ़ गई नहीं तो ओर १), २) छूगते | आप इसे छापर्दे 8. 0. 0« हन्दावन ह समालोचक | १७९ परीक्षा पत्र निरीक्षण । जब इुर्देव प्रवल होता है तव मनुण्य के पुरुषाथ का प्रभाव मन्द होता है ओर उस के हितेषी ही ( इच्छा से वा अनिच्छा से ) उस की हानि के हेतु होते हें। एक तो कुत्सित ग्रन्थों का वाहइल्य देख कर बेस ही सन्ताप हुआ करता है कि मन्द भा- मिनी हिन्दी अभी तक दुर्देव के ग्रास से नहीं छूटी, फिर, जव अजश्ुद्ध छेख पाठशालाओं फ्ी पाठ्य पुस्तक में वा परीक्षा पत्र में देखने में आ जाता है| तब तो वह सनन्‍्ताप अपार होकर दु*ख का पारावार हो जाता है पाउय पुस्तकों के दोष तो क- दाचित्‌ केवल साहित्य ही के पक्ष से निन्‍्दास्पद हो सकते हैं परन्तु परीक्षा पत्र के दोष न्याय और धरम के नाम पर घि- क्कार योग्य होते हैं | करे वषे घोर परिश्रम कर के जब फोई विद्यार्थी परीक्षा ग॒ह में ऐसे परीक्षा पत्र से पुरस्कृत किया जावे जिस का अधिकांश दोष पूरित होने के कारण सयानों के भी समझ में न आवे ते वह सन ही मन ' अन्याय २” | “अधमे२!! पुकार उठे तो क्‍या आश्चस्ये £ तीन वे हुए जब इस पांत के हिन्दी मिडल के एक पते पर मुझे “ परीक्षकपरीक्षा ” नामक लेख प्रकाशित कराना पड़ा था। आज फिर उसी परीक्षा के प्रथम दिन के पर्चा पर कुछ लिखना पड़ता है। आशा है कि वेचारी हिन्दी के नाम' पर ओर बेचारे विद्याधियों के नाम पर आप समझे अपने पत्र में कुछ स्थान देने फे अतिरिक्त इस विपय में अपनी ओर से भी कुछ किखेगे । एक पर्ची “ हिन्दी अनुवाद ” का है, इस में प्रथम प्रन्‍न है :--- नीडे लिखे वाक्यों कहा सरल हिन्दी भाषा में अनु- १८० समालोचझः । वाद करो ” थे “ वाक्य ” गिनन्‍्तीमें चार हैं, दो कुण्डिलियांएं ओर दो दोहे ! कुण्डलियाओं में छे छे नम्बर हैं, पहिले दोहे में २ ओर दूसरे में ४] पहिली कुण्डिलिया यह है।- करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि। चुप रहिरे गंधी सुपर अतर दिखावव ताहि ॥ अतर दिखावत ताहि लेइ रोटी संग सर हैं । जूसी सो नाहि मधुर भाषि नासा सिक्कुरे हैं ॥| सुफवि मिलयो रिश्वार यहे तो हि मूरूख हिय धरि। फूटे तेरे भाग जात नाहें क्‍यों अधमुख करि ॥ यह कुण्डिलिया विहारी सतसई के एक दोहे पर गद्ी गई हैं| कुण्डिलिया की छठा पीछे देखी जायगी प्रथम तो यही पहन उठता है कि “ रे गनन्‍्धी मति मनन्‍्द वू अतर दिखावत काहि के बदले “चुपराहि” इत्यादि क्यो रख दिया गया यह पार्ठ॑- तर तो कविता की शोभा को नष्ट करने वाला है और विहारी छाले ऐसे काबि की लेखनी से ऐसा ढीला पोछा पद नी निकल सकता था । कुण्डिलिया किसी दोहे पर कही जाती है तो इसलिये कही जाती है कि मूलोक्ति का ममे झछक आबे और कविता का चमत्कार भासित होजावे. पठान सुल्तान और भारतेन्दुजी की कुण्डिलियाएं ( जो बिशरी सतसई के दोहों पर बनाई गई हैं) इसी प्रकार की हैं परन्तु उक्त कुण्डिलिया जो “ विहारी विहार ” से ली गई है दोदे के मसाद में किसी प्रकार की उ- क्षति नहीं करती प्रत्युत उसकी सरसता को न्यून करती है समालोचक । १८१ “रोटी संग खाने” की बात प्रसंगानुकूल है परंतु “जूसी” ओर “ सिक्कुरे हें ” शब्द तिरस्करणीय हैं- इस प्रांत के छोटे विद्यार्थियों से “ जूसी ” ऐसे अप्रचलित कुशब्द का अथे स- मझने की आशा करना कठोरता है ओर “सिकोहना” के स्थान में 'सिक्कुहाना' क्रिया का प्रयोग भी प्रत्यक्ष दोष है पांचवी पंक्ति में “सुकवि” शब्द ने रदकों को भवश्य चक्कर में डाला होगा क्योंकि वे चतुरता पृन्बेक उसका अथे “अच्छा कबि” समझते होंगे, वे बेचारे क्‍या जानें कि “सुकवि” किसी सुकवि का उपनाम वा तखल्‍छस है “ सुकवि मिल्योरिझ्वार यहे तोहि मूरखाहि- यधरि ” इस पद का बोल चार केसा है सो पाठक ही वि- चार करलें. & धरे ”--क्रिया के इस रूप से जाना जाता है कि ४ तू” ( छप्त कत्तो ) की क्रिया आंगे आवेगी परन्तु आगे है ४ फूटे तेरे भाग ” | “ अधो खुख ” को “ अधमुख ” बना- ना भी अधो भाग अथवा अहो भाग की वात हे. हिन्दी कवि- ता में “अधघ” “आधे” के अथे में आता हे जेसेः- होह परीक्षक क्‍यों न तुम पू्णे मशंसापात्र प्रदन पत्र के पदुतही भये अधमरे छात्र : जो हो ! ऐसे २ दोषों के कारण वेचारे छात्रों के छे न- म्वर तो यों छे हुए. दूसरी कुण्डिलिया इस दोहे पर है+-- कालि दसहरा बीति है धर मूरख हिय छाज दुरयो फिरत कतवरुमनि में नीकू फंठ विन काज । ध८र समालोचक | _ वह क्ण्डिलिया न सुन्दर हेन असुन्दर इसलिये उसकेवि पय में में कुछ नहीं कहता, सिवाय इस के कि जैसे “द्रमन” को “द्रमाने' लिखा हे उसी तरह “ कुंजन कुंजन ” को “ कुंजनि कुंजन * लिखा है, एकही शब्द को एकही पंक्ति में दो प्रकार से लि खना विद्यार्थर्यों के चित्त में ज्यथे भ्रानित उत्पन्न कर सकता है, तो भी इन छे नम्बरों में स चतुर विद्यार्थी चार नम्बर हे ही गिरेगा ( इस झुण्डिलिया में भी “ सुकवि फेरि पछते हैं जे है कालिदसहरा ” में “ सुकवि ” “ पछिते है ” का कत्तो बनकर गठवडढ़ मचा सकता है “ ते है ” में यातिग्रेग भी है) तीसरा वाक्य यह दोहा है+-- जाचक कहा न मांगई दाता कहा न देह । गृह सुत सन्दरि छोभ नाहि तन धन दे जस केइ ॥ परीक्षक महाशय पहिले स्वय॑ इसका अन्वय कर देखें फिर सोचें कि मिडिल के विद्यार्थियों से इस के अथे के समझने की आशा करना दुराशा मात्र हे वा ओर कुछ: पाठकों को यह तो विदित शो होगा कि ये सब वाक्य उन पुस्तकों में से नहीं लिये गए जो मिडिल में पढ़ाई जाती हैं, यह पचो ही ए्ा756०7) अहष्ट कह्लावा है, निदान इस दोहे के दो नम्बर भी दुलेम हुए ! अय अन्तिम वाक्य देखिये ओर कहिये कि वह विद्यार्थि- यो के रहे सहे साइस का अन्त करने वाला हे या नहीं+- इृहि छवि मुख अलूकावली रही छूपठ इक संग मानहूँ सीस भूत परथो पीवत अमी अ््ज॑ंग: समालोचक । श्ट ३ नहीं भाना जाता कि यह दोहा किस कविकुलरब्न के काव्यकोश का रत हे ! “ इहे छवि ” कैसा अनूठापद है ! ४ इहे ” क्‍या हे?! “इह” का हिन्दी रूपान्तर ? अथवा इसको “ अछकावछौ ” की उपमा “ अहि ” समझें ? आ- दि में “अहि ” ओर अन्त में झुज॑ंग”, होने से दोहा दोम॒ही सांप शेगया, क्‍यों न हो, वर्णन भी तो किसी स्वरूपवती के चेहरे का हे जिसके दोनों ओर दो अलकावली हैं. में पूँछता हूं कि क्या परीक्षक को अंगबणेन का विषय छोड़ दूसराविषय ही न रुचा जो ऐसा विषमय दोहा विद्यार्थियों के सामने रख दिया और यदि ऐसा ही करना था तो यादे वे मधुर पदों में उस विष को रखते तो भी क्ुछ संतोष होता जसे अलूकावली दंश करने बाली बांधी गई ह वेसे ही यह कविता भी काटे खाती है. में नहीं समझता कि इस अशुद्ध दोहे का अर्थ कोई लड़का वा सयाना ही कैसे समझ सकता है जब तक उसके लिपि दोष, छन्‍्दो भंग दोष, और व्याकरण दोष न निकाल दडा- ले जावें काबे कदाचित यह कहता है कि “ सुख ओर अलकावली एक संग किपट रहे हैं? यादे ऐसा है तो 'रही' के स्थान में “रहे” होना चाहिये ओर यादि 'रही' शुद्ध दे तो ' मुख ” की विभक्ति में अस्पष्ट रहने के अतिरिक्त ' इक संग ” का अथे विगड़ता है ओर “ इक संग * के स्थान में “ झुख संग ” होना चाहिये. दोहे का दूसरा अद्भधा तो पदुते ही नहीं वनता जब तक उसके सीस का ( “ सीस * शब्द का अथवा आदि शब्द “ मानहुं ! | रैंटड. ' समालोचक | का ) तोड़ फोड़ न किया जावे ! विद्याथियों को हिन्दी मि- डिल पास करने के लिये रासिक भी होना चाहिये ओर कवि भी होना चाहिये जिससे वे प्रसंग को समझ कर अजुद्ध वाक्य को ( ठीक परीक्षक के इृदय स्थित भाव के भन्लुकूल ) शुद्ध करते तव उसका अनुबाद करें ! कठिन परीक्षा हैं भगवन्‌ | सरस्वत। सहाय रहो ! इस अद्धे में एकही मात्रा अधिक होने से छन्द बिगदता है, तव तो “ मानहु * को “ मनहु ? कर देने से छन्‍्द ठीक हे गया, बस अब क्या देर है अथे भी वन गयाः- भानों सीस झूतल ( पर ) पड़ा ओर श्ुजंग अमृत पीता है.' परीक्षक महाशय आप इस अथे पर पूरे नम्बर देवेंगे नहीं? यदि नहीं तो क्यों नहीं ? विद्यार्थी का क्या दोष है यदि आप कहें कि सीस का भूमि पर गिरना अमंगरू वात है, तो विद्यार्थी से तो आपका 'मंगल्' का व्यवहार ही नहीं हे, आप उटपटांग पश्षपत्र बनाकर निष्पयोजन ही उसका अमंगल करते हैं. वह वेचारा विवश होकर आप के खुले खुले शब्दों का खुला खुछा अक्ृलिम अर्थ करता है। अब यदि “ सीस ? में कुछ गड़घड़ है ओर “ मानो * ठीक हे तो 'सीस' काटकर वहां क्या जमाया जावे ? विद्यार्थियों को तो यह सूझा होगा कि “* सीस * के आगे “ भूत ” हई ओर भूत सीस ही पर सवार समालोचक | १८५ होता है इसलिये * सीस भूत ” इतना पद तो अवध्य ही ठीक है, एक मात्रा और चाहे जहां उड़ा दीजावे और उसने “छल ! को काट कर यह अथे किया हो तो आश्वय नहींः- & प्ञानों भूत सिर पर सवार है ओर वह थ्रूत श्ु॒ुज॑ग अ- योत्‌ विकराल है ओर अमृत पीता है ” ( अलूक भी काली, भूत भी काला, € उपमा एकदेशस्य ” ) अथवा £ मानो भूस के सीस पर भ्रजंग अमृत पीता है * लड़के ही तो ठहरे, बे बेचारे परीक्षक के समान रासिक वा कवि थोढ़े ही हैं. विद्याथियों ने दोहे की मरम्मत इस भांति भी की हो तो उनका दोष नहीं।--- ४ प्रनहु सास भ्रूतल परी ” ( वही जिसका मुख वर्णित चच्चे ही तो ठहरे ) £ मन्नु सीसा भूतल परयो ” ( अमृत का भाजन सीसा ) ४ मानह सस भ्रूतलू प्रयो ” ( सस खरहा भूतरू पर पहता ही है ) ८ मीन सीस भूत परयो ” ( कच्छ मच्छ पर प्थिवी धरी ही है अथवा मीन का सौस प्रथेवी पर पड़ाहो करताहई ) ८ मानहूँ संभूतल परयो ” (शैभू ओर झुजंग का संस प्रसित्त डी ह ) १८८७ समालाचक | * सन सीस भूतरू परयो ” ( अनुमान ही तो ठहरा ) इत्यादि इत्यादि आधिक कहां तक कल्पना करें, क्या ऐसे अथे करने वालों को परीक्षक ने »कुछ नम्वर दिये इंगे ? आकाश वाणी होती है “ नहीं ! ! प्रीक्षकजी सोन्दय्येरसिक जनाई देते हैं, कोई सुन्दर अथे बनना चाहिये; सब तो केवल यही उपाय है कि (सीस) की मरम्मत कर के (ससि)प्रदा जाय. तब क्‍या अथे हुआ ! ' मानों चेद्रमा भूमि पर पड़ा है ओर झुजंग अमृत्र पीता हे ' इस अथे में भी भूमि पर पड़ने ” का भाव समझ में नहीं आदा ओर न मख से लिपटी हुईं अलकावली के छिये चंद्र से अमृत पीते हुए भुजंग की डउपमा योग्य हो सकती है. भानह कंचन करूस तें अमरित पियत अजंग” सदश यक्तियों में भंग के मुख को ओर अमृत पीने को वढ़ी चतुरता से निवाहा है | इस लेख को में अधिक नहीं वढ़ाना चाहता इतना ही 4 कर कहना चाहता ६ कि पवलिऋ ओर शिक्षा विभाग के अफूसर न्याय पृव्वेक विचार करें कि ऐसे परीक्षा पत्रों से ( जिन के जन्प दाता योग्यों में योग्य होने के कारण ही परीक्षक बनाए जाते होगे ओर जिन को लॉग साहित्यांग संपन्न काव्य का नमूना मान सकते है ) घाडित्य के साथ और परीक्षित विद्या- थियो के साथ कितना बड़ा आर सनन्‍्ताप जनक अन्याय होता है । समालाबक १८७ परीक्षक महाशय भी विचार करें कि साहित्य व्याकरण ओर लिपि सम्बन्धी त्रिदोषान्वित, कठोरता' असावधानता और अकविता के सन्निपात से निम्मित परीक्षापत्रों से न उनको यश मिल सकता है ओर न हिन्दी को कीर्ति मिल सकती है। यादि परीक्षक कहे कि अश्न पत्र छापे की भू से अशुद्ध हो जाता है तो में कहता हूँ कि क्या सब की सब तजुटियां छापे ही के नाम डाली जांयगी * और यदि छापे ही की भूल हे तो उसका उत्तर दाता कोन है १ परीक्षकजी प्रश्न पत्र में कहते हैं ८ सुन्द्र शुद्ध लेख के लिये सकड़ा पीछे १० नम्बर नियत हैं” में पूछता हूँ कि स्वयं परीक्षक जी ने भी घश्ष पत्र को ' सुन्दर शुद्ध ”* लिखा था कि नहीं जिससे छापन में अशुद्धता न घुस पड़े ? ओर यदि भअश्न पत्र का लेख “ सुन्दर शुद्ध ” था तो क्‍प्रफ के जांचने में ऐसी ज्रुटि क्‍यों हुई जिससे गिनी २ पंक्तियों में इतनी और ऐसी जुग्पसामयी अशुद्धियां आन बिराजीं £ हिन्दी अच्ुवाद्‌ ही के पर्च में एक पतश्च प्काक (70णाग्र70 हा- ० ' हिन्दी वाक्य रचना * का है उसके पहिले लिखा है कि 'पश्न के नम्बर उसके आगे दाहिनी ओर लिखे हैं ? परंतु दाहिनी ओर वा किसी ओर नम्बर नहीं लिखे! यह भूछ चाहे परीक्षक के आलूस्य खाते में नाम पड़े चाहे [?-7ाा८ 5 0७! छापनेवाले शतान के सिर मढी जाय विद्यार्थी बेचारे को नम्बर स जानने से यह निणय करने का अवसर न पमिका १८८ समाछोचक | कि वह अलुवाद वाले प्रश्नों में अधिक मापश्तिष्क लाने के बद- रे वाक्य रबना वाले भाग को अधिक समय देने से नम्बरों के लाभ में रहेगा वा नहीं ! ... दूसरा प्रश्न पत्र * भाषासार संग्रह और व्याकरण ! का हैं उसको कुछ पंक्तियां सुनियेः- १ / हरख्यो बुद्धि विहीन बेठिके फल चाखे ” २ “ इकादेन तामधिस्वार कार्यो गर काट न द्रतगाति ” ( सवार का अथे १ ) २“ गिरिधरदास साथुताई दे खि कहें घू रत है ” १२३४२६ 3७८५९८१० ९१९ १२ १३९४ १९४१ १९६ पाहिली पंक्ति में की २ मात्राएं कहीं खपगड हैं ! उसकी कसर कुछ तो दूसरी पंक्ति में निकक गई क्योंकि उस में एफ मात्रा आवश्यकता से अधिक है! रही एक मात्रा, उसकी कसर तीसरी पंक्ति में सूद ओर खददंरत्तद समेत दूर होगई क्योंकि उस में दण्डक की सीते से केवल १६ वे चाहियि थे परन्तु है उसमें १६ ओर २८ १८ ? राम राम साहित्य [ तेरी यह हु- देशा | काब्य ! तेरी यह यमयातना ! पाठ्य पुस्तकों में, परीक्षापत्रों में, विद्रता का दावा करने वालों की लेखनी से तरो इस प्रकार हत्या < हा इन्त ८४ अहो कष्ट सापि पति दिन मधोध+ भ्रविशति ! । # के राय देवीपसाद “ पूणे ” १५ दिसम्बर सन्‌ १९०२₹ # यथा तिरश्रीनमछातशल्य॑ पत्युध्ममन्तः सबिषश् दृंशः | तयेव तीत्रो दृदि दुःख कुमेपाणि झृन्तन्नापे किन सोढः / नया. आआ . )॥ समाकोचक । १८९ सम्पादकीय टिप्पणी । स्थानाभाव से अबको संख्या में सम्पादकीय टिप्पाणियां न छप सकी । पलम्ब लेखों के कारण हम धकेछे गए इस बात से हमें प्रसन्नता ही है । उधर पिहार के एक पाठ्यपुस्तक फी दक्षा देखिये, इधर परीक्षकों की लीछा निरखिए । जिस प्रणाली ने विद्यार्थियों को ऐसे बढ़िया ग्रन्थ पदने पर वाध्य किया, वही प्रणाली उन्हें ऐसी परीक्षा में जोते ता क्या आश्रये हे ! भाग्य के सिवाय हम किप्ते दोप दें। क्या कोई परीक्षकों से इस पर्च के बारे में पूछेगा ? क्या हमारा आतेनाद ओर परौक्ष्यों के घि- लाप परीक्षकों तथा अधिकारियों के दृदय को पिघला सकेंगे आगामि संझ्याओं में विविध विषयों पर टिप्पाणियां और नए नए लेख पाठकों को देने की प्रतिज्ञा करते हैं | १९० समालोचकऊ | अन्न, तत्न, सर्वत्र ! सन्‌ १८७० में फान्स ओर जमेनी में वढ़ी भारी छा हुई थी। उसम्रें सारे साम्राज्य कांप उठे थे। उन्हीं दिनों योरोप में संस्कृत के पदने की चचो खूब चर रही थी | जभन सेना के एक सवार ने, १ सितस्वर के युद्ध का वृत्तान्त, ता. २ सितस्त- र को, अपने एक स्पदेशी मित्र को, संस्कृत में छिख भेजा | उस मे ऋग्वद का एक अश दृष्टान्त रूपसे कुछ वदलर कर लिखा है। जिस देश में संस्क्रत के अभ्यास का यह प्रेम है, वह देश धन्य है; जो मलुष्य युद्ध क्षेत्र में भी इस हमारी भाषा को नहीं छोड़ता था, बह मल्रुष्य धन्य है !! संस्कृत देव वाणी ही है, और उसके चाहने वाले “देव ” और उपेक्षा करने वाक़े 'पश्ञ' वनही जाते हैं !!! पत्र यह है --- हो महायुद्धं अभवत्‌ | शत्रवः सर्वे निर्मिताः। सर्वा तेषां सेना, महाराजचच स्वयं, बद्धः। त्वष्टा नो बज स्वर्य ततक्ष, अ- हन्माहिं स्वविले शिश्रियाणम्‌ ( ऋग्वेद १, १२ )। अजई सुकु- शलोउस्मि, युद्धे न महदभय॑ गतोउहमस, यद्‌ एतस्मिन्‌ क्षेत्र सुपा- वेते पदातय एवं योद्धं शक्लुवान्ति, तुरंगिणस्तु नाहैन्ति। महत्यां सेबायां भवतः शिष्यः जुरिस वौन थीलूमान | अथै-कल बडी लड़ाई हुईं । झ्त्रु सब जीत लिऐ । सब उनकी सेना, महाराज भी, बांध लिए गए। इन्द्र ने हमारा दैवी वज्ञ वनाया, हमने अपने विल में बेठे अहि ( दृज्न, सपे, मेघ ) को मारा । में असन्न हूं। युद्ध में में बडुत डरकों नहीं गया, क्योंकि इस पहाटी खेत में पेदल ही लड़ सकते है, श्डृड़सवार बढ़ी सेवा में तुमारा शिष्य, ध्थं जुरिस वौन थीलमान अहम." मम पणमझाााक. समालोचक । 5 अपनी बात । सहयोगियों ने हमारे नए सन्दभ की जिस उदारता से समालाचना क॑। हैँ उस के लिए हम उन्हें अनेक धन्यवाद देते हैं। समालोचक के जो उद्देश्य हमने प्रकाशित किए हैं, या जो हमने सोच रक्‍्खे हैं, उन्हें पूरे कराना हृपारे सहयोगियों के ही हाथ है । यह इज्जत उन्हीं की दी हे, और उसका निभाना भी जन्‍्हीं का कत्तेव्य हे। भारत मित्र ने सम्पादक को कविता में कोरा कहा है। यदि “भालती” को पढ़कर यह राय दी गई है तो रासिकता का अन्त है ! एसोसिएशन वाली कविता में कोई छन्‍्दोभड वा रसभड्ज बतावे तो हप “ कोर ” कहलालेंगे किन्त भारत मित्र के छोटाए लेख को छापने वाले किस तके से कोरे कहे गये ? आज कर “ सुदशेन सम्पादक * हिन्दी वंगवासी में जो लिख रहे हैं, उस से “ एसोसिएशन ” ऐसा निर्दोष नहीं जान पहता कि भरतियाजी की कविता निकम्मी कही जाय .॥ सरस्वती ने अपने सिंहावछोकन में बहुत अच्छी तरह आप्षेपों का उत्तर दिया हैे। हम बढ़े खद से प्रकाश करते हैं कि हमें पांचवें हाथ वाले श्लोक पर कुछ कहना पड़ा था। सरस्वती जेसी पर्वांगसुन्दर पत्रिका में इस कालिमा को हम न सह सके | दिवेदीनी का संस्कृत साहित्य पर बड़ा अधिकार हे, वे स्थूलदष्ट से भी ५०० ] ६०० इलोक निकाल लेंगे जिनमें पाचर्द हाथ की सी ग्लाने न उत्पन्न हो | 'सुना है कि इण्डियन प्रेस के स्वामी वेसे इछोकों को सर- स्वती में न छापेंगे। अस्तु , अस्माभियदनुध्ठेय गनन्‍्धर्चस्तदनु- प्वितम। ४ समालोचक | ' . सहयोगियों से हमारा एक और न्विदेन हे। वह यही, कि समालोचक के स्वामी ओर सम्पादक हिन्दी भाषा के प्रायः सभी लेखकों के मित्र हैं, ओर उन के सेवक होने का गोरव पाना चाहते हैं। समालोचक में जो कुछ - लिखा जाय, वह द्रेष-घम्छक और कुतके-मय न समझा जाय, यही हमारी हाथ जोड़ कर पसाथना है । “ मेहरवान ” मिषप्टर जैन वेचजी और समालोचक का सम्पादक ( चाहे वह जयपुर का कोकशास्त्र वे- चने चाला हो चाहे तिब्वत का लछामो ) जो कहते हैं उससे उन पर विद्वेष, वा अरुचि न हो। इसीसे वे सव मित्रों से क्षमा -मां5 गते हैं ओर अपना व्यवहार यथावत्‌ रखने का निवेदन क- रते हैं । जि आगाएिे संख्याओं से लेखों में, र॑गरूप में, सम्मेलोचक को हिन्दी का सवे प्रधाल मासिक पत्र वनाने की चेष्टा को जायगी । इसमें ऐसे ऐसे महापुरुष रेख देंगे जिनके लिखने से. 'हिन्दी भाषा का गौरव होगा। “व्यय ” के छप जाने पर "विचार है कि एकफार्म सदा किसी ग्रन्थ का दिया जाया करें . - जिससे हयारे साहित्य में ग्रन्थों की भी पूत्ति होती जाय ।ग्रा 'हकों से भी निवेदन है कि आगाएे सूल्स, वा वी. पी. भेजने को आज्ञा, देंदें, क्योंकि जनवरी का अड्ड कल्पित ग्राहकों को नहीं भेजा जायगा । सधाभाधभाााभानागिकनिमा गगन गा व्गन प्रछ्तजाधउए'छघारछए0 प0 उ 25, समालोचक वापषिक मल्य १॥2) जनवरी फरवरो १९०४ [ एक सख्या ८८० भाग २ ]- मासिक पुस्तक _.* [| सख्या १७,१८ दिम-ट--म+5-उहट- मास सदस्य इससमसडट- शा सधसंद ३ के विषय+>- | हे पृष्ठ || अन्न, ततन्न, सत्र, ***० *०*५ ** २१९१ | इण्डियन नेशनल कांग्रेस - ** * गा लाखा फूलाणी का मारा जाना - * * १८ ( प्रेत गोरीशंडूर हीरा चन्द ओझा ) हमारी आलमारी. -+*- * « “* शरर८६ बैंडरवरन का शछ्चनाद -- । महाकबि भपण ३०-०७ न “*. शछृट || --2९२६-:४-४६:८-२८०-४८:३६-:४४८०-22२८२:२४०८-२८-<८-१६-४४४--२६-३६-१ ( पणिडत श्याम बिहारी मित्र एस ए और पणशिडत झाुकदेचाविहारी मिश्र ची ए ) ग्रीप्राइटर * प्रकाशक । मिषए्टर जेन वेद्य, जोहरी बाज़ार, जयपुर । का की आओ भी मी आ मी मे आम भी आम आओ आम आह 0 #>07 ६0 #। वध 50#८६5४४४४ ९७६७७ 8६३०८६३ है कि. ्च्नमः हि ८ | (22२८२ ८०४६::४२६८-:१६२६ भी) ० | का ि टाइट. १: (डि 7 ह जा /) है | . ॥ शुहिपत्र ॥ - - पांके हु 8 हर १ १२ झ ३ छ श्प २० र्‌३्‌ कुण्णा हि अशुद्ध ण़्द्ध संख्या १७, १८ * संख्या १८, १९ एक संख्या 5) यह संख्या |) स्३ . खि३ | शब्भानाद्‌...... शह्भनाद * २३२ र६ट ..' र्‌इट पसाद प्रसाद विषयों मे विषय में मानहानिक भानहानि का छोदे लागूश छोटे छाट बाढूश वहा दूर | बंद दूर ! माण्डार भागडार 2 भी >> 2 ३ श्९र्‌ समालछोचक। गहान्मकन्यकमाापाकमाका पका इमनका थक कम कम कशबकमक नकल क्नकथ काम कम कम कक नाकम कक सइााइआआइइइ इक बल तल नल_ इक आ ७ आल लक ल का लडरबक कल वि दी आम न मी आम पाउयपुस्तकों का सुधार--हिन्दी के पैच्ों ने उपन्यासों पर बहुत कुछ लिखा | उपन्यास स्राधारणत : श्ोढ़ अचस्था चघार्लो के पढ़ने के ।लछिए होते हें । ऐसे प्लोग समय फाउने के लिए पढ़ते दे और उनपर फिसी विशेष पुस्तक के पढ़ने का चलात्कार नहीं होता | इस्तोस्त यदि वे जान बूझ फर भद्दे उपन्यास पढ़ें, तो, भार- तेन्दु के शब्दों में, “ उन्हे फौन जगा सकता है ? फिन्तु शिक्षाविसाग फी पुरुतक भल्ता ब्रा न जान सकने चाले कोमल बालकों को पढ़नादी पड़ती हैं । उन्हें जय कुछ रठटाया जाय, वह अछाुद्ध भाषामें न हो। ऊओ और चुरा न हे! इस बत्त फी सम्दाष्द शिक्षायिसाग के सिवाय सवादपत्रों को भी करनी चादिए। मध्यप्रदेश की पाण्यपुस्तके फंदाचित्‌ अच्छी दरों, किन्त बड़, विहार, युक्तमान्त ओर पञाव में पुस्तकों फा रोना हो है- रसायनाचाये पेडलर साइज फे छासन में न साहस किन रसायन अफकारों से मैकामकून कम्पनी पुस्तकें ढालती है और न माछूम किस फोीसेया के बल से थे स्विक्तत ” दोही जाती हैं | भ्याग के इण्डियन पीपल ने मैफकामिल्लन फी ऊुगराफिया सौर स्टिटिजुन आफ इयेडया के छेंदूँ अज्ुवाद फी अच्छी ऋछई सोती हे! लस्लनऊ प्ए्डबोकेंट ष्फ सम्पादक गड्ढाप्रलाद चसो नागरी प्रचारिणी सभा ऊके आनरेरी मेम्बर चुने गए हैं, उन्हें सुक्तप्रान्त फी हिन्दी पाठ्यपृस्तकों पर कुछ लिखना चादिए। मैकामिलन फी चेशानिफ रौडरों फी समालोचना नागरीप्चारणी सभा करने वारी हे । विदारवन्धु और प्रयाग स्तमाचार ज्वथा की बातों में न पड़ फर इस आवश्यक विषय पर लिखें | मेकमिलन के दातिद्दास पर हम ने एक प्राप्त छेख छापा धा ! लेखक ने अपने सिद्धान्तों फे विरुद्ध वार्तो पर बद्धृत जे।र दिया दे । 8. 5. ० 2 जो दो, हम ने उस्त पुस्तक में एक सी पृष्ठ निर्दोषि न पाया भार है > जा... *ेकाआन २8... "आता ज...-मय भा. मना. -3 आम. फैकब-लिन.. ००-आह जय -य--औ पक: समाछोचक | १९३ हमें परिडत पाण्डेय की समालोचना पर कुछ नोट जोड़ना पड़े । सकमिलन फरम्पनी की ऐस्सी ही चेज्ञानिक और साधारण पुस्तफरोो के लिए, युक्त प्रदेश का शिक्षा विभधागभी, रुवचछन्द्‌ू-विहार-पक्षेत्र यनने चाला दे | विद्यार्थियों मर उनकी भाषा फा इश्वर ही रघ्दक दे | कट मः मे सिटीजन आफू इण्डिया--छीवानेर साहब फी यद पुस्तक चलात्कार से, सभी यूनिवासिटियों से, फह्दीं मिडेल, फहदी एस्ट्रेन्स ओर फ्दी एफ ए में घुसेड़ी गई । प्रयाग स्तीनेंट में इस फे विरुद्ध चढ़े बड़े विवाद हुए, सर्व साधारण ने भी पत्रों में, सभाओं में, इस्तर पुस्तक के सर्तों का विरोध फिया। किन्तु पुस्तक दे फि जोक, हटती दी नहीं | ! इसमें भारत वासियों की निन्‍्दा हे, पुस्तक बड़ी फठिन दे, ओर 7%/7८४२८7८७४० हठवाद फा खासा नमूना दे | उस फे हिन्दी अज्ञुवाद का नाम झछुन फर हमने समझा था कि इस की फीरतन्ति भी सेकमिलन फी अन्य पुस्तकों से फाहे फो कम होंगी, किन्तु यह जान कर सनन्‍्तोष हुआ कि यद्द अज्ञुबाद लाला सीताराम ची. ए ने किया दे | सन्देद यही दे, कि इस अजुवाद मे “ सूप ” हंखिनी का कौनसा स्वरूप है ? छाद्ध दिन्दी स्वरूप दे, या उस्प खिचड़ी उर्दूमय दिन्दी का स्वरूप है जिसकी हिमायत करती यार भूप स्वादव ने आत्मइलाघा करते करते नागरी अचारिणी स्तभा की निन्‍दा फी थी १ कं: ्ः ्ः यूनिवर्स्टिज विंछ--पाशेडत बाल्यड्भराधर तिलक ने, अपने नप्‌ भ्रन्‍्थ की भूमिका में, भद्ट मोक्षम्लुलर के य वाक्य उद्घत किए. हें.“ मजुप्यों के ज्ञान फे अत्येक बिसाग का शाखा और पशाख्रार्मो श्र समालोचक | में दिन दिन घबटते ज्ञाना, किसी विद्येप विषय के धझास्त्री फो, चाददे चद चाहें, या नदी, अन्य शास्त्रों के सेवर्कों की धाद्दे और सहायता बस अधिक अधिक अधीन करता जाता हैं। आज करू के भ्रतत्ववेत्ताओं को उन प्रश्ञों का निणेय ऋरना पड़ता दे जिनक्य कि सम्बन्ध घातुर्चेता, रसायनवचेत्ता, पुएणतत्वचेच्ा, ज्याकरणवेत्ता, आर ज्योतिषवेत्ता छोगों से, सूखे मूतत्ववेचाओं की अपेक्सा, अधिव् दे । जीवन वहुत थोड़ा होता है इस सर उसे अपने स्ताथियों व्ही सद्दायता ओर सलाद लेने के सिवाय फोई उपाय नहीं रहता। विश्व विद्यालय जीवन का यद्द चढ़ा मारी छाभ दे कि यादि फिसी को अपने विषय से बाहर फी किसी वात का निर्णय करना दो तो चह अपने सद्योगियों स्रे सबस्रे अच्छी सीमांसा पा सकता है। पेचीजे भर्ञो फे सच से अच्छे विचार ओर अत्यक्तम समाधान, इस सरुचतन्त्र सहयास्स सत, हमारे विद्याकन्द्राों फे इस्तर “ ऊलेन देन “ से, उत्पन्न हुए दे। यादि सखोजी इन स्व चिपयों पर जाने हुए सधिकारियों फो सहायता न ले, तो चह अपनी समझ में वढ़ी खोज कर बेंठता है जो विषय को जाननेवाले के फूत्कारमात्र से उड़ जाती हैं, और कद यातों व्हो छोड़ जाता हें जो विशेष-श् न्छे द्ाथ में पढ़ कर टुरव्यापी लाभों को पेदा करती दें। हमारे श्िश्वाविद्यालयों में, जदां हर कलाई अपने सहयोगियों से सब से मच्छी सस्मातिं पा सब्मता हे ( चाहे थे उसे असम्सच कल्पनाओं स्ते सावधान करें ओर चाहे ऐस्स अन्थ की आर उस छा ध्यान खचे जिस में उसकी जिज्ञास्रा की वात पूरी तोर से चर्णित हैं ) भत्येक विज्ञानको, विचारों के स्वतन्त्र “ छलेन देन ” से कितना छाभम होता है, इस चात फो सथे साधारण नहीं जानते। ” यह छिख कर सिरूक महाशय कहते है ” किन्तु हा ! ऐसो आवहवा में रहना दमारे साग्य में नहीं है, समालोचक । श्र ओर इस से आश्वैय नदीं कि भारतवासी ग्रेजुएट परीक्षा देने के सिवाय और किसी काम के नहीं होते। भारत चर्ष में एक भी पेसी सरूुधथा नहीं है, और यूनिवार्सेटी कमीशन के होने पर भी ऐसे संस्थान के दोने की आझ्ा भी उहीं हे, जहाँ योरोप की तरह किसी विषय का पूरा ज्ञान प्राप्त हों सफे।” यूनिवर्सिटीज्‌ धिलू से उच्चाशिक्षा के विस्तार की आशा नहीं होती । सीनेट के सक्ष्यों फी संख्या फम करदी गई है, प्राइवेट फालिजों फी स्वतन्त्रता फई जटिल नियर्मो से बद्ध हो गई है,किन्तु पढ़ाने वालो टानिचार्सिटयों फे बारे में फाोई विशेष चेषटा नहीं की गई । विज्ञान को उच्च शिक्षा के प्रस्ताव नहीं हे, देशी भाषाओं की पढाई में गिनती पी वात भी नहों हे, आर सरकार फेचल चार जल्ाख रूपया वार्षिकी शिक्षा विस्तार में देना चाहती है । पाठकों को सर लाकयर के व्याख्यान से सरूमरण होंगा कि।शिक्षाचिस्तार सेना से क्र आवश्यक नहीं दें आऔर सर ज्ायकर कई सो करोड़ रुपया इड्डलेण्ड व्ंय विद्रवाविद्या- लयों के बढ़ाने के लिएडी चाहते हैं । इस बिल में बिलायत से योग्य अध्यापव्यों को बुलाने की भरी चच्चों नहीं दे। अेज्भुए्टों को फैको जखुनने की अधिकार दिया गया है, किन्तु प्रयाग ओर पकञ्षाब रेट ओअज़ुणरटों क्यों नहीं। सम्बादपत्र, कांग्रेस, और सभी विश्यवविद्या- लूयों ने इस बिल का पूरा विरोध किया हे। इस बिल के विचार के लिये जो नए मेम्बर चरिएछ व्मोन्सिल में छुने गए हदें उन में दिन्दुस्तानी एक दी हैं--आओर वे “बादंके सानिउ्चीनां” को अवस्था को पहुंचे हुएए, घस्वई यूनिवर्सिटी के भ्रूतपूथवे बायस चैन्सत्वर डाक्टर भागडारकर हैं। कई नवयुवक्र स्वदेशी छोते, तो क्‍या कहना था। वृद्ध रामकृष्ण गोंपा् साणडारकर को अपनी उस पुरानी व्मरेर को काम में लेवा चाहिए,जिससे उनने पतझ्ञालि के समय-निणज़ २९६ समालोचक । जा... जाय... जग ऑफ. #म०-ना। "माना म्रान-नमा.री जान >मना-पा गगग...स्‍आामग......आानगाएु आम... धमामगमम ७, >भम्यपया.. मप्र... "पा ->ा पा... या...्ममय मम. भिममगया।; या. .,आ जा जाक पक गे बिता आधा का आग तक न पक का लललू*मससॉलयडमप-एन्मकामायाल या उकाभनइर धन्य सधधय जूक मा र॒धदत्म बरूम या भय्काक्प पाप कप दाप्रध लाभ सतन्‍ पाप म लक 7यउतन कर माइक गा कधन एम उाकत इमाम बनाम पहर कर 5 कुक तप लुह बम भ पक इक पक कक ५? हा भी आ ा औ मा न ला आर मा आओ. आम आज हिला के रिप्लछाई लिखे थे, और वियाना का्रेस सें बेणडाल का स्लंडत किया था। उनव्या यह समय प्राचीन शिल/'लिख पढने का नहीं है ; ओर न डाक्टर सुख्योपाध्याय के किए प्रघातमापको फी माप का हैं। दानों को * यथा निदिष्योस्सि तथा करोमि ” ले बचना चाहिये। गोपाल कृष्ण गोंखले ने अपनी भहाराष्ट्र बीरता काम में ली हदें ओर इस्ती से वरस्षछठ कफोन्सिल फे अधिवेशन रोचक बन गए हे | जो होना है चह तो आक्सफो्ड में कताविद्य कऋन्नेन महोदय ने सोच ही रकक्‍खा है, तथापि देशी मेम्बरों व्वा विरोध “ दुन्तभड्भोपि नागाना डाध्यों गिरिविदारणे तो दीगा दी । ः ्ः हा काशो के पाण्डत-प्रयाग विश्वविद्यालय के फन्वोकेशन रस ( जिसके बारे में प्रयाग समाचार में एक पांडे न निकली ओर राजस्थान समाचार ने कई फालम रंगे ) छोटे लाठ लादूश साइन न फाशी संस्कृत फालेज फे पण्डितों फी सरूताते की | उनका सा सच्धा विद्या का प्रेम आर जोश कहीं नर्दी मिला। आज कल जच ब्राह्मणों का सब तरफ गाज्यां दी जाती हैं, भत्ता यह बात जानी तो गई कि इनने पूछ न होने परभी भीख मांग मांग कर सस्कछत पढ़ना न छोडा | आज कल उच्सर भारतवध में उच्च संस्कत शिक्षा की दुदंशा ही दे । फाश्मीर तो कद दिनों से विद्या पोठ नदी रहा दे। पञ्ञाव में पाण्डित जैसरामजी के पोछे चच्चो दी घट गई, और अब जो कुछ पण्डित और पाठ्शालाएं हैं वे ओरिएन्टल फालेज, धर्म- सभा और आयेसतमाज फी कृपा से हैं । रामगढ में कुछ काशी के पण्डित जम थे, किन्तु रुद्दी और झीघ्रवोध में दी उनके यज्ञ पूरे हो जाते है । जयपुर में फाणी और मियथेला फें पणिडतों की अच्छी समालोचक ॥ 9९७ कलम लगाई गइथी, किन्तु उनके पुत्रों के|ससिचाय चहाँ फी मरुभूमि मे फलम टिकनाही मुश्किल है । पणिडत हरजस्स रायजी फे स्वगेबास सर सुक्तआन्त में फाजण्ी के सिचाय फहीँ पशिडत न रह । मेथिल् पण्डितों की दीनता चढती जाती हें ओर बड़देंदशा फी न्‍्यायमय टोलों फे आचाये पग्रिडर्तोी को अब छार्जो को रखने कछायक “बिदाया” नद्दी मिलती । नए यज्लों फी ख्नोज़ में, काशी सस्कत फालेज पढाता ओर उपाधतियां देता है, फलकत्ता और ज्ञाद्वौर फे का्ेज सी ऐसा फरते हूँ । किन्तु फलकत्ता परीक्षाओं सेद्दी छोगों फो प्रेम दे । चिहार संस्कृत सझीवन परिडत अम्विकादत्त व्यास फे फाल में फाम फरके शिधिल द्ोगया है, ओर उडोसा में ठोलही बहुत कम है । प्राच्य और पाश्यात्य ज्ञान में चुभाषिए पर्नका काम पञ्ञाव और प्रयाग के एम. प्‌. फरते दें । कलूकत्ते में नदिया व्ही पस्तलिद्धि, पेस- चनन्‍द रायचन्द चृत्ति प्रति कई कारणों से फद एम ए. सतस्कृत के पू्णो पणिडत दें । सुवर्गीय वालन्टाइन साहब फो पणिडतों क्यो नई शिक्षा देनी इष्ट थी, उन्होंने फाशी में एड्रलो क्लास खोला और मिल, यबेकन फे अनन्‍्धों को सूत्र, छत्ति क रूपसें लिख । बचे प्रभ्ठाते फे भ्रन्थोंका सस्कतानुवाद कराया, किया । नेयायिर्क्ों के परमाशुवाद का खण्डन संस्कृत में लिखा । छिन्तु उन्दे कुस्सस्कार श्रा कि प- ण्डितों का ज्ञान पस्चिमीय ज्ञान से हीन कक्षाक्यमा हे । पण्डि्तो क्यो उदारता देखिए क्वि-उनने चाइवल के सिद्धान्तों को खुनने ओर नए विज्ञानों व्गो सस्कृत में फिखवाने में कोई आपत्ति न की | इनन और घखड़देश के एडमस साहब ने पण्डितों से विज्ञान स्स्छत में लिख- वाने की व्यवस्था भी ले ली थी। इनमें से प्कपर बड़े शुरूजी ( पण्डित व्मवक्मारामजी ) के भी इस्ताक्षर हैं। संस्क्रत के लिए ष््ः बोल, कं, ओज्ुप्प्टो क् चर्तमान सरकारी सहायता चुत रूम है, आर अब र्ट्ब्छों ५९८ समालोचक | खडतकाललमइ-मममरपाुसायक्रा-- समाधान कम कथन कम इभाकमक कम कम कम कक न फ़मइभ कम कमा कमा का प्रधय #रंग रन कार बल हब... बल शक निदम मनन लत शक श न शकककवननिक नमक कम जन >जनए जय नर न तन पनन्‍म नमन नम कान नमन मी भा. ५४ ७ती9 कली फिट कलम िल फट जज समय सनी रन मीन "जनम जननी य रन एम कक पान तन मी पेज रन पद न्‍+ री परम लिन पर पर पेपर पर) न ० क "० कर क ७4 नम. "कम ५.#प ० .#०१७-.#-+ ९००९-७५» नदी -पमदा पाकर चना स्स्ऊत पढ़ने के लिए छात्रद्गत्ति देने का जो प्रस्ताव है उसफा हम स्वागत करते हें; क्‍योंकि बड़े बड़े पयिडत अपने पुत्रों को चझ्ाख न॒पढ़ाकर गअेज्भजुणट चनाना चादते हें। जो सात सम॒द्गध पार फी भाषा को “ चुल॒क्ित ” कर चुके हैं उनसे न केवल संस्कृत का उद्धार होगा, किन्तु कूपमसहूकता का जो कलरूद संस्कृत जानने चालों पर है बद्द भी दृटठ जायगा । कइ्मीरपाठशाला हिन्दूर्भो के हाथ से निकलगद हे, दभेड्रा पाठशाला भी बदली जाने चांली है, किन्तु काशी में अब भी संस्कृत यूनीवसिटी का स्रामान ,विद्यमान है। प्रत्येक पेडित के घर में टीविडः यूनिवर्सिटी और प्रत्येक घमेशाला बोर्डिडः दाउस, प्रत्येझ सत्र में छात्रदनक्ति और प्रत्येक सभा में इनाम, सव कुछ हे, केवल काम नहीं, प्रवन्ध नदीं। सरव्धार को पट्शार्त्री अज्ुएटों को यजमानों पर दी न छोड़ना चाहिए, उन्हें भी डिपुर्टा कलेक्‍्टरी मिलना उचित ले । मथुरासण्डर का बविद्याप््चार- स्कीम क्ागर्जो में द्वी दे, दर्भड्रेब्वर स्ंस्ऊत यनिवास्िटी व्मी प्रतिज्ञा भूल गए । अव यदि हिन्दू यत्न करें तो जो शाक्ति अवच्छेवकता प्रकारता व्ही चक्की में वा फमाइची व्यवस्था गढने में, वा व्यागजी मह।मंडल्ली में, चत्त रूप से खच्र होती दे वही हिन्दू संरुकृत ग्रनि- चसिटी छे रूप में सरलेरेखा में चल ऋर पहाड़भी फोड़ सकती दे ॥ कै: ः कः के नदी प्रदोष--बड़े खेद का बिषय है कि स्नेह के अभावस्े हिन्दी प्रदीप बुका ही चादताहे। पेडित बालकृष्ण भट्ट ने घना भाव की झांधी से और वड्धला बू के नए तेल सर इस्त कमों बचाया भी, रिन्‍्तु रृतन्न हिन्दी भाषा बारे जब' इस के अक्काश मे फाम ही न के तो यह अनन्तता के अन्धक्औार में कीच न होंतो क्‍या दो: समालोचक के स्वामी फो इस दुःलम्बाद को खुनकर बड़ा शोक समालोचक । १९९ हुआ हे मोर वे एक प्रस्ताव उपस्थित करते हैं जिसे हिन्दी के प्रेमी ओर भझ जी अपनी सम्मति सत्र उपरुत करें | सझजी जितना लिख स्र्के था लिखना चार ( प्रूत्ति मासं २० वा ई० प्रष्ठ ) उतना लिखे फर हर्मे दे दिया करें | हम अपने पत्र कांनाम ' समालोचकफ भौर द्विन्दी प्रदीप ” रख देगे, और हिन्दीप्रदीप के सम्पादक भद्दजी हीं कंदलाएंगे । यो भटझजी के लेखों को हम छाप देंगे, और भट्टजी का आर उनके पत्र फा नाम जीवित रह जायगा। अचपघण्य ही दवानि लाभ के दम फिसी ओर फो दायी नहीं हैं । भद्जी के यही ख- न्‍्तोप रहेगा एके उनकी सातृसाषा फी सेघा चल रही है; और यवि उन्हें लाम नहीं हे, तो प्रतिवषत जो हानि छोवी थी, घह तो अदच नहों होगी । | ्ः श्र, श्र श्र महर्षियों की वृष्ठि--भाजकल चरखाता मेंडकों फी तरह साथ ओर महर्षि, महात्मा, राजधि, प्रह्मर्षि, ग्रेज़ुएर्टाप वेश्यऋषि की भरमार है। फहीं इन पर्दो की मान-रक्षा की चद्स में “राजर्षि सार-* सेन्चु ” “ ब्लह्मर्षि अयोध्यननाथ ” भी न छिखा जाने छगे । सचमुच भारतवष एनकी कूपासे ऐसाआशध्रम न वन जाय जहां छन्द, शोक, छेंष दुरसे दी किनारा कसे। एफ वार दो वड्भाली सज्जन सलेकयड क्लास में कद्रमीर जॉ रहे थे। एक फे चरणों में गेरुआा सूट, दें मे रेशभी फस्बल, और सुंहपर चिकनी दाढी देख्त, एक यात्री ने पूछा « आपका नाम क्‍यादैे १ ” पस के धार्मिक ससाहव ने तपाफ स्त उत्तर दिया “ मर्हाष झम्लुकानन्द सरस्वती ” और पूछने घाले फा नाम पूछे । उनने गस्भीरता से फहा “ अर्शी ” तमसुक। अशद्वीफा कया अथे है ? ” यद्द पुछने पर्र उत्तर मिला कि झुझे अशे रोग ह, कक अत एच में अर्जी हुआ, तोन चार मास में रोग बढ़ जाने पर स- २०७० समालीचक | लि ए-.ग्म्गाभ्कापमाहानभकमम्माकण्माहभ्याहामनकम्मकम्माकमा इनकम भाकमम कम का कम कामना कम इनकम मम कथन कमम कथन कम कुममकृमकृम कृमम कुमकुम कम कमकम कमा काना ााा कक >> बज श न सु आन फककत “जय. पान जया. मना आुन--म॥, का अन+ गए, वकजडन आज्यक कम हरी कहलाऊंगा |! ! ! यही नहीं, आजकल उपाधियों की बढ़ी कोीछालेदर दो रही हैं। एरस्रे समय में, जय फि एक ओर * ज- न्‍मना जायते शास्त्री ” वाले दाक्षिणात्यों की, और दूसरी मोर चाह संस्क्तत में चार पंक्ति भी लिखना न आते, व्याकरण वा फाब्य फे पांच चार झन्‍्थ पढ़कर शास्री ओर आचाय कहलाने कला दावा रखने चाले कालेज क्ूष्माण्डों फी, भरमार है, हम लोगों फो अपनी उपाधियां लिखते भी रज्जा आनी चाहिए ! यही नहीं, पाँच सात स्रमस्या पूक्ति करने से आप खाहित्य-ज्षमीकन्द, घ्लाहित्य-राजा, साहित्य-शम्दूक, और न मालूम फण क्‍या वन सकते हैं; भारत के भासरुकर चनर्कर मपने कुफाव्य किरणा से उसे जला सकते हैं !! और पांच छे सटे हुए व्याय्यान देकर मारवाडभ्रूपण अवधभूषण, ओर न जाने फिस फिस अश्लुत विद्या के वारिधि वन सकते है ! ! ! आनन्दकादस्विनी ने चिज्ञानाचायें जगदीश वरु को सारतमातंयड पद्‌ देने का अस्ताव किया है, घास्तव में इस पद के देने से सारत की प्रतिष्ठा है, न कि चस्छु मदाशय फी ; किन्तु इस वात का क्‍या प्रमाण है ।के कली कोई घरऊ सुरऊ सभा जिसे लिखे यद्द उपाधि देकर इस उपाधि की भप्रातेष्ठा न कर दे ? अपनी तरफ से हम तो डाक्टर वस्तु फो सदा इसी पद्‌ से लिखेंगे । के कं मे: पण्डित मण्डली का पन्न-----घ्ल भूगोरू में, जिसकी धाडू चिछत्न रूप छाया चन्द्रमा को भी उल्लांच जाती है और राजे फहटहलाती है, ऐसी घटना फरसी नहीं देखी गई थी, उसी इन पन्ना में झलकफतदी हैं। भरा पर्चिडत मण्डली किसी सं छाद देनदी ता लिखयवा छिया फरे ! नगद श्र समालोचक । २०१ मम्मी... ऑममा-. सहयोगिसाहित्य--भारतमिन्न में, बिकायती पार्लमेणट, उदूँ अखबार, अपनी फहानी वहुत अच्छे छेख हैं, ओर भारंतामेत्र फो ऊंचा आसन दिलाते हैं। उपहार का उद्देश्य भी उस फा उपहार ही पूरा करता हैं। छितबात्तों की राज-नांतिक दितवाक्तों अच्छी सी कुछ काम फी नहीं क्योंकि भाषा में सुधार नहीं और उपहार फा उपहास हे। हिन्दी बड़वासली के जाग उठने फे लक्षण है, - किन्तु अभी आंख भी नहीं मरी गई । अञ्री बेडुटेश्वर में रामजीवन नागर के शिदप सम्बन्धी लेखें। फे अभाव से हम दुखी हुए | यह पञ्र भी उत्तम कक्षा फा है, और वहीं रहने का यत्ञष करता है । प्रयागसमाचार कम्पोजियरो की घीमारी और सम्पादक फी सदल सत्र घदत्त (या बिगड़ ? ) गया। भारत जींचन फा ढंग छुधर रहा है, फिनतु मोंहनी क्‍यों ऊंघती हे ? राजस्थानसमाचार में फोई फोई लत चुत अच्छा निकलता है किन्तु छृटा टाइप सब कुछ बिगाड़ देता है। राजपूत अरूवर फे उत्सव में रंग गया। चिक्तौर चातकी का गंगाप्रवाह हो गया; घाकी पुस्तकों पर पर्चा की पश्चायत हों रदी है; इसीसे मारतजीवन फा जाँवन तड्ड है! सरस्वती की माहिमा चढती जाती हे, आशा है कि योंग्य रूम्पादक उसकी फोटि सदा उद्च फरते जाॉँयगे | सादित्य समाचार्रा को सरस्वती न छाड़े। इस वध्े उस््र की आर्थिक अवस्था भी इढ हो जाय | खुदशेन फिर सो गया है, उस्र फी चोदना हानी चाहिए । आनन्दकादम्िवनी फे प्रवन्ध से हम सन्‍्तुष्ट नर्दी। काशी की सभा की रूपा से दिनदी सनों-विज्ञान और नन्‍्ददास जी छीी रासपश्चाध्यायों पढने को मिला । फरवरी के मध्य में समा का शहभप्रवेशोत्सव दें । शुभचिन्तक ने रारू मोहन घोष की ऊीचनीं अच्छी लिखी दे, फिन्तु क्या छे तोले का नियम भी इन्तक्के जीणे रन समालोचक । दरिद्र कागज फो न बदलेगा ? काज्यी फे उपन्यास उसी हेग से चले ऋण. ही ही आकर ध्ा जातें 8 । बद्दार-वन्छ फही “ सरयूपारों वनन्‍्ध ” न हो जाय ! देखें सत्यवादी फया फहता है । मं हम हम हवंटे स्पेन्सर---विछायत के चेज्ञानिक चूड़ामाणे हवेट स्पेन्सर का “८ ज्ञानवान्मां प्रपयते ” हों गया। उन के चियय में शा जस्थान समाचार सें अच्छा लिखा गया है। सारतवषे, जापान ओर अमेरिका में उनकी शिक्षाका भअधिंक भमाव पढ़ा हैं। जगत ' फे वड़े बड़े शिक्षकों में, कांपेल कणाद छ्ुद्ध शड्भ र प्रभ्गति फे चरावर, उन का आसन है । उन के शव का अभिदाह हुआ और श्यामजी रृष्ण वम्मों ने १००० पाउण्ड दे कर उनका स्मारक नियत किया। भूखा भारत कुतज्ञ है । उनके अन्तिम ग्रथ में * अनन्तता ! फा जो चणेन हैं, म्॒त्यु फी संदिग्ध भविष्यत्‌ का जो चित्र हे, घह बड़ा भयावना और रोचक है । मराठी में उन फे कई अनन्‍्थों को अनुवाद हो चुका है। उन के #6/८८८३४४०४ * का अज्ुचाद कोई करे तो हम छाप देंगों। आागाएमिे संख्या में इस “ ज्ञानी त्वात्मेव मे मतः” के चारित्र और सिद्धान्तों का कुछ चशोन देने की इच्छा है| भः सं हि चार भाषा ए-.-अयाग की फायस्थ पाठशाला के प्रान्सिपल और प्रवासी के सम्पादक रासानन्द चद्धो पाध्याय एक हिन्दी बड्धल्त्र सुजराती मराठी का पाक्षिक पत्र निकालेगे। चारो भाषाएं देवनागरी अध्षरों में छवेंगी। हिन्दी अंश के सम्पादक वाबू राधाकृषणदास चुने गए हैं । इस योजना से चारो भाषाओं की अद्भपुष्टिह। नहीं, किन्तु राष्ट्र भाप्प का प्रचार भी साधथित होगा, इस से हम इस्तका अज्भुमोद्न करते दे और यथायेःम्य सहायता को लिए उपस्थित कछे। नागरोप्रचारेणी सभा से भी परामदी ले केना चाहिए ! ऋयाक “गमा#“ पक" गाए, >गथा॥, "रा जा, “न० "ना चका " पका स्‍ यह पिया तक इण्डियन नेशनल कांग्रेस । नत--+>-ब | बम्ात75:3497%57:-वरूफर्ीीी। ' प्वेन खल॒वा एते यन्ति विन्दन्ति खल्ल॒वा पवन एतदद्धमयनम्‌( १ ) पेतरय घ्राह्मण मे एक “ गवा- मयन _ नामक यज्ञ का वणन हे । उस में दोता को अधेराजञ के पैछि प्रछाद्ा होने फे पहल पहले, प्राय ९००० मनन्‍त्रां फे आशिवन- शास्त्र का पाठ करना पड़ता है। होता उस का पारायण करने के पहले कुछ घी भी पी छेघे फर्योकि जैसे लोक मे तेल या घी छूगाने से गाड़ी ठीक चलती हैं, चेस्े उसका पाठ भी ठीक चलता दे । सद्दी नदी, यादिं उस्र खूक्त फो पढ़ते पढ़ते सूर्योदय न हो जाय, तो ओर करे सरुक्तों का पाठ किया जाय, अथवा सारे ऋग्वेद फा भा पाठ फर डाला जाय। तोमी सूये न उगें तो रंग बिरंगे प्रछु का यज्ञ किया जाय, और फईे धार सुथे न उदय डहुमात्तों ( सेत्तिरीयसहिता ७।५ ॥२। १-२ ) देवताओं ने उस के छिये प्राय- दरिचच किए । | अन्य श्ासफो छे नीचे भारत चासियां की पराधीनता राजिका अधेरात्र बीत चुका है, ओर अब, फांग्रेस औौर उसका पउयय, रसुय्यादय के पहले के सूक्त,घी, ओर याग के समान हैं।( २) एक बेर गोंएं यज्ञ करने येठों । इस्त शच्छा से कि हमारे सींग ओर ख़ुर उग आर्बे | दृश महीने उनका यज्ञ रहा । कुछ के सींग निफल झआए ओर वे सफल फाम हो कर उठ खड़ी हुई। बाकी अध्यद्धा से दो महीने और बेटी रही, ओर उन्हें ऊजे ( चल ) दो गया, किन्तु सींग न निकले * अस्तु, दोनों तरह फी गाए ही स्‍स्थ की प्यारी, और सुन्दर हो (१ ) ये रस्ते से चलते हैं रस्तेही से म्यपने मन चांद को पाएगे, यहीं सफल यर्ष है (२) भिरुक्त ९६२, २। होग का एतरेय ब्राह्मण ४, ७१॥ माशलायन ६,५ ईद । झसापस्तम्न १२४, १-२ । २०४ समालो चक | गद | गोभसक्त नि:शासस्‍्ख सारत चासतो अदा से, वा अश्चद्धा से दयासय सरकार स्व योहीं सींग आर बल पाकर सुन्दर होंगे (१) «५ अऑग्वेद में एक मरडूकसूक्त छू | उसके जप करने से अनाच- छि हट जाया करती हे । वासेष्ठ एफ यार च्वाप्टि के लिए इन्द्र' ज्छा स्तव कर रहे थे, कि मण्डू्को ने उनका अलन्लुमोदन किया | चासछ प्रसलनही कर उनप्कीडी स्तुतिकरने लगें ( २) योरापीय चेदाविव तो कहते दें कि ब्राह्मणों के यज्ञ यागा दिककी देसी उल़ानेंकों यद्द स्क्त बना हें, प्ठिन्तु सुक्त इतना छु- न्दर हें, ओर फांसस फी दकच्या को ऐसा जताता दे क्लि हम उस्प का अलुचाद किये बिना अगाड़ी नहीं बढ़ सकते ( ३ )-- ८ चा्षिक ब्रत करने चाले ब्रा- हाणा की तरद्द वरस भर तक स्तोप हुए, असथात्‌ मेघ वरसने फे लिये तपस्या फरते हुए म- राह्ूक, मेंघ को प्रसन्न करनेचा- ली वाली बोलते हैं १ “४ ज़ब सूखी खाल फी सरद्द सूखे हुए इन मेंडर्को पर, ता- लाय में सोए सोए, दिव्य जरू >रिता दे तब ( इृष्टि होने पर ) बच्चेचाली गाणों फी तरह इनका वड़ा शब्द उठता ही है र्‌ “ चाहते हुए, प्यासे इन मेंड- को पर, वरसख-त आने से, जब संघ घरसता है, तब अमखखल' * अखखल ' फरके एक मेडक दूसरे झाव्द करते हुए मेडक के पास, वाप के पास वरदे की तरह आा जाता है । “जब पानी के मोफके पर दो मेंडक प्रसन्न हुए, तो एक दूसरे से मिलता हें। पानी से छिडका हुआ, उछलता उछलता पृश्चि रंग फा मेंडक दारित मेंडक फे साथ दोली मिलाकर शब्द फर- तताहें ड ४ हैं सणड्ुको आप में से एक दुसरे की बाणी का, अध्यापक फा वाणों फो वियार्थी की तरह, अनुवाद फरता हे] जब सुवक्ता आप लोग जल पर उछलते हुए वबोलत हू तब आप फा सारा यम अमल मय स िटिल मत धि करन मर मय तल. हम ला डिक मल मम मल अल अब कु ( २ ) ऐतरेय चाह्रण १५, १७०, तेतिरीय संहिता ७, ५, १-२, ९६“- ! (२ ) निरुक्त ९, ६ ( ३ ) ऋग्वेद्साहता मण्डल ७ स्तक्त शण०्३ । जू इाहर-रीसकीजीलकान समालो चक ।.. शरीर (जा गर्मियों में सूख गया था ) छृए पु" मालूम देता है. ५ ४ एफ की बोली बेल फी सी, तो एक की वाली बकरे की सा ! घुक पृष्णि रंग फा तथा एफ हरे संग का] भिन्न मिनह्न रूप वाले धोने पर भो एक नाम रखते हुप कई जगह योलते हुए ये उठ स्कड़े होते हें द्‌ “४ आतिराज सोमयाग में जैसे प्राह्मण पारा पारी से स्तोत्र पाठ फरते हैं, चेले अब तुम भरे हुए तालाब के चोतरफ बैठ कर रात को बोलते हुए, बरसाती दिनों में, बतेमान दोते हो हि “ये सणयड्कसोमयाजी ब्राद्मणों को तरद साकलियाना स्तोन्न करत छुए, शाव्यद फरते हैं। घर्म नामक प्रचगो याग ( होम ) फो फरने घाले पस्तीजते हुए बादिकों की त्तरह, गर्मियों केस छुप्ण, छिपे छुए कई मयणडुक अब सी प्रकट नहीं होते ८ ८ यही नेता ( लीडर ) सराड्डक देचताओं के चनापए ऋतुक्तम को रखते दे, अतपएव चारह मद्दीने के ऋतुओं फो नापते हे, नहीं बियाड़ते । साल चीतने पर चसात खाने से गर्मियों फे ०८ झलसे हुए (अपने बिलोसे ) छुट्टी पाते हें प, “मो की सी आवाज घाला मेडक हमें धन दे ! बकरे के से दाव्द घाला हमें धन दे ! पृष्णि रंग का हमें घन दे ! धरा मेंडक हमें घन दे ! जब इछज्ञारों मऔौष- थियां पंदा होती दें, चा हजारों यज्ञ होते हैं, उन दिनों खकड़ों गावे हमें देते हुए मेंडक अपनी ओर हमारी जाय बढ़ावें ! ” १० फर छघातादव्दियों के अज्ञान ओर अत्याचार्रों की गर्मी से झु- लरते द॒ए ज्वटिशय राज्य फी ब्वाप्टि से अपनी खूखी खाल को पूर्ण फरके वर्ष सर सो रहने पर भी धदजारों फान्फरेन्सों की ऋगतु में उस मेघ का स्तोत्र पाठ करत हैँ जिसने रंग विरंगे भिन्न भिन्न, आवाजुोों वाले उन को एक नाम दियण दे । चाहते हुए, प्यास्ते इन मेयडर्कों फा अखपल दाव्द, जो वस्िषप्ठ ( द्वम ) का अनुमों- दन करता है, पजन्य स्तुति ही है। देवताआ फे वनाए ऋतु क्रम को येही रखते हदें फक़्याकि लोगों को बड़े दिन फी छुट्टी भर नए वर्ष का मआरम्भ इन्हीं फे हारा जान पड़ते द । इनमे स्तर २०५ सम्रालोचक | भ्य्स्च्स्य्यय्त्स्--झह".::--::._ २ _ेे_ह.ेेन न फई अब भा प्रकट नहीं होते यही नहीं, नवम मन्त्र भाष्य में सायणाचाये लिखते दें कि पजे- न्‍य की स्तुति कर के येही इष्ठि के देतु होते हैं |! तथास्तु । जैसे मेडकों की फटी खाल पा सम्ची होना संघदही फी कृपा है वेसे फांग्रेंस सी दयामय सरकार को परम दया का ह- छान्‍त दे । तींखरी मद्भास फां- झेस् की स्वागत-फारिणाी खसखभा- के प्रेसीडेशट राजनेतिक-कुछ तिरकूफ सर थी माधवरावचव ने ठाकद्दी कहा था कि कांग्रेस घटिश शासन का शुखगान हे। उघलाकु ओर चड्डेजखांसे कोन अपने अधिकार मांग हझ्वफता हे जिसे अपने कन्चधों पर सिर सारी न हो ?१ तैसूर और नलादि झछाह से अपने अधिछ्कार मांगने ध्ता फिसकों हिम्मत दोती ? चाहे फांश्रेसवाले सरकार का शुणालुवाद करके प्रतिक्षण पिछष्ट- पेषण न करें, तथापि उनका अत्येक्त शब्द, ओर प्रत्येंक चेष्ठा, सरकार के महत्व का सूचक छहे। यदि सुस्तलमानों समय का कोई भारतवासा अंच्ेजी समझने की शक्ति पाकर रुवगे से उत्तर आवे, जोर का््रेल फो देखे तो उसके मनन्‍रमें फयाभाव होंगे ? यह फच सम्भव दे कि इतनो दूर दूर फे आदमी, एक चासना से, एक मनसे यों इकटद्ठे धो मोर अपने शासकों का लिद्गवान्वेषण फरें ? और उनकी जीस न काटी जाय और खाल कुर्ता सत्र न हुचवार जाय £ फोन इस वात फो कपना फर सकता था कि इतने बड़े सहाद्वीप के अधिवासी, मिन्न- धर्मी, सिन्नाचारी, भिन्नसाषी या मिलकर ८ूक विदेशी सापषा में अपने सस्मिलितससावयों को प्रकाश फरमगे ? यह जादू किसने किया, यों मुदोकी किसने जिलाया! यह उच्च मद्दात्मा जातिका काम हैँ जिसने असफक्य और उजाड़ देशों फा सक्ष्य भौर पूरित वनाया है, जिसने करोड़ो दासों प्वी वेड़ियां कायी है व्गर जो राष्ट्रों की माता कदलाने का पात्र हैं। साथदी यह भी कोईन कहे पी फांग्रेंस राजावैेंद्रोद करता है, सौर असनन्‍्तोप फेलाती दे। अग्नेजी शिश्षाने वकीकू,अध्या पर्क डाक्टर, नौकर प्रभ्वुनि कई ऐसे मनुष्य उत्पन्न किए हे जिन का * जीवन इटिशराज्य के होनेही में चेक, श्- न | हूँ ।यदि, इंद्र न कर, पुराना समालोचक [ २०७ फाल लोट आये तो ये सब॑ 2फे सेर फो भी न पूछे जांय । सर- फार का राज्य शस्मचल्ू से अब स्थित नहीं हे, उसे प्रजा के प्रेम फी चजञ्नसिाचि पर टिक्रनना चाहिणप्ग, भर इसी कारण, एड्रलों इण्डि- यन - फर्मचारियों फो, जो फ्रिसी को भी उत्तर-दाता न होने के कारण जउद्दण्ड हो जाते हैँ,शासन में लाना ओर देशबा- सिर्यो_ को छुछ॑ कुछ- आधिफार देते जाना--पुराने चाईसराय उचित मान चुके हे, ओर रूंवगे घालिनी मंहाराणी फा घोषणा- पत्र स्वीकार कर चुका है । बिदेशीय राजा को देशीय बाते जतलाना मौंर इन दो सिद्धान्तों को पूरा करना कि “ (१) किसी जातिका फरभी ऐस्सा प्वासन न छमा ओर न हागा 'जसस 'परम सन्‍तोष' प्तेंसान हो ओर कोई नया आंजधिफार न पाना रहा हो ओर नई इच्छाएं न पूरी फरनी हाँ ओर (२) झस्ोई सरकार, था शांसक च्े ऐसे पूृणे, निदो- प ओर स्ज्ञ नहीं हो सकते जिन्हें कुछ सी न कहना पड़े ” शाजविद्वाह नह! है, राजभक्ति है। चास्तच में देखा जाय तो कांग्रेस का समा राजभक्त फाई ७०३०६.-०.-९०-०००-- गन लग न+-नीनने तन न_.नी+--वनननी >> ननीयनी न +--+२ ०२०२5 ++>लिडीतनीस- की: -+न्ततबजज>5 >>... नहीं होगा । पुत्रादिच्छेत पराभव क॑ अनुसार कांग्रल वालो सत सरफार फो प्रसन्न हीना चाहि< प., रुए्ट नहों। अब कांग्रेस अपने जीवन के उन्लोस वर्ष पूरे कर चुकी हे आर बालिंग हो चुकी हैं । अत एक, उसके पुरान इतिद्यास पर स्िंदहावज्ोकेित करके यह देखना अनुचित न होंगा कि कौन कोन भद्नक्तियां इसकी बढ़ती की ओर जाता हैं, और 'फौन फोन इसे रोक रही हैं । ह लाट रिपन के फाल फे पवें पूषे भारंतघासियों के अंग्रेज अफसर आदशोे थे। कई उत्सा+ दा नवयुवक उन के आचार विचार का नकल फरने में, उन के साथ खान पांन में, अपना सीोभाग्य समझते थे और उन्हें आंदशो मनुष्य मान फर पूजते थे। ययावि लिटन के प्रेस एक्ट भे उन्हें अपने अधिकारों से चर्चित होने की सूचना दें दी थी, तथापि उनका वद्द भाक्ति भाव नहीं हटा था। इल्वटे धिल्न फे विरोध ने उनफी आर्ख खोल दीं, आर उन्हें अपने अधिकार छोर उनको उपेप्ताका एरगा ध्यान २०८ ८ ०2224: ट-क- ७-०५ एन्यापरकन्य: पक दामयमयत पक एम यपकप्कष्ानकापशुम्फनशम तदकम कन्या तप फतम्कन तक रत दिला दिया। उस के पोौछे श्प्प्न्छड में फलफत्ते की अन्तजा- तिक पभदशिनी में दूर दूर के भारत घवासी मिले । थधियोसोफेकल सोसाइटी फे वार्षिक अधिवेशनों में भी मिलते रहने स्तर उन र्मे परस्पर मिलने की इच्छा हो गई थी। छलाट रिपन फो बिंदाई का एड़ेस देन के लिये दूर दूर फे भारतवासी उसे अपने नेच्ास्उत पृज्य प्रभु को घन्‍यवाद देते हुए बम्बई में मिले। वहीं भारतवषे के “ छुद्ध ” मनुष्य दादा भाई नोराजी ने देश दश फे प्रतिनिधियों के वार्षिक मि- लन का प्रस्ताव किया । वम्बई तो भभी इतना व्यय कर चुकी थी,मद्गास मे वा पूना में सभा हों, यही धेचार होंता द्ोंता रद गया । कांग्रेस क पिता हम साहब ने यह बिचारा कि समा- जर्संशोधन और शिक्षा बिचार के लिए भार त-वासी प्राते वर्ष प्रधान प्रधान नगरों में मिला करें और वहाँ के शासक सभा- पति बनाए जाया करे! जब यह प्रस्ताव हचम साहब ने लाट डुफारैन से शिमले में कहा तो उस ने इस का विरोध कर के और ही सलाह दी | उन ने कहा समालोचक | कि इस्सत द्श में (279//03/6९८०१४ सरकार का विराधो दल नहीं है, और सम्बाद-पत्र इस व्याम का कर नहीं सकते अत- एव तुम राज नातिक सभा करा। मेरी इस बात से पूणे सह्दा- नुभूति द्दे किन्तु जब तक में भारत चष में हूं तव तक यह बात न खोलना | हृदयम साहब ते इस यात वा वचन दिया ओर प्रान्त प्रान्त के नेताओं रेट पास भ्रस्ताव फिराया जाकर सन्‌ श्पप्८ में पूना में कांग्रेस करना बिचारा गया। पूना/ में हँजा होने पर भी मान्यवर ते- लड़, मेहता और दाद्ाभाई नोरोजी को कृपा सर वबम्बई में प्रथम इरिडियन नेशनल फांग्रस नामक जातीय यज्ञ का, उमेश- चन्द्र तनर्जी ( डबल्यू सी. चन- जी ) के सभापतित्व में, १८८५ के बड़े दिनों फी छार्ट्चियों में सुमुखदइचेकदन्तस्थ हो गया। डफरिन साहव का विचार सत्य था । फांग्रेस के नेताओं ने सात बषे तक उच्छृड्डाल समाज सुधारफों फे प्रस्तावा से पृथक रहने फा मकगड़ा किया । स्लो रश्यक्क कानफरवन्स अब भी फांग्रेंस से प्रथक है, किन्तु उस हों समालोचक । २०९ ने कंग्रेस के दलमं में बखेड़े, विवाद ओर फूट डाल दा है। समाज छुघार राष्ट्रीय महास- भा द्वारा हो नहां सकता। मान लोजिए कि कांग्रेंस के मसुसरू समान कूसतान आर झुधारक डलीगर प्रस्ताव पास फर दें फि ८ ज्ञाति भेद उच्नति का बिघा- तक दे” तो क्‍या फल दो? महाराष्ट्र और मदरास के हिन्दू पड़दा उठादेन का पस्ताव अ- थिफ सम्मते से पास फर दें तो मुसलमान भाई कया कर १ दुसरे, मसाज नीति आर हें, राज़ नाति ओर। हमारी चिघ- चार्मों फा व्याद नह। हाता, शृसस से कया हम शस्व उठान के योग्य नहीं है ? हमारी कुमारेयों को छिप्ला नहीं मिलतों, इस से कया हम श्ास्तन करने याग्य नहीं हे? हमारे कृस्तान भाई हम से व्याद शादी नदी कर सस्‍्- कठतें, इस से क्‍या हम इस्तमरारों बन्दोवस्त के पाञ नहीं रहे ? समाज छझुधारकों के दल में भी फूट है। वे फहते तो हैं, किन्सु स्व॒यय॑ संशोधन करफे चलने चाले छा० भाण्डर फर के परस्े उन में विरले मिलते दें । पूना कांग्रेस में सर्वेसाधारण के बविशराध ने सोश्यल कान्फरेंन्स को कांग्रेस पे स्थान में न हाने दिया ओर फलकफत्ता सोंद्यछ फान्फ- नस के प्रेलीडेन्ट ने भी उस के प्रस्तावों का अज्नुमोदन नहीं किया | | अवश्यही८ इस फान्फ- रन्स सर एक बड़ा सारी लाभ यदद हें, कि जिन सरकारी नौकरों को व्घांग्रेस से स्नेह हे वे भी इस में आने के मिस से कांग्रेस व्को परामश आदि से सद्दायता दे सकते दे । बम्बई के दथम आधिेवेशन में मतिनिधि चुने नहीं गए थे, आर ये सासे अधिक भी न थे । इन मापष्ठसेय प्रतिनिधियों से फक्ले- से आशा थी के “ जानीय महा- सामातिे ” की जड़ जम जायगी ? दूसरे चथे करूकत्ते में ७३६ प्र- तिनिधि जुटे थे, राजा डाक्टर राजन्द्रलाल मित्र अफ्यर्थना फ- मेंटी के सभापाति और त्यागशी- ल, फर्मेपटु, विलायत में भारत फे प्रतिनिधि, दादाभाई नोरोजी सभापातें थे। डाक्टर मित्र न कहा था कि सम्पूणों भारत चषे फे प्रतिनिधि यों मिल सकेंगे यह उनका एक रुवप्न था, जे स् फे सत्य हाने को उन्हें आशा न थी । मद्रास में तासरी ज्ञातीय महा- 73८58] समालोचक समिति की बेठक डुई थी, जिस में राजनातिक मुकुट सर टाझोर माधवराव स्वागतकारी थे, और बस्वई के सुसलमानों के नेता बदरुद्दीन तेयवजी सभापति । पतिनिधिसंख्या ६०७ थी | उन दिनों यूरेशियन, एद्धोंदाग्रिडयन और देदयी कृसतानों की पूण सत दानुभूति थी, और ह्ाइट, गेझ्, नाटन प्रभ्वाति ने कांग्रेस की पूरी सहायता की थी । सर टो, मा- घव राव ने फहा था फिे कांग्रेस अंग्रेजी राज्य फा सच्चे प्रधान गोरव दे । इन दोनो कांग्रेस ने सिद्ध किया कि कांगेल वकी- लॉका तितिम्मा नहीं हे, भारत वे फे सुशिक्षित मात्रका प्रयत्न है। विज्ञ-गोराड्र-पूजित-चरण डाक्टर मित्न, ओर चार प्रधान देशी राज्यों के बनाने वाले सर- 3 माधवचराव क्या वह चकौल थोडिहीं थे जिन्हे इक्के का किरा- या नहीं मिलता और जो चक- बाद में नामवरी पाना चाहते है उस कांग्रेस में हिनंदी भाषा फे इतने धतिनिवि उपस्थित थे -- राजा रामपालर्सिह ओर पण्डित मालवीय ( हिन्दोरुथान ) पे० प्र- तापनारायणा मिश्र ( ब्राह्मण ) देवकफीनन्दन जिपाटी (प्रयाग ख- जा"... "चाय... क्‍गाय.....अममामा. >>... अन. कमा....औ' धगा.....आ.गग...आ०.. "माहाय..यआा+- गा. ही. माय, कम 4 माचारः ) रामकृष्ण वर्मा ( भार- तजीवबन ) पं० गोपीनाथ ( मित्र वबिलास ) पं० बालऊष्णभसझ (दि- नदी प्रदीप )। उस्त ससय राज पुरुर्षों को फांश्रेस से चिढ नहीं थी ।मद्राज के गवनेर छाट फरनें- मारा में सब प्रतिनिधियों को एक्ू गाडनपार्टों दी थी। चौथी काँग्रेस प्रयाग में हुईं । उस सें बड़े चडे विरोध उठ खड़े हुए । लाडे डफरिन की सहालुभ[ति एक सम्पादक की मूल से हट गई थी और उनन सेन्ट एरडूँज डिनर में कांग्रेस रत्तोओं को ॥(४८70820फ;४6. श०४7०7४४9४ च्छढ दिया। बकवादी वड्ढालियों ने ५ घाह चाह औऑर करतलध्वानि के छोस से अपने व्याख्यानों में संयम वा आतिक्रम फर के राजपुरुषों का विरोध पेदा कर लिया | ऐसी भूलें कांग्रेस से कई £ हैं| उन दिनों प्रधान फांशे- स-विरोधी सर आकलेण्ड फालचिन व्मा पश्चिमोत्तर प्रदेश पर राज्य था । उनने 2८77067- 62९7 १7४ बाएं 0 3767८ नामक सम्ध 'लिख कर सिनगा मद्दा- राज के नाम से छपवाया ।मि एर नाटन ओर हम ने इस का खूब मुदते।ड़ उत्तर दिया समालोचक । २११ उस्त समय कई “८ ज्ञों हुकुस ” ख़ुशामदियों ने काँग्रेल का घबि- रोॉध कर दिया। अल्‍ीगढ' कालज के संस्थापक सर सैयद अददमद्‌ ने एन्‍्टी-कांग्रेंस फी दोहाई मचाई, ओर भाई भाई फो छ- डाया | काँग्रेस के लिए रुथान -नहीं मिलता था, और परिडत अयोध्यानाथ अपना मकान खुदचाने को तेयार थे, कि रुव- गीय दरभड़ा नरेश ने एक फोटठा मोल के कर फांशग्र्स को अपंण क्रर दी | यादि उस समय पंडित अर्योच्यानाथ न होते तो कांग्रेस फा साम निशान न रहता | सर सैयद आर ख़ुशामीदियों की हाक्ति, सरकार का 'फोप, और मुसकमानों का विरोध, उस वीर धाह्मण के लेज के आगे न ठद्दर स्का । जैसे उत्साह से चह चौथी फ्ांग्रेस हुई थीं, बेसा उत्साह फिर कभी न देखा गया | मुसलूमानों में दा डुकड़े हों गए छात्टि कांग्रेस, और कांग्रेस चाले। आयलेगड निवासी जाज यूल साइहव सभापाते थे ओर उनका भापण झसुर्दो की भी नें फड़- फाने वाला था। पांचवी प्ाांग्रेस सन्‌ १८०४ में थम्बई में हुई। इस में अज््यवनाः आन. नयमी 2७... क.प-आत मनन पक... पान जमा समापति फिस्रेजशाह मेहता ओर सभापाति सर विलिमय घेडरवर्न थे। एसे अक्लानिम भारत स॒दहदत के समापत्तिित्व में वेसही अक्तत्रिम मित्र सर चालेस ब्रा- डला कांग्रेस में आए। प्रातिनिधि १८८७ आए थे। न्यायकारी फेन्सिला के विचार में दो मुस- रूमान मम्बरों ने यह आओंधा प्रस्ताव किया कि जितने हिन्द चुने जाय, उतने दी मुसलमान ! पीछे विलायत मे झआान्दोऊरन करन क लिये चन्दा डुआ जिस में मांगन से दुना रुपया अच्य। | उसी समय सरूवार्मी आज्ाराम सागर ने अपना फम्बल उतार कर चन्दे मे दिया था | प्राडला साहब को पड्ेस दिया गया। कौन्सलों के सुधार का जो विन वे पेश करने वाले थे वह किसी ओरने ओर तरह पास करा लिया। छठी कांग्रेस फंलफत्ते में ६७७ घाति निर्वियों के साथ, मसनोमोहन घोष फे स्वागत से फकिरोजशाह मेहता के आधिपानि- त्व में हुई । उन दिले स्हृयास्त सम्माते फे पचड़े ने दाज्ञुओो फा आशा दविल्लाई थीं क दा पार्ट हो फर कफकापम्रम दहृश जायमां, किन्तु इंश्वर ने इस सासाजक तुफान की दुरश कर दिया | एफ हिन्दी पत्र ने वृथा ही “ जनिद्ञा- लीन काकरस * का बिरोंघ आरम्स फिया, जों उसने अच छोड़ दिया दे! कांग्रेस का सात- वां अधिवेशन नागपुर में हुआ | पतिनियथे ८2१२, अफ््यर्थक नारा- यणरूबामी नायडू, सभापाति भी यक्त पा० आनन्द चाहे थे | सुग्रह्दीतनामा पारेंडत अयोध्या नाथ ने आगाभिवषे के लिए फांग्रेस प्रयाग सें छुलाई, किन्तु फांग्रेस के बिराद, परिश्रम के मारे उस फमे-वीर का देह पात हो गया | यदि किसी ने कांभ्रेंस को अपने प्राण दिए दे तो पेडित अयोध्या-नाथ न। ६२५ प्रांते निधि थे, परिडत विश्वम्भर नाथ अभफ््यर्थेक, और डचल्यू सा चनर्जी सभापाति । नर्वी काँग्रेस १८९३ में लाहौर में हुईद । ८६१ प्रति निधि, सिर सदारों फे नेता दयाल सिंह अफ्यधफ शार दादाभाई नारो जा समापति थे ।१ ८९४ में मठा- जमे ११६३ प्रार्नानाथ, गान्निया सलायडू अफ्यर्थनासामितिक्े स्- भापति और सन्ठफेंड घेच सतमा- पाते थें। दुसरे वबष पूता में ६७८४ प्रातिनिधि, राय वहादहुर समालोचक | भिड़े अश्ष्यथना समिति के सभापाति थे" मर सभापीत वाग्मिधर सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने सात घणरे तक व्याख्यान दिया | १८९६ में कलकत्ते में महासभा भरी । प्रात्तेनेधि ७८४ सभापति वम्बई के रहमत उह्ला सयानी ओर स्वागत सभापति हाइफादे प्रधान न्‍्यायपात सर रमंशचन्द्र मित्र ओर डाक्टर रासविहारी घोष | १८९७ में बराड़ की राज- घानी अमराचवती में गणेंदा अी कृष्ण खापडे की अष्यथना, ओर अवस्था में सब से छोटे प्रोसिडेन्ट शडुर नेयर के सभा+ पातित्व में ६९०२ एाति निधि सम" घवेत हुए । अगले वे फिर मद्राज में मलून हुआ, पाते निच्ि ६१५७, अप््यधफ सखुब्याराच पान्तकू, स्भापानि श्रायक्त आनन्द माहन चबरु थय। श्टएए से छलूखनऊ में ७३० परतिनिधि यो के सभापति अथशाःस्प्राधित रमेश चन्द्र दस मदोदय घिछा- | यत से भाप ध,उनकोी अभश्यथना । घृद्ध भी यत चेंशीलातल स्िंट न भ्वा धायातचू न मद ४ फर म्मम्बन्धी चिपरयों पर ऐसी सारगभ खचक्ू ना दो थी कि धा। | यमरराय से उन्दें मल चबुलाया। ०७-००फतसस 93 पमनमनयानमि- का स्‍अऑथा व जा जी आज भी भश समाछोचक | श्श्र “का व की आल आल आगामि वषे लाहोर भें अधिवे- झान हुआ जिस्न में ओऔमान फाली पएसतन्न राय की अफ््यर्थता में वम्बई फे श्री यक्त चन्द्रावर कर सभापति थे | जिस, सप्ताह में ये कांग्रेस के सभापते खने गए उसी सप्ताह बम्बई दाइकोट के न्‍्यायपति बनाए गए । १९०१ में कलकत्ते में अधिवेशन डुआ जिसमें दिनतया सेंदुलजी चाचा सभापति थे, 'और नाटोर के महाराज अध्ष्य श्वेक | १०.०२ फी फांग्रेस अहमदा खाद में हुद, उसमे अम्बालाल स्ाकरलाल देसाई की अप्ष्य थेना में वाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सभापति बनेथें ओर इस्त साल मद्रास में बाबू छाल्मोहन घोष समापति की अफ्ष्यथना नवाब सैयद सुहम्मद ने की थी। इस देश राजनेतिक आन्दो छलन नह वात हैं । सारे देशभर में सुघ जाताीयता फो जगाने में आांग्रस सफल मनोरथ हुई हे। उस्फी प्राथेना से व्यचस्थापक सभाओं का सुधार हुआ, जूरी विचार प्रदत्त हुआ, ओर आम- दनी टैक्‍स और नमक टेक्स घटाया गया। यह कुछ कम गौरव की वात नद्दी है। विचार और शासन विसागों का पृथक होना, सिविल सर्विस परीक्षय का इस देश में होना, सारे भसारतचर्ष में चिरस्थायी बन्दों बस्त होना, से निक शिक्षा का चार यह भी कां गेंस की स्‍भ्राथेनाओं मे से कुछ हे । कांग्रेस का झ्टियां भी कम नहीं दं। यदि इसके नेता सं- यम से रहते तो यह सरकार को चहध्षु छल न होती। न इसके अपच्यय की इतना घूम मचती । याद्‌ उसके नेता कुछ होशियारी से चले तो देशवासी सभी सेग- रेज, यूरशियन ओर देक्षीकृस्ता- न इनके सहायक दो जांय । झु- सलमानों का विरोध अब हटददी सा गया है, फ्योंकि एन्टॉकांश्रस फेचल शिक्षासामेतिद्दा रदहगई है। मुसलमानों में शिक्षा फम दानाही इसका फारण हे, किन्तु नेताओं की उच्छूड्डग्लता ने चारि छर हामिदअद्था जेस्प कांग्रस प- घस्तपातियों को भी अलू्ग कर दि- या । झसल मान लोग यदि समझें कि हिन्दुओं की बह्ुतायत स॑॑ नगण्य होकर हमारा क्षाते हीगी तो यद्द भुल है। निर्वाचन प्र- णालल्‍्ी मिल्तेंह्री चद्भइश आर मदठास के हिन्दुर्ओो ने मुसलमा- नो फोही पभ्रातानोथे चुना था | ग्२४ समालो चक | न्च्स्स्स्य्य्य्च्य्य्स्स्स्ल्््््लल्ल॥्टल्स्स्स्स्स्ल्ड्ल्‍ॉअटस्‍क्‍<-लड्ंटअट_सःि:सस खिल शिक्षित हिन्दुओं भें बह साव न- दा है। पाला ससलमानों से भी थाड़े है, उन्‍हें यद भी वहकाया गया कि वे भांरतवासी नहीं दे, तथापि वे कांग्रेस के प्राण हैं । यह देखकर बड़ा दुःख होता है के झसलम।ारन जमीन्दार का अ- पनी हिन्दूभजा से प्रेम हे, हिन्दू राजा सुसलमान प्रजा को पुत्रच सच्‌ मानते हू तो मसुसलमान श्रेज्धु पर्ट ओर हिन्दुं श्रेज्लुएट लड़ रहे हैँ.। जैसस्‍्तु, सर सेयद अपने पो- से पड़पाते तक फी पेन्शन करा गए । बविलायत्त - सें सरचालस्स डिल्‍्फी, डिगयी, हुचम, वेंडरचने प्र॑श्नाते कांग्रेस के खुदछ्दत है। फकन ओर घेनलिका स्वगेवास दो चुका। वहां कांग्रेल कमे- डी आन्दोलन करतो हे और « इशिडया ” नामक साप्ताह्ठेंऊ पत्र निकालती दे । यह अपव्यय है, किसी विज्ञायत के प्रधान द्वेनिक पत्र मे एक फालम पालेने से प्रभाव भी ज्यादा होगा, व्यय भी कम । कांझेस का क़ुप्रबन्ध भी कुछ कम नहां है । चष भर तक स्तो फर चारदी दिन मे देश भर का फैलला किया जाता हैं| जब कॉाँग्रेंल अपनी जान में स्वतन्च्र सरकार को प्रजामत दिखाने का दाधा करती है तो उस म छठाडरा का 3 छूड्डलतो क्‍यों ? बे तो प्रजातन्त्रका दावां ऋकर। चासर्तव से प्रतिनाधे स- भाओं का भीर पार्मेन्टों का काम बक बक करना ही है। असक्ष्य ज़मानों में एक दूसरे सर राय न मिल सकने पर मलुष्य पक दुसरे को तल्‍रूवार से फारट कर देश को लाल रंगते थं, अब चह फटाई फा काम जोसे से दी हो जाता है। येभी एक प्रकार की /४०४८१०५ ही दे, जहाँ “ झन्‍य ' * कुछ नहीं ' इस फल को उत्पन्न करने के लिए जबानी जमा खर्च हों कर फाट पीट, अनुमोदन ओर खण्डन, दोतें हे । अच्छी वात हें। आगे शन्‍्य उत्पन्न करने को कंला देशों में होती थी, अब पथणडाल हो में, तलवार और कब॒च के चदले जीभ और पघ्लेटफाम से, फाम हो चकता हैं ओर शासक मज़े में झासन करत हैं, फिसान: बेरो क खली करते है। अधकचर, ठग और धकेलने वाले मनुष्यो को चबधाई हे,-+जि्ले कुछ भा गुस्सा, सुरुताखी, हठ, चालाकी स्तर गला फाड़ना आता हो, वही नेता चन घंठे । क्त लवचारों से सर्मालीचक । २१५ दामों फो हटा दें, फिम्तु आद- मिर्योफेगर्ला की फोन हटा सकता है ? आकाश के नीचे खड़े होने फो जगह चहुत है, कुर्सी सूढा नहीं तो आओंघा पीपा ही सही, पत्थर ही सहो, सुनने चघाले भी फम न होंगे। मद्दापुरुष नेताओं के लिए नियम बनाने की जरू- रत नदी; उन का एक तन्‍त्र भो धजातन्न्र से अच्छा होता हे। हयम साहब अपनी इच्छा बला- त्कार से चलाये, आओरों को फटकार दें, तोभी ठीक है, किन्तु उन के यहाँ न होने पर कांग्रेस बिना सूंड के हाथी की तरह न चले । यदि फांग्रेंल को काम करने बारे मिले हैं तो पञ्ञाबी मिले हैं। उन ने ही शिदप प्रदशिनी आरम्म फी, जिस में नाटोराधीश, गायकबाड़' ओर माइसोर के राज़ा, ऋम से प्रधान वन चरक्क हैं। उन के प्रस्ताव से एक स्टेरिडक फाँगे- स कमेंटा बनी थीं, जो सभा- पाति चुनने भभ्ठात्ति अभबन्ध' के कार्मो फो सम्द्ालती थी | १९५०० पी लाहोंर कांग्रेस के लिए उन ने विष्णुनारायण घर कों चुना एफिन्‍्तु वे अस्वरुथ थे, अतएव प्बन्द्राचऋरे का नामकरण छुआ ओर किसी ने आपत्ति न उठाई। दूसरे वषे कमेटी न बाचा का चना और देश सर ने रुवीकार किया | वातोनी बीरों को यह घात भाई नहीं । कमेटी तोड़ी गई । अहमदाबाद ओर भमद्राज को फांग्रसो में भेसीडेयट चुनने में क्‍या क्या खटराग हुए हैं, उन्द्दे सब जानते हे । कालीचरण बनर्जी का नाम तीन दफ़े लिया गया। फिन्तु झुरेन्द्र बाबू मह- मदाबाद भें दबोर फरने गए। इधर भी स्टेड, फाटन, प्रभ्नति कई लोगों के नाम लिए गए, किन्तु किसों फे स्वॉकार न फर ने पर राजनेतिक योगी छाल मोहन धाष अंधरे में से निकाले गए। पञ्ञाव फे लोग इसी से कांग्रेस से पृथक हो गए थे । उनका प्रस्ताव यह भी था कि एक दिन भर छिक्षा ओर शिरुप के प्रस्तावों फो दिया जाय॥ अब' उनकी उद्ासीनता हट गई है, किन्तु अवन्ध नहीं इआ | जातीय कान्फरेन्स, वड़े दिन की छुट्टियों में हो कर फांग्रेस में योग देने सर लोगों को रोॉकर्ती हैं। लोग फांगेस्स फो वच्चे खाने चारकी बिल्ली की उपमा देते हे जो प्रादेशिक कान्फरेसो को हि समालोचक । नष्ट करती है । उत्साह मड़ होना हमारे देश का गुण है । अहमदा बाद कांग्रेस तो प्रादादिक फानफ- रेन्स ही साकूम देती थी। पुराने फांग्रेस के बन्धु खुस्त हो गए हूँ । कुछ को फूटने अलग किया छे । कुछ रुवेच्छा से ध॒टे दे | उन को जगपने के लिए स्ेनापति चेडरवने, दादाभाई, डबल्यू. सती चनर्जी ओर छचम ने “शड्डस्ताद' हिन्दुस्तान रिव्यू, में प्रकाशित किया ले। चेडर बने ओर हम को पत्नी का अज्ुवाद समालों प्यक में छपेगा । अब फटी थे- गली को सीने का समय हे. नहीं तों ठपहास दडोगा । कांग्रेस भारत घबास्सी मात्र का सम्पात्ते हे और प्यारी सम्पत्ति हि। जो लोग कांग्रेस प्ो-- अज्ञात में रूदना कहते हैं वे देखें कि हाईफोटे कल न्‍यायपति, व्यवस्थापक स- साओं के मेम्बर, सभी कांग्रेस के पक्षपाती डुप्प है। तथापि फांगेस का पूभाव सर्वेसाधारण पर नहीं पड़ा है । पहले तीन चार वर्षो में जिसे उत्साद्द से अंग्रेजी और देश भाषाओं में गन्थ लिख कर दांटे गए. थे; वह वात अब स्मरेब्यशेष है। कांग्रेस को देशी भाषाओं से घछणा हु, वह उनके व्याख्यानों फो भी नहीों छापती । फाशौोनाथ खजत्नी ने कांग्रेस पर हिन्दी उठे में लिख फर उसे सब प्रिय घनाया था। यदि फांग्रेल फी रिपोर्ट ओर ट्रेक्‍्ट हिन्दी भाषा में बांटे जाय, यांदे कांग्रेंस के नेता शहरों में देश भाषा मे व्याख्यान दें, याद फॉ- गेस में भी रे व्याख्यान भाषा सें हों, ता फांग्रेस का प्रभाव कई गुना वढ़ सकता है | कांग्रंस का स्भापाते होना, सारतवासा। के लिये वड़ा भारी सनन्‍्मान हैं | जच फदे सज्जन उस के पाजन्र वेठें हें तो स्तोने पर सोना चढाने अथांत््‌ एक हो सज्जन को वार चार सभापति करने का क्या लाभ हैं ? अभी यूर।शियन आर देशीय ऊकूरुतानों में से फोद सभापात॑े नहीं हुना गया हदँ। युक्तप्रान्त ओर पञ्ञाव का भी कोई समभा- पति न बना | इन वार्तो से असनन्‍्तोंष हो सकता हे । प्राचीन हिन्दुओंमे ले अबतक आनन्द चाके हीं सभापात बन है। आगामि वम्बई काश्नस म॑ सच्चे हिन्दू जिस ग़ुरुदाल बन: जी को सभापति बनाना चाहिए, या देशी कूस्तानों के छोडर का: ४:६५ ८०० हैं. समालोचक | २१७ ल्‍ीचरन दबनर्जी को, जिससे के दो चार छुने जाकर” न चुने जाने का उनका दु ख मिटे । कांगेस को मिस सरला घोषा ल का जातीय खेला का भरी प्रस्ताव हाथ में लेना चाहिए । परीक्षाओं में नम्बर पाना, चकया द करना, मेज पर कलूम रगड़ना , फूणी आंखे, टूटी कमरें, यही आधिकार पान की निश्ानियां नहीं दे । आस्तीर्न चढाना स्तौ- स्॒रना चाहिए, फयोंफि कालाइसड फे मत में राज दयड हृथौडे का (जो सिर समझाने न से मार्ने उन को तोड़न के लिए ) रूपान्तर है | हथाडा उठा सकने वाल राज दण्ड सी उठा सकते है । जब परमंए्वर ने हमे पेसो दयालरु सरकार दी है तो अचश्य ही अन्त में देंशा वा भला दोन चाला हैं | कछ्वांग्रसकत्ताओंकी पुष्पिता चाणी भी इस बात को नदीं छिपा सकती ि उनके दल मे फूट हैं। मद्राज काँग्रेस में इन्द्र के कोप से जल छ्ावन की वात पढकर न केचल तालाब के चौतरफ चेठे मेंढकों का ४6४ ाएथमा मं थताऋऋूि॑ााभांध>ंणणांआ ४ ८ थामा मिर्च कामिथाछ था आयल0प आता ३ कक पा कु मर यम बी मद बल त शक मल स्मरण होता हे किन्तु कांग्रेस के नाटक मय खिल्‍लोने पर परसेश्वरः की अप्रसन्नता दी जान पड़ती है। फान्स के चविघ्ठ॒व के दिनो में चक्ध चादी फरासीसियों ने कई गज ऊंचा रड्र मझ्न बनाकर उसमें ४ न्याय, राजा, प्रजा, ” की ओर सच्चे होने की भक्ति की कझ्षपथ की थी, उस दिन चछष्टि ने सब मज़ा विगाड़ दिया था (१ ) हां, कांग रस के नेताओं ने यह तो ज्ञाना होगा कि सुखम चाहे वे छूडें किन्तु दु'ख मे वें एक हे, क्‍योंकि उनके कपड़े वाटरघूफ नहीं दे तो उनकी खाल तो चाटरपूफ दे !! अस्तु । काँग्रेस के नेतार्भा को अपना झुप्वन्ध करना चाहिए, क्योंकि इस लेख के ऊपर लिखी श्रुति कहती हे कि रच्तेसे चलने से ही सब कुछ दोता हे । (२) नहीं तो कालोइल के मत में हम भी यह क्हेंगें---(2०थें ९077/०?(र्द ९५, 70077 करा 7द7 20776/८0776 दरें ९079 0ीं 4727 (7०7 027 0६ परमेश्वर तुम्हारे कागजी प्रवन्ध ओर अस्माप्त क्ियार्ओो की परि पारी को नष्ट करे ! (7) 0094 स्स्ण8 मार/जज गा फट |व सारे: उत्टतलप्टा040, 9८ 7, 2000-/ लचक जज, 377 (२) इस लेखंमें, और और पुस्तकों के सिवाय, बदला मा।सेंक पत्र साहित्य के एक ल्ख्की सहायता ली गई है । लाखा फूलाणी का मारा जाना। धझ्र्वशी यादव क्षत्रियों की एक शाखा जाडेजा अथवा जाड़ चा नामसे प्रसिद्ध है। उक्त शाखाके जाम ( राजा ) मोड़ने ईसवी सन की ९ मी शताब्दी में सिन्धसे आकर अपने मापा कच्छ के राजा वाघम चावडे को मार कच्छ देशको अपने अधीन किया। उसका पोचत्र फूल हुआ, जिसका पृत्र छाखा पु न्न्रे फलाणी वड़ाही समृंद्धिगान ऑर उदार राजा था । उसकी ख्याति राजपुताना, गुजरात आदि देशों में अव तक चली आती है इतनाही नहीं", किनत उसका नाम धनाद्यता और उदारताके विषयमें एक साधारण कहावतसा हो गया है। हमारे यहां प्राचीन कालमें इतिहास लिखने की प्रथा न होने के कारण अनेक प्राचीन राज वंशियों आदि के समय तकका भी ठीक पता नही चलता, और उनके इतिहासके लिये भाट छोगोंकी मनमानी घड़ तों पर ही निभर रहना पड़ता है। यही हार छाखा फुछाणी के समय का है। १ फूलाणीरःफूलका पुत्र ( जेसे जाडाणी--जाडा का पुत्र, आदे ) २ माया माणी वगड़ावतां, ( के ) लाख फूलाणी । रहती रहती माणग्यों हरमाविन्नाराणी ॥ १ ॥ लाखा पुतन्न समुद्र का, फूल घर अवतार | पारेचां मार्ती छगे, लाखारे दरवार ॥ २ ॥ पल्लांणी हारे जड़ी, सूरत पद्चाणी । पच्छम हिन्दों पातणशा, लाखों फूलाणा ॥ ३ ॥ समालोचक | २१९ कर्नल टाड छिखते हैं कि--“ कन्नौजके राठोड राजा जयचन्द जी के पौत्र सियाजी के हाथसे छाखा फ्छाणी मारा गयाथा”; और ऐसा ही राजपूताना में प्रसिद्ध है। राम नाथजी रत्नू अपने इत्तिहास राजस्थान' में छिखते हैं कि--. फत्रोजके राठोढ़ राजा जयचन्दजी के पोच्न सेतराम जी के बेटे सियाजी ने द्वारिका की यात्रा के छिये प्रस्थान क्रिया, जहांसे छौटते समय अन्दलवाडा पाटन के सोलक्ली राजा मछराजने इनको सत्कार-पर्वक कुछ दिन अपने यहां रकखा, और सियाजीको अपनी पृत्री ब्याही, जिसके पछटे में सियाजीने सौलक्ियोंके शत्रु किलेकोट के साडेचा राजा छाखा फुलाणी को मार कर उनका पीछा छुडाया ” | इन दोनों ग्रन्थकारों के छिखे अनुसार विक्रम सम्बत्‌ १३०० के आस पास छाखा फुलाणी का पाराजाना मानना पछता हे, क्थोंकि वि ० सम्बत्‌ १२९५० (ई० सन्‌ २१९७ ) में कन्नौज के अन्तिम राठौड़ राजा जयचन्दजी शहाबुद्दीन गोरीसे छडकर झुद्ध में मोरे गये थे, जिनके पोते (कर्नल टाठके अनुसार ), या पदच्पोते ( इतिहास राजस्थान के अनुसार ) सियाजी थे | ३ टॉड राजस्थान जिल्‍द दूसरी, पृष्ठ १४ ( फलकत्तें फी छपी हुई ) ४ इतिहास राजस्थान प्र १३८ ु भू लियारजी का जयचन्द जी के साथ क्‍या सवन्ध था, इस्स का असी तक ठीक निणौोय नहीं हुआ। कनेल टाड़ एक स्थान मे ता जिया जी पक्ो जयचन्द जी का पुत्र (द्यरा ज्ञि १ पृ. ५ ), और दूसरे स्थान में पौत्र दोन, क्‍प्रगट फरते हैं; अर ख्यातों की पुस्तकों में जयचन्द जी के पुत्र चद्‌।ई सेन, जिनके सेतराम, ओर सेतराम के सिया जी द्ोना छिखा है, परन्तु मे पुस्तक भादा का खड़ंतोके आधार पर लिखी गई है, जिन में उक्त राजाआ क जा २०७० समालोचक | खा. मर 22--म करता कक सनम की गगन? पाक “गाया -“ “पक गाक,.#/०-७०ाहा-+ गान गगन करन 49५०० पयाना दीप हुक गन काकानय- जय ऐेतिहासिक भाचीन पुस्तकों आदिकी तरफ़ दृष्टि देते है तो ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनसे यह पाया जाता है. कि उपस्यक्त दोनों ग्रन्यकारों ने इस विषय में जोकुछ लिखा है वह केवल राज- पुताना के भाठों की कल्पित कथाओं पर विज्वास करके लिखडिया है, ऑर उसमें कुछ भी सत्यता नहों है। छारा फुछाणी सियाजी के जन्मसे २०० से भी अधिक वर्ष पूर्व वि० सम्बत्‌ १०३८ ( ईं० सन्‌ ९८० ) के आसपास आन्हिलवांडा के सोल की राजा मूछलराज के हाथ से मारा गया था। इस विषय के जो प्रमाण मिले हैं वे पाठकों के विनोदार्थ नीचे उद्धृत किये जाते हैं :-- ( के )--"इदयाश्वय काव्य ” से पायाजाता है, कि--“गुज- रात के चोलुक्य ( सोलकी ) राजा मूलराज ने सौराष्ट्र ( सोरठ- 0, कर. राज्याभिवषेक संचत दिये है वे विल्कुल बनावटी हैं ( जयचन्द जी बि० से ११५१, बढाई सेन वि० से ११५६०, सतराम बि० स्व. १ १८३ आर स्ियाजी वि० से. २१००५ ), जिम्पस्े उक्त ना मो :- मे । स्म्त्यता पर भी शोका होती है। दूसरा फारण यह भी है, कि ऊजयचन्द जी के दान पत्नों से उनके पुत्र हरिशख्वन्द्रा होना पाया.जाता है, जिनका जन्म थि० से. १४३२ भाद्ग पद क् १२ राचियार को, आर नलामफरण भाद्वपद छा १३ रखिवार को काआी में हुआ था; परन्तु कर्नल टॉड़ के पुस्तक और ख्यातों में हसरेशख्वन्टठ का नाम नहीं हे | फर्नेन्ठ टोड़ फो बरदाई सेन फा नाम मिलाथा, सजिस्र को उन्होंने राजाओं की नामावली में दाखिल नहीं स्िया, फसिनन्‍तु उस्प्र कन्नाज के राजा जय चन्द जी का किताब अनुमान कर उम्दका अथ सना फा साठ किया हें । चन्द चरदा £ ' काथि को ' अन्द भारट भी कहते हैं, इस से शायद उन्होंने ' वरदाई ' को भाद का पयाय समम फर ऐसा अयथे किया हो तो अखख्यय नहीं। ६ प्रासेंद्ध जेन खूरि हंस चन्द्र ने गुजरात फे सोलंफी राजप समालोचक | २२१ दक्षिणी काठियावाड ) के राजा आहरिप पर चढ़ाई को, उस समय कच्छका महा प्रतापो राजा लक्ष (लाखा) जो फुछ ( फूल ) का पुत्र था, अपने मित्र आहरिप की मददपर चढ़ा, ओर मृलराज के कुन्त ( भले ) से मारा गया। ” ( व) “ कीर्ति कौस॒दी ” मे लिखा है कि--“मूलराज ने शत्रु के अगपें पूरे मबद करने वाले अपने बाण वड़ी इच्छावाले राजा लक्ष ( छाखा ) पर ताके ? । ( ग ) प्रवन्ध चिन्तमणिकार कहता है कि--“ अपने प्रताप कूमारपाल के समय चजि० स्ै० १५१५७ ( ई० सन्‌ ११६० ) के आस पास “ दचयश्नय काव्य ' नामक भद्टीकव्य की शैली का प्रुस्तक रचा, जिसमे उक्त खूरिके रचे हुए ' सिद्ध हेम ' नामक संस्कत व्याकरण के सूत्रों के क्रमश. उदाहरण, और गुजरात के सोलंकी राजा सुरूराजसे कुमारपाल तकका इतिहास दोनें। आशय दे।नेसे दी उसका नाम * द्द्मयाश्रय काव्य ' रक़्खागया है। ७ द्वयाश्रय काब्य के दुसरे से पांचवे सगे तक सुर राज की उक्त चढाइका, ओर पांचवे सगेर्मे लाखा के मारे जाने का हाल विस्तार से लिखा है ! ऊपर केवल उसका सारांश मात्र उद्धत किया गया है । ( कुन्तेन स्ंसारेणावधीललक्ष चुल क्यराट्‌ ) दृबाश्रय, सगे ८१२८ )। व: शुजरात के सोलंकी राजाओं के पुरोहित महा काथये सोमे- ध्वर ने दि० स्े० १९७७ ( ईं० सन्‌ १५२० ) ओर १२०२ (ई ० सन्‌ १२३५ ) के बीच ' की रत्तिकामुदी ' नामक ऐतिद्याखिक काव्य रचा, जिसमें गुजरात फे सोलंकी राजाओं का इतिहास दे | “९ सपत्राऊृतशन्र॒णां सपराये स्वपत्तिणाम्‌ । महेच्छऋच्छभूपाल लक्ष लक्षीचकार य; ॥ ( सगे २।४ ) | १० जैन सुरि मेसुतुड़ने वि० स० १३६९ ( ई$० सन्‌ १३०० ) ्ँ श्र समालऊोचक | हि. है आज आबं+४ मककमककाकमक कक ककनकक थक कंगकककाकंबाककक मकान भा भआइइइइ 5 >> नकल नि किकककक कक कककिल कक मन रूपी अभिमे लक्ष ( छाखा ) को होमने वाल मृलराज ने उसकी ( छाखा की ) स्त्रियोंके आंछओं की दृष्टि कराई, और कच्छ के उक्त स्वामी को अपनी विस्तृत जार में फॉंसकर संग्राम रुपी सम॒द्र में मारा, और अपनी धीवरता प्रगट की ”। ( घ ) प्राचीन गजराती कविता में छाखा के जन्म और सृत्यु च्े का हततान्त इस तरह दिया है कि -“ शक सम्बत्‌ ७७७ ( वि० में प्रवन्ध चिन्ता माणिं नामक झनन्‍थध रचा, जिसमें अनेक ऐ।विहालिक कथारमं का सेंड किया है। ११ स्वृप्नतापानले येन लक्षहोम वितन्धता | सनच्रितस्तत्कलजापर्णां बाष्पावग्रहनिग्रहर ॥ १ ॥ कच्छपलक्ष हत्वा सहसाधिकलरुम्वजालमायाठ॑ | संगरसामरमध्ये घीवरता दर्शिता येन |! २ ॥। ( वम्बई की छपी प्वन्ध चिन्तामणि पर. ४७ ) ॥ दोहा ॥ शाके सात सतोतरे, ( शुद ) सातम श्रावण मास । सोनल छाखो जनमियो, सूरज जोत मकास ॥ १ ॥ ! छप्पय ॥ जाके नव एकमें, मास कार्त्तिक निरंतर | पिता बैर छल ग्रहे, साहड दारबे अतसघर ( ? )॥ पडे सभा सो पनर, पड सोलंकी सो ख़ट | सो ओगणिस चाबड़ा, मुत्रा राज रक्षण चट [। * पातले गाववा मगर गई, हाधमल सेलसिइंना आजरे (१) | आउमे पञ्न शुक्र चादणे, मूछराज हाथ छाखो मर ॥ १ ॥ ( रामलाऊ झजगती-जिल्ह १ ए <५ 2 श्र समाछोचक । २२३ सं० ९१२८६० सन ८८६ ) श्रावण (शुक्ला ) ७ को सोनल राणी के गर्भ से छाखा का जन्म हुआ, ओर शक सबत्‌ ९०१ ( वि० सं॑० १०३६८६०६० सन्‌ ९८० ) कार्त्तिक शुक्का ८ शुक्रवार के पे दिन अपने पिता का बेर लेने वाल मूलराज के हाथ से वह मारा गया। इस लडाई में १५०० समा ( जाड़ेचा ), ६००, सोलंकी और १९०० चावड़े राजपूत राउपुराज्य की रक्षा के लिये लड़ कर काम आये | ( उग )--कच्छी भाषा की प्राचीन कबिता में ऐसा छिखा ऊपर के दोहे में जो शक सबंत्‌ ७७७ (वि० सर. २१२ ) में लाखा का जन्म होना लिखा है घद सेहाय-युक्त हे, फक्‍्योंफिंइस्त दिसाव से उसका १२४ चषे की अवस्था में मारा जाना सिद्ध दाता है, और ऐसी च्द्धावस्था में लड़ फर मारे जाने के उदाहरण चहुत ही कम मिलगे | हे कन- १५३-सपसुलराज ने लछाखा' फूछाणी को भारा ज्ञिस का कारण गुजरात के भाट लोग ऐसा प्रगट करते हैं. कि--' किसी समय सूलराज फा पिता राजा सोलंकी छारिका की यात्रा से छलोटता हुआ लाखा के दूबार में गया, और वहां पर छाखा की बाहिन रायाँ- जी से उस का विवाह हुआ, जिससे रखायच नामक पत्र उत्पन्न हुआ । फिर किसी कारण सतत बिचाद हो! जाने पर राज सोलंकी व्तासखा के दाथ से मारा गया, जिल्त का बेर लेने की इच्छा से मसल राज न कच्छपर चढ़ाई कर लाखा को मारा ” | परन्तु उन का यह कथन भी विश्वास योग्य नहीं है, क्‍योंकि याद्दि ऐसा हुआ द्ोता तो उस्त का चबूतरा ( जहां वद्द मारा गया ) कच्छ में होना चाहिये था परन्तु चह सोरठ में आटकोट के पास वना हुआ है, जिस से यदी पाया जाता हे, कि घह सोरठ फे राजा आहरिप की मदद पर पढ़ फर चहद चर्दीा मारा गया, जेसा कि देसचन्द्र सूरिने लिखा है । घन समालोचक । न््ॉः:ःॉ:])ःस,सजसः६स सा पाक नानक हज भा ३३ भजन ५० मम काक ५७ ५५४५३ म५पाक ना ०५३७ ३७॥॥३५४४७००७ कक ०३०३७+५५ बाप 2०१७७०७०७ मिलता है क्ि--“ छाखा फूछाणी ने आकर अभिमान किया, परन्तु वह लड़ाई में मुलराज के हाथ की सांग छगने से मारागया"। इन प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि, छाखा फलाणी राठौड़ सियाजी के हाथसे नहीं, किन्तु मूछू राज के हायसे मारा गयाया। और फुनल टीड़ ने तया इतिहास राज स्थान के कर्चाने इस विपयम जो कुछ लिखा है वह ठीक नहीं हैं। ऐसेही मूलरान सोलंकी को पुत्री से सियाजीका विवाह होना इतिहास राजस्थान में लिखा है चह भी निमृल है। क्‍यों कवि सियाजी के राज्यक्ा प्रारंभ वि० सं० १३०० ( ई० सन १२४३ ) के आसपास, और मूलरशज सोलंकी १७४- सो फ़ूलाणी फर्योरओ, रारों संडाएं ॥ मूलराज सांग उखती, लासतो मराफूं ॥ ६ ॥ ६७- कर्नल टॉडने ई. सन एर3१ (ववि- सर. एट७ ) में, भीर फाचस साहिव ने ई. सन्‌ *छर (घिे> ऊ॑ं. षलट ) में सुल्राज छा शास्य पाना नशरच य वक्कया द आध्र |पि्रद्ल लग्ध का न दाद चर रे ख््म्फ दिय हुए. समय को स्वीकार न कर फायंस साहिय का निश्चय क्या हुआ संचत्‌ दी उद्धृत किया दे ( गुजरात राजस्थान यू ३. इंपछियन पेटिफेंटी जिल्‍्द ६ पृ. २६९३ ) | परन्त फाधयस स्थाहिद रा निणय किया हुआ सबत, भी म्वरद्दी नदे। साना ज्ञा सफता, फया+ उत्तः साहिब ने यह भी हिसया दें कि * ई. सन्‌ ९६७ ६ थिच्स.६ २१) ह चावडढा चेश क्ग लन्तिम राजा स्रामन्त स्विंड अनाट्रलयाड़ा का गझही पर बैठा ॥ उडस्द से समम में स्रोलेकी दंश के राज, बाज, आर टशाड्क कामी तीन भाई सामससनाशख प्छा यादा मत लाटस ० टस्द दुूचीर में लाये, उन में स्व राज़ का खोरता पर पफ्र्मक्न हाशग उग्र न छखपनी घटष्टिन ऊीलादंदी व्या [देवाट उम्पयक साख पर छिडणा, 7 श्र गे सर सलशाज उनपर शब्रा, जो अपन सामा के पाल हे शा सर ई० सन एटर (चि. १एछफ८ ) स उस््ल साल पके ऋामा पाप समाकोचक | २२५८ माप गियर चाफण भा वाया. जी ७० ७-३9 0 > 0७०७. आरिक आर. का राज्याभिषेक संबत्‌ १०१७ ( ई० सन ९६१) में हुआया। इस लिये सियाजी का म्लराज के समयमें विद्यमान होना केसे संभव हो सकता हे १ गोरीशडुर हीराचंद ओझा । कर उसका राज्य छीन लिया। ” विचार का स्थान हे कि, सामनन्‍्त स्िद्द के मारे जाने के समय फायंस सांद॑ंव के हिसाव से मूलराज की अवस्था आविक से अधिक पांच था छ॑. वे के लग मग हो सकती है, तो ऐसी अवस्था में उस का एक राजा को मार कर राज्य छीन लेना फेसे संभव हो खसफता है? अत' मेंख्तुड़ सूरि ने जो अपने रचे हुए “विचार अपणी ” नामक पुस्तक में सुरूराज की अनहिलवाड़ा फी गद्दी पर वि० से १०१७ में बेठना लिखा है चद्द ठीक माना जा सकता हैं, क्योंकि उस समय मूरूराज़ की अवस्था बीस क्षे फे करीब द्ोना संभव हे | इसी तरद्द उक्त सरि ने अपने ' प्रवन्ध चिन्ता मणि! न्ञामक अ्न्थ में चाबड़ा वेश के अन्तिस राजा सामन्तस्सिंद्द ( क्षयगड़देच ) फा वि० सं ९९० पौष शझाुदि १२ की गद्दी चेठना, ओर २७ चषे राज्य फरना लिखा है, उस्र से भी सुलराज का वि० सं० १०१७ में राज्य पाना सिद्ध द्ोता दे, और यहीं सम्बत्‌ शुद्ध मानने योग्य दे | हमारी आल्मारी । सीगाहतदर ऑशिटयूक रे 97 (6 567 20 797 (ताव कैद्ाह8४टा7फ मणि 86 त्कदा' 4900 ७00३४ णजब्मा फैफपाावंदधा जद 8, 4 ( (०एशपापदाई 77288, 42#०/ए८९वर८ं, 7900 मै 5-5078७ ») सरकार (युक्त पदेश की ) काझी नागरी प्रचारिणी सभा को प्रति चर्षे ५००० प्राचीन हिन्दी पोथियों की खोज के लिए देती है। उस्त सहायता स्तर सभा ने सन्‌ ६२०० में कया काम किया, इसको रिपोर्ट, खोज फे झ्ुपरिन्टन्डेन्ट चावू श्यामखुन्दर दाख यथा एझ का लिखी सरकार ने अब छपचाई है । इससे जान पड़ता है कि श्द० पोधियों की नोटिस की गई है, जिन में १०७ पोथी ९० अन्धकारा जे रची थीं। बाकी फे फर्ताओं का पता नहीं । ज्ञात फच्चोभों में दो वारदर्था शताव्दी के, दो चौददर्ची, एक पन्द्वदर्वी याईस सोलर्वी, अठारद्द अठारह सत्रहर्वी और अद्धारहचा, झओर चारह उस्पीसर्दोी शताव्दी के हे। इस्र स्लोज सत्र जग प्रधान वात सर हुए वे ये हैं-“-( १) तुलसी दास जी का रामायण का रह ४७ की लिखता पक प्रति मिली, जिस्म के आधार से इाप्डयन प्रल का नयनाभिरास संस्करण हुआ दे (२) मोलिक मुहम्मद जायलो के मुकाचर्ल म लेख ऋझुतवन फा ग्ठगावता के मिल्‍लन से स्टिद्ध डुआ फफे प्राचात हिन्दी कविता में देवचरित्र युगह्दा नहीं,-उपाख्यान युग भा था । रासौ-सुग ( मार बाड़ी सदश ) उपाज्यानड्ुम ( ज्ायसी मसें।र उद्‌ समालोचक | २०२७ 'ाााशशशशण"णणना्णणणणना्ाणााणणानन््णााभाभाक्षमामभाभाकाा्नणााभस्‍३ इक इ इराक अऋ् व... पी. स७-मा कफ-नम आज. अपनी जन्म पाइ:जमान. नैयासनजी "गा... मेनू. गयी. सिया.>-मा गाय. "गाजी गए... "काम बोडा.>->० या. “नर॥..> पा. .धा..क. चारमा मी उबर २७. फना-मरी बकत.. िका-जजना अनजानी न भयानक १७.५ "का ल्‍करी ""कमान्‍कत- १७० पूहँ“>न्‍ना व "परत मम बृशनकत व नी लमन-- जे जननी. १७७ न्‍हा-१३० कक "न स्रे मि्ता हम ) ओर भाक्ते युग ( छूज भाषा ) फीफई नई पोधथियां सिकती हें ! (३) चन्द वबरदाई फे रासो फी कई प्रतियों ओर पृथ्वीराज फें फालके पद्ठोीं से उस्र भारत चर्ष फे अन्तिम मद्दाराज़ फे समय निणेय की नई सामग्री मिली है ( ४) बीसखल देव रासा स्त्रे चीसल देव ओर विद्यद्द राज एक व्याक्ते नहीं थे, यह स्तिद्ध हुआ | बाबू साहव की भाषा चुत सरस ओर प्राझ्चल है, ओर इस रिपोर्ट के स्वर फो देख कर पूरी आशा दती हे कि वे अच्छे ऐेन्ट्फिरियन ( पुरातत्ववित्‌ ) बन जायेगे। इस्न रिपोर्ट में लिखे कई ग्रन्थों को नागरीप्रचारिणी पश्रन्थमाला में प्रकाशित फरने फा विचार है । विशेषत- पृथ्वोराज फे काल निणय में जो अनन्द सम्बतू वाली युक्ति दी गई छे, उरासे आन्तिम इिन्दू नरेश आर प्रथम हिन्दी मसहाकायि के समय निशोय का मास प्राय निष्कयटकही हो गया द्वे, ओर तब तक ऐसा रहेगा जब तक रासो-कृत्रेमता-वादी बाबू साहव के मत को खण्डनन कर सर्के रासो और बॉसल देव फें काल निर्णय फे लेख नागरीप्रवारिणाी पश्मिकारें छप चुके है, ओर अग्रेजी न जानने वाले इतिहास प्रे।भियों फो वहीं से अचदय पढने चाहिएं। सभा का यदह्द कार्य बड़ा छास- दाई है ओर आशा है कि सरकार की सहायता से १०१। १२ चषे का काम झट पट दो फर हिन्दी साहधत्य के दातेहासत लिखने को सामग्रा मिल सके | जब प्राचीन राजपतानी भाषाओं फो भीं हिन्दों का प्राचीन रूप माना गया हे, तो तिडुता और पुरानी बड्ला को बघजभाषा सदश्य फायिताओं का अनुसन्धान क्यों नदी किया जाता जिस से फर्म पत्र का विस्तार हो ? इस स्ाज में हम फोई दोप निकाल सकते है तो यद्दी के रिपोर्ट बड़ी देर से छपी हे । । ्ः श न२८ समालोचक ! च्य्प्स््स्य्प्स्प्ललजजज----.क्‍क्‍ बठ कर सेर मुल्क की करनी, यह तमाशा किताब में देखा | « जिस समय चोअर युद्ध के होते होते टाइम्स ने उसका प्रकाण्ड इतिहास प्रस्तुत किया उस समय हम छुप रहे। उड़ में स्पेन की सुसलमान यादशाहत का हाल देख कर हमने नेत्र नीचे कर लिये किन्तु जब वेगलछा में ट्रान्सवाऊ युद्ध का चर्णगान और पन्ना नरेश की राज्यच्युति छपी, तो हम हाथ मल्‍रू मल के पछताने लगे ओर आंखे मर मल के स्प्रेचने रूगे कि जगद का क्‍या होगा। चीन में गतवार जो काक्सरविद्वोह डुमआ था, चद्द हमारे लिए अच्छाही हुआ, क्योंकि चहां जाने से दो भारत दासियों ने छिन्‍्दी भाषा को दो झनन्‍्थ रत्न उपहार देकर सथा का कड़ला।मिेंटाया है। ठाक्कर गदाधर सिंह ने “चीन सें तेरह सास” लिखे ओर डाक्टर महेन्द्र का- लगगे ने आखों देख फानों छुन ओर पुस्तकों में पढ कर “चीन दपेण” लेखा | चीज्ञ की इस चचो के चतुर चितेरों ने बड़े चाच से अपने प्रवास का ददला अपनी - जन्म भूरे ओर माठ्साषा को दिया, इस का हस उन्हें कया प्रत्युपकार करें / अब भी कई भारतवारी विदेश यात्रा करते है, किन्तु अपनी रेपोर्ट देता उचित होकर भी नया फाम है। बड़ देश के एक सन्‍्यास्रे स्वगेचासी रामानन्द भारती ने हिमालय ओर पिव्वत की यात्रा का अपूचे विचरण € खादित्य ' में छपचाया था । चद्द छन्दडातीत व्याक्ति एघणात्रय के त्याग में सी, अपनी मात भाषा को न भूला और उस के पारस ८ एक खाने छुद्र नोट बुक छिलेत ”। हिन्दी खोलने घालों में साधु, सनन्‍्यास्ती, फनफटे, मिखतमजड्ोें के काफिले के काफिले श स० पलटने * व्वीनदर्पण, डाझहूर पण्डित महेंन्द्रलाल गगे क्ताजित + उम्से झेलम, के पतेसे प्राप्तन्य । छछ २७९, झत्य ५) सखसेचारक ड्रेस, मयुर समालोचक | २२९ मोजूद हे, तु उन्हें मुफ्त की भीख डकारने और न देने वाले फो गारी देनेके सिवा फाम दी क्‍या है ? अस्तु । चीन दर्पण घास्तव में चान दर्पण है। इस पअन्धथ के दोष हम पहले कहलें। छापे की भूले रद गई हैं ओर छपाई साफ नहीं हुई । क्‍प्न्‍थ कार ने भूमिका में कहा है कि “ मेरे मिलने वार्ले में अपदढ लोगों फी संख्या अधिक दे इसी लिए इसकी भाषा ऐसी सरल रक्‍्खी है कि रही और बच्चे तक समझ सरकें ” उनका यह यत्न सफल न हुआ। खिजा! के दिनों (प्रष्ठ १० ) फो फोन स्त्री ओर वच्चे समझगें! सक्त (१२) खपा (१४) मश्शाक (२१) जिलत ( ३२ ) तफावत ( ९५ ) परिशितिश ( ५८ ) मव॒लुक (१८७) जवाल, तनज्जुी ( १९८ ) प्रभ्वति शब्दों को जो बालक और ख्िरयां समझ सके व उनके पयोयों को पहले समझ सकते । एक आध जगह वाक्यरचना भी साफ नहीं दे यथा--ह्ाकिम इखितियार फो पाकर मगरूर और रेयत को दु ख देते थे ( पू. २४० ) फिन्तु इस से कोई यद् न समझे कि हस इस्र ग्रन्थ की निन्‍्दा फर रहें हैे। दम सघख लागों को इल अन्थ के पढने और संगझ्ह करने की सम्माते देते हें। इस में चीन कफे सब ददोन य स्थानों का वपन है, सव विलक्षण रीतियों का घर्णन दे, वहां का पूरा इतिहास दे ओर इतनी सामग्री है जिस से नेत्रों के सामने चीन का पूरा चित्र खिच जाया भनुष्य को मनुष्य का इतान्त जान ने की इच्छा दोती हे । चीनी केवल मनुष्य ही नहीं, इसारे परिचित ४, सक्ष्यता भें, रस्म रिवाज में, धमे में, हमारा उनसे मेल जाल है । और अब गगी मद्दाशय के अन्ध ने हसारी उन से मित्रता करा दी दे। इस अन्थ के वर्णन का ढग बहुत अच्छा है, भाषा सरल है ओर ऐसे बने का सुख्य झुण रुक्षेप भी विद्यमान है। निर्जीब उपन्यार्सो २३० समालोचक । के पढ़ने में जो आनन्द आता है उस स्तर श्राध्रिक आनन्द इसे ण्ढ़ने में दोता हे । इस रोचक पुस्तक फो उपस्यास्रों फे पढने वाले भी परे, कफ्योफ्ि ऐस्ाा आनन्द ओर फईददी मिल्लनना फाठेन हे, गम्भीर लेखों के पढने चाले भी पंढे क्‍योंकि ये सत्य घटनाएं, और तथ्य चइन्तान्त मनोरञ्ञकद्दी नहीं, ज्ञानप्रद सी हैं। अन्थकार को ऐसा उत्साह मिले पजस्से थे पेसे ऐस मोर भी नए अन्‍्थ लिखें - ज्् न रे श्र ८ भारत वर्ष का इतिदास । सध्य हिन्दी । चित्र और छवि सहित। दंगाले के साधारण शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर स्विकृत, १९९०२ ॥ चार आना ? जिम्प अन्ध के ठाइटल पेंज पर इतनी अश्ुद्धियां विराजमान दे उसे देखमे की उत्केठा को हम न शोक सके खूची पतन्न से जाना कि इस्त झन्ध में और और विषयों के सिवाय “ मुदहस्मद गोरी ” “८ मुगुझ शाहिनशाह ” “ अकवर आज़िम ( महान ) ” भर “ क्रांलीसों ( ऊ. ! ) की अन्त्यम द्वार ” फा भी द्वाल है । स्पेलिड तो झछुरू डुआ | फिर “ लाड़े कानवालिस और स्तर जान शोर दूसरा और तीसरा गवनेर जनररू ” चार्णित हे वा हैँ । नीचे “ छलाडे मेटों छटयवां ( छठा डुस्ला ? 9) गवनर जनरल ” लिखा है। करे क्या है सो जरा देखें-- माणरदर्द्धों को ताकत छुटन / ( चचजन फियन २ ) फिर ज्ञाना जाता है कि इस गअ्न्थ रख में “ स्यनिश्िपाल्डिय ओर “ देसी रियासितें ” भी वर्णित है । नकह्यों में अम्लक नम्ुफ के “ समय की घटिश इंडिया ” भी है । टाइटल के चाये पेज ने कहा कि “ऊपर डलिसे हुए पुस्तकें मसेफकॉमेलन गगड़ छोड ०७४० ७ ने नया चीना वल्जार ट्रीट करूकत्ते म॑ मिलते हैं ”। “- इस पुस्तक में हमने कंड चित्र ऐसे तेसे जे कभी नहीं दिखिई पड़े थे | इस के लिए प्रकाशक को धन्यच्राद दे । छिन्तु कुछ आदामि- यों के नागर हम न समझ सके, जेसे--* मानस्िघ * ,“ ज्ञुसजहां ४ ग्रांच की सावधानता ” (घास के बनाए एक छम् पर छुछ आदमी बेठे हैं। पुस्तक कहती हें कि यहां गांव की रक््या के लिए चेठा “ मन्नुष्य दार परे फी उड़ती हुई गदे देख प्र ज्यन जाता था फि फोई छूटरा जा रहा दे ” तो इस फिकरे फा क्या अथ हे गांचकठकफ साघधान्ता, वा गांच फे लिए सावधानता ? ) ध्यायद्‌ यह ' बिलेज भाडटलरुक _ फा तज़ेमा दे ! “ बाद्यादुरशाह' 'उ्वछ” ८ रवाट कब्वइयब ” ( रवसेआज्ते ? ) “शाह आलम /दिवानो छक्लाइद को दे रहा है ” ( यदां दीवानी “ दे रदा द्वे ” का कम्मेडहै, वा शाह आलम था कलाइव फा विशेषण ) “ रघुल्ा | ( महाराष्ट्र इस सज्जन सो “ राघव ” फद्दते हैं और, अंग्रेज “ रघोत्रा | | इस अन्य ले तीसरा नाम बताया दे ) “ फरनवीख - ( क्‍या किली एफ्रेजो कप घासी का नाम है ह इतिहास में फड़नबीस तो हुए है ) “टीपु ” ८४ ठग मंडलि ” “ सत्ती / ( कितना भत्ता मिक्का ? ) रंजीताणघ ( पश्ञाव फेसरी को दो घाव ) “ डफ़रन । उपंचतचों मे भी यहष्ट स्पेलिड की यहार हुई । अन्य में कई जगह “ खांटी तरज़्ुमा ” ( यड्भान्यो फे “ मअध्द- रासुवाद ” का नाते) बिद्यमानव हैं। ठीक जले महछ्षिका स्थाने साक्तिका चिपकाई हो | ध्यउरकछुक की जगह सावध्याता पमेडल बर्नाक्युछर ' की जगद् “ मध्य हिन्दी / “ जाइणटड इंध् रंग्रिडलय कम्पनी ” फी जगह “' मिली हुई पू्ा हिन्दुस्तानी ऋशपनी ' सो पाठकों ने यहीं पढा होगा ।ये तुमे ऐसे हैं जैसे कोर ए॒ल्रेगजेप्डर पेडलर का तज्जुमा सिकनटर बिसाइती करे । न्श्र सपालोचक | अच्य कारों फा नियम हैं कि जिन विषयों पर रत भेद हो चहां व्लोनों पक्ठा का कथन दिया करते दे ' चाड़े अपने मत को प्रचनता दिखादें, किन्तु विपक्ष मत को लिया दिए नहीं रहते। छत वहां मानो हुक्म दिया जा रहो है कि झाये सध्य एशिया से माए थ ।! विधवा सरि्यां विचाह कर लिया करती थीं ! उन हिन्दुच्तानी ऊायो के झ्ातियां नथी !!! अब तक हिन्द दछ्धमान को बड़ा चन्द्र देंचता समझ फर पूजते हैं ( पृ - ८) प्रति एूष्ट में स्पेलिडः की साषा की , साव की गरूती एक न एक मौजूद हे | फर्यी ( १८ ) इत्नी ( १७ ) सस्हूर (:६०७ ) गलतियां है कि सपने यहाँ ( ३५ ) उनका चलन नहीं चादिए | ४“ झाहजहाँच को उलत्ना छुक नहीं कहना चाहिए जिला फि राजपूत ५ (२७-रप्प ) ल हीं ससझे | छाझे र्िपन को देखी वहते पवाहसे थे ओर वह भी इन पर बहुत मेहरवानी करता था (९० ) क्या इस से यद्द ध्वांवि निकलती है कि अंजेज उन्हें हीं चाहते थे ? छुछ मसदचत याद कलकते की गवनेमेंट इाणिडया ने जब वह हाल खुनचा ( प्‌. ८७ ) भिन्न टाइप के अद्वर्रोक्ता क्या अर्थ हे ? ,क्या ऊंटके सण्ड में भी स्यारी गचनसेन्ट इणिडियर ले ? शिक्षा विज्वाय को उचित है कि ऐसी पुस्तका से फिसारा के नहीं तो इन्हे छुघरवा लेदे ! झा, नर स्च्ट डे न्च््ल्न्य्ण्त््व््य्स्छ्ष्य्श्श्ल्क्स्ल्जलतल ता वेडरबर्न का शहूस नादे !! फई जानकार मित्रोंने मुओे कहां है कि भारतवासी राष्ट्रीय कामकी ओरसे उदासीन होगए है, ओर समय के कोडे ओर छूणा _सहने में सनन्‍्तृष्ठ हैं ; दु खोंके प्रतीकार के लिए नियमित आन्दो- लन में उनका विश्वास हट गया है और थे झगडे को छोड देना चाहते हैं। “४ हमें अकरेलाही रहने दो । बुराई से छूने में हम क्या ४ खुछा पा सकते हैं ? चढती हुई लहरों पर सदा “ चढ़ते रहने में क्या कोई शान्ति है ? ” चेम्प्रलेन के शब्दों में वे लेटे ही लेटे सहना चाहते हैं , और उनके अधिकारी रबामी के मेज परसे जो टुकड़े गिर पढ़ें, उन्ही के लिए हीनता से रेंगना चाहते हैं । यदि यह सत्य है, मदि जातीय तेज वास्तवमें यों टूट गया हे तो दारतव में खेदकी वात हे भारत वर्ष के लिए अक्थनीय खेट की वात है, इद्धलेण्डके लिए लरूज्जा की वात है । यद दिखाएगी कि हम अपने क॒र्तव्यमें निष्फल हुए हैं; और भारतवर्ष में हमारा शासन, इस वडी और भाचीन जाति को उच्चतर जातीय जीवन के लिए जगाने के बदले उनके जीवन को पीस दुका है, ओर वेहोभी और निराशता ही छोड रहा है । ( १) जाग जुरा ए सास चाके | ( अबचपश्च ) बन ब०५न9_>+ब न पे कक पवन न ककनक टिन मत ल्‍ टन क्‍्टलपपललपन्‍कडस्सतुरपकज्कलबक्ल्ज्ल्च्त्््य्क्र्य्श्य्व्च्ल््क््ल्व्य्क्््ज्ल्व्च्च्क््न्श्व्ल्ज्कल्कल्चल्ल्ल्क लिन ०95 ननक कस समालो चक | ँकानकनतकीयहमफ्रपामाद॒तापयरम्यन्भ_काासन्‍कअुदकामआ5 ३ ए्रमंगरातत्भकतक शा _ाभाभाउउ ताप भ कम» इत्र ता का इइमातात पक कजह इनक मत 3०... .« «मल लीअ लक ##- जार, आन + >> क+-पन अत चक जद किच्तु अपनी तरफसे मे इस निराश विचारमें साझी नहीं हूं । भःरत मत्ता के भर और चच्चे पत्ों को जानता हू जो इस वात ( हृड़ हैं. कि बह आधोी वेहोश्ीद्ी में राज नेदिक्त मृत्यु में नहीं इवने पावे । जो हो, हम जो अपने को उसका मित्र कहते हैं उनका यह काम नहीं हैं कि झ्यड को छोछ दें | हम कई वार पढ़ते है कि कोई पथिक वरफ के वहादों में चक्र कर गिर जाता है, व्होशी में ( जो झठही खत्यु में अन्त होने वाली है ) डूब मरता है | उसे कष्ठ नहीं जान पड़ ता, उसकी एक-पात्न उच्छा सोने को होती ह और वह घचिद्॒कर अपने मित्रों को उसे शान्ति में छोडकर अपने रस्ते लगने को कहता है । क्‍या वे उसकी पघार्धनाओं को मानेंगे और उसके क्रोधसे इरेंसे 7 विलक॒र नहीं | वे डसे पेरों पर खड़ा करते हैं, चाहें उसमें मित्रता से वल- स्कार ही करना पडें। उसमें वेआणा और दाड़स डालेंगे और कहेंगे कि तफान धरे रदा है, सहायता पासही है और आराम का स्यान पासही दिख्तई दे रहा है। यह सच्ची उपमा रे ! भारतवष के मनुष्च बद्ी वडी और कई आपत्तियोंसे घबरा चुके हैं। दे बहुत काल तक धकने बकते चुद , अक्ाछ और रोग को सह जुके हैं जीर किसी को आभाम्वर्य नही' होना चाहिए चदि दुर्बल मनुष्य जातिके लिये यह दोझ घबहुन अधिक हुआ हो $ चदि उनका उत्साह ससमत गया हो, और उनकी इच्छा को लक्च्रा मार गया हा | क््न्ति यह समय उसके नेता और मित्रोंझो ह्वाथ समेद कर बटन का नहीं ह। एक बडा मोका जाने बात्या है। अन्पेरे की पाक्तियां ई5 गई र्ई अनाहि जय ली कमीकन.. "मम आधा, ्च्क जी औ नी “जल अअकनन-ग, का डकण+-#“आ हिना 4: हि मनाने... स्‍नरिवमम-न अमम०-०....ओ+>-परकि-ैझआ ध.०8०-..2४०... सह -आा। “जामाइाााकमस.. न्‍"कीका-+२मणकृीयाइणन--*--4+--फन्‍तमकरकन्‍. न्यन्ण्मकाा... लता + (२) बच व का दाग्ट्रता * शक समालोचक | २३८० बह. 3. सना परम मकर कक जक,/ं. पिन क्‍या... तर # नर मेय... कक चाह स्‍पिय जाकर १७७०. हे प>पाइाम न ...आाम पा. नजर "पाकर निकाह पिरनाकी व. हि अल क कक. कान सा. मा... य..आ "आह... अर पक... "पक)- आन कि मय, ऑन. न आड 3क, आग, आम 8 "नए 22 गाया" म का /#र न. नाधानभी पाक आका- ०५ _मा-प 3० -३% ॥2मव०न &# 3 और यदि भारतवर्ष केवछ अपनी वात्तका सच्चा रहें, तो अप भी सब्र कुछठीक हो सकता है । ४“ यद् न कहो की रूगड़ा किसी प्रयोजन का नहीं दे ४“ और पारिभ्रम और घाच च्थादी है, शत्ञ न वेहोश दोता “हे ओर न हारता दे और सय बातें जैसी हैं घेसी दी ४ उचंल रही दें । ४ यदि भाण्या आ नेचमका दिया हे, तो भय भी झूठ “४ हो सकते हैं , यह हो सकता है कि सामने के छणमें छिप हुए £ तुमारे मित्र भगेंडुओं का पछि कर रहे हैं, भोर तुम्दारी ८४ सदहायेता की ही छूसर हे, की उन ने मेदान मार ही छिया “४ धरक्की हुई खदरें, चुथा सिर तोड़ कर यहां ४ तो फढिनाद से इस्ध भर भी जगह नहीं पी हैं, किन्तु पीछे “ बहुत दूर पर, फोने में होता हुआ, थीरे धीरे, महा समुद्॒दो “ बढता छुआ आ रहा है | तो दरक्शा क्या है ? वास्तव काम क्या करना है! में कह चुका हूं कि इस छेशमें एक घडी मार्केकी घटना होने वाली है | और हिन्दुस्थान के मनुष्यों को एक बडा मौका मिलने वाला है । हमें जो करना है बह यही है कि इस मौके को दृढता से पकइ लें । गत आठ वर्व में इस देश ( इड्शलेण्ठ ) पर वाहर को वलात्कारी और घर में स्वाधी सक्री्ण विचार वालों का शासन रहा है । अब राज सेतिक दोछा बडे वेगसे दूसरो ओर धूपने वाली है, वाहरकों जातीय न्याय की ओर, और घर में सबकी सह्माल की ओर । और ऊँसे भारद्वर्ष दरूस्कार कौर जातीय सकीणताके कारण रद समालोचक | ली आम आम का सबसे अधिक दुश्व भोग रहा हे; चेसे ही वह सबसे अधिक लामोें दारा भी होगा जब कि हमारी जाति उन स्वतंम्तता, न्‍्वाय और उन्नति की वादों पर ब्मेट आएगी जिनमे इच्चल्ण्ड को इतना बडा बनाया है। नई पारलेग्रेण्ट और जागे हुए जातीय कत्व्य ज्ञान के साथ € भारत वर्ष के लिए ) अपील की कचहरी खुल जायगी | यदि न्याय की डिक्री पानी ह तो छस्ती नहों होनी चाहिए । भारतवर्व का मामछ पर तिनिधि चुनते वालों के सामने प्रभाव डालने की रीनि से और वार वार खद्याना चाहिए । और इसका अर्थ हे---परिश्रम का और स्वायी काम. उत्साह और अस्पोत्सर्ग ( स्वार्थत्याग )। उस आखयलेंण्ड की तरफ देखो जो अब नियमित आन्दोलनका फल पा रहा हैं। भारत वर्ष के मार में कण्ठक वैसे घिकट नदी है लेसे कि वह थे जिन्हें आयछण्ड दे साहस और जआयदेंण्ड के हठीलेपन ने उखाड़ दिया है । इससे मैं भारतवर्ष के देशमेमियों से कहता हू चलो और जीतो हारी सहायता की तरफ चहुत छुछ है । टृठिश सर्व साधारण प्रजा का भारतवासियों की ओर जच्छा भाव है | वह उसके अकाल के दुश्खों के कारण उसकी ओर दया से भर भारतके सियादियों की वीरता ओर क्रम से उसपर मभातें पह चका है; और दक्षिणी एफ्रिका के दीमार और घायलों को जो सहायता दी गई हद उसके लिए वह ऋृतज्ञ है । क़िन्त- चह साम्राज्य के बे झ से पीडित है उसकी स्मरण ज्क्ति दुल है. वह भारत की जरूरतों से अनभिन्न ४ । भारतत्रर के झिन्षित सनष्यो ! उसके इस अज्ञान को हटाना तुवारा काम है। हें समःलोचक | २३७ सव कुछ तृम्हारे छिए खुला है, समाचार पत्र भी, पालेमेण्ट भी, व्याख्यान का छुटफाम भी। सत्य के प्रचारक बनकर उनका पुरा उपयोग करो। तुम रूस में नहीं हो, ओर बिना भयके चोल सकते हो । सबसे अधिक आवश्यक तो यह ४ कि अपनी सेना को इकही करो, ज्डकर रहो, तितर वितर न हो ओ, आपस मं प्गडे न रक्‍खो इद्धलेण्ड में तुम्हें जो कुछ सहारा मिल सकता ह£ उस सबकी तुम्हें आवश्यकता हे। अत एव इड्धलेण्ड के अपने पुराने मित्रों के पास खड़ो हो ओर जितने नए मित्र पा सको उतने इकटठ्ठे करो। ऐसा मोंका तुम्झारे लिएफिर कभी न आएगा; सो जागों, उठो, या सदा के छिये गिरे रहो ॥ ( सर ) डबल्यू. वेडरबन । ( ३ ) सुरख हृदय न चेत, जो शुरु मिलाईदँ विरक्षि सम | फ्णका हि २ ्छ ०र्कर ( । महाकावे भूषण। ( ९ ) हमारी भष/ के साहित्य पर दौर, रोद्र तथा भयानक रसोका सर्वोच्च पद है कारण यदह्द कि सापा की कविता इन्ही रखा का अवलम्ध ले पृथ्चा पर अचर्तीण छट्ट्डू दै-- सच से प्रथम जिस ग्रन्ध फे निम्मित होने दंग दाल दम लोगों को ज्ञात है वद चन्द कृत पृथ्वी राज राघा छेष दे और बह विशेषतया इन्ददी रसों के वर्गौनों का भगणडार हैं उस्पस्के पश्चात, चीसलदेव रासा आदि जो अन्ध निर्स्मित्‌ हुए उन्हों ने भी विशेषतया इन्दीं रसों को आदर दिया--मालिक झुघस्मद जायरसी ने भी यत्र तन्न उपयुक्त प्रन्‍थों की भांति इन्हें। रस्तो। फा समावेश अपनी प्माचन में किया डें--तदनन्तर जेखे कहा जाता हें कि चधेपन ज्ञाइव जल्ूप कानन ” उसी प्रकार हसारी भाषा काव्य चौथे पन को फौन फहे आऔरास चन्द्र जी की भांति पहले ही पन में फानन चली गई मोर भरवत्त स्रजन करने ल्गी-भत' इन उपयुक्त रसों का व्शेन समाप्त कर के तुल्सीदास स्रदास, कवीरदास, तथा उसी समय के, अन्यान्य ऋ्र्वाश्वर्रो की सहायता ज॑थ॑ इसने शान्त रस फे बड़े ही सनोरज्षक राग अलापे परन्तु असमय की कोई बात पचिरस्घाई नहीं दो सक्ती इसी अटल नियम के पभाव से हमारे सादित्य का चित शान्त रस में न ऊरूसा घ्ान्‍्त का प्रादुभाव तो श्टज्जार के पत्थाच्‌ होता हे-जब सब विवयों छा सोग फरपभाणी थक्त जाता है तभी उस के चित्त में राजा ययाति की भांति उस विषयों से तृष्णा दृट कर निवेद का राज्य होता ह-- वो हमरे साहित्य ने अपना पुराना डत्लाइतों छोड़ही समालोचक | २३९ ही 20... जा. सा परम नी... आ."आ.याारिननानयनं मीन >०-मन्ममयाजममान जज सकआआ मा... वॉनया-करम, दियाथा अब घह निवयद फो भा तिलांजाले दे अपना ह5गारः फरने में पूणेतया प्रद्ृत्त हुआ ओर दमारे फवियों ने 'परणयात्मा सरस्वती देवी फो नायकार्भो के शुण कथन में कगाया और दस्त फाय्ये में ( जेसा कि हम हिन्दी काव्य अलछोचना में लिख चुके हैं ) उन कातज्रयों की उद्योग झनन्‍य राजाों से बिशेष सहायता मिली इस्त श्टड्वार के वर्णन में हमारी फाबिता उसी समय से मअद्यपय्यन्त . ऐसा फुछ उलझ पड़ी हे झि उसका छुटकारा द्वोना फठिन दिखाता ह--जहां देखो पति पत्नी का बिद्धार, मान, दूतीत्व, पश्चाष्ताप, विरह फी उसासे, उप प/तयें। फी ताक भाँक, शरद पूनी का दास गाशिकार्मो फे आधिफ धन दखूल फरने के- प्रयल्ल भादे ही हमारी फाविता अब हम फो दिखा रही हे--पूछा जा सकता है कि यादि हम अपना समस्त समय इन्हीं यातों में नष्ट करें तो सेना फी शिक्षा, शिव्प वाणिज्य की उन्नात्ति, कृषि कम्मे इत्यादि फरने का हमे कच अवकाश मिलेगा ? हमारे इस अ्रवन्ध के नायक भूषण महाराज ऐसे समय मे उत्पन्न हुए थे जब सरस्वतोजी इन्हीडउपसुक्त अनुचित वर्णनों से उदास हो जछ्ुकी थी इन मद्दाशय को ऐसे वर्णन पसन्द नद्दी थे अत. थे लिखते हैं । ब्रह्म के आनन्द ते निकसेते अत्यंत पनीत तिहू पुर मानी-- राम जधिए्टर के वरने वलूमी किहु व्यास के संग सोहानी । भूपन यों कलि के कविराजनि राजनि के गुण पाय न सानौं- ” पृण्य चरित्र शिवा सरजे वरन्हाय पवित्र भई एुनि वानी ॥ हमारे भूषण महाराज का यह भी एक बड़ा ग्रुण दे कि; ऐसे समय में जन्म अहण करने पर भी फि जब उनके अधिकांश प्रसिद्ध प्रसिद्ध समकालीन फानिगण >शड्रारादि अज्ञपयोगी विषयों पर >४० समालोचक | अपना समय नष्ट फंर रहे थे इन्दी न॑ पक अत्यन्त उपयोगी घर्णन सी ओर लोगों की राचि आफर्षित की यहां त्त कि सिवाय एक एक छन्‍्द्‌ फे और कुछ भी म्टड्रार रस के चणैन में न फटद्दा और , मानो प्रार्याश्त्तार्थ इन्होंने उस एक छन्‍्द्‌ में भी युद्ध का ही रूपक बांघा है | यथा-- मेचक कवचय साज वाहन वयारि वाजगाढे दल गाज रहे दीरप बदन के, भुपन भनत समसेर सोई दामिनी हे हेतु नर कामिनी के मान के कृदन के । पेंदल ब॒लाका घुरवान के पताका गहे घेरियत चहू ओर सूते ही सदन के, नाकर निरादर पियासों मिल सादर ५ आयेगीर वादर बहाद्र.,मदन के ॥। हु हे को बात दे जैसे इन्दों ने लटड्रार रस को छात मार वीर रोद, भयानक रस्तों हीं को प्रधानता देकर अन्य कवियों फो सदु पदेश सा दिया चैसेंदी परमेश्वर को कृपा से इन का आदर भी एंसा हुआ जैसा इन से श्रेष्ठ तर काषियों को भी उस समय अथवा उस के पश्चात, भी कभी स्वप्त तक में न डुआ--विद्दारी लालू जो स्वेच कालियुग के दानियों की निन्‍दा करते रहे यथा “ तुमहूं-कान्दद भसनों सये आाऊु काडिहि के दानि ” परन्तु यद्द नाविचार किया कि हमारे ही समकालीन भूषण कावि किस प्रकार की कार्वेता करेने से किस स्थान को पहुँच गये हें ? अस्तु-- (२) शिव सिंह सरोज तथा अन्य पुस्तकों में इन सद्वाशय फे यनाए हुए चार प्रन्थों के नाम दिये हये हे अथांद शिवराज भूषण रा आय जनम. ऋन्ययााा पकणण चला. यम मा. जला पाना समा इन अाे- बफमा। जा. अयां- भलानन निशाना प-जाह-पक न, समालोचक | ब४१ पिमााभययाककना--पा "रा पुक्ा पप पानी" "कक". "याताकन "सयकन्‍+-.. शाकंमपा#+-सपमा' "का पाक, भूषण हजारा, भूषण उलछास, भूषण उछास-श्नसें से तीन अंतिम अन्यथों को अद्यावायि मुद्रण का सोभाग्य ध्राप्त नहीं हुवा है मोर न दमको स्वंय इन में से निसी के अवलोकन करने का सतोभाग्य प्रांघ दे-प्रथम पुस्तक के भी अभी तक हसने फेवर तीन मुद्रण देखें हें एफ मुंदी नवलछ किशोर सी माई. इ. फे यन्त्रालय में भफादित, छवितीय भरी घेंफ्टेश्वर प्रेस में जोर तृतीय चंग बासी पेस में सद्वित-श्स तृतीय पभातिं भें शिघराज भूषण को छोड़ तीन ग्रन्थ और छपे है अयति, भो शिवावावनी, भ्री छत्नशल दशक, ओर फुटकल छन्‍्द--इन तीनों प्रतियों में से वेफणेश्वर बाली प्राति इस समय हमारे पास चतक्तंमान नहीं है- शेष दोनों प्रातियों में दुर्भाग्य बद कुछ कुछ भदाद्धियां रह गई हैं बिशेष करके बेंगवारी चाली प्रति में इतनी त्रुव्यां हैं और छरन्‍्दों के चरणों में इतने भअध्षर घद बढ गये हे कि प्रन्थ का पढना एफ अत्यन्त फठिन बिषय है यादि दमारे पास एक शुद्ध हरुत लिखित प्रति न छोती तो इस लेख्त के लिखने भें अधिक फठिनता पड़ती-यथापि बंगवासी ने भी यद्द नहीं लिखा है कि शिवायाचनी अथवा छत्र शाल द्ृशाक भूषण के प्रथक प्रन्थ हैं तथापि यद्द प्रश्ष अचच्य उठता है कि ये झ्र्थ अन्य भ्न्‍्थों से संग्रदात छहोंकर बने हैं अथवा स्वतन्‍्त्र हें -एफ यह भी प्रश्म दे कि शिव सिंद के फहे हुय उपयेक्त चार भ्रनथों फे रचचिता भूषण है या नहीं इस प्रश्न के उठने का कारण यह है कि किसी महा शय ने भूषण फे चार झन्थ होने का फोई फारण नहीं दिया केवल यही फह दिया कि चार प्न्‍न्थ हँ-- यदि चह कह देते 7फि हम ने चार अन्थ देख हैं अथवा उनका प्रस्तुत होनाकिसी स्थान पर खुना हे तो स्यात्‌ उनका कथन आधिफ प्रमाणनीय होता-खाहित्या प्वाय्ये पाडित अम्बिका दत्त व्यास ने जो जांच परत्ताल बिद्दारी के शं २४२ समालोचक | - स्स्य्य्स्स्य्स्य्य्स्य्य्य्ल्स्स्स्स्स्ल्स्ल्ल््््च््डंःडःः<६< सस्‍क्‍क्कखखच अब ल्‍ ्नजस्‍चडिललल--न बिषय की है चही शेति अन्य महाशयों के जिय नमूना ह या चूः राधाकृष्ण दास का “ फकविबर बिहारी लाल ” नामक गअन्ध प्ढ़ कर दमको कुछ कुछ विश्वास हों चल्ला था कि घिद्दारी केशवदास व्दे पुत्र थे परन्तु वपास जी की छाव दीन देख फर निश्चय हो गया कि ऐेखा नहीं है--अस्तु-- ह ( के ) प्रथम भन्ष पर ऐसा अनुमान होता है कि ये दोनों भ्न्ध स्वतन्त् नहीं दे बरन भूरण के अन्य अन्थों से संगणहोात इये ह-- छच्रशाल दशक . मेजितन छन्‍द हें अत्यन्त चित्ताफर्षक हैं तव यदद फेस हो सकता है फि इन्हों ने शिवाजी के यश्य में कुछ मनुत्तम छदं बनाये परन्तु छत्रथाल के यश कीचेन में एक भी मन्नत्तम छन्द्‌ न फद्दा १ फिर कोई प्षषण सहार/ज की श्रेणी का कावे सब छन्द एक प्रबन्ध सें उत्तम दी उत्तम कैसे कह सकता ६ १ हमारा मत्त दे कि छत्ञाल के छनन्‍्द इन्दोंने बडुत से बनाए हैं भौर उन में से छांट कर ये चने चुने छन्‍द और लोगों ने इस प्रन्ध में रख् दिये ६--श्री शिवाबावनी फ्े बिपय घहुत लोगों फा यह भी मत है फि जय भ्रषण पहेेके पहल शिवाजी के पास गये ओर उन्हें “ इन्द्र सजि।मि जस्भ ” घाला रूनन्‍द सुनाया तव परम प्रसन्न हो फर उन्हदों ने कहा “फिर कहो ” इस पर भ्रूरएण ने एफ अन्य छन्‍्द पढ़ा, धुन- “ छ्िर कट्दी ! की आज्ञा पाफर एक ओर छनन्‍्द खुनाया इस्सर प्रकार पक एफ करके ५२ घार ५२ छनन्‍्द पढके थे थक गये चट्टा थे ५० छेद शिवराज यावनी के नाम से दिदित हुश-यह मत फिसोी अंदर में छाद्ध नहों है-+कारण यह कि इस प्रन्य में फरनाटदफ़ की चढद्राए का भी वरस्पन हे जो सन १६७८ इ० फे छूग भर हुइ थीननजत: कम मता चझुस्तार यह सिद्ध दोता दे कि समृपरा पद्दछे पदल दिवाज्य समालोनक | २४३ फे यहां सम्‌ ६६७८ इं० के पश्चात गये थे परन्तु वे स्वय लिखत है फि उन्दोंने सन्‌ ६६७४ इ० मे शिवराज भूषण अन्थ समाप्त किया फिर इस बायनी में एक छनन्‍द सलंकियों प्ही पर्शसा में भो कहा गया ए-यादि यद शिवाजी को सुनाई गई थी और उन्हीं के यश पतन मे यनी थी तो यह छनन्‍्द इस में फेसे भा गया ? इस के स्व॒तन्द्ध प्रन्थ दाने फे विरुद्ध यद प्रमाण दे कि इस की वन्दना चाला उन्द दी शिवराज भूषण से लिया गया दे और दो एक छनन्‍्द्‌ आर भी ऐस्प दी है फिए इस में आयोपान्त काई प्रयन्ध नहीं घरणित ए--फिसी शन्ध कार ने इन्हें स्वतन्त्त अन्य कहा भी नहीं है । ( ये ) छितीय प्रश्न के विषय में हमारा यह सिद्धान्त दे कि यह तो अभी हम नहीं कट सफते कि भूषण सद्दाराज फे फोन फोन प्रन्थ आर ् परन्तु इतना अवश्य फर्देगलाकि इनके कुछ अन्य गअन्थ निभ्मित अवश्य हुए धें-इस ग्रन्थ फे पुष्टिफर कई कारण दे जो नीचे लिजे जाते ६ --० इन मसहाराज ने शिवाऊी फे राज्यासिषकफ के वणन में जो सन्‌ १६७४ ई० में ड्ववा था एक भी छन्द नहीं लिखाया या फहें कि इन फे प्रस्तुत ग्रन्थों में एस्त एक भी छन्द नहीं दें-यदि यद्द कहेँ कि ये मद्दाशय युद्ध फाब्य में ही आानन्दित द्ोतें थे भार साज सामान फा चर्णन नहों कर सकते थे तो हमारा कथन असत्य होगा क्योंकि इनन्‍्द्दी न राज गढ़ फा वड़ा दी उत्तम चर्णेन क्या है--यादि फद्दा जाय कि ये उस समय अपने देश चले गये होगे सोभो नहीं प्रमाशित हो सक्ता फ्यादक्ति ऐसे प्रधान उत्सव के समय काचे भला फैसे अनुपस्थित रह सक्ता हैं ? फिर यदि इस मसम्सव वात फो सम्भच भी माने तो लोट कर भूषण ने उसका पूर्ण इत्तान्त अनृश्य सुना दोगा तो कया ये इस उत्सव के विषय एक भी छनन्‍दन लिखते ? यादि फर्ठे कि भ्रूपण जी तो शिवराज को सदाही से महा राज़ आर राजाधिराज कहते चले भाये थे तो फिर अन्त में उनफा राज्याभमिषक फैसे बरणन फरते परन्तु यद कथन भी य॒क्ति संगत नहीं जान पड़ता क्योंकि यद्यापि स्वयं शिवाजी अपने को सदेच से राजा कटद्दतें थे तथापि उन्द्रोंने अपना अभिषेक किया-फिर शिवाओ न यदह्द अभिषेक बड़ी दी घूम धाम से किया था और शास्रानुसार जो जा रीति ये उसमें हानी उाचिन थीं सब फराई थीं तो फेर भूषण उन्हीं के कावे हो कर किसी न किर्सो प्रकार इसका वरणन फेस न फरते ? क्या यद्द सी सम्भव है कि फोई मनुष्य आज तक फा पद्रातिहास वरणन करने वेठे और विशेष करके कारें और फिर भी दिछी दरबार का नाम्‌ तकत न छे-यह तो निश्चय है कि भूषण उस समय जीवित थे क्‍योंकि सन्‌ १६७८ इं० घाली करनाटक की: पढाई का वरणन इन्होंने किया दे--जय यह असम्भवर दे कि इनन्‍्हों ने भाभिर्षेफक फा चरणान न फिया दो तो अवश्यमेंच इन्हों ने किसी अन्ध में उस का चरणन किया होगा जो चझनन्‍थ अभो तफ हम फो नहीं मिला दें >-० इन महःशय ने कितनी दी ऐसी घटनाओं को अपने प्रन्थों ५ समावेद् नहों किया है कि यादि इनके अन्य अन्थों को भ्रस्तुत होना न मारते तो आश्रय सागर में मश्न होना पड़ेगा--इसी प्रकार उस समय के कितने ही भसिद्ध पसिद्ध व्यक्तियों फा नाम इनके प्रस्तुत भरन्‍थों में नदीं आया दैनयथा चौथ ' पंच सरदेशसरुजी फा नाम इन के अन्थों में नहीं आया है इसी प्रकार छत्नसाल आर - शिवाजी के साक्षात्कार का चरणन इनके श्रस्तुत भन्धों में नहीं है समूलोचक । २४५ इस के ग्रन्थों में शिवाजी के अनुयायी युद्ध करताओों का नाम नहीं लिखा है यहां तक कि शुरूबर अली रामदास जी तथा कविव्र भरी तुकाराम जी तक का वरणान नहीं मिलता दे-शस्सा जी फे स्व से प्रधान कृपा पात्र कुछूष नामक पक्र फान्य कुजब्ज प्राद्षण थे जिनकी औरंगजेब ने पकड़ कर मरवा डाछका था-भषण स्वयं फान्यकुष्ज ब्राह्मण थे तथापि इनके फिसी छन्द में कुकष का चशोन नददी दे-शिवाजी के शील शुण बनाने में उनके पारूफ दादा जी सोन देव तथा उनकी माता जींजी बार का बड़ा प्रभाव पड़ा था तथापि क्षण जी के फिसी छन्द में इन में सेफिसी का चणन नहीं हें-ऐसा सम्भव नहीं दे कि कोई व्यक्ति त्राह्मण होकर मद्दात्मा रामदास फा चर्णन न करें अथवा कबि होकर मराठी कियों फे शिर मोर तुकफारास जी का नाम तक न के-- इन सच यातों से स्पछतया बिदित द्वोता दे कि इन महाशय फ कई ग्रन्थ देखने फा अभी हम लोगों फो स्लोभाग्य नहीं प्राप्त छवा दे--( बिदित दो कि हमने इस्त फकारणावली में सब के सब अन्तरंग प्रमाण दिए हैं. बाहिरंग एक भी नहीं दिया हे-- अन्तरंग प्रमाण ' उन्हें कद्दते हैं जो उस्सी प्रन्थ से निकलते हैं ओर “बहिेरंग उन्हें जा किसी अन्य अन्थ से या किसी दूसरे भ्रकार से विदित दो हमारे किसी बहिरंग प्रमाण ( 2९724 -७०४4४४८८ ) न दने व्यय कारण यही है कि भायः ऐसे प्रमाण हमें पद्दुत कम ज्ञात रहते हैं ओर अन्य फई प्रस्तुत लेखक गण जो 'बिषयों फी छान बीन में अपना समय अधिक देते हें बहिरंग भमाण हम से फहीं अच्छे दे सफते हैं ) ( ऋमचछा ) हे पक्का अकान+-८० ००००० पप किक डक... शीएकिककएलकऋ-रणाड८८5०८००८० रूम. डे अजमेर मे मनीषि ( १) सभर्थंदान जी का एक “ राजस्थान- समाचार ” प्रेल है । उसी से र।ज रस्थान-समाचार नामक अर्घसा- पसाहिक पन्न निकलता है। उस प्रेस की कंपा से समालाोचक का दिसम्व॒र का अड्ू न निकछ सका | फापी प्रेख में नवस्वर क मध्य भें दो गई थी, भर आशा की जाती ह कि दिसम्बर का समालों- चक अप्रेल म निकझल सके । ल्याचार हमने यह श॒ग्म संख्या अन्यत्र जलदी से छपवाई। भाव्रिष्यत्‌ स समय पर निकलने का पूरा प्रबंध कर दिया गया है। खेद का विपय है कि “ व्यय ” नामक क्रमिक लख भी ने छप सका । ४6 सूल्यादि <+« समालोचक का अश्लिम वार्षिक मुल्य श॥) एक संख्या का ७) विज्ञापन प्राति प्रकाशन एति पंक्ति ७) एक पृष्ठ बारह प्रकाशनों में २०) उध्यार का हिसाव नहीं । >>35 त्काजा ब्थ्ट साहक मुल्य भेजते जांय, अथवा थी पी स्वीकार करें। वी पी चे 8 का च+ कै. ब अप्रां हर फा लोटाना बड़ा गद्दित काम है, ओर उसकी फलरूस्च॒रुप अप्रातिषण्ठा से सभी लेगों को चचना चाहिए | हि प_:6॥8:#8]॥ #0 ४ 25. >>>« क्षमाप्राथना «६<६< वावू अयोध्यापसाद ने सारायण पांडे के विषयों में जो पम्फलेट निकाला था, उस पर पांडे की फे मानहानिक मुकदमा दायर करने पर यावू साहेव ने जन्ट मजिएर इमसेन साहय फे इक़लछास में पस्वमा मागली | अच्छा हुआ । घन्चचाद दूर दूर से समालोचक की स्तुति दो रही हे ! इन सब उदार महानुभावों को हम हार्दिक धन्यवाद देते हे ओर दिसम्बर की संस्या में जो लिखा दे चही उद्धुत करते है कि “ इस पूर्तिष्ठा का 'निमाना उन्हों सब महोदयों के दाथ दे” 3 एक ओर बात 97 अब के फामसा की ऋरूमी देखवःर पाठक घबड़ांए नहीं । गत तीन मास मे हम नियत से अधिक पृष्ठ देंते आए ६ । अविष्यद भे भी हम इस मूल्य में आकार शद्धि करने का यक्ष करते स्ट््ग | (( उत्सव ») उत्सव रे. हब हमारी चक्षुप्य नागरीप्रचारधा सभा का शुभ खहए ता? ४८ फरवरी की हद सिम में छोटे लछाट्टद एचारग। भा न्म्पिस्यि विल्लेय आधिवषन में ऋापा सम्बन्धी वड प्रश्नों क्र घिचाग भा हागा घट्मे यहा दर 7 ६ वेग + ] पतदचड।धा£5४8६४० 9 3 25 समालोचक 7७ .. पासिकरपस्तक__» [ सख्या २०, २१ वार्षिक मुल्य श)/] मार्च अपरेल १९०४ [यइसरूया।-2 नच्जिष््क्श््स्म्प्सण्स््म्प्स्ज्स्ऋष्कटऊ इफप्च्ए्ररसण हक व5 ९:+म्0० # ससक एप “*--ननल्स २६ २भ २० ९४२५-२५ ०२५ २०४२५ २६ पक (० 27 २६5८ कद ९०२5 ₹7 १6 (7२० 77 २5 (7४ थबिषय पृष्ठ भारत वारहमासा ( वबाब राधाकृष्णदास ) २४७ अजञ्, तन, सत्रन्न *... **+ 5० ५5०० हिन्दी के ग्रन्थकार (१) [ एक परवासिनी वछ्रमदहिला | २५७ पठ्माकवि विर्दण_[ पण्डित गिरिजामसाद द्विवेदी | २६७ पद्नाऊत्रि भूषण | पृण्डित व्यामब्रिद्दारी मिश्र एम० ए० ओर पण्डित शकठंव विहारी मिश्र बी० ए०) २७५८ तिव्वतके यति भारत ( पण्डित राधाकृष्ण मिश्र ) २५३ रेल भी शिक्षा हे मा श्श्ष्‌ हमारी आलपारोे " *. २८८ सरस्वती का शुक्र ( पण्ठित कमलाकर द्विवेदी एम ए २९५७ प्राप्तिस्वीकार, पत्रच्यवहार, आदि प्रोप्राइटर »% प्रकाशक। मिष्टर जैन वेच्य, जोहरी वाज़ार, जयपुर । ७र२।|पि८ट> ८ तर-॥+६ 5070७3८55४४%7२ रिरे६55 85793&7२६5 27४ दे ४:22:य ४:20 ४ ४:४४ 253 द0 5५ 5२६ 77४0:5%;४८ट७रे #“्से > ४ ४7259 ४: 55 ४: ५२२ भापिस्वीकार ---्_्ब पशणिडत गोरी शड्डूर न हीराचन्द ओझा टाड़ का जावन चाररिपत्र ' बाबू राधाकृष्ण दास भारतेन्दु का जीवन चरित्र पाणेड्त केशवराम मद हिन्दी व्याकरण पांगेडत स्वनिश्वर मिश्र बलचन्त भ्मिदह्ठार परशणिडत गशपत्ति जानकी रे राम दुबे, थी. प. | मना बज्ञान मुन्धी देवीम्रसाद प्ल॒न्सिफ, | जन्तर[ १९०४ ( लिथो ऐिल्लादरवचार जाधथ पुर का चत्तान्त हैं । तता्थ और उत्सघ ही ठोक छगाए है ) हक ५४७०७ ०७७ ; नचय॒ग ( मराठी उपन्यास ) पणिडत किशोरॉलालगोस्वामी मस्तानी नारायशणा पांडे दी. ए कचहेरी कोद्ा (“ए* उसक्षर के आअश्रज्ञी शब्दों के हिन्दी अथ देने का यत्ल । परिश्रमस काम पूरा होने पर इस्त पर कुछ लिखा जा सकता है। नागरी प्रचारिणो सभा इसे छपातन चाली थी ना ? ) उपहार मई मास्प में जो महाद्राय समालाचक के साथ से आधिक ग्राहक बनावेंगे उन्हे प्रसिद्ध श्रन्थ भारतम्रमणशा का प्रथम भाग और उनस कम बनाचेंगे उन्हं उसी प्न्‍यका पश्चम खण्ड उपहार दिया ज्ञायगा और उसके ज्ञाम धन्यचाद प्रवेक म्रमालाचक में छांप जायैंग | सी पा लेोटानवाके महाशयाका हम घन्य वाद उक्त स्स्‍या म॑ देंगे जिसमे मूल्य दे देने चाल सज्लनोंके नाम निकल मे! -नगै: समालोचक ॥६-<- अयाायनीपपदुमलाम भतार कम रतसाउउपरदशारामडकाारमसा2 मा मदाइकपशपपदद भ वुमन यव न परम पपपरकउर हरकत स्टा३>॥ का यर्पकाए परम र+* पाया वन इ९०:१5.<१भ मा रनिनदृदाता 3: पा रथ आना अपराध मद एमुरूर॥ "कृत ८ दऋरा पट ८ तय "पार मलाररनसनक++ाभम मम दम '.. २ भाग | माचे, अप्रेल (२०, २१ संख्या_ २९०४ सारल बारह सासा ! लाग्यो। असाद सुहावना सब देस मिलति आनंद करें | योरप, अमेरिक, फांस, जमेन मोद जियसें नहिं घरें इक हम्न अभागे देसभर क्रे वैठिके रोवत रहें । सौहें कास क्रीड करनो हमें वास व्यथे दिन खोवत रहें ॥ आयो सुलावन सन बढावन सवहि के आर्नेंदर भयो १ घनगरज चलकन घिज्ज्ञुकी अंधियारचा रहुविसिछयो ॥ शो चमक गरज गेँभी र मो कहें अतिहि हाय डरावही। भए नारिें रूस डरपत रहे विरज न हियमें रावही॥ भादों छग्यो आधो भयो मन कौन विधि जीवन घरें ९ इक तो रहो अँधियार सो मन और चह॒दिसि घूमर ॥! जहे बोलते दादर पापिहा सेरा सव मन मोहते। अब रटत आठहु जाम उल्लू अतिहि सुन्दर सोहते ॥ श्छ८ समालोचक [ ग्ॉ्य्य्टट टन म मपकानू- १७० नमन कम न कक पक कू पक मूक कूष पक थय५+ कम कान मूण करन भय भय धयक गाय ०-० मसल काला काइइ आह मयम्णाह पाक" नम नाक लक धान» नजारा न «वथल- जा» +नट मम "रात पाक “र्यन्‍नीः विक्याममा 'ैसममनन ऑं>पपरानूना "प्यारी पम्यानमानक सओंू्मादुकान "रफममान व्पाम्माामाा हल. स्‍०पन-यापानन. सीमा. ल्‍ममाझार गा आम निया कला ला] आयो कुआर तुबार लात्यों पास कपड़ा हू नहीं । जब देहिं मिच्छा यूरपी तव काम कछ चलिहे कहीं ॥ अब और कछु बाकि नहिं इक नामही बस बाचि रच्मो । करि श्राद्ध पितरन याद करि अँग अंग शोकानल दह्मों ॥ कातिक पुनीत छूग्यो महा दीपावछी हू आगई | करि याद पिछले दिनन के वे सुख सवे आनेंदमडई ॥ अब कहों धनतेरस रही बाचे ? हारि जूआसें गए। अब बालिके तन आपनों दीपाचली हमही भण ॥ अगहन महिना गहन सो लागे नास हमरो सब भयो। वह तेज वह उँजियार॑ सबही एक छिनसें नसि गयो ॥ अचरज ! भए गोरे सुराहु आओ चन्द्रमा काछो भयो। अब भीख माँगत देस सबही दानमें घनवलछ गयो ॥ अब पूस आयोरुस आयो सुनत जिय औरहु डस्ब्ो । थोडो वहुत जो कछु बच्यो इन आगमन सोऊ जय्थो ॥ जानेँ नहीं क्‍यों रूस बैठे वयाससखुन्दर मोहना | भए हूस हम खंडहर भयो सब देस सुन्दर सोहना ॥ साघ मास बसन्‍त आयो हम वसनन्‍त निज भणए। खेड सब घन मान विद्यां फूलिके उमगे नए ॥ पतझार धन को होडगो अरु पीयरे सब जँग भणए । अरू आम से बौरे हमीं ढुख रोग चारहु दिसे छण॥ समालोचक)) २४९ फागुन लूग्यो भागुन लग्यो हिय आइ हो ढी सिर चढी । लह्टू टपकन लगे आंखन मनु नदी रंगकीबढी ॥ रह्यमो जो कछु बच्यो थोरो सोऊ सब इकठा कय्यो । झाँकि होलीकार्में दियों तहि एक छनमें सब जस्यों ॥ बैत लाग्यो चेत नहिं जिय तानिकहूँ अजहेँ भयो। चीरता साहस पराक्रम द्वव्य सवहि नसि गयो ॥ अब वच्यों नहिं कछ पास सवहीखोइ वेठे हाय हम | जानूँ नहीं अब का रद्यो जासों अजहूँ नहिं लेत जम ॥ चैसाखमें श्रीषम रूग्यों गरमी चहेँ दिसि छे गड्ढ। का करूँ केसे जीव राखेँ दुःख मय काया भई ॥ मोहि छोडे करुना नाथ हरि नाह जानिए कितका गए ॥ भजि भृत्त प्रेतरु सीतला ,वेसाखनन्दन हम भए ४ जेठमें दूनों भयो दिन कटत कौनहु विधि नहीं । जग दढूँढे डाप्यो मिल्‍यो नहिं साँचो कोऊ सपथी कहीं ॥ गोषम जराबे तनहें सनकी हाय शोकानक्ष दहे । हाय नहिं कोउ मीत निज सन वेदना कारसों कहे ।॥॥ इामे रोह बारहमास जिय भारे हरिके चुप द्वे रह्मो | समसुझि अपुनो मीतव भर सनन्‍तोष आते गाढे गहयों ॥ राजधघन ऐश्वयें बल सब भाँतिसों भूलत भयो । हाय आपुहि भालिके यह दास भारत वाने गयो ॥ श्रीराधारृष्णदास | अन्न, तत्र, सर्वत्र । ७तत>->+>०_्ाम--->फ्पममइल ८ नह :773:--- कफ नरपका--व्वम [ए--"०.व०-++पमननानननम-नननन-++. नस भाषा की भाषा ---प्तरेकार तो हिन्दी उद्में अक्षर सात का भेद रखना चाहती है ही, किन्तु युक्त मान्त फे कई छयो- ग्य मनुष्यभी उधर झुकते दिखाई देते हैं | प० किशोरी छाल गो- स्वामी मे, चन्द्रकान्ताकारकी तरह, शिवप्रसादी हिन्दी फे शण्डे के नीचे खडा होना स्वीकार किया है। पावू अयोध्याप्रसाद, पण्डित लह्ष्मीशक्लरमिश्र, और छाला सीताराम पी ए. भी हिन्दी के सुन्शी छाइलकी ओर शुके हुए हैं । नागरोमचारणी सभा के वि- "शेष अधिवेशन में सभापति के आसन से वाग्मिंवरं पण्डित मालवीय ने. भी संरक, और ठेठ हिन्दी की वहुत्तही स्तुति की। झोंग इससे - पॉण्टितजी को भी उदमय हिन्दीका पक्षपाती न॑ समझें, उनका यह कथन अर्य वाद ही था, क्‍्थोंकि उनके भाषण को भाषा असछ और पवित्र हिन्दी थी । नागरीप्रचारिणी सभा ने अपने एड से ' थी अपने को “ उच्च हिन्दी के पक्षपाती नहीं है” कह कर पा- 'पछसी चंछी है, किन्तु सरलहृदय लोगों के मनरमे इससे धोखा हो सकता है।। झोगे पालिसी में चाहे कुछे कह जाँय, किन्तु अपनी 'छेख्णिनी की गतिको नही वदलू सकते । पवित्र हिन्दी के कुएं का सोता सदा संस्कृत दी शहेसा। एक वात और बढ़ी भज़ेदार है । बदुभाषा के बैयाकरण सस्छतकी भरमार ,की सदा विरोध करते आए ह। हिन्दी वालेभी ठेठ और तदभव शब्दोंके पक्षपाती रहे समालोचक | .. २५१ (-इमध्रयाहनगूतापइतमदवन्‍्य कप कम स्व काइप॒पातुफ़वाकमम्गलपबदमन्त॒म्य्भक्डइगपदाध्यप्टगर निज ग किट रह प्पूकषपाल्‍प्गहाव्यह फेम पु "रत हडएकुड शून्य मकर थ जः् नहर कदकसल॒कपमडबपइरप्युल्यइस््रमदत पम्प पप्पू यारा मुकपभुरनकरइकलसज_इल्‍दा कपल कम ्ाया मना" प है! । मराठी लेखक भी “वेशज' पदों की स्तति किया करते हैं । फिर क्‍या कारण है कि तीनों भाषाएं सस्क्ृत से पेट भर शब्द छिए जाती हैं ! इसका कारण देने को दर नहीं जाना होगा। इन भाषाओं की नेसर्गिक प्रवृत्ति संस्कृत की ओर है, ओर वच्चे को माताका दुध छुड़ा कर “मैलन्स फुड ” पर पालना कदापि ठीक नही' होगा । । । हर मे कं मे काशी के पण्डित (२) काशी में कितना अनुपयुक्त और दुरुपयुक्त सामान है, इसका जानना वहुत सहज है। आ- जकक जब सरकार और रत विद्य बेशियों की दृष्टि इस ओर है, तो हिन्दी दिन्दुसंस्कृत शुनिवर्सिटी का भस्ताव उतना असम्भव नही मालूम पडता। सभाभवन स्वोछने के समय छादुश साहब ने प्रध्यम परीक्षा पास करके आचाये के लिए पढने वाले अंगरेजी जानने घाले छात्रों फो २५) भासिक देना प्तिश्रुत किया है। आचार्य निपुण छात्रों को भी पांच या तौन वर्ष विद्या भ्यास के लिए १०० ) वा १५०) पतिमास देने फी आशा दिलाई है । साथही एक अच्छे बोर्डिक की आवश्यकता भी जतलाई है। काशी में कई राजाओं के विशारू मकान खाकी पढे हैं| जिन में प्रत्येक में ५०३ ६० छात्र रह सकते हैं और जिन में नेपाल, दीधघापटिया, दरभक्का, ग्वालियर, इन्दोर, भेवाड ओर जयपुर के भवन मुख्य है। इनमें से परत्येको आवसफोड के होसकों के स- मान छात्रावास चना कर एक धामिक ग्रेजुएट और एक पद्शास्त्रो को उसका अध्यक्ष बनाया जाय ॥ उन सन्नो को भी, जिनमें सह- २५२ समालोचक | न्स्स्स्स्स्य्य्य्स्स्स्स्य्य्य्य्स्य्च्य्य्ल्स्स्स्स्स्स्स्य्स्च्ल्ल्ल्ल्ं्ड्टड्ि्स्््च्चिचिचिच स्त्राधीश भी घुफ्त की खीर उदाते हैं, इन के अधोन किया जाय। विद्यार्थियों के। लट्ठ चाकाना और कुछ्ती करना आवश्यक हो। अवष्यही यात्रियके इल्‍ले ऑर 'रांढ सांड सीढ़ी सन्यासी' से इनमें रहने वाले छात्रों को विक्षेप पढ़ गे, किन्त जब तक विपुर धन सम्पत्ति से गड्गतट में हिन्द यूनिवर्सिटी का शञान्ताश्रम स्था- पन न हो, तव तक इन स्थानों को भी कब्जे में लेना चाहिए । ये सव होछझल आक्सफोड के कालेजों की तरह काशी की पाठ शार्ाओं को अन्तभूृत करके पढावें भी, और सस्क्ृत कालेज से पढें ओर पदवियाँ भी पावें । कोशी की पण्डित मण्डली भी अब नई वातों से उतनी छणा नही करती और |प्रवन्ध से नहीं छि ड्रती । उनके द्वारादी पर्व पश्चिम का सम्मिलन होना चाहिए | अँः मै भेः अं चतुभोाषी----जिस पत्र की बात से हम पुलकित हुए थे, घह कदाचित्‌ कथा शेष हो गया “ द्रसे आए थे साकी | छन के सैखाने को हम | वस तरसतेही चालंअफसोस ! पमाने को हम? ॥ मं मः # कै सहयोगिसाहित्य--नागरी प्रधारणी सभा के एक पराने अधिवेशन में वाव श्यामछन्दर दास ने ठीक ही कहाथा कि यूनिव- सिंटीविल पर हिन्दी सम्पादकों ने अपनी स्वतन्त्र रोय यों न छिखी कि फदाडित उनमें से किसी को भी विश्वविद्यालय में परर खने फा सौभाग्य न मिला हो। ऐसे सम्पादकों के लिए रूस जापान का युद्ध मानो ईश्वर ने भेजा है, क्योंकि इधर उधर से पत्र को भर कर पुरानी रुखासको पूरा करनेका अच्छा मोका मिलेगा । हितवा सपरालोचक | २५३ बंकमरीशाा-म भा -गय.. “गया. "मम, "गेम "रदातन्मय्न पका +कया पका “माय पक मिनी “पहन पान. मिमी पेज मिगाहट* गान 'उदमयत माकपा नायातमम ऋ्याओ जाओ गिकमाढ "ननाओत फरमान नफरत जन आधा %मआओिगाक- ताँका आकार वददला, किनत भाषा नहीं । महामण्डल का विवाद कुछ ढीला पढा है, ओर उसका स्थान , मिसेज बेसन के हिन्दू- कालेज की चर्चाने ले लिया है। हर्षकी वात है कि बेछूटेश्वर में पक तिव्वती परित्राजक ने यात्रा लिखाकर हमारे सिरका घोश्न उ- सारा । सत्यवादी का ढग अच्छा है, यदि वह पायदारी करे और धाटके नही । ढाक विभाग का नया नियम रोचक विहार बन्ध को १८ पेज का क्यों नहा कर देता ! मं अक नागरी भवन का उत्सव---अभी हिन्दी की कान्‍्फ शेन्स का समय नही आया है तथापि सभा के उत्सव में जो सहान भूति ओर प्रेम दिखाई देरहाथा, उससे भविष्यत्‌ के छिए अच्छी आशाए होती हैं। बढ खेद की वात है कि सामयिक पत्रों ने उचित सहानभूति नही दिखाई । सभा के कल्पित दोषों पर चटक ने वाऊे पत्रों के मत्ति निधि नहीं आए थे। पण्डित वद्रीनारायण जोधरी की सांवछी सूरत और घुघराले केशोंमे भक्तों को आलेख्य शेष हरिद्चन्द्रजी का दर्शन होता था। सभा के वार्षिक सम्मि- छन का विचार किया गया है,और परिश्रमी “गोरे श्याम सांवरी राधे ” की युगल मृत्ति ने इस उत्सव को अपने और हिन्दी के स्थरूप के योग्य पनाया ! .. ऑर्ुद मई: दो पदार्थ ऐसे हें जिनको दम जितना अधिक विचारें उतना अधिक ही वे मनको नई और बढती हुई मक्ति और भादर से पृ- रित करते है-वाहर का तारामण्डडल और भीतर फा सदाचार नियम । फान्ट | | द्प्र्ड समालोचक | ज्च्च्च्च्च्च्यस्च्च्च्च्स्स्स्स्स्स्स्ल््चस्ल्ल्ि्ल्ललिििििडह्लिलललजजल आर सहयोगिसाहित्य प्रयाग समाचार में “अबछा वाला” का “खून ” होगया ओर चाहे सम्पादक का अनुभव काम चलाबे, किन्तु पुरानी महिमा नही आईं । भारतभगिनी औरों के लेखों की नकरू करके कवतक चले गी १ सरस्वती की नई सख्या चहुत अच्छी आई है ऑर उसमें दो लेख अच्छे होनेके सिवाय सोके के भी हैं-कोरिया और तिकक महाशय के ग्रन्थ का वर्णन । सरकार की पाझछी नई भाषा को बहुत ठीक झुखन्नस भाषा कहा है। हिन्दी वालों का सम्मिक्तित जीवन क्रितना३है ओर क्रैसाहै इसका पूरा पता उस लेगडी चालसे लगतोंहे, जिससे, भारतमिन्र के सिवाय, हिन्दी पतन्नोंने काशी की सभाके उत्सव का हाल छिणा है। हम नही समझते कि भारतमित्र की नेपोलियन की जीविनी साप्ताहिक पत्र में छपने लायक है। हिन्दी वद्भवासी होली पर तो अपने पुराने रुप पर आगया, किन्त अभी कुछ ठीक नहीं वना । ऐड साहव के आदर्श दैनिक पत्रके रछि, स्थिति, विनाश को दंख हिन्‍्दो के आदशझ्य पत्र वालोंको अधिक दृढ़ होना चाहिए । रभेः रे: मर विश्वविद्यालय बिझू । कलकत्ता युनिवर्सिठी के अध्यक्ष के भाषण में काट साहव ने ४ अन्तिप विव्॒वविय'लय॑ के अन्तिम अध्यक्ष ” वनकर विश्वविद्यालयों के झुहमें गड्ाजल और तुझसी डालही दी है । कह्ाभी जाता है कि विश्वविद्या छयों ने काम किय( है, तौमी उनके पदलने की जरूरत समझी जांती है । उनमें अभी माचीनता न होने से मिक्तित जीवन नहीं है, तोभी क्‍यों उन्हे और भी नवीन किया जाता है । उसी दिन समालोचक | २५७ निया /इस्‍ऊफस्‍क्‍्स-सः:सससइसस ससकचसकचसअसखसलनसकसकसकस सकइ आस अइ इक ् अइ्अ _् अबक्‍्अल्‍ल अअइफइछइउछउड न इ:ईडटरन-चडचइचइककहनजनन न लक» +० १०अमानरभायाइाा"- पाइप कह स्‍ "4०० पूनम... मना. कया एम. समा मा धरना न र+गा. 7 आना न का सदन की न आग... हट पल साहवने स्पन्सरकी सम्रालोच्नना करके वे लियछ काछेज वालों के उथलेप्नका भ्राण दिया और कदाचित्‌ कजनी यत्ति वसिटियों के नए ओर विरल ग्रेजएट ऐसी ही अनभिज्ञ स्वयं सतुझता वतलावेंगे | सरकारने अपनी शिक्षा पालिसी पर भी बहुत कुछ लिखा है जिसकी वात आगे कहसे । गोपन विधिका सा विरोध इसका होना ही नही ओर भाण्डारकर के क्षाण्टार की सोहर वन्द है, इससे आहर्च्र्य नही कि यह घिलहू, अपने स्वरूप में इन टिप्पणियों के प्रकाश होनेके पहलेही वज्जछप होजाय ओर बृट्शि राज्यकी सर्व प्रधान नियामत शिक्षा का मार्ग सकडा करने ले | हु ५५ नै न्ः , डॉक्टर महेन्द्रलझाल सरकार---+शैज्ञानिकों, और ले खकों मे बेन, हर्ट स्पन्सर, मोम्सेन,लीकी ओर हछ॑ स्‍्ली ऐछेफन को इस वर्ष जगत ख्वो चुका है। भारत व को एक ऐसे मनुष्यका भी शोक है जो न केवल वज्ञानिकद्दी था, किन्तु जिसके जीवन का परम यत्न इस अधशिक्षित देशमें विज्ञान का प्रचार रहा । डाक्टर सरकार उस समय के मनष्य थे, जब असन्तठ्ठ ची० ए० से घणा न थी इससे उनने उचित सम्मान पाया। उनने विज्ञान की शिक्षाके विस्वार के लिए जो यन्त्राऊुय स्थापन किया हे उसयें उपाधि के छोभियों ने चानदा नहीं दिया, तोभी वह भारतवर्ष में प्रथम होंकर भी जमेनी के सब से भद्दे यन्त्रारूय से सी भद्दा 3 । कछ वर्ष हुए, उनने वे हृदय विदारक स्व॒स्म अपने उठयोगकी (नप्फूलता स्वीकार को थी। गतब्रष जब विश्ववियालय कर्मी शत २५०६ समालीचक । आम ३ कं. के उलटे प्रस्तावोने देशकों हिला डाछा था, उनने यह उद्धार - निकाला था-- । ४ भैने कई वार कहा है कि दृटिश राज्यमें हम अपने राज्य से स्वतन्त्रता, काम और बिचार की स्वाधीनता, अधिक भोग रहे हैं । किन्त हा ! बुटिश राज्यके सबसे चढ़ बर इस स्वतन्त्रता को इस तरह दुटने की धमकी पाते हुए देखने को में जीता रहा ! यह कहते मेरा के जा फटता है कि कमीशन के प्रस्ताव साधारण शिक्षा की जड़ काटते ओर विज्ञान की शिक्षा को निरुत्साह दें- ते दिखाई दे ते हैं ”। भाग्यवान्‌ थे, के कमीशन के यत्रोंके फल. के। दं खने के पहल ही वहां चले गए जहां सब विज्ञानों का विजेय विराजता है ऑर जहां की वज्चानिक शिक्षा को कोई नहीं धपका सकता। डाक्टर प्रफलचन्द्र राय और जगदीश बसु को उन का चोगा उठाकर साइन्टिफिक एसोसिएशन को पुरा वनाने का यत्न करना चाहिए । शैट मे भेः शेंः उपन्यास और फहानियों के लेखक पाठकों फी दूनी हानि फर- ते हैं, उनका रुपया भी नछ करते हैं ओर समय सी | मनुष्य, चाल और चीजों को ऐसा बनाते हैं जैसे वे फसमी न थीं, न होगीं। उप- न्यास या तो सत्य. और इतिहास को मरोड़ते हैं वा नाश करते हैं, सन को फुला देते हैं, वा घुद्धिपर अत्याचार करते हैं । लेडी मान्टंग । #ः ः ल्‍ह र्ः हिन्दी के ग्रन्थकार (१) फरविरनुहरति च्छायां, कुकवि; शब्द, पदानि चाण्दाक$ । अखिद्॒प्र वन्धहर्त्न साहसकतन्ने नपस्तुभ्यम्‌ |! ( उद्धद ) गत आधशश्वन महीने फे “ प्रवासी ” में “ हिन्दी सामयिक् साहित्य ” इस नाम के एक लेश्न को पढ़ कर हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में दो दो बाते कहने को स॒झे भी इच्छा हुई उक्त प्रबन्ध के छेल्लक महाशय एक स्थान पर लिखते हैं “ अज्ुवाव करने स॑ कुछ बुराइ नहीं है | किन्तु चंगछा सूछ अन्थ के लेखक वा सवत्वा- घधिकारी की अनुमति न लेकर हिन्दी में अनुवाद फरले की प्रचा हमलकोगों ने देखी सी हे ओर बहुधा ऐसा काय्ये फरने धाक्तों फो सावधान भी कर दिया है। ” प्रनभ्थ लेखक की जाज्ञा न लेकर अज्ञवाद फरना तो आधुनिक हिन्दी लेखके। की एक ऐसा रोग दो गया दे कि जिसकी कोई द्धा नहीं मिलती | किसी तीम्र मौषधि का प्रयोग न होने फे फारण ध्याधि भी दिन दिन चढ़ती जाती है ।बंगभाषा फे मयडार से चोरी कर फे ही इन लोगों की भन्थकाए कहलाने फीोी विंकट छालसा पूण दो रही दे । ह# अल्लुमान करती है कि परल्ोक बारी यातू गठाधर सिंह ना जी छा हा यम अमन १-कावे छाया लत हं,कुकाच दार्द्दधा का ओर चउशगहान्ड पर्दो को उल्ातेदे । जो सारे प्रवन्चह्ांका उड्ारू,उस साटम्यकष्चा को प्रणाम दे [ २५८ समालोचक | घंगला के पदले अज्भवादक कट्दे जासफकते हैं । उन्होनें पहले “कार्वंबरी' उसके पीछे “/ दुर्मेश-नन्दिनी ” और डसके पीछ “ बन विजेता का भन्तुवाद किया था। इन तीनों पुस्तकों में श्रन्थ कतीओं का नाम है, ओर “ यगविजेता ” का “ निवेदन ” पाठ करने से तो मन में बड़ाही आननन्‍्द्‌ उठय होता है । स्वर्गीय भाश्तेन्दु मद्ाशय फे अनुवादित वंकिम बाबू के दो एक उपन्यास देंखे हैं उन में प्रन्य कत्तो का नाम आद्र से दिया गया है। किन्तु उनके फुफेरें भाई के अन्तुवाद में ग्रन्थ लेखक का नाम नहीं चलन, 0... ऑयामकी वयायातनी ९, आन रहा प्िजनमा जब आओ पक पाप जन जता सूछ -आ... हासन, स्पह्वव ने “ स्वणेलता दिया हैं | यदी हाल 'मरता फ्यान क्रता' का है। किन्तु हथ फा विपय डे उक्त बावूसाहब ने सड़ाविलास प्रेस से प्रकाशित दुर्गश नल्दिनां में च.कमबादब का नाम बडा उदारता से शीषस्थान में दिया हैं | अवश्यद्दी मे यह नहीं कद्दती हू कि हेंन्दीके सब आधुनिक लेखफदी टीन चरित्र के मन्॒ष्य है। कितनेंही लेखक पऐेसे हे जो इस भांति चोरी करने से छा फरते है । काशी के “ भारत फे सम्पादक महाशय प्ठछी अनुवादित कई एक पुस्तकें हमने जीवन फे देखी हैं उनमें एक "पद्मावती ” को छोड़ ओर सभो में मूल भ्न्थलेख को के नाम दहै। ' सरोाोजिना ” को छपवा कर ओर “ चातकिनी ” को अनुवादित करके साहित्य समाज से इन्हे यहुत गालियां सहनी पड़ी ' $ | गाजीपुर बासी मझुन्‍्शी उद्तिनारायण जी फी अनुवादित" सती तराट्क ” “दीप निर्बाण ” “ अश्लुमती ” “ जीवन सनन्‍्ध्या ” यह थार एुस्तके देखी हैं,इनमें सूल लेखक और लेखिफाओं फे नाम दिये गये दे । अश्षुमती / फे लिये इन्हें भी बहुत कुछ चोट सहनी पड़ी ( २) मल प्रन्‍थ के प्रथम ओर द्वितीय संस्करणों में भी प्रन्थ कार का साम नहीं दे। छुनते दे, शारतेन्दु जी ने आज्ञा लेली थी । समालोचक | २५० 8.0... ेयाईआाममयापय 2 मा ०" ..आ+-९00५...धुकम्मगा..आ2०--गयह...>त बाएल्‍-अते' “सम -गाहमाओी करनी इुकक-..धनगाएतननि "मार कमा#० "३७... .&॥७-भमया...आ-गमय.प.. २७.3. ०००» आजा. जाला” िममामामा प्रीकन्‍माओं" “यामी आय... धाम सकता. सपााका- 4७. -पन-+नया्नत-मनाकनाका.. नमक“ अम्मा दुलन+-चुकननमक है | काशी निवासी एक प्रवीण साहित्यनेबी के अज्नुबादित पाच उपन्यास “ मच मालतों / इल्ा ” “४ प्रमीला “दुलितकुसछुम” ओर “कुलटा” देखे है ।इम सभो में दुलितकुस्ुम और कुरछूदा के व्याति- रिक्त लेखकों के नाम तो दिये हा नहीं गये, पर “ परिमल ” को चरल कर “८ प्रमाका ” कर दिया गया है। मे आशा करती है फि अनुवादक महाशय ने ग्नन्‍्थ कत्ताओं से आज्ञा अवश्यही छेली छोगी करयाकि चद हिन्दी साहित्य के दूरदर्शो लेखक हैं; उनके छारा ऐस्डे काम के हो ने की सम्भावना नहीं है | इस स्थान पर खेद फे साथ फर्देती हु कि अनुवादक महाशय राचेत “ दीनानाथ ” उपन्यास भी बंगला ही के आधार पर लिखा गया दे बद्धला उपन्यास्त “८ अहए ” और बड़ला , मासिक पत्र “ सखादित्य ” में प्रकाशित ८ द्ादार फाण्ड ” नामक फदानी की छाया लेकर “४ द्वीनानाथ ”” की खष्टि हुई है, यह बात में जोर देकर कट सकती हूँ । फिनतु “ दीनानाथ ” मेंकही इस बात का पता नहीं छूगता। सरस्वती में “ दामोद्रराव की आत्मकहानी ” में भी यह वाद पचाई गई है कि पघद्द चेगला “ झांशीर राजकुमार _ की उपजीघपिनी हे | हां 0 सहाराष्ट्ू्‌ जाति का अफ़््युद्य *' तो लेखक की जाज्ञा स्तर ऊतज्षता पूर्वेक लिखा गया दे | सरस्वती में “ रोशनआरा ? भी योही नमगरेन्द्रनाथगम्त के ग्रन्थ ( गर्पावली ) से छिखा गया दे । पाण्डित शिवनाथ शास्त्री महाशय फे “सेजबो' 'का अनुवाद देखा है, अनुवादक ने उसका नास “ सास पतोट्ट ”! रक्‍्खा दे। इन्दी का अनुवादित “ माधघची कंकण ?? सी देखा दे । इन दोनों में लेखकों का नाम सदारद्‌ । बैगरा उपन्यास “ उदाखिनी राजकन्यार गुप्त कथा '' फो कुछ उलट फेर कर अज्ुवादकजी ने “ सानुमती ” लिखा दे भोर वे उसे स्वराचित फह्ते जराभी नहीं सकुचाते। इनकी २६० समालोचक | न-++----+ 5 ःःःयअखअवचखिखिखखिे चल तन नतनसततन3339+ मम मर 3१3४७ ३ ५७३५छक थाना सम धागा ५+ ५5 म मम “3... >आनान नमी ननान पब-टरीीन का. गभका+--कका-र पा रचित “ देवरानी जिठानो ”” पढने से भी यह ज्ञात होता है कि चह भी वेगसाषा के किसी पुस्तक का अज्ञवाद है। “डबल बोची”' तथा “ बड़ाभाई ' भी ऐसाही है । “योबले यागनी'” तथा “ दादा आर में * अन्थकार द्वारा अनुवादित है, सम्पादित नहीं । झुनती हूँ कि जासूस बेंगछा का अजुवाद नहीं हैं। अच्छा, नहीं है ता उस में पात्र पात्रियों तथा गाओं के नाम चेंगला क्यों रहते हैं ? इस से तो वह कदावत सिद्ध होती है कि “ म्लरगी तो नहीं खाया पर खास लिया ?। प्रकाशक को चाहिये फि बंगला नार्मो फो बदल दिया फरे। घंगला 'दिवीचोधरानी'” के सुरादाबादी अनुवाद का देशन फर खझुकी है । प्रसथ सेस्करण में नाम रहा “ प्रफुछ | शायद त्तय चंकिस बाबू जीवित थ । दुखरे संस्करण का नाम “ देवी ” हुआ; का चौघरानो ?? पर अनुवादक जी क्‍यों रुष्ठ हो गये ? “मनारफल्ञी' मे “€ साहित्य ! फानन की अनारफकी है। कलकत्ता निवासी एक चतुरानन प्लाह्मण कुमार रचित “ बसनन्‍्तमाऊती ” नामक उपन्यास्र देख छ्की है | रचायेता उसे स्वराचित कहते हैं | किन्तु ऊ स्पछ कहती है कि वह दवंगभमात्षा के एक छुद्द उपन्यास “' घोरेन्द्र विनादिनी ? का आविफल अज्ुवाद हे। इस सम्बन्ध में एक फार्ड उनकों लिखा गया था, उन्‍होंने उसका उत्तर देना शायद्‌ अनुचित समभका | ४ भारत मित्र ” के चत्तेमान सम्पादक महाश्य के अनुवादित ३-में ऊद्दां तक जानती हैं स्वर्गाय वेकिमवादू फी कुल पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद का आधिकार खड़ापिलास प्रेस के सुवामी ने ले लिया था। न मारूम किस तरह से यहे छोंग बिना अनुमाति लिये उनकी पुस्तक छापने का सादस करते हे / समालोचक | . २६९ दो एक पुस्तकों में भी घुल प्रन्थकारफा नाम नहीं हे किन्तु जब उत्त' प्रन्थास येग साथाही में सूल प्रन्थकारंका नाम नहीं हैं तथ अनुवादक मदहूशाय फंसे दे सकते थे ? लाला वॉलपुकुन्द गुप्त महाशय पंजादी होकर भी धंगसापा की आलोचना फरते ह यह हषे की घात है । प्रवासी के प्रवन्ध लेख़क ने जिस “ सरस्वती ” पाबत्रिका फा नाम लिया है उसी की फिसी एक संख्या भें माइकेल मधुखुदनद्ष्त लिखित " दीरांगना ” फाष्य की “ श्ञकुन्तछा ” पाज्रिफा का अनु घाद्‌ प्रकाशित डुआ था, और उस्तर के संग प्राखिद्ध चित्रकार राजा रुयियम्मे का 'शिकुन्तछा पत्न लेंक्तनन' नामक चित्र भी दिया गया था| या चुप चाप पराई चोज की अपनी करने चाले अज्लुवादक एफ उचध्ध येशी “ राजा ! उपाधि धारी महाशय हे ! सुनतो हू कि इस्स कविता के लिये उन्हेंने चहुत कुछ परशसा साहित्य समाज से पाई थी । शायद तब हिन्दी पाठककां को (बिंदित न था की यह दंगला फा अलुवाद हैं। राजा साहव फदाचित्‌ सरलस्वभाव से ही सर ग्रन्थ फा नाम देना भूल गए हों। पीछे मारूम होने पर भी छिपाने की चेष्टा होती थी। उच्च समय “ नागरी प्रचारिणी *” सभा के मनन्‍जी महादाय “ सरस्वती ?” के सम्पादक थे। उस कविता फे छापने के लिये में उन्हे कुछ दोष नहीं दे सकती | सन्त्री महाशय “ साषा तत्वचेचा'”? तथा 'पुरातत्ववता” भल्ेही हों; पर वेग साषा से उनका विशेष सम्बन्ध नहों हेडयह वात उनकी अज्भुवादित “आलोक पचित्रण ? की सूमिका में साफ झलकती हैं। “सरस्वती” के बत्तेमान सस्पादक द्विविेदीजी महाशय वंगभाषा भिक्ष हो कर भी भूले हैं । निज पन्निका मे माइकेल का संक्षिप्त जीवन चारित्र द्विविदीजीने भ्काशित किया था। जब उन्होंने जीवनी लिखी हे, तब साइफेल फी जीवनी तथा अन्धा चली अवश्य पाठ फी होंगी। भज्ुवादक राजा सलाहय का चरिज्ञ भी जनक कम किक आक अम्मा... खनन जज “जज 2 र६२ समालोचक । 4० ममम "8-5 >जनी-पनम >>. «मनन. नुममिना- गए ७ मंिनमग. ५. आम ककया. पान नाक नम पका न मे "पा पनपरधनाभीन "गगन नमन" "पान" " माषानाानग पक धन / सरस्वती ' सें प्रकाशित हुआ था । उसमें एक स्यान पर लिखा है राजा साहब की कई एक कविता “ सरस्वती '' में प्रकाशित हुई है । कोन ? यही ““ शकुन्तका पत्र छेखन ही न में सी '“सर- रुवती ” की एक पाठिका हूं और कोई कविता तो राजा साहब फी तब छो' नहीं दीख पड़ी थी ! छाला पाब्बेतीनन्द्न नाम घारीजा न॑ भी “ सरस्वती !' में राजा रविबमस्मों की जीवनी लिखी थी, उसमें भी काबिता फो * ओरिजनल ' मान लिया हैं | सरस्वती पत्चिकाके मनेज्जर महाशाय तो बंगाली हें न ? चह वेगमाषा और हिन्दी भाषा दोनों ही कौ च्चो रखते है तिस पर मी “ झशकुन्तक्ना ? पत्र लेखन को पअथम पंक्ति “ बन--निवासिनां--दासी नमे राज पदवे ? ज्योंकरी त्वयों रहने परसी उसे अज्भुवाद नहों ज्ञान सके, यह एक सयोग्य चंगाढी साहित्य सेबी के लिए वड़ीही रूज्जा की बात है । आज “ शकुन्तका ?” पत्र का अलुचाद हुआ, फल सारे “वीरा- गना काव्य काही अज्ञुवाद हो जायगा, मोर बंग साहित्य सेबियों फो कुछ खबर भी न होंगा। फ़्या सम्पादकने पत्र का मान बढाने फे लिए राजासाहव का लिखा सुर नास छोड़ दिया ? (हैन्दी पाठकों का सिद्धान्त हे कि वेग साषाके कित्तनेंह्ी उपन्यास अग्हील छे ! काशी के एफ गोस्वामी महाह्ाय का राचित “चपला'' नामक एक उपन्यास हालहीं में प्रकाशित हुआ हे । उस “चपला”' की चपलता देखने से तो स्व्रियों की बात जाने दाजिये पुरुषों को भी छालज्ित होना पडता है | '“चपला” चार भागमें समाप्त हुई हैं (४ ) हयकी वात है कि टाक दो चथ पीछे राजा साहब न निज फाविता का अज्ुवाद सान कलिया हे । भीर ज्ान्द्रबा पानच्रक्तरा क अनुवाद में माइकेल का नाम द्‌ देयाद्वध ! समालो चक । २६३ आग. "म भी मन्‍युहि मे. पी पक नकल भरायाका भरा जाया. धरम. एक, बकरा जी दो भागदेखकरही हमारे देवता क़लूच फर गये । उक्त गोंस्वामीजी का एक उपन्यास “तारा ” है, जो बंगला “ राजस्िंह 'स्वे जहुत मिलता है। इसमें ग्रन्थकार ने शाहजहां वादश्माह की चड़ी शारहजादी जहांनारा से,उसके पिता, ओर ज्यप्त श्लाता,दारा शिफोह से जो घाणित सम्बन्ध स्थापन किया है उस्र बात को कटपना सें लाने से भी पाप होता है । इतिद्दास फे पाठक मान्नही जानते हैं कि जहां नारा दारा की तरफदारी फरता थी। कया संसार में स्राठ्तेह कुछ चीजही नहीं है? कि उसके बश् होकर कोदे किसी क्ता पक्ष पात न करे १ है “ तारा ? में तो स्त्री जाति मात्र काही अपमान किया गया है। इसने पर भो एक समाचार पत्र ने समालोंचना करते समय इंस्ते हिन्दी साहित्य फा उज्वलू “ तारा ” कहने में जरा भी संकोच नहीं किया है । फाछझी के उपन्यासों के सम्बन्ध में प्रबन्ध लेखक जो कहते दे मैँंसी उसमें सहमत हूँ । उन उपन्यासों में क्या अनाप सनाप लिखा जाता है, कुछ समझमें नहीं आता। 'एऐेयारी ” ओर 'पतिलख्म' के जोर स्तर आधुनिक हिन्दी अन्थकार जितने पअस्स्भव हैं सबको स्तस्सव फर दिखाते हैं | केवल म्ठउत मनुष्य का प्राण दान देने की _छमता इन लोगो में नहीं हैं। साढूम होता है कि काशी के सुदर्शन! पत्र पे सवत्वाधिकारी सद्दाशय ने हो इस भांति उपन्यास्त लिखने फा मागे दिखलाया है | एक लेसक ने उनकी नकल की है, फकिन्त श्वए्तता सतरें लिखा है कि यह किसी की छाया नहीं है । उसी लता में रक्षनाथ सरधशार करे लेखों छे पृष्ठों के पृष्ठ कुछुम ग्ूंथ गए हैँ! िलयान+ं__-.. "मामा, वैन्‍्का- ता +---+- न्मयूकाल बम अकण पा पश्क. जा कण अगला जूननधनायायनी नकारा पका. > ०... ऋ हमारी सम्मातति ' चपला ” पर सितम्घर की संख्या में देखिए ( संस) २६० समालोचक । उसी लेखक ने रिनाल्‍ड फे एक उपन्यास का अज्ञुवाद किया है ! किन्तु वडी छछ्टता से उसके तृतीय साग की भूमिका में इस वात , का उल्लेख करके इसका प्रतियाद किया है | काई पूछे कि जनाव ! यादें यह पुस्तक आपके मगज़् से निकली है तो “ आत्माकेबेचने ” फा अर्थ आप क्या समझते हैं ? यादि अज्णुवाद नहीं है ता पिशाच फो जात्मा देना, रतीजी के विवाह की दछाली, कुछ फन्‍याओं का दूषणा प्रभ्तति क्य/ आपके पुरय सगजमें विद्यमान थे ? इन उपन्यासों के नास में तो हिन्दी दै ओर काम उर्दू है । इनमें सुसलमानी शब्द इतने रहते है कि उसे किसी हिन्दुस्तान की मात भाषा कहते लज्जा माझूस होती हे | क्‍या यद लेखक अपनी जननी वः सहघ- सिमणी से ऐसी भाषा में वतोलायप करते है? “ज्यारी ! के उपस्यासों को छोड़ फर भोर यदि कोई पुस्तक इन लोगों की स्घराचित है तो वह प्राय- दो चार प्रछ से अधिक फी नहीं दोती ! छत में से नच्य लेखकों से साबिनय निवेदन करता हूं कि दें लोंग अपने मस्तिष्क ओर कल्पना को सदायता से निज भाषा प्ही उच्नति की चेछा करें न कि दुसरे के धन से सराफी फरने फो दी सपना गौरव समझे 7 हा एक प्रवासिनी बड़-महिला # शिवप्रस्यादी हिन्दी के पक्षपात्ती ध्यान दे ( से. से. ) ल्‍ बड़ सांहेला का यह केख पढकर रलूज्या आती हैं। वबड़ाली लेखक जोर सत्वाधिकारी अज्ुबयाद फी माज्ञा देने में वड़ी हुलझ्अत करते हैं | भैगरेजी से गुपचुप चीज्ञ उड़ाक्र उनने हिन्दी वालों को भी यद् कमे सिखाया द्वे । तथापि यह फास यहुत बुरा है, और हिन्दी केलेखक भविष्यत में उपाल्म्म सुनने का काम न किया करें से०सें० विद्यापति विल्हण । प्रसन्ना कान्तिहारिण्यों ह सानाललष'पमस्कृता ! भयान्ति कस्याचिस्प॒ण्ये सुख वाचो गशाहे स्थिय ॥ भटझ जिविक्रम | ल ना प्रकार के घइल्षों स चमत्कत सुन्दर और स- रम्प वाणी बड़ पुूणाय म्वे िसीफ सुख निवास फरती हे, हर एक के मुखमें नहीं बस्ती | इसी प्रकार पेसा स्थ्िथां भा पिरल ही देस्त पड़ती हैँ जिनके पझुख्तमें मधर डझाब्द हो। ओर जो चिष्त फो पस्त- ज्ष कर । सस्कत साहित्य के भशरशडार में एसे बहुत फावि उत्प वन हुए हैं कि जिनके सुखमे उक्त सल्घारा िशिए सरस्वती का निवास था। तोभी ऐसे कायि- यों की गशाना में प्रधान रूप स्तर कालिदास, भारदि, माघ, भव- भूति और श्रीढषे ही का नाम लिया जाता है । यह्ठ सव कवि विलक्षण. फरवित्वशाक्ते और नानाविधाविद्याओं के निधान थे, इस्तमें किसी भ्रकफार का स्पन्‍्देह हक जिन एम शक नहीं । इन सबके काव्य शोर नाटकों घा आदर ओर अध्ययन स्थ पफरते चले आते हैं। बिद्या- पति विलह्मण भ्री उक्त कचियों की श्रेणी में सवथा स्थान पान योग्य विनन्‍्क्षण फावि हुए हैं। ये प्राचीन फवियाोरम हँ,नवानोर्मेनहीं, किन्तु इन का नाम हमारे चहुतसरे देशी विद्वार्तों को नहीं ज्ञात है । राजपृतानाके अन्त्गत जसलमेर नामक स्थान के जेनपस्तफ भाशयडार मरे परम प्रस्तिद, विद्या ज्ुगगी, डाच्चर बुलर सद्दव ने प्राचीन हस्तलिखित ९ विक्रमा- क्ुओव चरित ” नामक काब्यक्रा पुस्तक प्रात किया । और उसे खड़ी उत्तम टशीठे से संशाधन फरके “वाम्परे संस्क्रत सिरोज!! नामक स्शह में, यहत दिन हुए, पध्रफादशित किया | यह मसनोहर काइय निल्‍्हण कृत है, और इन्स को सरस्त और स्परल, अनेक उ- पमा ओर ज्छेप युक्त फायिता पढ़- फर ऐंस्ता भस्तीस साननद मिझटता रद्द समालोचक ! सम... भमाधानया नाक महक कान ५३५४५ ६ न +क+++७०५+++७++५५ 3५3४४.» भरा ॥४१४५७७७७७७७७+५७3+3333 333५3 मा॥ल्‍००+ >ज्याक “बाय "मना. "नी "मकान भयाकं। माकपा चाह... "सका जमन “माय छू बा ज्_ छू, कक उस आननद' का पर हम विलल्‍्हण को कालिदास नहीं ! तो उनका अंश कहें तो किसी प्रकार अनुचित न होगा । यह डाक्तर बलर ऐसे सबत्चे विद्यालु- राभियों की कृपा फा फल हे के आज हम इस्त काव्य के रस्पका आनन्द लेकर कृताथे होते हैं, नहीं तो अबतक न मारुस कभी का इस्त काव्य का फालगआरस हो गया द्वोता ! ४ पबिल्दूण पश्राशिका इस्त नाम स्त (५० ड्शखोफक का एक छो- टासा काव्य कहीं कहीं उपलब्ध होता है । किन्तु वह चोर कवि कृत “ चोर पश्चाशिका ” सही इस्देश में अधिक पस्पिद्ध है।“ विल्हण पश्चाशिका ” की लिखित?पु स्तक में आदि में एक पूचे पीठिका लिखी छें चद्द कि- सी आधुनिक विधान की लगाई हें ऐसा बहुतें का अज्ञुमान दे । उसका स्वारांश इस्त प्रकार हे | गजरात्‌ के राजा वीरसिंह की छऋनन्‍या चन्द्र&छेखा नास का था विल्हण उसके अध्यापक थे । मिमी मिनमिशिशिशिशशिशशशिनिकिकि किक >नकि न अल इमुलनुअननननअु इााा आए लशशणशणणशणशणशशशणशणशशण"श"शणशणएएएणछणछण ९ बीरसिंह नाम ठीक है । ऋ.. और, डाफ्तर वुलर वरिसिद लिखते हे | (“जज 0...7७.. का. फण “२०३... ००७५... टन ए.२१. कय मम. बिन. 2०५७२. मनी न ना ना भा ] कुछ दिन के बाद दोनों में पर- रूपर प्रम धो जाने से उनका ग- न्थय विघाह हो सया। राजा ने इल गुप्त विबाद्द कथा को झुन फ्रोघसे अधार हो चिल्हसा के शि- रच्छेद्‌ का आज्ञा दी।| चिड्ह्वरण जब बधघस्थान पर लाए ए तब उनने पच्चादिकफा द्वारा रापने छहृदयका भसाक राजा पर वेदित किया! राजाने दूत द्वारा इस पश्चाशिका की पाया, पढ़5 र प्रस्श्नता पाई, एवं चन्द्रलढेखा को विल्हण के दवाथ समापत फिया।बस् इतनीदी कथा धे,पर यह कथा अनेक रूप अनक देशों में पचरित है । अन- हिलूवार नगर का राजा बीरसिद प्िल्हण के समय से सो चथे पूर्व राज्य करता था । इस लिए उक्त कथा में विल्‍्हश का नाम होने से यह सद मिथ्या परतात दोती छ्े ॥ (5286 407 30675 47 प्न0प्रेप ९- (7077 7०0. रफ्े+छाम75फमत०९ए9 ढछाछ ए 6-7 ) जि ४ ६ 7छ8730 ०६ ४6 कफैिण्ट 78 8ए००ल्‍तापए ४0 ४96७ 4&श]णगाश्वेष्घपे 0५ बीरॉस्डह, )०80 85 ैऔए7४०ँ४ 7070०0]705९७ 0० 7£90 $07४0॥#2० चरास्ड 0 थीठ0ए एड्रमति कैड, फ्रेैपफ छी8 0९0॥7"25$ +09४7 ० ४86 ॥0छ70 78, ॥ ४पाएणं: चेरिस्िंह, ४85४ र छा0 ख686 0679 ९५०5७ ९९८पें था (रण़ुछ्ञार ैंडद छापे एथ्लातधाशी 0 जिपाव- 8॥[5 8 20ाव्राणा दिद्याए पं ॥7768 | 90०0७ [5५5 वरा/०0तेच्षएा059, 00४ 3900० 7 7) - समालोचक ) # ६४ विर्वण ने विक्रमाक्ूदेवच- रित में जो अपना परिचय दिया है उसमें पद्चाशिका का उल्लेख नहीं किया | एवं चन्द्रलेखा के साथ चविवाह का भी कहीं उल्लख नहीं हे | शायद “' पञ्चाशिका चोर कविकृत है और वद् चोर काबिहमारेकबि विजल्दण से प्रथक व्यक्ति हैं। इस एलिये पू्वे पॉठिका जो जोड़ दो गई है घह सब मिं- थ्या प्रतीत होती छहे। चोरपचा- शिका के श्लोक आते सरस्त झोर छुन्दर दे इस्पर्म किसी प्रकार का सनन्‍्देंह नर्दी । पढ़ने से ज्ञात होता है फिसी सरस्त सद्ददय काचि की रचना हे । तोभी विक्र माह्ूदे वचरित की रचना से उ- स्का सारश्य नहीं दोता | बहुतों को सन्‍्देद् है कि विद्हण ऊूतही है । पतच्चाशिका के फद्दित पुस्तक से निम्न श्लोक लिखते दें । ४€ व्यापे ता कनक॑ भरम्पकदामगोर्सी फ्छार पिन्द्रवतना सनुरोम राजिम सुप्तोत्यिता मदन चिहल सालसार्डी चिद्या प्रमादशलिता मिय खचिन्तयाएमे ॥ * ४१०४ ४%2255%5 96८29 48 व४/ चल कषी डबल ७242 %24% 0:60 वा आर सेमी दहन नम कालीन... "नरक “लग. 7 अर रसणी का नास लिया हदँ, चन्द्र लेखा का नहीं । ज्ञात होता द्द चोर काय या आर फसा का प्रेम विद्या से था। इस प्रकार इस्सस्से बिलह॒ण का कोई सम्बन्ध नदीं मारूसम होता । शाद्ध धर पद्धति में पद्चभाशिका विलदण के नाम से उद्धत फी गई है। ओर भोज देव ऊत “ सरस्वती कंण्ठाभरण ” में पच्चाशिका के न्छोकफ लिखे हैँ, परन्तु विक्रमाज़ः देव चरित फा एक भी स्छोक नहीं लिखा दे । इससे अज्लुमान दाता है कि भोज से चोर फवि प्राचीस था | एवं विल्‍ल्हण उसके पीछे फे कावे हैं। कुछ भी हो, बिचार से यही स्थिर हांता दे कि पश्वाशिका के कत्तो चोर कवि या ओर फोई कवि हैं, वि- व्दण नहीं दे | विल्छवण को उस के साथ मिलाना केवल भ्रम दे! विक्रमाह्ूत्रेवचरित के आन्ति बिल ५ पा 4 नि बन म १८वें सगमे हमारे फाश्मीरफ काबवे दजउिहहण ने अपना पारिचय च्क9, वा] फ््ज् दिया हे । इस्प सगे फे प्रारम्स में काय्मोर देशफे जल, चासु, नदी पर्वत आदि की उत्तम चणना इस स्छॉक में विद्या नामर वो हे। फाइमोरके प्रसिद्ध स्थाने। >६८ समालोचऊक | 2 ० चयन टन मम अटल कलर कलम अनबन नमन न 5 ++>न७«> सर कम ++9 ७9 अ कक + ८५ «>> +29>>9न०>+9+०+० 52 भंायााामायण_झय्यापामामभसूेॉेसधयधधधधधधटआ गन था 4००० अजनबी मे प्रवर॒पर ” को सुख्य अथात्‌ जहां स्रियां थी मात भाषा को तरह संस्कृत जोर हे । जहाँ वितस्ता नदी के तरड्र प्राकृत घर घर बोलती हैं. चरहां मनोहर शोमा देते है। ज्ञलेसा-- विद्याके प्रचार का फ्य, हाल कहें? आगे चलकर अर भी लिखा है, ४ काद्मीरंपु प्रवरपुर मिस्यस्ति छख्ये पुराणा यात मारीपारिेण यद्धिथी साक्षिता मिन्दुमोले ॥ यस्यायास्ति प्रकृति कटिलस्त धितस्तातरजा स्पेच्डकाधावत्कलियुग गजाधेरणस्वेडडू शस्वम, ' ब्िक्रमाडू देवचरित सगे १८। आगे वितस्ता नदी का उत्तम चणेन दे | कातउ्मीर देश किसी - स्रमय सरस्वती फा निधास स्थान था । घहाँ ऐसे कवि, आलद्भारिक भर वेयाकरण उत्पन्न हुए हैं 'छ जिनकी [वेद्धत्ता फी उपमा नहीं है। काओ्मीर फो स्रियांभी बहुत विदुर्णा होती थीं, उनऊी वहाँ भू(विद्यायरी नाम सर ख्याति थी। बास्तय में थे सद भृयिद्या- घरी हो हे.ती थीं। त्रिराण ते उनके चणन में यों लिखा द+-- / दच स्वीझामपि फिपपर झन्म मादाददेद प्रस्यावार दिग्पाते प्र पस्कन प्राउन व ॥ बिकमोडक्डबधरिल, सारी १९ ६. चथधा+-- ४ हृष्टूबा यास्मिन्नामिनयक लाकीशल नाटकंपु स्मेशाक्षीणा मत्तणकरणासड दत्ताडटारप। श्म्भा स्तम्भ भजते लमत चित्रलेसा न रेप, सूले साय शदयाते सिर नोवदी सर्वशोसा ॥ " अथात जिन फाध्मीर रम- शिया की कला चालुरी ओर अ- नेफचिध सोनन्‍्दय हडार का देर कर रमस्मा छिप जाती है, सखित्र- लेगा-फी रेखाभी नहीं दीश्ाठी, उर्चेशी का गवओी कीशा हा जा- ता हैं। घास्तव में यदह सदघ सत्य है। पूछे मारतव्षे में शौला, विजजा, मासला, आटे भाददा रमाणियां हो चुकी टैफि जिनफो फाव्य-साहित्य भ पुणे श्लाम दाने के सियाय, फला, चातरी म॑ भी यहूत कुछ परारचय था। उस रमभाणयां के फटकर जराक उभर पिताबली आदि संश्रह् भरथार से धाम हात है । इनका पतनम हृदार समालोचक । में अपूब भाव ओर रसका उदय होता है। खद दे कि आजकत्द भारतीय स्ट्रियां अशिक्षित ही हा तो हैं। ओर उनके स्वामी शिक्षाके विरोधी होते हैं । उनको भाय य- ह खयाल रहता है कि स्थ्रियों फे। शिक्षा देना महा अनथे झोर पाप द्दे। चिल्हण, काश्मीस्के कावयों की प्रचोसा करते हुए लिखते दे--- काज्य यभ्य प्रक्रतिस्सुभग निगत कुट्टूम 'य । छायास्कर्षांड्धवाति ज्गता युल्लभ दुलभ बच ॥ ”” अथोत्‌ इस्द स्थान से रूव मा- घ मध्चर फाज्य ओर केसर उत्प- ले छा कर जगत्त भर में वलुभ श्यो५५, चँ%, आर दुझेभ हुआ है| वास्तव में दोनों वस्तु कोकाग्रिय ऑर दुरूभ जे टड। व्मी रही , विभूति के हैं ओर कऋश्मी रही की विशभ्वुते हें। काइमीर की भस्िद्ध इमा- रता में भद्टाकमठ, अग्रदार, क्षेमगी रो ग्वर मन्दिर, सआमक्षेत्र मठ ,राजपरासोद प्रभ्टति का चर्णेन भी १८ वे सगे में है। इन स्थानों में अग्रहार, हलघर. फा चनवा- या है | सेमगौरी शवर मन्दिर, मौर संग्रामछतेत्र मठ राजा अनन्तदंव का स्थापित छिया दे। राजप्रसाद हुए ध्‌ &्‌ अनन्तदेव की रानी ने चनचाया है। इन सबका चणन फरते डप राजा अनन्तदेव॒ के विषय में लिखा हे कि अनन्तट्टेव राम बेजश्ोय थे । उन्होंने अपने असीम पराक्रम फे प्रभाव से दरद ओर शक गरणोका दमन करके, गछ्भा तथ तक यद्ध किया एच चस्पा, विदर्भसरओऔोर त्रिगते देशों में पेन राज्य शास्प- न की प्रणालां प्रचलित की । रा- जा अनन्त॒दंव की रानी का नाम सुभट था | रानों बड्भधत पुएयशी- व्वा थी | उसके छारा एक घचिद्या लय झोर पचितस्ता नदी फे तीर पर एक शिच मंदिर स्थापित हुआ है । रानी के भाई क्षितिपत्ति वा लछोहराखण्डहल बढ़े तेजस्वी ओर राजा भोज के समान चिछा न थे। वह विष्श॒भक्त थे एवं स्‍्त- दा चेष्णरवों से घिरे रहते थे । राजा अनन्तदेव से रानी छु- भट में कलशराज का जन्म छुआ। कलशराज पराक्रमी राजा हुय और जयापीड फे समान काञ्मी- रमण्डलूमे विख्यात दाकर कुरुछे- त्र तक उसने ऊपने सधिफार को बढ़ाया | कलशराजके हफं, उत्क प॑ मोर विजयमल नामक नाना- भक्त २७6 सुणनिध्वान पुत्र उत्पन्न हुए। उनसे हपदच पिता के समान पराकरमी, एवं कवितामें श्रोहर्ष को%भमो मात करने बाले हुए। य था- “४ यस्‍्य प्रेया नधथमतनय क न चक्ते सह्ष । . अआहषादेष्याघिक कावितों स्कर्षवान्हपंदेव ॥। विक्रमाइरुप चरित, सगे २८ म्लोंक ६४ । श्रीहपदेच के श्राता उत्कप देध ने स्षितिपति के लोहार राज्य को अपने शासन में किया। ये सब राजा प्वरपर फे राजसिहां- सन पर स्थित हुए थे। इस्त प्रकार काइमीर राजार्मों का च्णन करके विल्हूण मपने चेश का विवरण लिखना है। चह इस धक्रार दे । प्वरपुर स दो कोस दूर “ जयबन " नामक एक रुथान था | उसे खझथान में नाग राज सप का ण्क कुण्ड धा। उस्त कुण्ड के पासम्त “खोनपुख” कामक झाम था उसमं द्वाप्षा ओर कघ्ेसर उत्पन्न होते थे | उसमें फोशिक योज्र में मृक्ति कलश नामक महात्मा करा जन्म हुमा | चह सारसख्वत प्राह्मण थे । उनके पुत्र राजकछूश और इनके ज्येछ कलश जगस्मान्य सदासाधष्य सपालोचक।| कि नकक मानी भर अानगाए. क. 2मक जक. आज... कर जाके के टीकाकार हुए । उनकी स्थरी का नाम नागजेची था! उसके गस में विरहूण का जन्म हुआ दे । यों अपना विवरण लिखकर अपनी विद्या का वर्णन फरते हैं- ' खाड़ी बेद फणिपातिदरशा शब्द शास्त्र दिपचार प्राणा यस्य म्रय णसुभगा सा च्च साहिस्यातचिदा को या दाक्त परिगणायेतुं शखयतोां तस्वमेदत्‌ प्रज्ञादर्श क्रिमिव बिसले नाध््य सक्कान्त रासीय ?२॥| विक्कमाहूदेव चरित, सगे ९९ श्लोक <२॥ अर्थाच जिसको चेद, चेटाड़ दाव्दशास्त्र,. साहित्य आगदे विद्याएं भर्की भाँति ज्ञात थींड जिम्प के विज्ञान आंदे की गणना खफोोई नहीं करसकता, इस्त प्रकार नाना विध विधय जिसके बुद्धि पट में चित्रित थे । विल्‍ल्हण फे ज्येप्ठ श्लनाता का नाम इृष्टराम मोर छोटे का नाम आनन्द था। दो नो विद्वान और कवि थे | विटहणने फाइमीर मं शिक्षा पाकर, नानादेशां में भ्रमण किया | चह प्राय एक झूथान में बहुत दिन त्तक नहीं रहे! दे दा टन के लिए काथ्मीर से भधर संपालोचक | ५७१ अरमान नह, पा..##भा पान" सम मड ०५ आह गम." नम कार“ गा की पा पाया मना. ४१३... आ्याम..+-ा..#+#मम+4००मम कम "पाया ३५ #मी आम नमन 2४ ना हा धाम जप .&/#० नायर पा ना ही" «कह"005#*" पा ०डभारम हर" ०47"++ सन प" बभप कान" पा पक परम" प2५ न" पायह्नी "पम्प न" पतन नहा" 3२७ न अन्‍म पान -90 ०58" उ्ह्ान- गम... माइक". ५, सथ॒ुरा, कन्नौज, प्रयाग ओर काशी फो गमन फिया। उस्स समय उनसे ओर टठेहाल सरूथान के राजा कर्न से हवाप्षात्कार छुआ । वहां राज सन्मान पाकर थे कुछ दिन रहे। राज सभा पायिडत गद्भाधर का शास्त्रा्थे में हराया ओर वी “ रामस्तृति !” नामक काव्य चनाया | यह काव्य इसकी प्रथम क्ाति समझना पवाहिप। मअननन्‍तर कने राजा से बिदा होकर घाराधिप भोज राज स मिलने स्यी इच्छा से वहां गए परन्तु सयोगबद् भोज की म्उत्युद्दो जाने से सत्ठाकात न हो सफी | यद्द भोज खसुपसिद्ध,सरस्वता फशाठा- मरण हडयकीलावतोी, राजस्ठंगाड़ू कर्णा आदि अन्थाके कत्तो माछुस होते हैं । फिर अनददिछवाद स्थान (2) 6 वं७६९ ०04 85॥00]2& 38 प- ६07%प८७/,९७।ए 700 ३ ७७ 5903 898९007- [७ छघ्चए27फछाए९पे 4,9556आ एोी9छए९3 5 ग९७॥270 9&286०७ए*था) 997-058 (० 3 3]7 84+% ), 72७5७ ४॥९ ०7)% 5९०६७ पे४७०2 ॥7॥ [75 7€१ ९४ 45 ४९ * ९७० 4043 गत पाएँ शिक दि्ला8त5 पर दिछुधाएाएुटण्तण5, 78 पऐेछ&प 0५ सिर ४०छ5०79 एिए जीडणछाछए गाया वछॉशा' घाछ गिल गो जिीछा 8556५ घधाएं पैषाएए जाएं श्टाप्ठु0-- ३ में पहुचे | बहां के भाषा, समाचार | व्यवहार की बड़ी निन्‍दा की छे उसके बाद सौसनाथ नामसय्क रु्थान में गए | यह प्रस्िद्ध सेमेश्वर महादेव फा नाम हे। वहाँ बड़ी भाँदित से सोमनाथ शिव की उपासना छी, और वहां के समीपचर्ती सरुथानों को भी देखा भालरा । भन्‍तम सतुबन्ध रामेशवर तीथे को गए । इस प्रकार अनेक सुथानों मे स्रमण फरके शेष में चिक्रम की राज़ घानी कल्याण फो गए। वहां राज्याश्षय में रहे, और वहीं इन की बिद्या, ओर प्रतिष्ठा फी पूबो पेक्षा चद्धि हुं | 0०५४68ए४६7७ 4 ( १70420---069 ॥ 6007 7098७ एज ४६०+थ छणपे 2भता ५ प्रा कि धछमएछ च5डछा+फंस (7२9]089- 8 रेया 259 ) धा०७ छीए]० छघपे डिह्ाताएछत 07 फेजाए्फछथा फछाछ पा $98 णाम्र छजिः 7062 (0७ ०7४ प्पढ गिक्षपेड छा 7०छाछ. ( 568 उ>* एछफ्गाएछ आध्ाए्तें्ट705 (६० ए)छएछ9एा०7४घछतें९एछएीए0१६8. [000 १०6६४ £ £28 ) ( ३) आनखझाते निम्नलिसित श्लोक को विल्हणक्त वतनाती है। सम्भव दे कि धुनाहिलायाद मेही झचतुट होकर हिल्टण ने यह कहा हो कि राजद्वार - न॑ं- फारे निशिशान्ति विशान्त च +--बरलाजरता सर्दे दिल्हणों वृषणायन ॥ ब्ज्र विल्वणने दी लुक्य राजधानी फल्याण से जिसवन पल विक्रमा दित्य के भाश्रय में ही भपना शेष जीवन व्यत्तीत दिय। । और बह उक्त राजा से “ विद्यापति की पदता आधघप्त की । यथा«--«- ' 'योह॒क्येन्त्राइलभद कृती यात्र जिद्यापतिस्थम । ,, विंक्रमाडु देव चारित सर्ग १८ मलोक १०३ इसके सिवाय राजतरक्षिणी में विल्वण के चियय में इस प्रकार छिखा छ--- / काइनीस्यो दिमियान्द राज्ये कलशऊरूपसे । घिल्मपतति य कर्णाव्श्रके पंमादे झपाति ॥ ९३६ ॥ मसपेत करदिसि छफर्णाटकरवकान्वरे । रक्षोपे इठशे लुद्ध यस्येयातपत्रारणम्‌ ॥ १३७ ॥ स्यागिन हपदेय स खुत्या सुकादेबान्पयम । दिएएणो वज्चना मेने चिथ्रीस तावती नावे त९३4ा , अथात, कलूशराज के राज्य में जानेके लिये काइ्मीर स गए हुए जिसको कर्नाद पर्माडि राज ने पधिद्यापति की उपायिे दी। फ्मांट राज सेना में जाने घाले राजाओं फे सम्मुख जिसका मा- तपन्र मथात छत्न चलता था ॥ सनालोचक | च्स्स्सच्स्च्च्य्स्स्स्स्स्क्च्ट्ल्ट्य्टाटटडडसलपफलसलसज>८<>तट>सलला+०3०क्‍व.लु.ु....ु. उस विल्हण ने कवि यान्धव हर्ष देव को द्ावी झखुन कर सपने सव ऐश्वर्य को विडम्बना मात्र समझा | , जिभुवतमलछ देच-विक्रमादि- त्य न, कल्याणमसे १ ०७६से ११२७ स्निस्ताव्व्‌ तक राज्य किया।भौर उसो समय विल्हण भी थे। क्यें- कि विलदण के लेखानुसार अनन्त ओर कलरूश दोनों उनके. सम कालिक थे। राज तरक्षिणी से लिखा हे कि अनन्तने ३५ घर्षे राज्य करके अपने पुत्र कलश को राज्यासिषेक किया, फिर दोनोचने १५ चषे तक एक साथ राज्य किया | उसके याद कलश छे यु८ चरित्रा को देख विरक्त हों अनन्तने दो चषे जोरधमास तद्छ विजय क्षेत्र में वास (किया। शेष में भयडुर कष्ट सह कर आत्मह- त्या रूरखा। स्वामीकी रत्यु सुन वूर सुभद किंवा सुर्यप्ती सती दोगद | जनरल कार्निहाम के मत से १०८० खिस्ताच्द में अनन्तके- चने आत्महत्या की, एवं उसके पुत्र कछशरणजने १०८८ ख्वस्ताव्द तक राज्यशासन किया ।|_( +8० ए7 छच्काछठ-8 [7070प्रेष्00०४ 20 ) बिलण ने अपने आभ्यदा समालोचक | वप++--+५००५-+---.-००२६-००-००-०--०००--०-- ता चोल॒क्य बंशीय कर्नाट राज पिऋम के संतोष के ईिये उनका पघरिचर “-विक्रपाड़ु देव चरित” चनाया | जैसा रूचय लिखा है--- / जन प्रीर्या मिरचितमिद फकाध्यममध्यासकान्त _ क्णारटेन्दीजगाते बिदुषा ' झण्ठ भ्रषास्वमेतु ॥ ,, विफक्रमाडु दूव चरेत स्वग, १८, स्छोक १०२ डाक्टर छल्लुलर सादइ्व उक्त स्व विषयों की लिखकर अन्त सें विक्रपाह़ देव चरित का निर्मोण काल १०८५ उिसरुताव्द स्थिर करते हैं । ४ 7 686]7 धछाठ52 ए0परश४६७7०९८१ 8786 | शंभियींए ४०एॉए 8पयीएा०आ ६० 85६9० 8॥ ग्राए.्- छठ55870079, #780 5ग्वप्रछण ]€४ि फ्रेंछ 00पघ्ाए0०"ए #796४9छ€९7 06 2----065 &घते ७70६७ ध०७ प्रा[ए-षाणश्म्ास्त्तेएएणीछाउछ 8 छा छ्तेसदाठछते घ४७ ४87000४ ४ 7088, छत +86075 0"०ए०।5 504 |( 0४७7 8६७४४ए४75४ थी 70 6 ४ंएत छत #0057४४ वुप०७७70०१४ 0 +#%७ 2९६७८: ढशाप्राएए ( छिं98 953 [7०पंप०ा 2387 ) विक्रमाहुदेवचरित फे मथम सगे में चोौलक्यवंश फाविवरण लिखा है । उसमें लिखा हे कि स्वध्या रे समय ज्हतह्वया का भाक- मन जल सुस्त स बाहर हुआ उस्सछ २७३ से एक वीर पुरुष उत्पन्न हुआ । चकलक सथात्त्‌ आचमनस्ते उत्पन्न हुआ दससे चोलक्‍य नाम स्त उस घेश फी पसिद्ध छुईे | ब्रह्मा ने देवताओं के छितके लिए दस्त पुरष को उत्पन्न किया हे, पेंसा लिखा है । # ध्यथा चिरासीत छुभठछम्विलोक थाण प्रवीण >चुछुका दिधातु / विक्रमाइुदेवचरित, सगे १, स्छोफ ५५ उक्त चौंलक्‍्य घेश परंपरागठ घद्धिको पाप्त हुआ। मोर हारीत प्रश्नति मद्दात्माओं ने उसमें जन्म लिया । उसके बाद मालव्य राजा का जन्म हुआ। जो प्रसिद्ध राजा थे। जिनका राज्य गुजरात मे था । जेसा[-- * बक्ते पर्द सागरण्पण्ड्याम्य पूराद्भमाया दिदि दाकिण स्यास ! ,, पालव्य के याद श्री तय का आधिभाौच हुआ । यढ चौोलु- ( ४) इस चदा का दिश्षेए्र ये्णन डाक्षर साण्डारकर ने घमपने सन्‍य ( नथिता/५ घराड/0? ५ रा 7/#९ 426८ल्‍८वाा) में फिया हैं। डाक्तर चुल्र खाष्दद ने भी शंवेद्णा पूर्ण उंधिख प्लामिक्रा में किया है। ह्याद्या हे किसी स्वतन्ध लेणस्प में यह सब एादे ल्प्पिंग ॥ १” ७ क »२ 5. क्य बंश फे मुख्य नेता हुए । इस छा राज्य सिंहासन सर्च सान्य छुआ । इनके बाद जयसिदृंद्दव सिंहासनारूद हुए! उनके पत्र आवरमल॒देव हुए । जिनका दूसरा नाम औजोक्यप्रलदेय भी था। चरलोक्यमल ने प्रत्चकामना से स्त्री के सहित तपस्या का था | एक दिन देवचाणी हद कि तेरे को पुत्र सुख्त देखने प्को हाप्रही सोभाग्य होगा ।उसकफे थाद्‌ पुत्र फा जन्म हुआ ! इसका सास सोमदेव प्रस्ि- ज डुआ। फिर कुछ दिनके बाद दूसरा पुत्र हुआ । उसका नास विक्रेमदेव हुआ चारूकाल से हो विऋमदेद पराक्कसमी ओर उत्सादी थे । इस लिये राज़ाने उनकों विक्र- प्रादित्यया घिक्रम नाम से प्रसिद्ध श्र हे समालोचक | च्च्स्ल्च्च्च््च्च्ल्च्च्च्च्च्च्च्च्च्च्च्च्च्च्च्य्च्य्चय्ध्प्य्य्च्य्य्य्य्यय्व््य्य्य्य्य्य्ख्ख्य्य्य्य्य्स्स्ला किया यदही विक्रमाछुइस विक्रमा- छुचरित के नायक है । विर हंणने अपनी पररिेणतःवरुथा में इस काव्य के बनाया है । इसमें १८ समे हैं यह उनकी अन्तिम कृविददे। अफ्रेक्ट रू मत स॒चविल्हृण रूत फोई अलड्भार का भी भनन्‍्ध दे । विरहणजैस सत्कवि थे वैसे सहदयनहीों थे।उन्होंने अपने चिषय में इतनी गर्बोक्तियां लि खनी हैं कि श्रीहृर्ष से भी बढ़ गए हैं । अस्टु, इन दाोषोंसे फाई प्रयोजन नहीं हे । उत्तका व्घाव्य आत्ति मनोंदर ओर संस्कृत साहित्य का रत्त स्वदूप है। हम लोगो लिये इतना ही जा नना बहुत है, क्योंकि बड़ों के दोषभी छोटे आदमियों व्पो भक्ति छ साथ कहने चाहिये । गिरिजाप्रसाद छिविंदी जन श्ैः विचार की सईद परिपादी वा नई समझ का सामना करन से मनकी चाहे सन्देह हा, और छंदय को निराशता हो, किन्तु एक मय ऐसा आववेगाही जब सब पदार्थों मे से कूठ सुरक्षा जापगा जो पुछ सत्य है घट अजब नहीं साकूम देंगा। स्न्‌« और डा० इलिझवथ ! जैर्द मय महाकबि भूषण । न पल न के के हे के हक पर न 8 काका ( गताडू सं आगे ) . (३) भाग्यबश् भूषण जी का जीवन चरित्र वंगवासी घाली प्रात में सनन्‍्तोष दृायक दिया इमत है अथवा यो कहें कि हम उस से अधिक बातें न्ीं दें सक्ते । अतः हम यहां पर विस्तार पूथेक लिखना अनुपयोगी स्रमक खूदमता से उसका दिग्वृशन मात फराय देते हैं । ये महाशय कात््य कुछ्म घ्राह्मण कश्प्यप गोत्री रज्ञाकर तजिपाटी के पुत्र जिला कान्हपुर में त्रिविक्रपुर अथांव, ठिकिमापूर भाग के रहने वाले थे । इनके जन्म फा समय अद्यापि अनिश्चित है। शिव- सिंह सरोज में इनके जन्म कला सम्बत १७३८ विक्रमीय लिखा दे परन्तु चद झशुद्ध है क्‍योंकि भूषण जी सवये लिखते हैं. कि उन्होंने सम्बत १७३० विक्रमीय में शिवराज भूषण समाप्त किया। ये महाशद्यय चार भाई थे जिस में ये द्विताथ थे। चारो भाइयों के नाम इस प्रकार हैं, चिन्तामणि, भ्रएण, मतिराम, लटाशंकर डफ नीलकंठ | पदले इन महाद्रय का नाम कुछ आर था परन्तु हृदय राम फे पुत्र चित्रकूट नरेश सॉलई्डी महाराजा रूंद्र ने इन्द भ्रूपय्य पदवी दी तभी से ये भ्रूण फहाने लगे और इनका पडलछा नाम यहांतक छुघ दो गया कि आज डरे काइई नहीं जानता हं। एुन्हाने इवये अपना परिचय यों दिया हू रच समालोचक | न्न्चचच्च्य्च्य्य्य्य्य्स्य्य्य्क्क्ल्ल्क््््जजलडल>ि........0.तत द्विन कन्नौज कुल कश्यपी रतनाकर छत धीर | वसत जिविक्रमपूर सदा तरान तनृजा तार ॥ कुल छलंक चित्रकूट पति साइस शीलर समद्र । फवरि भूषण पदवी दई हृदय राम छंत रुद्र ॥ परन्तु इन महाराज रुद्र को प्रशसा फा इनका एफ भी छन्द नदी सिलता। हां, शिवा बावनी के एकरन्‍्द में सोकंफकी का ससेनच चुद्धार्थ पयान चर्णित है। प्षण का महाराज रुद्र, छम्तसाक तथा शिवाजी के यहां बिशेष आदर हुआ | उस समय फे फियों की भप््त ये महाराज भी अन्य राज्ञार्मों फे यहां अचश्य गये होंगे परन्तु इनके ओरगजेब तथा कुमाऊ नरेश के यहां जाने का हाल विशपषतया प्रन्थों में देखा पर्व जनशख्लातियों द्वारा सुना गया है । यह सच पर बिद्वितदी है कि इन्दोंने अपनी भावज से ऊरड़फर घर छोड़ा, “ इन्द्रजिप्रिजम्भ *' घाले कवबिस पर शिवाजी से १८ कक्ष मुद्रा तथा गज ग्राम एकही दिल पाया तथा छत्नशातह्ष ने स्चये इलफा पालकी फा डेडा उठा कर अपने कन्‍्धे पर घर लिया था इनफे मरणुकाऊ का भी निश्चय अभी हस लोग नहीं कर सके है बेगबासी वाली प्राते में लिखा है किये महाराज शिवाजी के पुत्र शम्भाजी के दरबार से भी थे परन्तु उस में इस फथन की पुष्टि क' कोई धमाण नहीं दिया गया है | इनका बनाया हुवा शम्मा जा का पक छनन्‍्द अवश्य मिलता है तथापि उससे इन्द्ोने शम्भाजी को महाराज करके नहीं लिखा है वरन ५ शिवा फो सुचन सम्भा' पेसा कहा है जिससे यह निश्चय नहीं होता ( कि वह छन्‍्दें सम्ता जी राजत्य काल में निर्मित हुवा था चरन अनुमान तो उस के पिरुद्धही जञात्ता है | भूषण जी फे सब प्रस्थ हम छोगों के पास नहीं हैँ अत हम पेस। निष्कर्ष नद्दी निकाल सकते कि इन्दों ने संमालोचक | २७०७७ (किक भ फन कक ॥ मम» ५५०७५४७ ५ 3++++ए५५००+»क ५ /०७०५७३५५०७५+०५७५ल्‍ मुह नम मना भा -थ९५५३५3७७५++५७+भ भा भ++००७५« न मक-.3-»र-्ना ५५५4३ न > कान ०4ध 5 पा ५७3०७५५+--+ ००-०० न... शिवाजी का मरण नहीं कहा है मथवा सम्भाजीं के राज्य का वर्णन नहीं किया दे अतः ये उस समय तक जादित न थे। दम लोग इतना जानते हें कि ये महाशय सन्‌ १६७८ इई० सर्थातत्‌ ससस्‍यत १७३४ विक्रमाय तक अवश्य जीचित थे फक़्योकि उस समय फी कृरनाटक वालकी चढ़ाई फी वर्णन इनके छन्दों में मिलता दे । (४ )-अषण जी के प्रस्तुत भ्नन्‍थों में शिवराज भूषण, श्रीं शिवा बावनी, क्री छतञ्न साछू दशक तथा स्फुट क्रवित्त बंगचार्सी में छप है और उन्हीं पर हम सआाज खसमालोचना लिखने चेठे हें। जिस किसी स्थान पर पृष्ठों का कथन हो तो इसी प्रति के पृष्ठ समझने चाहिएँ। प्रथम दम इन सब पहन्‍्थों पर अपनी अनुमाते म्कट करफे फिर इनके काव्य फे गुणदोष एकाॉन्रित दिशखायेंगे | इनफे भ्न्‍थों से उस समय के राजाओं तथा मोरंगजब फे राज्य फी दद्या भक्षी भांति बिदित होती है अत. हम सब स्तर प्रथम भूपयणा के अ्न्थ से जो उस समय का इतिहस ज्ञात होता है चद्द लिखते छै। जो मदादाय शिवाजी का पेतिहासिक इतान्त जानना चार वे जस्टिसरानडे रूत “महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युद्य” नामक अप्रेंजी भ्रन्थ अथवा ग्रेण्ट डफ खादब का इतिहास या छाछा छाजपतिराय साहब फा लिखा छुआ शिवाजी का जीवन चरिघ्र पढे । भूषण के अज्ुसार शिवाजी का चणेन यों है। स्ये चंछ्य पृथ्वी प८ विख्यात है जिस में परमेश्वर ने यार घार अबतार लिया है ।-डसी सूख्ये चेश मे एक बड़ा प्रतापां राजा छुआ जिसने अपना शिरकाट फर महादेव जी पर चढ़ा दि्यिा। उस समय से उसके बंशज शिसोदिया कहाने रूगे उसी चंश र में एक बड़ा पराकमी राजा भार मकरन्द छुआ जिसके परनत्न शाज़ा २७८ समालोचक । जज मा ाी३० ६० अीएआ रिया सुम्आम पानी ०ऋमओ- “नकम्या पाकर अउकमममा- सा फर्म. िनइनाा, >3िजज जमाकर परम. फनी. जाम मिक>3 वदनरा.. आन राम गया रन. निकाह. पदक. नेायाह' भा धशपया+-म-. फेयर व्यय "मनाया. मिन्‍मआ. "ेमायाका गाया पिन जक०-अी +पका “मजा कुनिम्मा-. वा नि की रन जल ०2 सनननणनननननन नमन मन मनन मनन नमन मनन मनन नमन नर 3 नं 3 3 आन कारक, नया साहजी हुए । सादजी बड़े दानी थे । उन्ही फे पत्र शिवाजी अथवा शिवराज उत्पन्न हुए । शिवाजी की वाल्यावस्था में औरगंजब दारा को मार फर, मुराद को कैद करके, शाहशुजा फो भगाकर अपने पिता शाहजहां को कारागार का यास दे दिल्ली में राज्य करने रूगा वृक्षिण में उस समय आदिलशाह मीर कुतुबशाह का राज्य था श्री नगर, नयपाछ, मेवार, हुंढार, मारवाट, डुद्ेछवड, झारजसखंद भोर पूर्थ पश्चिम फे सथ देशों के राजा अथातद्‌ राना, हाडा राठोर, फछवाहे, गोंड इत्यादि सब ओगरज़ेव से दवतें थे मौर सच खुस्की पजा के समान थे | उसत किननेंद्दी मन्दिर तोड़ डाले, सथरा को *चसुत फर दिया और रुवय विव्वनाथ जी उससे डरकर भागे | यथा-< ..कुम्भकर्ण असर औतारी अवर्गज़ेव कोन्ही कत्छ मथुरा दहाई फेरी रवकी खोद डारे देबी देव सहर सुहृएका बांके छाखन तुरुक कोन्हे छूटि गई तबकी । ,भषन सनत॑ भाग्यो काशीपति विश्वनाथ और कौन गिनती मैं सूलि गति भवकी- चारों वर्ण धर्म छोड़ि करूमा नेवाज पढ़ सिचाजी न होते तो छुत्रति होत सबकी ॥। घेसे उद्धट समय में शिवाजी ने सुगों का सामना करने को साहस किया । उनकी चक्चर्ची राज्य स्थापित करने फी उच्च खमिलाषा थी | उसके परिञ्रम का यह फल छुआ कि उस महानु“ भावषने माकरपनचही में बीजापुर गोलकुडा को जीतकर झुवावस्था में समालोचक | २७ 'जयाया...७-मक... 3..>ाम्गकया.. ....ु.. अंज्था--कैक००+न.. क्‍या विशकानान खान ०9-मक-७-ाम)- मन ऑनकरिग की णयाा वात ाडा शा ऊऋ दिछौपति की पराजित किया | महॉराजा शिवाजी महादंवके बडे भैक्ते थे ओर देवकथा्ों के खुनने में उन्हें बड़ा स्नेंद्द थां और में घड़ी उदार दाभा थ। उनके राज्य का भ्रज्ञा पर तथा हिन्द संभा- ज पर यह प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा ।फि बंद पुराणों की चर्चा त्तथा डिजे देवों की पूजा कश्न की प्रथा फिर लोक में संस्थापित हुईं ।' जज साल्यावस्था दी में शिवाजीने दर क्षिणा के खब दर्गजीत कर राज- गढ़ में बास किया। शिवाजी फी सभा बहुतही उत्तम थीं तथी उनका दुभ बड़ा ऊेचा एव पुष्ठ था | इन मदहानुभाव न बढुत स्पे दुगे घनाये तथा मपने राज्य का अनेकानक विज्ञ्यों द्वारा बहुत बद्ध- मान किया। इन्होंने चाद्याच्रस्था ही में तहोवर खां का ससेन बच्च किया। पीछे चन्द्रावतं को मारकर जें।वली पर कब्जा किया तथा सिंगार परी को सी जीत लिया ! इसके पश्चात शिवाओ सें बीजापुराघधीदश आदिलशाह से खुलमंखुछा सुझ होने लगी । यीजापूर की आर से भेजा इुआ अफज़लंखां ससेन्‍्य शिवाजी पर सलाक्रमण करन फा आंया। वह दगा करने के विचार से शिवाजी से मिलने को अकेला गया ओर ज्योंही घह इन पर कटार प्रहार करन पर हुआ इन्होंने चद उसे बविच्छू फे पंज से गिरा कर खड़ा से सार डाला। तदननन्‍तर शिवाजीने थारे धारे रुस्तमंज्ञपां तथा फ़तेह्खा को भी पराजित किया | इन खंब ग्रीजापूंगी स्नेनिकों कर पराम्त फरके शिवाजा ने वीजनापुर से कुछ वेश मांग भजा परन्तु वजीरों ने न दियी। तब शिवाजी ने दोंही दिनों में दोड फर एक राते में परनाले का किला छीन लिया शोर फिर करनाटक की सरहद तक सधघे देश परास्त किय | इसके पश्चात्‌ शियाजी ओर बीजापूर बाल की लड़ाई कुछ रनों क लिये बन्द हें! गई ओर दिल्ली सन हाती रहीं । अन्त सें स्‍भयाताा नरयका-नाओ गयाना. जानी न्याय, २८० समालाचक | एक यार खासा वजार यींजापुर ने शिवाजी से लड़ने का पुनः साहस फिया परन्तु उसको पराजित होना पड़ान इस यार अफ़जल आदि घाला लड़ाइयों की भांति बड़े बेग का वर्रान नहों हे बरन ऐसा कइद्ा गया दे कि भय आदिल शाह समान दान नहीं रहा किन्त एक तुच्छ शाह रह गया यथा “ बापर पेदिलशाही फडां फट दिल्ली फो दामनगार शिवाजी? ”। बीजापुर से पूतरे कथनालुसार युद्ध कुछ कम होने पर शिवाजी स ओरणगज़े बे से युद्ध आरम्भ इआ। शिवाजी ने एक एक करके जसवन्तसिंह, भाऊ, करनसि ह, शाइ- स्ताखां, खानदी रा, सफ़दर जग, तरहूब खां आदि दिदली के खेनां- पतियों को पराजित किया | शिवाजाो ने सरत की भी छूट किया । सदनन्तर ओरंगनेव्‌ की ओरसे जंसिंह इन मद्दाशय से लड़ने को भाये । शिवाजीने उन्हे अपने कुछ गढ़ दिये ओर फिर स्वयं दिल्ली को गये । भूषण ने शिवाजी के दिल्ली जाने का शचान्त बड़ाही छु- ध्द्रता से चशोन किया है | दिल्‍ली पति ने आम्रेमान करके इस श्र दिस्ोमणि फो पेंज-हजाश सतरदारों (तृतीय पस्रणी के सभासद सरदारों ) में खड़ा किया इस पर इस्त महानुभाव ने जो. किया घहे सब चढ़ी उत्तमता से निम्न लिखित छनन्‍्हों में बणन है -- आंनि प्रिल्यों अरि यों गहथो चखनि चकत्ता चाव । . सादि तने सरजा सिवा दियो मुच्छ पर ताच || बौर बडे बड़े मीर पठान खरो रजपूतन की गन भारो- भपषण आय तहां शिवराज लियो हरि ओरगजेब को गारो । दीन्हो ऋज्वाव दिलीपति को अरु कीन्हो वजीरन को मंह कारो। नायोन मायहि दक्षिन नाथ न साथ मे सेनन हाथ हृथ्यारो ॥ जसन के रोज यों जलस गईि बेव्यो जोष इच्ध आाब सोऊ हछायगे औरंग की परजा | समालोचक । २८१ मानना याााााकमकापरधायाांााकममममभभााााााााामाााआआााभआस्‍ भा »क३३३% ाइइइइ सकल कल नकल ३ __ललन_______लल_ नल वश ०३७२७ ७० फंनत न ना 3१3७४. 2१0-अन की पमकनी -२०आ- कम नाक 3७#"९०जग- कक १७० ७०५०. ५७क कक बीज १का-+की 2 पन-रनपत यमन लय. जनम न फनी पान पर टन नर पक नर "कक पकने १३० मानक. मन. अमन आना का--नआना०बत- रकम जनओ 'भयााणा. पकामआ भा भपन भनत तहां गरज्यों शिवाजी गाजी जिनको तजक देखि को न हिये रूसजा | ठान्यो न सलाम मान्यो साहि को इछाप धमधाम के न मान्यो रामसिंह कको वरजा। जासो ऐंड करि भुप बचे न दिगनताके दनन्‍्त तोरि तखत तसरेते आयी सरजा ॥ यहां से लोटकर शिवाजी ने दामनगर घ जवार पर बोरिेयों फी परारुत किया ओर गजरात को भी जीता- तदनन्‍तर शिवाजी ने रात में सिंहगढ़ पुन छीन लिया और उदेभाण राटौड़ गढ़ रक्षकका युद्ध में बध किया । फिर ओरंगजेब फी सेना से शिवाजी से बजा भारी युद्ध हुआ जहां शिवाजी ने खानबहादुर को परास्त किया । कुम्भ के राजपत्र मोहकमसिंह तथा बहलझोलखां को पकड़ लिया झभोर चन्द्रावत तथा सैयद पढानों को भूराई फरके समस्त दलका बरड़ाही विकराल “ कतल-ए-आम ?” किया । इसस्के पम्थात दिलेर खाँ फो परास्त किया | सलोट के सी समर को जीत कर अहमदनगर में नोगेरी खां को दृराया मोर दिल्‍ली पति के कितने दी गढ़ छोन लिये । तदनन्तर शिवाजी ने कनौटक वाली अपनी अन्तिम चढ़ाई को । पेसी प्रचणड ओर प्रभाव पूरित इनको फोई चढ़ाई नहीं हुई थी जिसका चणेन हमारे कवि ने इन गम्भीर शावदों में फिया है-- दुग्ग पर दुग्ग जीते सरणा शिवाजी गाजी डग्ग नाचे डग्ग पर रूण्ड मण्ड फरके । भूषण भनत बाज जीति के नगारे सारे सारे कर्नाटी भूप सिद्दक को सरके । ज>८२ समालो नक । उन. अपना. >ननरममन कण म्माहन.. भायाका.. 2 जनाब. चयाताा आजा. नी, अकम ०.3. >भकण्को। के आओ. कथा मन यार. पापकामिन मानता प्र अक जकजमंन.. बीज आर जद... फिमयाए-- आफ... सा... पिन. यान, की ुनुभलनरइसबंममाइामााइरकाउक्आाकमबाकककाउाााााआकक कक थक ाकइइककभकभ भा भभइइभभकपइभइथ्»»३भक् कम रनमगऋनगभण्णण०ण्भ._इटन्‍ण ० पा पुथा कम ा»>-छ आता+-यतमा.. -ममक... पा चबाई... मारे सनि छुभट पनार उद्भद तार तारे छागे भिरन सितारे गढ़ धरके । वीजापर वीरन के गोल्कुण्डा घीरन के दिल्ली जर मीरन के दाडिमि से दरके ॥ कोट गढ़ दाहियत एके पातशाइन के एके पातशाहन के देस दाहियत है । भूषन भनत महाराज शिवराज ऐक साहन के सेन प्र खरग बाहियत है । क्यो न होईि बेरिन की दौरि सी छबर वधू दौरन तिहारे फहे क्‍यों निवाहियत हैे। राउरे प्गारे समे बेर बारे नगरन नेनवारे नदन नेवारे चाहियत है ॥ मारवा उजेन मात्र भषण भमेकसा ऐन सदरुसिरोज ला परा- यते परत हैं । गोंइ्चानो तिलगानो फिरंगानो करनाट हिन्दु वानो हिन्दुन को हियो हृदरत हैं ॥। साहके सप्त शिवराज तेरी धाक छनि गढ़पत्ति बोर तेऊ घीरन धरत ४ । चीजापर गोलकण्डा आगरे दिली के कोट वाज्े वाज रोज दरावने उधरत हैं 0 ( क्रम 2 तिब्बत के प्रति भारत । ( ९१ ) हे ध्यानसग्न हिसमन्दिर-म॒ुर्ध योगी ! आते चल तव समीप विचितन्न भोगी । खोली समाधि अब देर करों न भाई ! आती कमीशन बृटीश सजी सजाई ॥ ( २ 9 में भी कभी तव समान सुखी बना था, स्वातन्प्य-सूछ बलवीये यहाँ घना था । ऐसी स॒द्दयान्ति रहती सब ठोर प्यारे ! घध्यानिक-तत्पर रहे नर-नाथ सोरे | € ३ 9 , मेरे तपोवन जहां मसनि बुद्ध जन्मे, थे दिव्य सुन्दर जहां नर शुद्ध जन्मे । देखे जरा अब वहां रह क्‍या गया है ? हा! कष्ट | ब॒द्ध-तरु-हीन हुईं गया-है ॥ २८४ समालोचक | स्न्य्य्य्य्य्ग्प्य््य््ल्ल्जेि--ःःः.कफसआसससकज आ स व सई अ उ उ + सफल चफफ$ऊफडस फइफडअआअआअचइच च न कक नाक» प्कननाककनकअकन_»मनककककनकक, ( ४ 9 गंगादि तीथ कुछ के कुछ हो चुके हैं, प्राचीन बात सब की सब खो चुके हैं । शोभा पुरातन सभी वह जा चुकी है, नव्या बनावट जमाव जमा चुकी है । ( ५ 9 कोठी वहां, म्ॉनि कुटीर वनी जहा थी, एसी चमत्कृति यहाँ पहिले कहां थी ? तोभी अधीन:परके सुविद्यास क्या है ? आए) स्वाधीनता यदि रहे उपवास क्या है ? ( ६ 92) किन्तु प्रताप अपना रखने न पाया, कोई संदेव, अपनी रख झाक्ति काया । छाया समान विधि-चक्र सदा फिराता, नाना चारेत्र अपने सबका दिखाता ॥ ( ७9 9 वीराह्मना कर गड्ढे इस भृमि में जो, होगा नहीं जगत में नापव॒ुन्द से सो । लाखों कु॒प्तारा अपने रण में कटाए, मैने, तथापि निज अश्लु नहीं गिराए ॥ सपम्ालोचक । २८५ कान-ज सता िादरी--नन्‍क-+ पक न-- रह पनकाकी- परी “मी. "नी फल करी पिजकी + >ककओ बह 2 ०मीगा..#-- या सबका का. आ...# "रह. म०७...#:ए..आर-पा पहन.) निकल मर संजीज. जल + भमिम- भला जीन जि रशंथ्ारंणणी ७ आया का का न जज ममस्‍वाा्याम्याभाकाना“पहम्यायपाम्पावभापककम्कमल्‍ककयानकमकशक मकान कम कम कथा का वाा दामन कम्पान काम कम कम कप्मां+ वा भाकण्क मक्का ग्दाम कथा न्कनकि गा गकाथकल्‍् यार बाइक कममा शुभ श रत कु कथा का कुक च पत्आं गया पाती पा चर सधि.. कुननी.. कगी... आमगकन ( ८ 9 कैसे लड़े ? मरमिदे किस भांति प्यारे ? मेरे सुपत्र किस भांति कहां सिधारे ? भूला उन्हें अब नहीं सब याद आते, प्राचीन तत्व विरले जन हें सुनातें ॥ ( ९ 9 क्‍ प्यारी लगी नवल वीर बृटीश छाया, मेंने निजत्व अपना उसमें भुलाया | आनन्द से अब रहूं गुण गा रहा हूं, निर्भोक हो जगत में सुख पा रहा हूं ॥ ( १० ) देखो सुनो मत करो अब और गजेन, को मान जो कुछ कहें वह छाट कर्जन । जो द्वेघभाव उपजा उसको मिटा दो, शड़ग समस्त मन की अब भी हटा दो ॥ राधारुष्ण मिश्र । (भिवानी | 2) स्रलभी शोक्षा हें । कला आर ५००-याओ 7-3८: कक्रम-०-पुराम नमी न मनुष्यों ने बड़ी भारी सूखेंता की जा पशुद्धक्षि ( निसगे ) को घर्या स देखना - आरम्म किया ; “ यह ता पणछुदृत्ति दें ” यह कहना ही किसी काम की बह्लुराई का खूचक हा गया, किन्तु गजेषणा सदर देखा जाय तो पछुदत्तिय करोड़ों पीढियों के अचुभव का सार हैं । हानिकारोी काम के लिए निसम पेदराही नहीं होसकता, हानि- कारी काम की और प्रद्मातते रखने वाली जाति हीं नए हो जाती है। व्याक्ति--जीवन मे भी, “ अच्छी आदतें का डालना ” ओर कुछ नहीं है, केचल सदस्व॒दवित्रेक ( भले बुँरे की पहचान ) शक्ति की आह्ञाओं का अनुभवाजुस्ार पशछाशत्ति के रूप में परिणत करना है। हि। पछाक्ञाते से भूल सी हो सकती है क्योंके सीमाओं के वा पाश्वेचर्सों दशा बदले जाने से पशाुचुक्तियां हानि भी कर सकता हें | किन्तु पशुद्ृत्ति हुटी दी है यह कहना ठीक नहीं, क्‍यों कि कई उपयोगी काम पंशिुकइत्ति सेही किए जाते है । इससे स्तेलने की इच्छा को गालियां न देकर उसका विध्चासर- करना चांहिए कि जब उसका इतना हट है तो अचरय ही हमारे पूर्व पुरुष को पिछले धगड़ों में उसने बहुत ही काम दिया द्वोगा | हम अब मानने लगे हैं।कि प्रारऊंतिक इच्छाएं बरकूचती है और फोम की है, हम “विंद्यार्थी जो न करना चादि वही उसे कराना इसी का नाम शिक्षा हे बिन फाठिन हुए पढ़ाई ही नहीं, पढाई में आनन्द आधे तो वह पढाई काहे की, इन यातों को नहीं मानते | हम शिक्षा का विद्यार्थोंदिलाना नहीं चाहते, किन्तु विद्यार्थी का शिक्षा दिलाना चाहते है | वन समालोीचक | ५श्ट्ट 3-पमभा पक नाना नाक. ५५०+3३७2०७ न पान कान पर पान धाकभ प ा न+कन-नन +नन पाकभ अनशन न मम मनन नमन न नमक न न ०००2७ ००-2०39%७७५५»७.+ ५-७3 3०.७ ००५०५३०००४..................., अत _अल्यकनी--..... बज-+ी-७०-त पाओ पेज पका जाना 7 हधत्यत खलना बह शाक्ति है ज्ञिसके ढर्जो का भेद, मनुप्य का उचद्चप- छुआ स, और उच्च पशुओं का नीच पशुआ से जो भद है उसका धरदचक दे । जन्म के साथ, वालकत्व ओर परवशता एक तर फ ओर एक तरफ बुद्धि आरम्भ होती है। जो जीच खलर मकते है थे म्विखाए भी जा खकते है। बुद्धिकी इद्धिके साथ साथ माता पिता क अधिक अधीन रहना पडता जाता हैं अथात्‌ आशध्रिक बुद्धिमान जीच आधिक दिन परवशय रहता हे | परव रहना ही खलने का कपल्ठ है अथोत्‌ अधिक खेलने वाल जीव ही अशथिक्न दुद्धिमान होंत है प््योंकि खेलना उन उाक्तियाँ की म्ूमयायद और परशोक्षा हें जिनके ऊपर, झागे ज्ञाकर जीव्वन निर्भर होगा | हृष्टान्तों न समाझिए । मेडक जन्‍्मने ही अपना रक्षा कगत क्ोें स्मथे होता हैं ज़नक उसकी सुम्हाल नहीं कर ते इससे वह विल्कुल नहीं खजलता | सोॉजन तलाश करना ओर समय पर ज्ञ्वी सहचाम्प फरना यही उलका कत्तेब्य हे। वलन वह इन्हीं दो कमा की गठदईी है | मेंडक की प्रत्येक छत्तांग पहुज्ात्ति मात्र हें, या ता भोज्नन पाने को या ता झत्न से वचन स्का, स्त्च्यन को नहीं । यही दा मछलियों की है, यद्यांप चडी होने पर य॒ ॒म्वेन्ठता है अथात्‌ बिता किसी काम के भी पेरगा करती ड़ । किन्‍लत्‌ बारुतव मे मचन्छलियां चहुत कम खलती दे इम्पस्प चह कुछ भी छिक्ला नहीं फा स्पक्ष्त्ती इसक सिवाय कि घाटी बज्ञाने पर स्त्राने के आज़ाय ! फटे सछलियाँ छिनारे पर आझादमी देखकर खाना मिलन की आशा से तट पर भी आजानी है हाथ पर मे राम नाम की गोलियां भो चुन कली हे | एस सज्ञन ने सगटी बज्ञाकर सझॉल्या को इसकी छझचाजर पर भे।जन न्ू लिए एकत्र रत का अधक्ष्य मर डाला | फिर घयरी के लट॒ रन म डारी बात करा छसत्र मे फुछ ब।थ फरा उन्‍प २११७ समाझो चक | र्ल्च्््च्ल्ल्च्च्च्ल्च्ल्ल्च्च्च्च्च्च्च्च्ंसकसच्ं््सजः:चजड-डड::: ओइफ(ओजजणज ल ल अल /ड:न--ाल खेचने से मछलियों को घणटी बजाना भी सिखाया । जब एक मच्छकी घणटी बजाती तो गौर भी भाजातीं, किन्तु भूख लगेने पर घण्टी चज्ञा कर इकट्ठा होना वे न सीख सर्की | याने थे ' एक पद ” स्तंयोंग की शक्ति रखती दे उनका सन दो ( साथ के) पदों फा संयोग नहीं फर सकता | अय जरा पशुओं में नोचे भा चलना चादिए क्योंकि फई लोगों फी बुद्धि में चीटी और मचुमक्खी बहुत बुद्धिवाली दोती हैं | किन्तु यद्यपि चींडियों में जाति भेद है और कंमे भेद है तथापि वे फेवल अचेतन भारवाहकददी है, और जन्म से ( नकि शिक्षा और ज्ञानसे ) उनकी प्रवृत्ति इस्त ओर होती छे। एफ चींटी दक््क निसमे स्पे यज्चों को पात्रता है, दूसरा निरूगे से अन्न ढो लाता है, तीखरा धास्रओं से लड़ता है | यदि चीटियों को किसी काम में लगा पाकर उनका पिछला छिस्सा फाट डाले तो भी बाकी हिस्सा उस काम से न हटेगा अर्थात्‌ न खेलनेके कारण उनमें अपने कामको जाननेका बुद्धि नदी ८, सब फासम जड़तादी किए जाती है। बड़े बड़े चिंडटों सटे तो सर्जनो के पेज टांके देने का फाम लिया जाता दे, अथोत्‌ चींटे पे जवाड़ों सं दोनों ओर फा मांस फैंसा कर उसका पिछला भाग काट दिया तो अग्नभाग चेसेही चिपटा रहेगा । पहले मानते थे कि ये एक दुसरे से बात चोत कर सकती हैं, क्‍योंकि जहां मिठाई पर एक चीटी पहुंची तो चहीं पचारंोों मौजूद | किन्तु इसका कारण खाप्य पदार्थ फा गनन्‍ध है | चींटियां अपनी पमित्र चीटियों को यहुत दिनों पीछे भी पहचान लेती हैं, और मपने निवास में आए छाहछुओं को फाड़ देंती दे, किन्तु शत्रु का रुधिर मित्र के और मित्र रुधिर शाझ्ुके मर देनेसे वें उलूदा व्यापार दिखाती हे । मनुष्य फी हाएमें इनका काम ओर परिश्रम स््षता है, छुद्धिमत्ता नहीं समालोचक। ञ््श्ट स>नरशम+नभहम मना ये काल हमे हरि करने पेपर यम मय पदक की पका रेप गा पक “नाक कया पाल पूझा-प था नानी हि ना पक--ाक "सा पाक" ऋधकक-ग ७ “गाना --पकी व ३ आस 0 बी 9 0 अं आ यही हाल मधु मतखी का है । सेकड़ा बर्षो से इत को हम आदी मानते आए है, किन्तु चालक “पशुद्ृक्ति ” से ही अपने शुरु्झो से अधिक जानत्ते थे, इस्तीसें उनने इनका असुसरण नहीं किया । पक्षियों में सी खेलने को प्रद्याति चहुत कम चे। दे पश्ची जो सर्धो पर और ऊंची जगहों पर गोल खोते बनाते दे और जिनके यच्े कमजोर इशने से आंथिक सम्हाल के प्ार्थी दोते हे आधिक शिक्षा पा सकते दें और आधिक खेलते दे । इसके विरुद्ध भूमि पर खोता खनाने था अण्डा देने वाले पक्षी जिनमें जन्मतें द्वी वच्चोंका आंख खुल जाती है और जो झट दौड़ने मोर खाने छगते है, नहीं! खलते ओर शिक्षा नहीं पाते | द्वितीय अशणी भ॑ झ्लुग गिने जाने चादढ़िए्ए । इनके बच्चे ज़न्मस्ते २० मिनिट बाद ही कीड़ों पए चॉच मारते है, ये कसी नहों सख्ेलते, फेचल फीड़ोंके लिये लड़ते हैं | झट पद उनका जीवन उहुरू हो जाता छै भौर इलीसे “ म्ुगींके बच्चे ”' यद्द सूखे के लिए गाली का शब्द हे मांसादारियों के पञ्जेंम कई शताब्दियों से पढे रहने पर भी अबतक ये ( झुर्ग, तीतर, परू, वतक) कुछ न स्रीख सके | पालतू मुर्गा प्रायः अस्लतस्सव स्त्री बात है, फिन्तु जहां चाहो चहां पाछतू भेड़, चकछडे, घछेरे, खुमर, त रू देखलो | फोचे मआधिक बुद्धिमान हें, उच्च स्थाना में जोते बनाने चाले पश्षियों की ब्रुद्धिमत्ता उसी क्रम में आधिका अधिक हें जिस ऋमसे थे अधिक खेलते दे चा नाचते हद । स्तचस्से उच्ध दशामें तोंपे मर मेना दें जो खला फरते ढे, मजाक पसन्द करते हे और इस्तनी लिए रूचसे आधिक घुद्धिमान्‌ है । हँसना घुछिका चिन्ह भी हे फल भी दे । पराओं में आइपय तो आधिफक खिलाड़ी मिलेंगे । फठरू मे ग्जेलने का उतना प्रेम नहों किन्तु चीरे घीरे उन्नति पद पर जाफर देखने 99९ समालोचक। कम्कम्मकरकायाइण्याम्पकनपकम्पकण्पागग्पकपइंग्ग कप सइन्क्कण्यकपएगयाकगबइइकण हम कमाना ली कक कया था अल बज बल पलक नम नमक कम शनि न लक निकल मिड किम मकीकम$ अर. ३? क.ज्त... सर एतजनी कक जिक- मइल्लओं कप. छ आ 3० आशा बजाज अप पल, पड ब्र- 3... 23.2०... बम टिक यकरा ऑर वल्ली के बच्चे अपने खेलवाड़ के लिएए कहावतों में पीसद्ध दे । विल्ली का वच्चा अपनी यहच की पूंछ पर, वा डोर <; ख5छ पर चसहा झपटता हैं जैसे ।क बडा दाने पर चूहोंपर चिज्लियों पर वा दूसरे बिलारपर झपरंगा | भड़ के वा गाोके बछड़े की खेल तर, स्तोचिए तो हि कितना प्यारी ह्दे | दॉना अपनी टांगों को सब ओर फदट्करारत दे जिससे निश्चय हो जाय की यह हमारी ही है। यछडेका टकराना उल्च भविष्यत्‌ बड़ण्यन का सूचक है जब चह अपने जड़ के चले गोविन्द हो क्र 'स्रभोारलुनि सपत्न गमन करेंगा। चछड्टे का कूद कर ऊंचे टीलेपर चढ़ जाना अपने पूर्वजों की चीरो- चित प्रवृत्तिका नम्तूना हैं । जरा बन्द्रराज का भी ध्यान कीजिए, वे तो दिनभर खेत्याही करत हैं । कया हमकी अपने ( मनुष्प जाति के ) बालकों का खेलना अच्छा नेहीं मालूम देता ? उनमें भी खेल आगामी जीचब्रन कीदशा चताती हे और उन्हे जीवन के यरर्य बनाती हे । वालक अपने पूर्वजी की नकल करता है | प्रक्कातें की खेलने की पाठशाला में जो पढ़ाया जाता है रटाई की शिक्षा उसकी भी नकल है । खेलने में बालक को विश्राम मिलता है भूख रूगती हे, तन्दुरुस्ती होती छे यही नहों, उसके मन ओर मार्तप्क की भी रचना होती हैं। चालक २० थीं दाताव्दि में नहीं जन्मता, और न महलों में जन्मता हें वद्द उस कालमें जन्मता है जब मन्॒ुप्य गशुह्ावासी थे ओर प्ाल्य के प्रहुय से ब त्रते फिरते थे। मनुष्यजाति न॒ जीवन को जेसे आरम्भ किया था, बालक का खुकुमार मन सी जीवन को पबेसे आरम्भ कर, सक्ष्यता की उन्हीं दशाओं में होता हुआ, बडों का अनु करणा ऋरता छुआ बढ़ता हैं। मनुष्यजाते में ओर मनुप्यवालक मे उम्लाते का ऋम पहचानने से यह सम्बंध प्रकाशत हाता ६“ पकड़ अकड, शिकार, शाान्‍्त, खती आर व्यापार | समालोचक | १२० न्पय्य्य्य्स्ञलसाःः रन: जज ऊकऊ कओअअअअअ ननअ ख कनल७्नज हल्फ जल नहन्ं्ःंअसिसल तर +_...त_ुे००-+००.........तन १,एरनीआआाज0 0 200 आम मी न आई 73 कक पम सपा नानी वन गया भारी भा. अमीर पिन] या न भार न पा. “पा हरी पाप पक १व्ययाकू, मेमनाकन कि. व्या.॥. जपी भारम.-म पारी नयादुक भा... पक स्‍स्‍वमणम-भायाम्मममाा+. जया इस चॉस्ची शताब्दी में जन्मे चालक को जो दिखाई देता दे यही ख.ने का पदार्थ माना जाता हैं। कांजसे लेकर खिलोने तक जी ऋुछ उन शुल यी हथेकलियों में अ या, चही मुख्यरचिन्द में गया मानों वही खजाना है, देहवे अड्भोके अपने होनेकी परीक्षा भी मदद में डालने से होती है । बिना चख्र के मनुप्यों को भी पहछ प्रु ललही ४ अपना ” होगा, पाकट त्तो थे है! नहीं | जहां रेंगक्र चलना झाया कि शिकार की खूुझी, साठाकी कर्चों हों, वा पिताजी की अगृठी बच्चेके हाथ लगी कि सुखारावनन्‍द में | अब खिलाने, पक्षी, गुड़ियां स्तवको पकडने का ही ध्यान होता हैं ओर यों बालक “ सिकार ?? की दशार्भें कया पहुचा । साथही स्वाथ उससे छिंपना आ जाता है, तकिए के पीछे, खम्भे के पीछे, माता दी के पीछे, और कुछमोाी नहीं तो अपनी आंखों कू सामने हाथ दी फरके अपने को छिप। मान फरा आगनन्‍्तुक कर इंसत्ते हुए. झपटना ओर आंख सिचौनी प्रभति खेलना आदिम शिकारी मलुष्यो की नकल है और बनन्‍्य पशुर्भो से डरकर उनका तरह ही | छिपना है | साथही, दरचाजे के बाहर “' हाबू ' गली में ज्ञाओं तो “भूत रात फो ' फाला रीछे अधेरे में सौर कोई चोथे चीर, मन्नष्यजाति के उस पुराकाल के स्मारफ हें । शिकार के साथटही साथ लड़ाई और शान्ति दोनों आरम्भ हो ज्ञाती है । लालू जी ज्वाडिया लेकर विछी को मारते फिरते हैं तकूबार चांधते हैं शादियों की फौज चना कर फिले जीतत हैँ। गलियों में लड़कों के ढक बनजातें दे | € पार्टी ” पार्टी में बदल होती है, राजा की कचहदरी दोंती हे, चोर का इन्साफ होता दे, साथ ही साथ मही कः घर चनाए जाते है, रस्तोई फी जाती है, दुकान जमती है, लेन देन होता हैं, घोड़ी पर सवार दोकर ही फिरना होता है खेती अंग १२१ समालोचक । >आआा.. निकाआओ "निशा “नाली फशाधआा "७ ओम पका पान, अमन "+ानत-पम+कए..अधनो गन." कआमन गहरी, यान "ंपानगीथाा -3.हना-.ा. 3.0. कान 3. मनी... माननीय. नए जाना मनन पी" मन पापी दानन 2 कमी >भारत पिकननी "पानी भेज सनम जन" की + की जाती है, तोते पाले जाते है, कुत्ते बिल्ली, गेलहारियां तक पाली जाती है, उनसे प्रेम उत्पन्न दोता है। इमारतें बनती हैं शुद्डियों के ब्याह होते हैं, और मरी गुड़ियाँ जलाई जाती है। यही सब कमे करके सन्तुष्य जातिने वतमान सक्ष्यता पाई छे।फिर व्यापार आरम्भ हाता हे-जैस पेसों से जेब भरना, तुलूखी फे पत्चों को ही खेल भें बेचना, कोई कुछ काम करने कहे तो “ मुझे क्‍या दोगे ? पुछना, मिठाई मिले तो छ्ुप रहना, नई टोपी मिले तो मद्रस्े जाना इत्यादि । प्रछराति की पाठशाला में मनुष्य जातिने जो १०००० घपे में किया है, घालक जेलने की महिमा से 2१० वे में वही फरके जंगली गृहावासी से खासा व्यापारी बन गया। चह्ाँ पए बालक ने अपनी गृढ शक्तियों की कवायदंमात्र की | किन्तु इस बात पर लोग यह आपत्ति उठावेंगे कि यों धन कमाना, चालाकी, लड़ना घा शान्ति सौजे भी सही, किन्तु मानालिक शिक्षा फहाँ हुए? भानसिक शिक्षा फी दृष्टि में तो स्तेल विश्रामद्ी है, मनएजिन का फालतू घूम निकालने के लिए ढिपनी के समान ही ह्ठे। किन्तु खेल का देहगठन में जितना काम हे, मस्तिप्फ गठन भें भी उतना काम दै। मस्तिष्क साधारण मांस पिशड का चिच ष्ते लिख उच्नत रूप मात्र है| देंह की आवश्यकता के अज्शुस्तार स्ताडु चनते वा बढते गए | सास्तिष्क देह का नोकरही तो हैं । पहले पहल खाट में जब एक पदार्थ को दूसरे से सम्बन्ध फरना पड़ता ता जाफपण बल से जंग तक जाना या उसको अपने पास लाना जरूरी था। कई पास पास के ब्रक्ष सरक सरक फे मिलते दे ओर पत्थर छुढकफर नीचे आजात्ता हैं| इसी साधारण उपाय की उद्नाति होत होते कुछ जी वो को रेंगना आया भौर उसी के विवय ले टांगे समालोचक | १३२ च्श्य्य्य्स्य्य्य्य्य्य्य्स्य्य्य्य्य्य्य्य्य्स्य्य्य्य्य्य्य्य्य््स््््ं्््स्स्स्स्िल््स्ल्डल्डड्ड-डड््--:ड-डड-८- चनी जिनसे जीव दुस्तर पदार्थ तक जा म्कता दै। इसी उच्मा3 के साथ साथ ऊपर फे मांस पिण्ड बढकर हाथ वचन गए। फिर भन्न प्रकार फेप फडने (्‌ शान ) छः लिए नाक खुल गए ओर आंख ले तथा कान ने पकड़ने का नया उपाय पा लिया। य हू सब आदव- श्यकतानुसार छुआ और साथ ही साथ त्वफ्संवेदन कौर स्माय जाल सारे फेल गया और तार घरों की तरद्द उन तार का केन्द्र एक मस्तिष्क स्थारपन दी गया। अब इन्द्रियों में फैले हुए स्वायु जारू से मस्तिष्क तक चेतना पहुंचती है ओर चहां से मांस क घछा्ली फो आजशर मिल जाती द्वे। यो इन्द्रिय चेतनाओं का तम्तुरओं के द्वारा जाना जाकर काम करना, और काम की अधिक से एक केन्द्र चा तार महकमसे के इन्सपेकक्‍्टर ( मस्तिष्क ) का बनना छोटे छोटे जीवों सर मनुष्य तक किस प्रकार हुआ है और खेलने ने इस्तमें कितनी स्पह्यायता दी हे, इस बात को पाठक चहुत ध्यान देंफर पढें | चड़ा आनन्द आवेरा । एक प्रकार फी मच्छियों में मस्तिष्फ नहीं होता, केचल स्पारे देह पर तस्तुजालद्दी बिछा होता है जिसके एक मेश को छूने से स्तायु पर दवाव पड़ने से मछली भाग जाती दे था अपने कॉटे वढाकर छाज्चु पर धमला कर देती हें। घह्दी तन्‍्तुजारलू “ जैली !! मत्स्य के संह के चौत्तरफ कमरचन्द्‌ की तरद्द बंध जाता है अर ४ तारा-> मत्स्य / में गलेबन्द की तरद मुंह के ऊपर लिपफ्टा जाकर अपनी शाखाएं स्व अड्डों में फेज्ाए रहता है । कीड़ों में, सारे देह में ध्याप्र श्ञनतन्त सकी दोहरी गांठ के साथ पीठ में जुड़ा छुआ दृष्ठी गलेवन्द स॒ुह् फे पास दाता ह। यद्यपि देह के प्रत्यक भड्ड में ज्ञानतन्तु की दो दो गांठे दोते है, तो भी सह के पास फी गांठों को अधिक फाम करना पड़ना है हस्त स्टिप श्ग्३् समालोचक | च्ि्जि-" सात त.3सनन-तलत3तननयन भकयाननक भरयमनकत- नानक न ा न - न नियम + मनन मनन वाननन नन- नह «पथ ० ५ ३५++५अभध गया काका ३००२ फणमगदादा कक ५५५३०३३७३३७१०३०७०० ३५ कक चन्नाते दोतलेहोते,प्रयोगवाहु ल्‍्यस्त वह गलेवन्द्की सी गांडें'मस्तिप्क चन जातो हैं। उन में गन्ध अहरा का शाक्ति होती ह्ढे और रूप भी कुछ कुछ पहचाना जाता है। घ्छे- सत्स्य मे भी यदो स्विर पर गले सदर ञओो्‌ ही ५ है: पर ज्ञानतन्त आओ का तार होता है. किन्ठु यहां गरेबन्दर कुछ बढ जाता है। फीड़ों में तो उसे “ नासखिकामस्तिष्क ” कह सकते है किनन्‍त अब आंखों के निकल आने से मसारूतप्क से तीन पं.टलियां स्री वन जाती हे ओर इसे 'नासानेत्र' मस्तिप्क कह्ठ सफ्ते है। उससे उच्च जीचों के मस्तिप्कर्मे इतनाही विशेष है कि नेच्र पोटली और नासापोट्की साख्ति- प्क में ओर भी प्रकट हो जाती ढे और उनके लियाय ज्ञानतत्तुसघ कुछ ओर सी बढ़ जाता है । | यहां से मस्तिप्क का वढना आरस्भ हेप्ता हैं। उस ज्ञानतन्तु के छल्ले स्ः सुहँ तो बाहर निकल भआता है और ज्ञानतन्तुसंध उलूद कर मेरुदण्ड से घुस जाता है । सुंह से ऊपर ही माश्तप्क हें, उस की पूछ में, जो मेरुदणड में पावेष्ठ हैं, अब न्यारी न्‍यारी गाठ्े नहीं रहीं किन्तु एकही सम्बद्ध रेखा हो गई । सारितप्क में सामनेहो « ज्नालिका पोटकी ' बाचमें नेत्र पोंडी ओर वगरऊ से कणे पायली हुई और बे हुए मस्तिष्क के बाकी अंझ्के दो “ गोल्याथे ”” चने रहे गए । इन जीवोंसे, मन्तुप्य पर्यन्त, इन गोछार्थों के चढ़ने का ही विशेष है, नहीं तो मास्तिप्क का क्रम चद्दी रहता है । यह गोंलाऊ॑ं नासिका पोटली से जिशेषत”ः और शोरों से गोणना से सहायता पाकर चढ़ते जाते दे । ये छोटी मछलियों ५ नालापोटली के समान, सालमनमीन मे उससे डिमुण,मेडक और छिप्कल्टीमें तीनों पोटलि- योसे चबड़े,लिड़ियाअर्मे मास्तिप्क्सें आधे,कुत्तोंस प्रथम पॉटलॉत्रयस्े लिगुने, और मलुप्यमें प्राय अठझशुने हाज़ाने हैं । खाना अच्छा हे चा समालीदक | १२५ वाममा+ चाहत -अ पु... अगाधका मन पाइमा मामा. सर "यामी "गेलाया--म जी जूहारे-+ परमार क-- हैरी मिमी. हुक गयी". ."रहोकर.. गज मिपयामनओं।. 'यतुर-र्निगभाकबी गयणडहती।. ोपनाम ४ ५ पयान्यता-न भाभी 'ज्ययाओं" "गायक ँियाकतानमाधआामा जीनत नेहा, यह निगश्चय करन के लिए मुख के ऊपरदी नासा मस्तिप्क उत्पन्न हों ज्ञाता हैं, ओर देहके उम्र साग को आधेक खत्तरे रहने के फार्ण वहीं नेत्र मसितष्क हा गया | अब देहद-स््रमाज की इम्त राज चानी में दो प्रतिनिधि आला गए ओर सब अड्जोंके ज्ञानतन्तुओं के प्र/न्तानाशिे आ मिलने से उनकी सस्मि'लेत शक्ति से मस्तिष्क मो- छारंरूपी पार्केमसण्ट स्थापन होगेइ । यही। स्व याते मनुप्य की ग्ावसस्‍था से लेकर उसी ऋम मरे होंती है जिल ऋममसे कि चरह नीच जीवोंस्े उच्च जीचों परयेन्‍त होती आंद। गर्भमें रस्पांशकें चौतरफर्ड 3पे फर जाती है ओर वह डोरी छोरोपर लिपट कर बी चम घंसकर तसरकी तरफ निऋलन लगती है | निक- लते ही स्वामने नाम्पपपोंट ठी, आंखों स निकलने चालकी डॉरीसे नेश्न- पाटली, कानों स निकलने चाली डारियों ल्‍ अ्रंत्नपोटलो वन पर इस तीनोंलें मास्तिप्फ गोला निकलने कूगता ले और इन सबको लछपरट कर इस सबसे चड़ा भाग रोंक कर सस्तिप्फ १०० में <५ फे अनुपात की पहुच जाता हे । ( मसदा ) हमारो आलमारी | लक लल नल >> 4७ शी कक क “ 4 ० 2-ललल बल वाचू रामदीनसिंह की जीवनी । जेनेन्द्रकिओर लिखित | आरा नागरी प्रचारिणी सभा | इस पुस्तक में हिन्दी फे परम सटष्ठायक्र याबू स्राहब फ्ा चित्र बहुत अच्छा दे | जीवनी आति संक्षिप्त हें । बिद्यरी समाकों बिद्दार फे स्वे प्रधान हिन्दी दितेषी की एसो क्षुद्र जावचनी न लिखनी थी | रामदीन खिंहजी के खझुयोग्य पुत्र इस कलड्ढ को घधादवे कि भारतेन्दु जी फी जीवनी रई बरसों तक न निकालने के पाप के प्रायश्चित में उनके पिताकी जींचनी भी नहीं निकलती । इस प॒स्तक से हमें मादूम हुआ कि यह आरा की सभा बैद्यक भी करती है, कयोंक्ति उसने बाबू साहब फे इछाज में जान (!) तक छड़ा डाछी और और नागरी प्रयारिणी खभाएं कमा खाने की (!) ठी करा है, इस फारण स्ते याबू साहब की सद्दालुभूति उनसे दृट गई थीं | काशी की सभा से बाबू साहब वी सहानुभूति कैसे दटी, यह सब जानते हें और हमें बड़ा हषे हुआ कि आरा की सभा फमा खाने का ठाॉकरा नहीं है । कैसा श्रामीणा और अनगलर कथन है | क्या प्रणेत समा- यो बड़ी को गाली दिया करेगे £ मे ्ः लाचक गण हज औः आरा नागरी प्रधारिणी सभा का द्वितीय वाषिक विवरण | इस स्भाकी छाचत ऋम लाते फो देख फर हम बढ़े भसन्ष फिन्तु कुछ बातें हमें परंद नहीं है। मेम्बर यढ़ रहें ढ, लिग्राम ओर पण्डित ७३ २... यँ हांतं द्वे सद्दा, जार्थिक सहायता बढ़ दोती जाती हैं, षाबू सा समालोचक | २८५९ +फयाा +मााक “माकान पक हयात "कप माया नात्यम्म्यायाक “माल भभााानंग्गवाक िदाइक-भाजक-फिक, लक्ष्मीदाड्ुर मिलाए गए हें, यह सब अच्छी बातें हैं । सभा के भागे अच्छा भविष्य हे।दिजली में हिन्दी को कानफरेन्स करने के (एा5०७० विलले प्रस्ताव को नागरी अचारिणी सभाने रोका, किन्तु मारा घाले मश्चुतपूत्रे चार व्यक्तिओं का नाम क्‍यों लेते है ? फ्राश्शी को सभा ने मैफमसिलन की पुस्तकों के शोघन फा यत्न और उद्योग 'फिया, तो आरावाले भी एक पत्र छिस्तर कर पांचवे सवार को टांग क्यो अड़ाते दें ? सभा के नियत किप्ट विषयों परही पदक फयों देते हैं? लेख प्रणाली नई क्यों चलाते हैं ? उन्हें उच्चित दे कि प्रच्छष्त रूप स्ते स्तभारे प्रतियेगगिता न करफे यातो प्रादेशिक दित करें, वा बड़ी सभाके काये का आासखा बनफर वा यो द्दी ४०८/१?४४४7८०४८ पूरित फरें | यद संघपे हमें थिलकुछू नापलन्द है | यों आरा न चलाकर मिल्जुलू कर काम फरना चादए, जिसमे द्वितवातों के चाडुन्‍ध्चनि लेखक को भज्ञान से “ काफी सभा भारा फी सभा फा सनुकरण फर ” न कहना यह | , मर मॉः मै र्कः ९४ जनपत समीक्षा । आयंसमाज, लादौर । इस पझन्‍्थ से धुब्ध होकर रुथान स्थान के जेनियों ने सरकार को भतिकार की प्राथैना की हे । क्‍या जैनी इतनी झशाताव्दियों में भी प्राद्यणों की उस्त्र सहन लता फो न सीखे जिससे वे '* शिर. इवा काकों वा द्वुपद्तनयों चा रुप॒शतु तव, ” कद सफते ओर जिससे उनके प्रभु का “ चीतराग ” नाम सूचित फरता है ? सबस्ेे बढ़े सम्भव और फरामात कोमानना ईश्वर वादही है,भोर स्वयं इृभ्यर चादी होफर ओऔरों को गाली देना फदापि अच्छा नहीं छै। सदवदय ही भव पऐेसले लोग नई। होंगे जो किसी धमं विशेष को इंेश्वरः ४९७ समालोचक हित. फका हुआ मानते ८ | घर्मसान्न मनुष्य क म्र्योद्यमाव डे और 5 आए ३ न न के. च् च्के पक ्‌ स्तसो सपा आर स्तर्भी ऊंठ ठ। चघिघोंप फरके जेन धर्म को मद्यपान रथ के भ् तक क्री आर मांसाद्वार के प्रचार फू कारण कऋडफ्र कलडद्धित किया हें! इन दो फर्मो >, रूये के नीचे, ऊने। से आधिक दूर काई कदाचित सशाा०--ग्गीिक-ााीी 73य+ जय जन न सीन 3-333म कान भाभी :नका५29५०३५५+०प ५७५०७ ॥४७३३५+ मनन ५-५ +४५०३५७३००५॥७५५३५नकाक०७७०००५५५५५.७०५५० ५० ३०००० कमा बहन्‍कथम तनमन». मममा 'समूक मकान. ऋषि... जी ब्न+ अर 4० | हो हो । आभाज् कन्द जब जातीय एकता छी जरूरत द्वे तो ऐस्े ग्रथों का निकल्टना कदापे टहिततकर नहीं दें । स्वामी दयानन्द्‌ जी की योग्यता की वात तो उन के सायही से, च्न्तु बतमसान झायसमाज की श्स्प सच धर्मो की ननन्‍दा वी कऋणा- त्मक क्रिया स्त॑ कया घनात्मक घम्म रह गया हैं, उसके विषय मे कालाइईल ने चाल्ट्यर महाश्यय को ज्ञों घाक्य कद हैं. उन्हें उद्चघृत करण हम इग्प पएस्तक की ऋच्षा पो दूर करेंगे। चुप रहा. सान्‍्यचर घाल्टेयर महाध्वय, अपनी सीटी घोंली को वन्‍द कीजिए, क्‍योंकि जो सास आपके सुपुदे था चष् पूरा दो चुका माद्धम पड़ता हैं। इस महाद या तनुचछ साध्य को आपने वड्डत अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है कि कूस्त'न धर्म फे पुराण इस समय चेसे नहीं माछूम देते संस छठी शताब्दी में मालूम होते थे | बस अच चया आपके छे ओर तीस चोपेजी, और छें और तीस हजार चोपेजी और * इ तेजी * कागजोंकी गाहयां जे तब और पीछे उत्ली विषय पर लिखी गई है, हमको इतनी थोड़ी सी बात समभफाने को लिखी गई १ किन्त आर काया? क्या आप हमें उस धघम की देवीझआत्मा को नए पुराण में, नए. वाहन मोर चस्म में रखने में सहायता दे सकते कह जिसमें हमारी आत्माएं जो भौर तरद्द नष्ट होती डे, बच जांय ? बस, क्‍या आप से चेसी शक्ति नहीं हे ? जलाने क्यों पीता तो झ्! किन्तु गढ़ने का डथोंड़ा नहीं ? त्तो हमारे घन्‍यवादले, और अपेत को शा मत्र दर ले जायें समालोचक। २९१ निवेदन-नागरीप्रचारि णी सभा कफ (७<-ष भभणथिवेशन में पंडित किशोर लाल गोख्वामी न चढ़ी ब्रजमाषा की एक काचवेता पढ़ी थी, 'पेजसक अन्त में यह था-- यहे राषुलिपि भारत की मागरी नथेली | जआाकी प्रशुवर म्यकदानल रोपी प* सेली ॥ करि पलल्‍लावित कालित ( ३ ) कुछुमेंत पाने फलित भावों । घादरनीय विलोचनते हृदहि लणस्यड 'बायसों ॥ लिखिद्े सदा नागरी प्रेमी नाम तुझारों । स्वणोक्षर ते भर कारेहे जगमाहि चैजारो ॥ पण्डित अयोध्या सिंह उपाध्याय ने सरल और ठेठ हिन्दी में बड़ादी भावसय फचिता पढ़ सखनाई थी | किन्तु इन दोनों से रोचक भोर चिलध्षण एक प्रवालिना बड़्मादिला की “ निवेदन ” नामक यड़ला कविता थी, जो देवनागरी अध्षरां म छापकर बांदी गदईे थी। मानों दृस ऐतिहासिक अवस्तर पर बड़ भाषा की सोभाग्य रूक््मीय ब्ड्मदिला के रूपमें अपनी वद्दन हिन्दी का पद रुवीकार फिया और “ भारतेर श्रेष्ठ भाषा चु॥खिनी नागरी हय ” की आह सुनकर देवनागरी अध्षरों फो रुवॉकार किया । यह झाम मिलाप नया होने पर भो, दम जभआाशा करते दें, चिरस्थायी होगा । निवेदन ” काचेता इतनी रोचक थी कि उंम्पमें से कुछ हम यहाँ उद्धध्नत करते है। मि- ज्ांपुर के बाल फाहशा प्रसाद ने एफ इण्डियन पेसकी रामायण, उ्तेर मि० ज़ैनलेशध ने पक सांगानेरी स्वार्की बद्धमाहिला के लिए अपंण की, मोर स्चने इस्त फचिता फा साधुवाद किया। य्ः री पकीिनि ज नली लए “अल जज मम लाइक कर अल बुत खुकमसकप्य स्पा उप >> ४३ +॥ बा बााऋ्ढूूू-८०७ा ७ ७०चाए 9७८७४ काका थििुेध्धा पाक थक ऋ॑िौॉााात्जवा ( ६ ) क्‍या ' कालियो वाली ' से मतलब है ? तो इस श्यर्ध ज़रती शाब्व को मानने वाली फदिता की निरक्ुशता धन्य है !! कल सपालाचक | पे के य्य्य्य्य््य्य्य्प्फ्--++_+--55-.ठू..>ल्‍.."दन..__*-_____ैैन्‍जअ२ंन€३६8> >ं २२१. आल. गए गाइुगमीनिय इन्मयाक गम गाहोकनया. अजन-क्रि. मी. आना... "सर जा प्गुनमानम न. हानि) सामिममा- “कि०---ाऑमवोन, पृथ प्रसु भ्यकझानल पिंचिया उस्साह अल फरिलेन ज शनिका स्नेश्भरे श्ाडरित । ठुमी मारे करो प्रभु फल फ़र सुदाभेत्त ॥ मै रष्ट मै सकल डू' दाहि नय, शकलदक * सुधाकर * घुथल मूत्तिद्वय ' श्याम ' भार ' स्रीराधा ! २॥ झार देव राण कतो हाय एन एकणशित फरियोरे स्थभाषार मलिनता विमोचन ! नाना रस्ने ऊछं। वराग कारवेन सुशोभन ॥ मै में ६ विजाति साहिध्यादाने सुमाये प्रसन सूले । इाथि परावेन साला निज साठमाषा गले ॥ दो जीवन चरित्र । #8 # /777ॉैल्‍--८#ह₹<5७ ४: ७०. इन दोनों जीवन चरित्रों को साथ लेने के कई कारण है, जिनमें सब सत्र पदला यद्द है कि दोनों ही हिन्दी साहित्य के भूषण हैं। यादें “ कनल टाड़ कुछीन विन क्षत्रिय यश क्षय दोत ” तो भारतेन्दु बिना द्विन्दी क्या और केसी होती इसकी कलपना भी हम नहीं कर सकते। उदयपुर दरवार से दोनों का प्रेम था। दोनों ने परिश्रम कर्नल जेम्स टाड का जीवन चरित्र । शोरोशकर हीराचम्द शोद्या। खडग- विलांस प्रस बाॉकीपूर। ४० पृष्ठ। 'भार झ्माते । भारतेनद बाइ हरिश्चत्द्‌ का जावेन ख्ारेत्र । स्रीशाधाकृष्ण दास | सारा प्रेस । स्ववेद्वस्तु प्रचारक कम्पनी २१ न झुला- नाला फ्राक्षी । १८७ प्रष्ट । छ आने । समालोचक | ००३ स्तर एरतवष की स्ेचा की आर दोनों ने अल्पाय पाई | ( राह १७८२- श्प३ण इध्चर्ष ) (सारतेन्दु १८५०-१८८५०, ३५ वर्ष) यादि राह़ साहब भाग्त खेँंवन्‍्धी इतिहास फे पिता है ( पू ३९ ) तो भारतेन्दुने दिन्दो को हरियश्वन्द्री ढाऊ मे ढठाछा। इन दोनों भ्रनन्‍थों में ही खड़ा लास्प प्रेत की शिकायत हे, भारतेन्दु जी की ' कला ' को पूरी न करने की ओर जीवन चारित्र खीस घषे तक न छापने की, और टाड के राजस्थान का ज्यनुवाद न खझापने की। किन्तु हमें यद लिखते हफे हे कि रुवर्गोय रामरीनामिंह ज्ते के पुत्न न अपने पिता के इन दोनों कार्यों को पूरा करना चबिचारा है. और सदड्डुब्पमय भगवज्ान इस सड्ुतप की, हस अउभागों के सम्बन्ध से तो नहीं, पर उन दो विभूति मान्‌ | जीवों के सम्बन्ध से पूरा करा देवें। दोनों भ्रन्‍थों के लेखक भी ऐसे कि जो अपने अउने विषय के अधिकारी है, ओर जिनस्पे अच्छा लेखक, उस्सत बिषय का, नहीं मिलता। उदयपुर इतिदास् कार्यांछुय के अध्यक्ष, ओर टाड़ की भूलेों को पकड़ने चाले हिन्दुओं के टाड ओफाजी से अच्छा ठटाड चरित्र और कौन लिखता ? भार- तेन्दु जी की मणडकी के रत्नों में से बचे हुए विरलों में उनके फुफेरे भाई से अच्छा उनका सत॒ति कक्ती कौन हो सकता ? टाड साहवने इतिहास को भूर्लके सरकृत की अनामीक्षता से की हैं। उनका जीवनव्यायी परिक्षम उप्र जिदेणियों के इतिहास के लिए भाणान्त यत्ष उदाहरण योग्य छहै। उनने राज प्रतों की सठति की है, और अपने भ्रन्थ के समपण में उरकोा दास्माधिकार ओर स्वतन्त्रता देने के भाव जताए दे । आज तक कोई भी योरोपियन था देशी शोधक ऐेस्रार भाग्य शाली नहीं छुआ कि ऐतिहासिक सामआी संग्मह करने में और परिश्रम में उनकी यराबरी कर सके ( प्र. ३२ ) टाड स्राहब को अपनी भ्रसिद्धि की तृष्ण न थी ( ३७ ) धर श्कम्पाइकममकम काका कान काय कम कम थ्क मा ककमकामकमंभाााामाकण कम कक कम ा#भभााभाण लाना तक मल. नह आल कक आम जज बम २९४८ समाडझ। नक। कह बहाली ०. ३. पलक... पायी अिन्नमानाज डी पान नजर "५--मीाक न प्यणा-नी फियलननर पथा-3 पनन यानी प्रकार ऋ 3». जमा नजक.. थक. "७७ # फरमान सम अिकजम। था - आन आआम गगन वा प3>-म जनम जज जनम का ओर एऐसों को होते ही क्यों ? ऐेतिदासिक लोग रुस्े होते हैं किन्तु ओझा जी को भी अन्त में जो शर आगय'० है और अपनी सीधी भाषा में वे उसे यो प्रकाय करते हे “ १७ वे की किशोर अवस्पा ही से उन्दोंने संसाररूपी व्षम सम॒द्र' में श्रवश कर उसकी तरल तरड्ठः के अतक धक्के सहने पर सी पूणे साहस आर अथक परिश्रम के स्लाथ ३६ वर्ष के अवब्पकालही में अपने कते5प्र रूप नौका को किस तरद्द पार पहुँचाया । जीवन के प्रत्येक बिभाग में यश ओर पअतिट्ठा ने उनका साथ दिया वश्थिसमी भारत के प्रामाणिक सातक्ित्र उनने खनाये और भारत के क्षत्रियों के पुरषार्य और किसी को जो पहले अन्धकार में पड़े थे उन्हे ज्रपंन महान अम सर प्रकाश में लाकर उनके यरा का प्रवाह संसार में फेला दिया ”। देशियों के घमे सम्बन्धी व्रिचारो का थें पूरा आइर करते थे किन्तु दुगुणा की बुराई करते थे । इस में भी चह निर्मीक ज्शैर उच्छुद्धाल भारतन्दु के मत “ हरिपद्‌ मत रहे उपघसे छूटे . को याव 'दिलाते छठे 4 मारतेन्दुजी कफ हरूतिदास्त प्रसिद्ध अर खरद्दार य चेष्णय कऋल का वर्णन ४६ प्रष्ठों में छे। खत्य द्वे ' छाचीनां अआीमतां गेद्धे यागमश्नष्टो मिज्ञायतें ” बड़ देदा पर जऊँगरजो का अधिकार कराने| वाले केन्‍ठ कृतप्नता के छले सेठ अमीचन्द, पुराने पणिडर्तों की कथार्ओो मे प्रसिद्ध/ दानी * काले हब चन्द ' ओर बुढचा मड्रल के दूल्हे, स्तुकायि चैंष्ण गोपालचन्द जी का भक्तिमय चरित्र पढने लायक है। सरस्वती में जो गो गलचन्द्र जी का और दरिश्यन्द्र जी का जीवन चरित्र निकझा था उसीमें कुछ बढ़ाकर यद्द पुस्तक प्रस्तुत हुई हैं| पहल तो हमे राघाकृष्ण दाल जी की शिकायत क्रोध सें करनी दे कि प्रताप नाटक के पीछ आज उनते पुस्तक निकाली और फिंर अपना करम ठोकना है कि बीस बे पीछ एक छोटी स्त्री जीवनी संपाली चक्र | २९५८ ५ ंभराााकरभा ०००५ नि ा व न ाव2 १५७५६ ' ०० भा ३०००० भा गह५५५ ३३७७५ +५ सभा ३५४ ०५५०६ मं हमा॥०+ मं ध५ा# एव एम सा 2०९ पर यारा दाना शा न पा नानक पाना पक निकली और चद्द भी एक घरक मनुष्य की लिखी ! अस्त अब खड़ाविलास और भारत मित्र सम्पादक से आशा होती हे कि थे लोग भी जो भांग्तेन्दु जी के गोल्ाक बास के पीछे जन्मे है, उम्प प्रात स्मरणेय सात्ति को चुँचली न दस्तेगे | केला चिलक्षण्गं चित्र है, जो दुर होन पर भी अपना ही है | कईदां तदीय समाज की प्रतिशाए और कहां पुरी की तहकीकात ! कहां “ मिथ्या अभिमानो पतित झूठों कांबि हरिचन्द्र ” कदना और कहाँ अपने चोतरफ नारि के फनन्‍्वी को जंकुडना ! कहाँ ऋणजाल मे उल्झना और कहां वद्द अलिफ लेला की सी उदारता। कहां भारत नक्षत्र का गुरू मानना आर कहां कतेड्यबद्य उनही की निन्‍दा |! विरुद्ध धर्मा का एकत्र रहना परमेल्वरांश इसो मुत्ति में देख ! ! ! 'यद मद्दाशय भाषा के उत्तम काबे थे इस प्रकार के चाक़य लिखकर जे लोग आप के बिछाड़े पर शोक करते हैं चद दमारें प्यारे हारिश्व- न्द्र की हतक करत दै हमसे यह सहन नदी दो सकता। हम कहते हें कि जो लोग प्यारे मारततेन्दु के विषय में इतनाही जानते हैं वह्द चुप रहें हैं ऐेसे फीक वाक्य कद कर भारतेन्चु के चकोरों को द्‌ खत नद< (पृष्ठ १०६ ) भारतेंन्दु चारित्र का एक और पृुंछ है, जिसमे बाबुराघाकृष्ण दास अद्डित नहीं करसकते ओर न भक्तों से इसकी आशा करना चाहिए । भारतेन्दु जी के चरित्र की बिलासिता को यद्यपि उनके गुण स्जपात में ही हमें देखना चाहिए, तथापि निर्दोष केचल ईश्वर हे हस्पसे किसी और की छेखिनी से उस्त चित्र को पान का दिनदी भाषा का दक हे । नागरो प्रचारणी सभा को भारतेन्दु जा के हस्त छेख मुद्रा प्रभ्शीत - कुछ मिल स्तके उन्हें खोज कर एक ग्लाम्यकेस में रखना चाहिये भारतेन्दु जी के मिनत्रा से पक इमारा प्रश्न हे । ल्‍ैौ दम्मक्त सिन्मान २९६ समालोचक॑ | सूत्र के विषयमें फदे लोगोंने कहा है कि वह प्रन्थ भारतेन्दुजी का रचा छुआ दे अथात्‌ पहले यह भ्रन्थ नहीं था। कया चें इस बातका प्रमाण दें सकते हे कि इभारतेन्दुजी ने मनुवादही किया है, वा सल भी उन्होंने बनाया हे ? हे बडे खदका विषय छे कि इस्तर पुस्तक में छापेकी भूलें यदुत रह गई है जिससे बाढिया कागज और छपाई छिप गई है। दोनो पुस्तकें चड्डुत अच्छी दे । . गीतार्थपद्यादछी,-मराठीमें गीता काकई छन्‍्दोंमें तात्पर्याचुचाद । िवचन्द बलदेव भरातैया | निशुयस्तागर प्रेंस, चार आणे | इसमें प्रथम दो अध्यायोकी एक कर दिया गया हे। कहीं गीता के ज्छोको का अथे चढाया है ओर कहां एक पद्य मे कई ज्छोको का तात्पय रफ्खा गया हे | अनुवाद खुरख और मूल का अनुयायी हुआ है उनन्‍्वोंकी बहुतायत से दार्शानिफकश्नन्थ की कठिनता हट गई है । द्विन्दी चाऊों को इतने अधिक छन्‍्दों का प्रयोग अचवहय चलाना चाहिए किन्तु कठोर खड़ी बोली में यह जरा काठिन काम हे। सुरस्ती के सक्षे पस्ते उदाहरण-- ग्रपनकलपरक्षातं तोचरबन्नधरा सदा | ज्ञानंमुद्रा नमी ऋष्णा, गीतःम्गछदोहका ॥। आतच्मयाला जो जाणतो मारणारा किवा जाणे मृत्यु ते पावणारा | '. ते दोघेही जाणतीना अशानें आत्मा भारी ना मरे तो कशाने | सकल्ते ककते इरिला गती बिसरूनी सरनी पुछरागती रूगमती रमती चरि तत्पदां सुकरते करते छखसंपदा ॥ ब्ानकायड की उचित प्रधानता दी यह दे । सं मं: कै “सरस्वती ” का ' शुक्र ? अल 4५म कम आए. ,# भा ०७० आस € एक ज्योतिष सम्बन्धी लेख पर बिचार। ) मुझे इस वात से हर्ष है कि सरस्वती भी अपने पाठकों फो ज्योतिष सम्बन्धी लेखों के द्वारा आनन्द ठेना चाहती है। जहों तक मुझे स्मरण है अभी फेवल दो ही ऐसे छेख इस पत्रिका पें चेखे गये हैं । एक मढल का ओर दुसरा शुक्र का। परन्त दोनों में से एक की भी गणना उत्तमश्रेणी के लेखों में नही हो सकती । पढ़ला तो अध्ररा था, क्योंकि मगरू ऐसे ग्रह का पणन दो चार पेजोर्मे करना कठिन नद्ठी वरन असम्भव सा जोन पड़ता है। कहने को आवद्यकता नहीं क्वि मद्लके वारेसें कितनीदी पुस्तकें लिखी गई है ओर आ। भी फ़ितनी छिणा जा रही हैँ।इसरा जिसके ऊपर में कुछ विचार करना चाहता हू अश् द्वियों से भरा हुआ है ओर दी अशुद्धियों के दिखककानेके किये सुझे आज लेखनी उठानी पड़ी है | जहां तक लेख से मालम होंता है लू खाक महाशय ने ध्यानपर्वक नहीं लिखा; क्योंकि कितनी अशुद्धियां ऐेसी हैं जोकि साधा- रण शिक्षित छोग भी नही कर सकते। में यह नहीं चाहता कि इस विषय पर कोई के ख न लिखे परन्त जो कुछ लिखा जाय पूरी तौर से शुद्ध ओर साफ हो । अधिक शोचनीय विषय यह हे कि सरस्वती ऐसो उत्तम पत्निका में ऐसे छे झा को रथान दिया चकित्गी २९८ सपालोचक | नामक मक्का पक मुमकाकू-कामू- कम मुष्फमूकमटपक- ० फू पूष्कनयूनक न बहू ७+-बकर- वह“ रंपसमुलुुलुकू कक कप ल्‍कपक- पक मय कसाुइुकपकन्‍य कर ममकम्माकमपयक* मान्य म्पदकम कन्या माइक गकम्याकर पा पाक पम कक नम बोज न बस कहा शन्म्आन- >भक-ओी पा पं! जभाजाधत मम आर स.-० भी न यम मा ढक या पट उमा “अप जा पक. के रजनी - कक .ल्‍नामन मरी "9 'पकमथा आइण्न-नी मा जज "रण ली आशिमााशाजी- जि जि अधि। आजा मील जी 3 न हू मल . जज न न १७ आरििज-ई व्यननम, गया। मैं दोही चार अशुद्धियों को दिझिला कर पाठकों को लेखा की अनुत्तमता का परिचय देता हू | २-प्रथम ही पक्ति में ऋत शब्द का क्‍या अर्थ है, यह मेरी समझ में नही आंता। जददा तक मुओ माल म हे छे ऋत अधिक प्रसिद्ध हैं परनत ज्योतिष में कहां पर यह शब्द किसी बशेप अर्थ का सृदाक है नहीं चारता । मेरी समझ में लेखक महाशय ने इसे उस काल के अथ में लिया है जय तक कि यह भ्रह देखा पडता हे । कदाचित्त्‌ यह किसी अग्रेजी शब्द का अनुवाद हो। परल्तु छसे सनन्‍्देंह जनक शब्दों का ऐसे लखण्ोों में कदापि प्रयोग न करना धाहिये । छ लो के सारांश उनके शब्दों ही से निकलते हे इस लिये शब्दों के प्रयोग पर विशेष ध्यान देना आाहिये। पेसे कठिन विषयों में थोडी भी भ्रान्ति होने से यथार्थ बातों का भी जानना कुठिन हो जाता हे। ३--धोडी दर आगे चार कर रू खाक महाशय ने एक इलोक सूय्यसिद्धान्त से उद्धत किया हे। इसके हिन्दी अनुवाद में “ ताराओं ” शब्द का प्रयोग सवधा भशुद्ध है क्योंकि एक तारा के साथ दुसरे तारा का कदापि स्पश नहीं हो सकता | अनुवाद करते समय के खाक महाशय को विद्यार करना चाहिये था कि में क्या लिखा रहा हूँ ? कही तारा भी अपने स्थान को छोड कर ग्रहों की तरह सूथ्य की परिक्रमा करते हैं? यदि नहीं' करते तो स्पर्श क्यों कर हो सकता है ? इलोक में “तारक ” शब्द भी भादि पस्च तारा ग्रह के अर्थ का बोधक डे । आप तीसरे पाराग्राफ के पारंभ में छिखते हैं “इन रद समालोचक । ू २९९ कारणों से यह स्थिर किया गया है कि यह ग्रा पर प्रकशित खगोल है जो सूर्य्य के चारो ओर २२४ दिन में परिक्रमा कर आता है । ,, इसमें झामोर शब्द का कक्‍्पा अथ है १ | लरूण्ाऊक- महाशय जरा भी तो ध्यान देते कि खगोर तो (0००४४७७ 8ए०/७ ) को कहते हैं। ज्योत्तिपी इसी गोले पर,सब तारा और ग्रहों के स्थान को अज्लित करता है ओर इसी गोल पर चापीय न्रिकोणमिति के सृत्रस्थरूप घोडों को वात वात पर दौडाता है। लेखाक महा- शय के कहने का कदाड्ि,त यह तात्पय्य था कि इस ग्रह का स्वरूप गोल (7व्य्प्प्व ) है | यह वात भी तस्तत: ठीक नही है क्योंकि ग्यालीलियो ने ( ७८/८४० ) सन्‌ १६१० ईसवी के सेप्टेम्बर महीने में प्रथम वेध से जाना कि श॒क्र का बिम्व गोल (?ण०्प्पा्य ) नहीं है । इसमें कोई सन्‍्देंह नही कि इस ग्रह की आकृति में चन्द्रमादी कासा विक्वार होता है जोकि ग्यालीलियो ने पहले ही -जान लिया था। परप्रकाशित क्‍यों है इसका भी कोई सच्चा सवृत नहीं दिया गया। यहां पर छू खाक महाशय को केसलाकर भद्ठ के तत्वबिवेक में लिखित कारणों को उद्ध.त करना चाहिए था। भें भी अपने पाठकों से इस वात की प्रार्थना करता हू कि इस विषय पर कमरांकर के तत्वबिबेक को अवशध्य देखें | कमलाकर की तीच बुद्धि फा यहां पूरा ज्ञान प्राप्त होता ट। «--चत््थ पारा आ्राफ में इस बात का प्रमाण कि पृथ्वी सूय्य की परिक्रमा वेस्तुतः उत्ताकार मार्ग में करती है, कुछ विच्चिन्न ही है। यह कदापि नहीं माना जा सकता कि सूथथ्य विम्ब के व्यासार्द का कोण जो हम छोगों के नेत्र के पास बनता है हर ३०० समालोचक | लागत गह-आधा "१. कुक ग३... आमा- मा, कर ज्क आम नया५ा+मा जग पहन “मेपााधन- जा पाकर नेक ाओ '2०+-पाा "राकाऑर. गया. "रा “विज “माया "मेगा अनार ".++ अर विप>मान वातजी गम. न्‍आत जम का भा. उपाय अप कमबरियी मना क्‍क+भ गायक ० सा गारंामी' ऋत में, क्या जाडा क्‍या गयी . वस्ततः समान होता है । यह गी युक्ति से सिद्ध है कि सूर्य कभी पृथ्वी के समीप आता है और कभी दर चाला जाता है | भति दिन सूर्य्य विम्व॒ के ब्यासाद का कोण भिन्न भिन्न होता है। उसका महत्तम ( सब्र से वढ़ा ) मान दिसेम्बर की ३१ वी तारीख को १६, १७, ८, होता है और न्यूनतम (सब से छोटा ) पहली जुलाई को १५, ४५, ५ होता है। यदि पृथ्वी का मार्ग सूर्य्य के चारो तरफ हत्ताकार ही भान लिया जोय तो न्यूटन का आकर्षण सिद्धान्त (४०७४०४४ प/8 ४ ० (४४४०४७४००) बिल्‍कुल अश्यद्ध हो जायगा। न्यूटन ने यह सिद्ध किया है कि जितने ग्रह सय्य सम्प्रदाय ( हणवथ्व ४४४०० ) में हैं सव एक दसरे को एक ऐसे वर से खी चते है जो कि ( ऋच्तरुूर ) के समान निव्पत्ति रखता है (एडान०४77ए८१४शेए 85 ४78 5पृ पश्च7-8 ० ग6 तंए5:६870०५०) अर्थात्‌, द्री अधिक होने से, दुरी के वर्ग के हिसाव से, आकर्षण कम,ओर कम होने से उसी दरी के च्ग के दिसावसे अधिक होता है। सर्य्य भी सव ग्रहों को ऐसेदी वल से अपनी ओर झी"'चताहै और गति विद्या (75््व्प्णं०् ) से जाना जाता है कि सब सार्ग शड़ु च्छिन्न (2०४० ००७००») अवद्यही होंगे। ग्रह फिरलॉट कर अपने पूर्व स्थान पर आते जाते हैं इससे शक्भच्छिन्न अवश्यदी दीघेहत्त होगा ( क्‍योंकि दीघंहच के सिवाय, दोनो तरद के शक्ल च्छित्न, परवलूय और अतिपरवलरूय, अनन्त दरी पर मिरते हैं, ओर यदि पदों का मारे वेसा होता तो ग्रह छोॉंट कभी न आते ) जिस की एक नाभी में सूच्ये स्थापित रहेगा । अत- पृथ्वी भी सूय्ये की परिक्रपा एक दी हत्ताकार मार्ग में करती है। यह केवक समालोचक । ३०१ मोटे हिसाब ( एे०ण्ठ्ठॉ8 ०४०णे७छ०४ ) के छिये मान लिया जाता है कि पृथ्वी रत्ताकार माग में चकछती है। यथार्थ में यह ठोक नही है और न उत्तम गणना के छिये कदापि ऐसा मानना चाहिये । ६-यद भी अशुद्ध है कि पृथ्वी की गति सर्चदा एक सी रहती है । जब पृथ्वी दीघहत्ताकार मार्ग में घमती है तो अवश्य क भी कम ओर अधिक बेग से चलेगी क्योंकि वेग, और केन्द्र से स्पर्श रेखा पर रूम्ब, दोनों का घात सदा स्थिर रहता है (8०6 70/7& ग्रा[09 04 & ए8790०७ ) यों ही शुक्र भी चस्ततः स्य्ये फे चारों तरफ एकही दीर्घ हचाकार कक्षा बनाता है| यह हम मानते हैं कि इसकी कक्षा हत्त के आकार से बहुत मिलती है ऑर इसको हत्ताकार मानल तो कोई हर्ज नही परन्तु एथ्वी के मार्ग को कदापि छत्ताकार नही मान सकते | ७---लेखकी शुद्धि का एक और उदाहरण कोजिये। लेखक महाशय कहते हैं कि जपच पृथ्वी की व्यासकक्षा अर्थात्‌ क्रा- न्तिवृत्त हे । आप को यह नही मालूम कि व्योमकक्षा और क्रान्तिबत्त में क्या अन्तर है ! व्योमकक्षा तो उस मार्ग को कद्दते हैं जो कि पृथ्वी वास्तव में ख्य्य के चारो ओर बनाती है परन्त क्रान्तित्चत तो एक पहावृत्त खगोल (००४०६४४ ४9४००) का है जो कि वह मागे है जिसे ज्योतिषी पभति दिन सूर्च्य के स्थान की अक्लना गोरू पर करके उसका वापिंक मार्ग निकालता है । यह ध्यान देने की वात है कि व्योमकक्षा किसी भाकार की हो परन्त खगोल के केन्द्र से ऑर उसके हर एक विन्दु से यदि रेथ्वो दी जायें तो पे सब विन्दु जिन में ये सबरेखायें खगोर को कार्टेंगी यखी क्कनानओन >म--क बनी वाकम पी आओ ३०२ समालीचक | मिलकर एक बूत्त उसपर बनावेंगे | पृथ्वीकी व्योमकक्षा से जो एक ऐसा बृत्त प्राप्त दोता है उसी को क्रान्ति व्रच कहते हैं | .#. अब मैं अधिक छिद्रान्वेषण न करके इस छेख को यही समाप्त करता हू परन्त पाठकों से निबेदन है कि वे स्वय हमारी बातो पर विचार करे और देखें कि कहां तक उनमें सत्यता सप्रमाण, है । में यहां यह विचार नही करता हू' कि कितनी उत्तम बातें शुक्र ' के विषय में छोड़ दो गई हैं जोकि पाउकों को बहुत ही मनोरजञ्ञक होती ।, जैसे शुक्र के चारो ओर वायुमण्डल होना, श्‌ क्रका अपने “ : अक्षण्र घूमना, ( किसने पहले पहल जाना कि शू्‌ क्र अपने अक्षपर घमता है या नद्दी” ) और श.क्रके भो कोई उपग्रह ( 8७०7० ) हैं या नही इत्यादि वातें रह गई हैं । _ फसलाकर ठदिचेदी । शी. प्रेरित पत्र । समस्पादक महाशय, सरकार गवर्मन्ट प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध, देशोपकारी छोगों के मकानों पर स्मारक रूगाना चाहती है | जयपुर के एक मेंम्बर के अस्ताच पर नागरी प्रवारिणी सभा ने भप्रतेन्द जी फे रुथान पर स्मारक लछगाने का यज्ञ करना बिचारा हे | काशी के बिद्धानों से निर्मेदन हे कि घरू लड़ाई छाड इस मौके पर ( १) श्री १०८ पंडित काका रासजी ( २ ) श्री १०८ गोड़र्वामी जी ओर भरी १०८ विशुद्धा नन्‍्दजी ओर (३ ) श्री १०८ बालशास्थरो जी के स्थान पर स्मारक लगवाते | महामहरोपाध्याया की गशुरुदाक्षेणा का यद्द अच्छा अचसर हे | उत्तर भारत के सभी विद्वान इनकी कृपा है, ओर उन फत काशी मे सरकार सत्र स्मारक होना किसे दइए नहीं ले ? कयए सुदर्शन के स्म्पादक इस काम में अन्नसर न होगे ? काशी का एक हिन्द | सचना । अक्शॉवर नवम्बर की समालोंचक की संख्या में पृष्ठ ११३ ११४ मं खेल भी शिक्षा हे छपा था। उस के पीछे व्यय का एक फार्म छपा दें। कृपा करके व्यय के प्रष्ठाइ ११५७ ११६--प्रम्याते को काट कर १ २ ३. प्भ्नति पम तक बना छलें। तदनसार खेल भी शिक्षा है के अबके अड्ड में प्ष्ठाड़ ११५स्‍्त लगाए हैं। अब व्यय जब मईेके अड से छपगा तो उसमें पृष्ठाक ९ के अंक से आरम्भ होगा ओर समाप्त होने पर रड्भीन टाययटल पेज दिया जायगा जिससे पृथक प्नन्‍्य चन स्वके | ( ज््यम््नधणण 9 0 पी अवमाशाात- पहली अप्रेल के तार समाचार । ज"ैहज-४++++_्व०क्रक्कर ० दूं कू।नन-त--- प"प++ः भिन्‍स विक्टर दिलीपसिह वच्चाव के छोटे छाट वन कर आने वाले हैं । रुसी सेना में तीन सेनापति ऐसे हैं जो जीवहिसा के मेयसे जलूू को सात २ वार छान कर पौते है । ध् ्च्का याण यूनिवासटी में एक भविष्य पुयण को पुस्तक रखा है। उस्पर्भ कलियुग में कृष्णाचतार का बहुत वर्णन लेखा दे ' मसुरोंने भगवान को गभम आतंहे चोॉतरफ से आफक्रमणा आरम्स किया ओर गर्भहत्या करना चाहि। भखझुरों के रोज चलने वाल, स्ातदिन में चलने वाले चोड़े चोड़े शस्त्र अस्तों ने बहुतही वोछाड़े की, किन्त बघेवताओंनें एक शुघर माया थोड़े दिन पहले चलाई थी, लिंससे देव- ताझों के अस्ह्रोन भी उत्तर नहीं दिया ! अखुरों भ॑ गोकलि, मकराज आर 'सिडीराम, महामद, तो बदछुदेन और ननन्‍्दराय को घेर क्र चेठ गये थ, आर तान तोन [देन उन्हें दम न लेने दिया । बसुदंद जा ने अपना स्त्री को पानी के पार भेज डिया था और जब उनके गभे सत्र योग माया ने जन्म लिया तो इधर ननन्‍द राय का ” तमदभुत चबाल्कमस्ल्लुजेक्ष्णं ' की चबधाहरयां मिलने लगां। नारद मुनि स अपने भण्डार मे से एक परानी कथा भसिकाली कि स्यथर्गों के कहने चकरे को कुत्ता नहीं मानना चाहिए ( ल्म्घी घोंती की क्ोमा तभी तक है, जब तक स॒ु्द न खोला जाय ) यमुना जी का कान जल लए भगवान फे चरणा रुक चढ़ गया था, भस्रोों अच उसके लगतेही चह्े जछ नोंच चेंठकर | खुतर'सुगाथ हा जायगा। पास ही एक काला दाढ़ी चान्ा अखुर प्क दस्तरी माया को गिल्‍ल्ला पर फक कर चर मकर रहा था, ककनन्‍तु चह माया भानो कहता था! “« क्रिम्या हनया मन्द | जातमस्तव विनासकरत । म्गव दिशाउशों मे पूरा पूरा आनन्द छा गया, आर भक्त काग गाने लगें * गारे ननन्‍्द यशोदा गोरा न कमर फारो जायों:? क्ष ६ डाक्टर उशशतोंप सखापाध्याय से ) जब मसनके लखड़ फोीके छोत है, ता सता सन के लचाह, जो अपने प्रातिवयष पचास पचास चिलकाीओआ फिष्यवियालय का दिलाने के लिए फेर थे ( के ) आपको ( गर्र ) रमाहय को किस स्वाद के थे ये गार्णि- लेक्ष , इसका उतच्षर दाजएणए | सत्र इनत एपरिल फूल फल | होली के फल दग लगत सु | ये हाय ! उद्चतत अपनी घल | निज गौग्वताकां वानि भल ॥ € नागरीनीरद » -“ऋ्लमा ला चकऑक- साग२| फेक सासिकपुस्तक ६” [संख्या २२ वार्षिक मुल्य ९॥) | सदझ्े १६०४ [ यह सख्या #) आने स्किल ४22०-४३ फेम: ३१2 के 4>मुए ६२७७ दुन्-्च्मुठ एस चु>व्स्मु2 ० दतअ्यार कसर गर ५ विषय । रथ छ्ध ३०३ हे परेडशपदों कराव्यमाला (श्री राध्याकृष्ण मिम्र ) >> ध्यच, ताच, सच सहयेणि साहइत्य न हि हिन्दी व्याकरण (जाब काशोप्रसाद ) चातलओं में जोचत्व वा चेतनत्व ( बाब ठाक्र प्रसाद ) छहाहा लाता । | -- जय जमना मेथा को (राज जलिमंक्लूड) हमारो आअलमारो - *.... इ्ेट 6 । | प्‌ 82948 2 धः | #&€।[ 5 १4 89०२ छु5स्22%०-६ जद 295 के-ध्य कु 8] शा १॥| 4, ४४“... 5 ०८धं८777 ब७ (55. 0 2 घयघयवघवयटयतघवतयय व वश प्राप्राइटर # प्रकाशक । सिष्टर जैन वेद्य, जाइहरी बाज़ार, जयपुर । एप्प ४४ धार अस्वालडी पछो 2655, फिशा०७ फणणछ रद के न 27% १ आई » “+०0९-०३३:% $-उग०-४ करजए 4056 ह/पहल्‍प प्रप्तस्वोकार । निणेयसागर प्रेस, बम्बद्े « ब्रजबिलास । बाल शिवप्रसाद, प्रयाग-.._* करपल्ल॒वी, गप्रलिपि । प० ब्रजवल्लम मिछ, जयपुर चरेमाषिक ब्याक्रण शब्दावली! बाल्य परमानन्द, आरा *- परमापंडृटप्रकाश । बाल गड्ढाप्रसाद गा काशी: - पन्नाराज्य का इतिहास । प० नारायण पाडे, मुजफ़रपर हिन्ठो भाषा प्रचारिणी सभा का वापिक विचरण । ऋयं राघाचरण गेस्वामो, चन्दन, गोपिका गील । बेंदिकप्रेस, अजमेर *- * * दान्दीस्थमापष्य का नम्नना । इस सख्या के साथ ण्म सन्दर दाफटान चित्र हें । ज्ञिन याहके जे वी० पी० लाटा दिया हे थे भी यदि चाहे ते १। 5) प्रेजमर यह सचित्रवाला अडू पासकतें हैं, बंधाकि ओर सब अडू तो उनके मल ही है | अब हमें इस व्षे के दा अड देने रहे, दम लिए ज्ञििन महाशंपा का वी० पी० लाटाना ही स्वीकार दोवे अब भी लिख भेजे, जिसम हम फंफट में न पढ़ें । आगामि वर्ष के लिए याहकत हेंने की सतना पहले आने से पत्र भेजें जाया करेंगे, ऐसा दृढ़ निश्चय करना पढ़ा के) समय समय पर चित्र भी मिला करेंगे । 48. स्थालाचद्त जय ज॑जममम+ग «री पपरनत#्रिय नि पाप ताजी पी मकान ५; पा ५ज आर“ हि गन किम ९ अकाल गभ९ तर भरकर पानी पक मकर ही गा ५३7०+*पगय री परम आई गगाद ५० पक "पा डिक पर [राह म पा +#ि पर न ९०म मम "यम मा जा ल्‍१ गहरा ल्‍ हम का की. कह कम पक॒+०० आरमीम्या र्भाग | सद्ढ । रर संख्या जेःलशपदी काव्यमाला । * हिन्दी भाषा (१) माया ! त्वदीय सुत आज तुझे सनाता । तेरे बिना सुख कहीं सच सें न पाता ॥ देखे रसप्रद पदाथ अनेक मेंने । पाया न किन्तु जननी सम एक मेंने ॥ 5. >] कक सह सेवा चनी न कुछ 'मेंद हुहे न भारी । अद्यापि मा | कर सका नहिं बात प्यारी ॥ है शाच्य से खत सदा जग में अभागा | जिस से न मातपद का कुछ कष्ट 'मागा | देवी ! प्रताप जननी | हरिचन्द माता माया सस्तृह अब नवच्य प्रभा दिखाता ॥ किन्तु प्रधान पद्‌ स्वासिनि ! वेष तेरा । निःश्लीक देख सन खुस्थिर है न सेरा ॥ १४ श्र - क् ३०४७ समालाचफऊ हैं देशवाग जितनी कचिता सभी में ! देखी न किन्‍तु अब भी चह हा तुझी में ॥ बाणी विभिन्न निज काव्य प्रथा चलाहे | ऐसी अर्छतक्ति अपनी सबने दिखाडहे ॥ रह मे है. तेरे सुपत्न हरिचन्द्र प्रताप जेसे । पाए सुपच्य लिखने चह भी न ऐसे।॥ जिससे कि दाघ यह भी रहने न पाता | काव्यापय्ुक्त लगती अच तू सुमाता ए ज् स्प रह ते। भी सुरम्ध रचना चह दे गए हें। मण्डार पूर्ण करलें कवि जो नए हें ॥ खेती लगा, खनन की वह कप वापी। सीचे, मिले, अब उन्हें फल जा प्रतापी ( ३ स्कः डा अत्यन्त कणकर्ड रझाव्द ससूह शाखा ॥ यूराप-वाक्ववि-गिर ; नहिं सालतूसाषा ॥ आश्रय | आयथेसुत, भारत सदगिरा के । धिक्कारते, न अपनी सति दुभेरा के ॥ चर श्ः सी पूजापहार यदि षेडटदा रम्ध पाऊ । इच्छा धही कि जननी पर में चढाऊं ॥ हूँ रिक्तहस्त, पर भाव कुबेर सा है । है हस्थे स्वप्न, पर पास न कापडा है॥ ह ओऔीराधाकृष्य मिश्र | >> तै। €१0०२-०४६७-७७ २२००७-७-*६ (६७७०७ ४ ध्यज्ञ, तन्न, स्वेत्न । £:&8-&६६#<*>₹€ ६४६ ७६०८६४६2<-€६€&2-६ €&०*2 क्या संस्क्त हसारी भाषा थी? समय के फेर से यद प्रश्न भी ग्रब बिदाद का विषय दोगया ते और बाद्ठ साहित्य के प्रेमी कर पत्तपातो सिद्ध झरतें हैं. क्रि सस्क्तत भारतवर्ष वो भापा ( सर्वेसाघारण को बजालचाल ) कभी भी न चुद । गत था महोनों से लण्डन फो सशियादिक सोसाइटो में दस विपय का अच्छा लिधाद चल रहा है । अवश्य हो पुरेतिहा- सिप् ([776500000) लेदिक ऋाल को घरल झोाड देनी चाहिए, फिनत यह सिद्दु करना फ्रठिन नहों हें क्षि इंसवो सन्‌ के पारम्म में संप्छकल सब वो भाषा थी। आजकल यदि इट्लेण्ड में समाचारपत्र ओर रेल ताश न हों, ते वहां भी छड प्रकार की 'प्राक्ृत भाषाए चल जांय, ओर इनके दोले भो टाइम्स और शस्किन को जे अथजोी है, बच बेल्स प्प्रार ब्ाडेर- लेगड़ को अयेजो कभी नहों हे । रही यचद बात, कि चक्रवतों अशोक ने अपने लेख पाली में लिखवाए, नाटके में सबके समभाने के! सिद्गपक प्राकृत में मजाऋ करता है, ओर ससघ्क्त केवल ब्ात्मणा व्ती भाषा थी ।+ इसपर वक्तव्य यह हैं कि साधुभाषा और व्यवहार को भाषा सदा ब्राख्वणा दो को हाती है, भेद दइतसादोी हे कि इद्ुुलेण्ड में ब्राहनण (साउइित्य- सेबी ) घणा से नहीं देखे ज्याते, और सदा बदलतें रचतें हैं, क्रौर यदा ब्ास्नगात्त जन्‍म के अधोन है। झाग्विवस दाकने वाले की भाषा सम्राचारपञ्ा को भाषा से शभिच हें, ओर भारतभित्र की भाषा दिल्‍लो.व्ते कदारों की भाषा नहीं है। उतनिसन के ऑओरल्ट राोद्याःः006 ०२८००) की भाषा देखकर स्तर ऊकड सकते हें कि साथ अगरेजी फेंघल आअयेज़ ब्रास्मणों को ३०६ समालाचऊ । की समा गाय. दकान पदक मशकाकरीय.कका* पेन मुरार प दान पु. नह "पायी पदक." दाम दया. पा" परगना ाानी या पी गदर कर मादा न भा उहब निया "पंप कम पका पा कस निप ताइुआ गा" हविवाशमता-“- "पदक" गा इक“ गया" मानी धर पा पबी "वन." +म्पायानी 3 इ्रशग पिया कम एज पभाद ग या. कल्‍र गगन जिया करी मदद गा कह गम महा मत की समय या" पदक पक मम भाषा कहें €४ अशाक के काल में शिध्विन होकर सस्कृत फिर प्रथल एुडें, धंग्रोक्ति पाली और मागधी यन्यों की टीकाए सम्कृत में लिएी गद ओर जब बाहा का निवासन सस्क्तत सेची छुआ ते अवश्यदी वह सर्वेग्म्य होगी । वर्तमान काल में ऋयण्यही सस्कत का घर काल हें, और उसका भारत बे को भाषा देना स्वप्तह्दी है। अधछ का भाश्तवर्ष संस्क्तत के भारत- वर्ष से बडा हें, ओर अच घहद्द केबल ब्राधमण परुषो ही को भाषा रद गदं हैं, अन्नास्नश और स्व्यिं इससे एथक हले। “ पहिले पिक, तामणश्स, नेम आदि शब्द, ओर कई ज्योतिष शब्द, सस्क्तत्त ने यावनों भाषाओं से लिए थे, ओर भवभ्तति- काल में पाली से भो शब्द लिये गए | अब भो यदि सस्कत का व्यवहार दे ते उसका व्याकरण शिषिल ऋकश्ना पडेंगा। किन्त पुरातत्व को खोज ओर घमे फे सम्बन्ध से उसको चचा सदा घिद्ममान रहेगी, इसमें सम्दृह नहीं । मि मे नि लिसासंनिशनल कालेझज। यो तो हम लोग सभाओ और सम्बा- दपतओ में जातोय भाष, सच्ानुभति जोर योग्यता को डॉग हदाककर सरकार से आधिक्रार तक्क मेंगने दोउते हैं, पर हम कापुरुष, क़पमण्डक्र किसो लायक नहीं हैं ।+ भारतवर्ष एक रधप्टर;नहों हे, भगोल को पुस्तका के सिवा भारतवर्ष कहों फोई चीज हो नहों है, और यद्द महाद्बोेप एक्र दुसरे का फाटमे न 8. दि अत... ०० दाडतो चुद ब्िल्‍्लियो का पिटारा धघा शक्क दूसरे से सर्गड़कर सुलगती आग जलानेवाले बासो का सखा बन है, ओर छटठिश सरक्रारए का छनत्न न होने से यहा दावाश्वि भड़क उठना असम्भव नहों | महरेप, बकरोद और गोरक्षा की गदरें इस जात को प्रम्नत प्रमाण हैं । सारे इंपिहया? ने नेशनल फार्येम को, किनत समत्ममान उसे छोड बेंठे, पछज,त्र उसे दो सभालाचक । ६0६ जेंठा, और प्रत्येक उपजाति, शाखा, विशदररोें का अपनो अपनी कफानफंरन्स कश्ने का शोक चराया। इस मेंडकी के जकफाम के अन्दर भी जुकाम चले, क्याक्ति वेश्यमद्ासभा के भोतर खण्डेलघाल महां सभा मोज़ंद हें । जिस कुल्हिया मेँ गड फोडने की म्रूंखेता ने हमें एथक कर र॑क्खा हैं उसे उचम छुक करने लगे, अपनो जेंडियां अपने चातरफ जकडने लगे, जार संनाठ्य महासभा, संरयपारों मद्यांप्भा प्रभृति का क्याम इसो में परा दोने लगा कि उसो शाखा के लोग क्राम करे ग्रोर सरकार से सिरवेदन किया जाय कि कुछ नोकरियां ख़ास उन्हों के लिए रक््खी जय । यह करनेवाले किस मेक से सरकार के कहलसे हैं कि यरोपियन ग्रोर संगलेइणगिडयनोा कला अधंचन्द्र दें दा ? जिप दफ़र में दस क्रायस्य हे बहा सशक्त ब्रास्नण के देखकर नाक चकाया जाता हैं, छद्दा पाच मुसलमान हें खहा एक हिन्द नहीं खटाता, जिस रियासत में दस बड़ालोी हें पहां एक्क देखे का निबाह नहीं; ओर दस दत्षिशिया में एऋ रागड़े देसघाली को नहर चलेगो । फिन्त इच भट्ठे भेद के दुठ करने के लिंण, इन्हें बज्जलेप करने ब्से लिए, प्रजाति कालेज, वा डिनामिनेंशनल कऋलेले को सष्टि हे। ससार में यदि कोड स्थान सकीणेता व्येा मिठाकर भारे भाडे का मिलाने छा है, ते बह विद्यापीठ' कालेज दे 4 किन्त यह तडेंबन्दी वहां पहुँची हे, ओर फर्गुसन, पचयप्या, हिन्द्र आदि फालेजीा के दुष्टान्त के छोड कर जाति विशेष छ्े दानी ध्रपनी जातिके लिए देने चले । यदि गड्डाधरशास्त्री आगरा कालेज दक्षिणियोां के लियेहो करते, यद्धि विव्यासागरक्का मेट्रोपालिटन ब्रास्नणाेहरी के लिए होता, यदि प्रेमचन्द रायवन्द की बादशाहो उद्दार्ता श्वेताम्बर जेनियो के लिए, श्ष्ट जाप समालाचक ॥ और टेंगार ला लेकचर को सम्पत्ति निराली बड़ालियों के लिए ही चोती, तो हमें ऋरम ठोकने के सिचाय उ्या बस रचता । पठने से उपेत्ता करनेवालों का लासा लगाकर खचने के लिए अपने कालेज काम देते हें, किन्त उनसे हानि बड़ी है । मुद्मडन एड्लाकलेज के य॒निवर्सि ठो बनाना चाहते हैं। वच्दच अना कि इस मम्खरों के देश में बिरादणें चिरादसोें को सनिवर्सि ठो बनों। एक फिरके को यू नेवर्सि टो भी क्या मज़ाक है ! क्या सुसलमानो के लिए झऔोर सायस हे और राजएतेा के लिए फोर ? क्‍या केंमिस्ट्री के जो भाग बे पढेंगे उन्हे ये न पटेगे? अम्नतसर में कलाई अच्छा कालेज नहों था तले सिक्स! को दानवोरता ने एक्क अठिया कालेज खोला ते सहो पर सिच्लनों ही के लिए | मारवाडियों के। कलकत्ते में हिन्दी को पढाईे न हेने से कालेज को ज़रूरत थी, किन्‍त बया किसो कालेज में हिन्दी को चेंयर सन्डाउ ( प्रदान ) से काम न चलता ? था लाख रूपए में ला कालेज बनेगा, बवछ्ठ ऋलकत्ते के कालेजा के सामने अ्रयोग्य न छागा? इघर “राजपूत ' एक जातोय' (।) कालेज की दुच्चाईं दे रहा हे, ओर दस हज़ार रुपया (!) इकट्ठा कर चुका हें! राजपततो में पढ़ने की उपेत्ता नहों है, जे अधिक घनवान है, वा जा विल्कल बभक्तित चैे उन्हें छे/ड ग्ार सब पढ सकते के ग्रार पठतले हें। उपदेश और छात्र दृत्तियो से यह काम हेजाता । राजपतो च्ते निवास स्यानेः के आसपास दे दिल्ली में, अठाद आगरे में, एक जयपुर में, एक जलाघपुर मे, एक अजमेर में शक्त ग्वालियर में, सक इन्दोर में, इतने बकिया कालेज है । यदि दनके समान वा इनसे अच्छां कालेज राजपत लोग बनावें ( जिसकी राजपतजो जमा करें हमें आशा नहों हे) ते! उनका कालेज किसी काम का भी होगा, नहों तो! अधकचरा सपम्ालाचक । ३०८ कालेज उनकछोी शिक्षा को रेक्केया । फ्या यहभी नियम होगा कि उस्चो जाति के मनुष्य जाति सात्र से नोकर रक्खे जाय? जातीप कालेज इस वाघ्ते भो क्रिया जाता है कि उन में घमरशित्ता हुआ करेगी | किन्त्‌ घमं शित्ता भी एक्त भक्काआ है । यद्ट बात साफ छचचना अच्छा है कि की घममं बलात्कार से फराया जाय बह घर्म नहीं है, अधमें है। अली गढठ में पछ्जगाना नमाज में न शरोक्र होने से दस आना जमेना देना पडता हे इससे चाहे सभो मस्जिद में जाथ, किन्त नए मसलमाने का घर्म उसघे दुठ चहों दोता | देखा चाहिए, जबरदस्ती नाक पऋडट कर सन्ध्या करानेवाले सेंन्द्रलम्रालेज क्मे दिन्द केते घर्मात्मा द्वोगे । केबल घ््म को लीक पीटना ओर सदाचार के भलना, ऊफेचल चालेा पर जार देना कदापि हित नहों है | जन चालऋ चलने लगे, ता उसको ठागें ज्ाघनी ना चाहिण। इस प्रक्निया से ऐपघे लाग पेंदा होगे, ले यन्त्रालप में लेठऋरण यहया का गणित सिखाएंगे, क्रिन्तु यच्ण में दानव सर्प को न खाय इससे दान फरेगे! जे शीतला के ठोके पक्का सिद्दान्त जान ऋर भो चेत्र कृष्ण अष्टमी के गधे को पूजा करेंगे। आज ऋल चह् उदार धर्म चाहिए जे हिन्द,सिक्‍ख, जेन, पार्सों, मुसलमान छस्तान, सबका एक भाव से चलावे, ओर -इन में बिरादरी का भाव पेंदा करें, किनत सक्कोणें घर्मेशित्ना ग्रार “जातोय ?! प्तालेंज (जैसे पन्द्रह जेनोी विध्याथियों का मथुरा में एक जेन महाविद्यालय है) हमारे बीचकी खाद के कोर भों चोडी बनाएगे ॥ ग्रभी भारतवपे को बहुत दिन पश्चिम की शागि दीं करना ग्रावश्यक हें, क्थाकि कितने आदमी रेंसे हे जिन्हें यह ठेंखकर लक्जा आतो दो कि टाटा महाशय अपनों साथी सम्पत्ति सारे भारतवर्ष का देते हे, ओर इधर “गली गली में ” जातोयता फूठ रही है! जितनां डफली उतने तान।! ३१० स+मालाचखकऋ । न अब न न कक ३ सा अल बा आया जा एणााशणरणा्॑ॉणणाााणाओ सहयोागि साहित्य-आरा छको नागरे प्रचारिणे सभा ने एक बहुत अच्छा व्काम क्रिया हे। उसने प्राय; २४ महाराजाओ को नागरी प्रचार के लिए मेमेरियल दिया है । भगवान करें इसका अच्छा फल हो ओर यह न हो कि जहां नागरो अन्नरों की ओर उद्यासोनता हो है, बच्चीं उनका प्रत्यक्ष विरशेघ खडा हो जाय । सत्यवादो क्ता जब यां बन्द होना था, तो इतने घमसे लनिकलाहोी क्ये। था ? अपनो आखे में अचानक व्माघ गई बिजली सों। हम न समके फकरि यह आना हें या जाना तेरा! | मोहिनो साप्ताहिक होने चली है, क्रिन्त आकार केंसा छागा ? यह कोई सछिद्ठान्त नहों क्लि बड़े आकऋरहो के पत्र अच्छे होते हें। शआोवेड्टेश्वर में तिब्दत में में को तो में दे गई, किन्‍त शिल्प व्ते लेख लगातार निकलते रहें, ओर झब एऋ अच्छा उपन्यास आरम्भ चइुआ है । भारत मित्र ने भी एक मनेाजिनांद का कालम गगे मचाशय के दिया हैं। ये। ८८८०८०:६७ का एक कालम देना नया प्रयाग कहें, ओर इसका फल अच्छा हो होगा । क्या हिन्दी पत्रों के परिचालक फरे विपयों के करें सम्पादक रखने क्ला प्रबन्ध नहीं कर सकते ? अभी तक राजनीछत पर लिखनेंवालें महाशय हो के धर्म की व्यचष्या देनी पडती हे, ग्लेर साहित्य का अग्रणी बनना पड़ता है । भारतलीचन में गोरत्ता के लेख अच्छे चहुए हें। बड़े उपें को बात हैं कि प्रयाग समाचार में दत्त महोदय के इतिहास पर लिखा लाने लगा, किन्तु उसको परिपाठो निनन्‍्द्य है | जिन बातो में दस क्रालम खंचे गए हें वें दा ऋालम में लिखी जातों तो अधिक बलवतो हेोतों । लेखकऋ के यह तो मालूम है कि गालो देने का नाम युक्ति और तक नहीं है, फिए जगह जगह पर रमेश बात और काशी के सभा के अयुक्त बचना का सम्पट समालेाचक । ६३१५१ दान: पता भर दा त इ् इक दा राधाााधह इ् त इक फक पा --पफा -त-प्रधायआवामताा पा "पाक पय धरम न्‍ या 00 जमाना इमारत] ्ा्ाकाक््ाकमाक 7. या नारा एरथर्ररशाारशशारशशणणशशणशशाशशशशशशणशणशणशशशशशशाण क्या लगाया जाता हे ? गअगरंजी में उस यन्य को होने से घममें नप्ट नहीं हुआ, ते! विचारी हिन्दो ने कया पाय किया है ? सभा को बचुत कुछ निन्‍्दा हो रहो है, उसे सम्दलना चारियें। घर क्या बना, घद्द माना घोछें बेचऋर से। गई हे । काशी के प्रसाद से हमारी हिन्दी पर भो प्रयागसमाचार ने आज्षेप किया है, जिसके लिए उसे अनेक घन्यवाद है । “ मे क्वासे बला से गालियां छें। मगर बच नाम ले हर बार मेरा? राजपत में दा लेख अच्छे हुए हे। “वेश्योपकार्क ? पत्र बचुत च्छा होगा, हम उसकी उचति चाहते है। चक्तककरदार चोरी और हदयद्ारिणी पकने योग्य हुए है। गोस्वामी जो के उप- न्यास शक्क भट्टी लीक में पडते जाते हें। बची दु ख में मिलन, परस्‍्पए सहायता, प्रेम का उदय, छिपा प्रेम, प्रो केाटशिप विधेोग, मिलाप क्वा आनन्द, बिवाइ, ओर केाइबर की एक दिल्‍लगी---बही घास, उसो ठाचे में ! सब में घद्दो अधिकता से कणेक्ट एक तान ! किन्‍त विवाद फे पहिले का प्रणय, ओर पथे खलाबट फरासीसोी हे, हिन्द॒स्थानी नहों। “ समाजचित्र में बिवाह्ात्तर के प्रणाय फा चित्र देना क्या असभ्भव है ? ८ राजस्थानसमाचार ? के देनिक रूपचक्नो समालाचना हम तज तक न करेंगें लब तक उसके स्वामो लोगो के मच पर का रूमाल ( कि अभो कछ न कच्चिए ) न हटा ले | जयपुर से सप्कत रज्लाऋर ? पत्र अच्छा निऋला-हे, किन्त उस में न बातें भी चाहिए | क्रांशी को प्रित्रगोप्ठो परिका' मे सस्क्त के द्वारा नक्ोन | प्रचोन का मिलना शुभ हे । श्ख्छ्आछछकुल श्र 9 58-66 ०2५०२ ०२2२-०६ -०७2 ७& ७08५-0-2५-0-89-0-2-52४&: हिन्दी व्याकरण पर नोठ | ह 95-#0-#<8-०8+-०86-९६७००-६:-७६२७००६७-४७४००६७ २८६७-०७००-७६५ 4 हि / | शत २००७-+०००-, १०िमूँ...)पी"ामन्ण्गा- मम परानी हिन्दी में यह शक विभत्ति है | इस का कुछ छत्तान्त आप लोगा के संनाया चाहता हैं । इसका रूपान्तर हु भोदें। प्‌ । प्रष्ठो में प्रयाग । (क) गेचाण परह चारे सगाद ॥ _चरवादा पराए का गोधन चराता हैे। चनत्द | रथ । ४० ते ्््ि ( रे) बाल जबोलहु अविचारह ॥ “तुम बोलते हेो। बोली अंश्वचिचार की । घन्‍द हे र८ध । ३० ॥ (ग) चदुआन्ह पास / “>चंडुआन क्री बगल में । चनत्द ॥ च्८। छच ॥ (घ) राम सलाम ले बेश घारा । सो लेलें ससारहिं पारा ॥ “जिससे त पहुँच जावे संसार के पार ! ऋवोश्दास, रमेनी ॥ ७४ ॥8 ॥ (ड) नोवहिं मरने न होदें ॥ >्तोब क्या मरणा नहों चोता ऋऊष्वोरदास । समेनी ॥ ४२। ६ # चल # माननोय डा० हानेली के ध्याफकरण के भआभाधघार पर ( घनुज्ा लेकर) एलसखित । (क्का-प्र* ) चना समालाचखक। ४९३ ७७७७४ ७एएआाााआ्णणणणणाणंभभााआआआआाआणााााा आम मल नल अल मल आल आल आल मल नी बी दल बन न कक (उ) प्रशाकें पुर नर नारे बहारी । ममता जिन पर प्रभछ्डि न थोरो ॥ फिर, पुरवासो, नरनारियो को प्रणाम करता हैं । -. ममता जिन पर प्रभु की नहों हे थोड़ी ५ तुलसोदास-बालकाण्ड ॥ ९० ॥ (छ) दोदहि संतत पियहि पियारी ॥ >झगोी सतति पिय को, प्यारी । सतु० दा० खाल० ॥ रद भ (ज्ञ) के गण दापहि करें विचारा | न्‍्वयाण ओर देाप का प्लान खिचार करे ? है स॒० दा० बाल ३० ॥ ८। पष्ठी से चत॒थी (सम्परदान) में प्रयोग । (क) श्ग अवर्नि सब मुनिहि दिखाई॥ प्समस्त रग-अवने, मुनि के, दिखलाई। तुलसोदास । (प्र) आपु जुवराज पद रामहि देंठ। “आप युवराज पद रामचन्द्र का व्येजिए । तुलसींदास । (ग) बग भाषा में-“ आानहि “दूसरे के | 8 । चतुर्थों से फिर द्वितीया (कर्म) में । (कर) बह जिधि राम शिदाहि समुकासा ॥ म्खचहुत तरह, राम ने शिवलो के। समक्राया । * ललसोदास | * «“द्वि” का विभक्तित्स सर्व नामों में बहुत साफ देष्य पड़ता दे जेछे “त्ताहि ” ' माद्ि' “जेदहि' 'केंद्धि ' व्रादि। “प्ररखेडु मेाद्ि एक्त पस्थवार”॥। ( चतुर्थोौ> हितोधा ) ) तुलसीदास ॥ इतर लागा की बेलघाल में अब भो “माहि" छा परष्ठी में प्रयोग करते सुना दे । ३१९४ समालाचक । काम जा लाननसपा ताप पक सत्ता कर + कल तक रस 28, ( ख) अनग पालह वल्लाइप । प्ग्रनगपाल के त्॒लाया हैं ॥ चन्द । ज्८ | ४ 0 (ग) अतंगेस्ह ले आउ ॥ ते अनगेंस के। ले आ ॥ चन्द | रृ८। ७७ ॥ ४। पंचमी (+>तृतोया।) में । (व5) फूल घर ॥ “घड फल से सुधार कर ॥ चन्द । (ख ) तब सुमनन्‍्त परचानह पच्छिय । “तब उसने प्रधान सें सुमंत्र पका ॥ चन्द ॥ (ग) के कच्चे बसहि ऊपज्यो । _केान किसक्रे बश से उपजा 9 ॥ चन्द । (घ ) गुरुद्दि पछि करे कुल बिघि राजा ॥ गुर से प्छकर कुल विधि ऋरे (को) राजा ने। तुलसोदास ॥ ४५। सप्तमी (अधिकरण ) में । (क) जाते कि अकासह मान दिच ॥ “जसे कि आक्राश में दिन का मान ॥ चन्द ॥ (ख) न्याय ला कलिह न किज्जे ॥ न्याय तो कलियुग में न कोलजिए ॥ चन्द ॥ (ग) कफिंहि काल रिपि अयथो घरहि। “किस लिए ऋषि आए घर्में ॥ चन्‍्द ४ ६ । हिन्दी के आठवे कऋरक (ने) में । (क) बोसलह शक फरणि पुव्ब कथ्य ॥ “राजा बोसल ने कथो ( कहो) पवे ऋथा ॥ चच्द ॥ समालाचक ! क्ष्पृप तय ययाशना हा गायक" "वाद पाह॥7* पाता पे पयइहुआ?* काम "मा ाका++“ प१५०आमम पका पर ाल्‍ भा ** पपययाकह गपता#" पड ल्‍पिगाुडा "पहन यह दि जहार "पा पहम "पका दाह7+* पदक" पकाकाम ० पदक" गयहार_पदाहमम पक #म तहत गयाए#77 "पहन" + गाय इमाम शा "पद शहामम नगद तआल्‍० "वाहन मिथ ल्‍ पइल्‍० "गया * गया या (ख) तप स्॒‌ छांड तुअरह ॥ तुअर ने तप छोड दिया ॥ चन्द ॥ ७ घहुबचत “पहँ” के प्रयेग समत्मदानत झोर कप (प्राचीन प प्ली)-- (कक) मात पित्रह्ठि पुनि यह मत भावा । प्माता पिता के फिर यच मत पसन्द जुआ । तुलधोदास (ख) दोत्ह्‌ अपतीप सबाहिं सख मानो । लदिया आशोषेाद सभे। का सुख परवेंक ॥ तुलसोदास । (ग) जे तुमहि सता पर नेहू ॥ पन्‍्यदि तम्हें (या तुम को) बेठो पर खेद हे 0 (घ) तब्न रामहि विलाशजि बेढेंही । ( यह्दा “रामहिं” आदराये में जच्ुतचन हे) पर ऋदों कहों एस वचन में भो- (ड) छहु केंधि रक्रहि करो नरेंस्ता ॥ करेए, किस रंक वे राजा बना दूं ॥ तुलदीदास ५ (च) निज ले।क्र हैं विरचि गये, देवन्द इच्धे सिखाद | तुलसीदास ल्ञपने लाक में (का) बच्ला गए, देखताओ के यहों सिखला ऋर ॥ ८। दसरी भापाओं में इसक्मे प्रयाग। “ग्रन्य” को पुरानी पज्ञाबी, और घिव्यापति आदि की पुरानी बेंगला में ठोक एक्र वचन पण्ठों में “छि! पाया जाता हे। प्रादोन पञजाबी में, “कु” रूप में अपदान में ओर “हि” के रूप में सम्बन्ध, सम्प्रदान, अपा- दान पग्रोर कर्म में व्यवक्नत हैं । बगला, उडिया, मारथाडो, गुजराती सिन्‍धी तथा आधुनिक्र हिलछी और प्रजाबो में, इसते विकृत्र हें।क का रूप प्रयक्त होते दें बद्द आगे चलक्कर दिखलाण जेंयगे । सा ३१६ झमालेाचक-)। €। (हि की उत्पक्ति | (कक) रूुस्कत ““स्थ' का प्राऊत में “इस ? (वरहघलचि ४ ॥८५।), 'झास' (जैसे, कस्स+- कास) ओर “द्छु” (अपशेश प्रा०) (जिससे हिन्दी में-जाघ, त्तामु आदि) चले हें । (ख) “स्थ' का प्राकत में "हू! अथवा हि! भी दाजाता कै ओर पते स्वर दोधे होजाता है ॥ स्थामिच्नदामि, स्थति-चिंद । “हू” का यप्ठी प्रयोथ, मागधी प्रारुत में, होना, वररुच इसतरचद् लिखते हें । “ड॒प्ताो हों था दोघेत्वच 7॥ डपसः पष्ठेंक्रचनस्प स्याने उइक्रारादेरोर भर्वात्त । खा ॥। तत्संयागें च दीघेत्वस ॥ पुलिसाह घने"पुलिसस्स घने ॥ १९॥ १९२ ॥?”। अथात्त पप्ठो के एक बचन में 'ह? होता हे, विऋल्‍प से, ओर उसके संयोग में द्ोघेत्व । लेसे, पुरुषस्य धने*पुलिसस्स घरनें"पुलिसाड घने ए दसीतरह पंचमी के (जिसक्रा कि पष्ठों से अभेद सा हे) णप्फ वचन में “हे” और कस््ण (त-) के बहुखचन में “हि!” का प्रयोग वररच जो बतलाते हैं । अ० प्राकृत की पप्ठी विर्भाक्त “हे! भी 'स्थ? का एक दूसरा रूपान्तर जान पड़ता हैं। “हें?” के स्वयदीधे होने के कारण उसके पचद्लेंवाला स्वर दोघे नहों होता! जेसे, प्राकृतत, गिरीहितअपश्रश प्राकृत, ग्रिरिहे>पुरानी डिन्दी, गिरिह्चि । इसी हे? से दिन्दो 'हि? को उर्त्पोत्ति है। ओर “डि? से 'छ? अथवा प्रा० “ह्ष? से हो हिन्दी 'उ! हुआ | २० । हि के रूप और चविकार | अपम्रंश प्राकृत में, 'हेः (हि) ओर “हो?” (हु), उस (पप्ठों एक बचन, का) ब्छे रूप हैं। (हेमचन्द्र 8 । ३३४६ । ३इउ८ ॥। 9४१ 7-8 ॥ ३४० । इ४ए ३ इ६६) | ये अकारान्त, दक्ताशन्त, उकारान्त शब्दों में चाहे वे जिस लिट् के हे। जोड़े जाते हैं । अतः दे। तरह के अपश्रश अन्त्य चिह्न हुए (क) अछो, इहा, उहे।, (5अइहु, इहु, डचु) (ज) अझे, हहे, उछल, (आह, इछ्ति, उच्चि) अथवा दोधघ प्रकतियों के साथ, (कर) ४-० रत 3 जज हा हद के सम्ालाचक । ३१७ आअंअ्ह्ा, इग्रहे,, उग्महों, ( “अग्रहु आदि) ओर (ख) “अजदे' आह्ि (“अअहि'! ग्रादि) । पुरानी गोड भाषाओं में (क) समुदाय अच, इह, उच्च, अथवा “हं? का लाप॑ कश्के अ! इ? “3! होजाता हे; गर (ख) चरहि (“अथ-5ए), दहि उहि, और, अग्बच, दगग्रह, उचरह -आश्य (र्ूुआा), दइओअ, उच्चय-में बदल जाता हे | “ऋगअद्धि! से “आय?! (आअग्यद ) अयबजा, “शे” *प* आदि बनतें हें। (क) ओरश (रह) के, “ह? ओर “दि, में, उदाहरण ऊपर बहुत से दिए गए है। ११ । “हि” के ऊपर लिखे विकृत रूप आजकल लो प्रायः सब गे।ड भाषाओं में फेले हुए हैं जेघे'ए”,बकुला,उडिया, “८मा०, प०, गु०, सिन्धी-घेर ( घर केा)-गेंबारो'हिन्दी 'घरे!*-(प्राचो न भाषारें) घर हि (आ० प्रा०) * चघश्हेः-"(संस्क्त) शचहस्थ ! सस्कत में अ्ये सम्बन्ध था, प्रात में सम्बन्ध ओर सम्रदान, ओर फिर संप्रदान से प्रा० गोड भाषाओ में सम्प्रदान, ओर फिर आधुनिक भाषाओं में सम्प्रदान, कम तथा अधिऋश्ण भी हे! गया। बेग-दोने (द्वोन का)दोनरहिर- दीणहदें >दोनस्थ । बग-- तामाय-भ्तामाहिचतामग्रहि->तम्ब अचहे_्‌- ताम्रकस्प । भापाओं को सृष्टि भी केसोी अद्भुत है! गेंवारी “'चरे? “स्वेते! (घर-खेत-में ) आदि के देखकर साधारण तार पर यहो फद्ा जाता हे कि सस्कत “रहे” क्लोर “त्षेच्रे” से “घरें! “खेते' बने हुए ले। पर बास्तव में कितने ठोकर खाकर “घरें” “खेले? औओरदी मार्ग से आए हैं | वे आते आते अपनी नानियो को नांनो ( घस्क्तत ) के समान हे! गए । यदड शक बड़े अचरज का मेल हुआ। ग्रतएव, हिन्दी “तले? आदि “त्तलहि? (>तलद) आदि से बने हू न कि (सस्क़त) “तले ” से । १९। “घोड़े का” में घोड़े” बयां हो जाता हे, इसका कारण भो “हि! (अचहित-अदन-ए) ही हैं | घोड अछि करघेरड़्‌ * ८ तासाय ” संस्ूत से नहीं, किन्तू, इसमें “शअाय ” प्राकृत से दे ( एण्यां घपरा देक्षिए ) ॥ ही घ्प्८ हे समालाचक ् व्ला-( पन्नाजी ) घोड़े दा>( सिनन्‍्यो ) घोड़ें जे । जहां पर बअ्रद्धि? से आर रह गया वहा-( बय ) घोड़ा र घेड आअ- फप्रसू|त्घाड अर घाडार ), (मारवाड़ी) घेोडा-रो (बिद्ारों) घारा के, (म्रज) घोडा का ( गुजरातो ) घाड़ा भो । नेपाली में हि? छूचा रहता ह्षे-जैंसें, देव- हरू । हमहि"”उम्र ए"हमें, हस ऐजहमे आदि बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हें जिनमें (हि! को शक्ति व्याप रही हैे। सिनन्‍धी-हुथिय्म में ( दायो के मध्य में )-डहथिआ माहों -हत्यथि अचो म््कारहेंज-हस्ति- छस्य मच्ये | इस उद्ाचहरणा से आप सममकक सकेंगे कि हाथी में की जज 2 ०. ० द ५. वास्तव में हे “हाथो के में? ( उधि अछि में )। अयोत हायोी! कार 'में' के बीच सम्बन्ध का चिन्ह भी दवा पड़ा हे । १३ । “हि! (5"प्रा० हे, हु,) के अपभ्श प्यक्तत में, (हिं, हं, हुं, ) बहुलचन बताए चुेए ऋम है । अतः बहुवचन के रूपों से दसदें पेशायाफ में से ६ पका (क) आ , हइं, ऊ । 55. ७० ०..." नीक कान ( क्र) आा, आ ,ऊ 7 [ग।] 5» गा , दया, या, उआा, था । [ घ) औओऔ। , ओ , इया, इयो हे, ए इसे, उच्याीं, उञ, दए, उस, । दबोघ प्रकृतियों में आदि अनेक रूप बनते हें । इन्‍्हों से, [ सिन्धी, पंजाबी, माड़- वाडो] नरा में 5[ द्ज् ] नरीं में तय हिन्दो | नरों मेंर्च प्राण ] प तक ब्क > ँ<प 0. खास मउमकहि>[संस्छत| नाराणा मध्ये, आदि हें | ओर उद्याहरण -- [ ९ ] एक वचन । “लल |पुं० बा न० लिट]| एक बचन पटष्टो। समालोचक। 3९6 संस्कृत; सागधी प्रा०; सराठी;। अप प्रा०; प्राचीन गैड़ जललपघ्य छललश्रा जलापत जलदहें। जललचछ कालाइड जला कल दे ललरड आधुनिक गाड़ । जल [ सब भाषाओं में | | जले [ जग, उडिया] [ २] एक वचन । जिहा । [ स्की० लि० )[ एऋ० पट्टी ] संकृत; सा०्प्रा०; मराठी; अन्प्रा० प्रा०ग्गीाड़।आधु ० गैणड़ जिहाया: जिव्थाए जिभे जिव्मद्देा | जीभ्रह । जीभ “ जिव्याद जिव्भदे | जोभदि | जीधे [बगर०] जिव्भागअ जिव्भाय :/ [३ | बह चचन संसकृ० मसा०्प्रा० सराठी० बिहारी ब्रज सिन्धी छलानाम जन्‍नाण जलाना । जलन ( कलतनि । जलनि जला जला जलन अआग्प्रा० प्राग्हिन्दी खिन्‍धी, पंजा० सारवाड़ी जल्द जलरि घी जलर्ू्‌ जलचि न्नज साध हिन्दी . सिनन्‍्धी जला जले ललो ( ऐश ) छद्ठ घचन चचर0० - समालाचक । सं'-जिहानास । मा०प्रा०-जिध्भायों, जिव्याईं । मराठी- जिमाना, जिभे। । घिहारो-जोभत । प्रज-जोभमन, जीभनि । सिन्धी-- लीभुतनि । आ०प्रा०-जिव्मदं, जलिव्मह, जिव्मरहिे । प्रा० सहि८-लकिर्व्महिं, सिधघी, पंजाबी, माड०-जिभा ॥ प्लल-ज्ञीमों । साधहिं('-ज्ञोभों । सिधो-जिभे । [ ४ ] तचाम्रक । दी [ प्रकति ] शक्त चचन । ताम्रकप्य>मागधी-- तम्बयश्श'-तम्बयाह-मराठो -लेीव्या-( बि-) तामबार(अधघु-) तसेंपबाच्तामा ॥ बहुबचन | तम्बयाहंज-तंाव्या->तामबार-(सि०) ठामें आएधि । डसी तरधद् इकाशनन्‍्त और उक्कारान्त अादि ऋन्‍नेफक शाब्देा। के उद्दया- हरण दिए जा सकते है।... १४ । कितने पठलेवाले ते इतनेडी में ऊब गए होगे । जता तक हे! सका हे, इसो भय से, उदाहरणों को देते हुए, थोड़े में, यह लेख लिखा गया हैं। शेसे लेखों के पढनेंवाले हिन्दी में अभी बहुतती कम हें। पर क्या क्रिया जाय इस पत्र के कत्ताओं की जात माननी पड़ी # । १७ । विशेष- दि! (या उसका र्टपान्तर ) प्राय: सब कारकोा वब्ली विभत्ती हाकर क्या पाया जाता हे, दस बास के बिना बतलजाए डस लेख व्सेी समाप्त करना ठोक नहों जलेचता ! इर्सालण ऋछ ओर कहना पता चे | प्राकृूत का यद्ध हक्क साधाश्ण फ्ुकाव है कि पफप्टो सेची और क्कारकें का काम निकाल लेना ; अथात केबल दोही, कत्ता # घन्यव्राद हे (& सं») समालाचक ॥ ३५१ कक ग्रोर सम्बन्ध-फारके के रूपकरण रह जायें । प्रास्तत प्रेयाकरणा एसकेा साफ साफ़ लिखते दे + । अपभ्रश प्राक्तत में यच्च चाल अच्छो तरह देख पडतो है। प्राकत में तो पष्ठी विभत्ति से एक से साधारण, से कारकव्यापी, रूप बनालेने की प्रद्गत्ति यी पर गाड भाषाओं ने श्रम दर करने ओर पार्थक्य के लिये, काल क्रम में, पष्ठी विभक्ति के रहते हुएे, एक एक ओर, अलग अलग कारतके के लिए विभक्तियाँ घबनाली #। मिजा पर । प्‌ृ9७॥ ६ । ०४ ॥ ॥ ऋाशी प्रसाद । । छैमचन्द्र ।३४। १३४ ॥ त्रि घिक्रम, २।३॥ देर ॥ धररुचि, ६। ६४ 0 + प्लेस । (क) भादि्द्दि ते सब कथा तुनाई ॥ पुजघोदास । (फ्त) क्या सम पान ततारह ॥# >व्मद्ासा तातार से ॥ चन्द । (ग) मोहि में तेहि में खरग प्कम्म में ४ प्रादीन । (घ) औदि पर छेद्टि कर सत्यसनेजू ॥ तु लखीदाछ । _ £7&6-0--0206-0-68-042स्‍₹-002-+90-86-० 0-७ &६०--७२२०-०--५१७७७७ ५+८-<-९-८--०-७ पट चातुओ सें जीवत्व वा चेतनत्व | & 5 ५00.७.७ ०059-7७ -०२७-०७-०-७-०-७ ०-७ ०७७-०७-०७-०३-०२७-०७ ०७ ०७-०७ ५४ पठक्ला के दप्त लेख का शोप॑क देखकर आर्वय्यं अचणय होगा वि यह्ठ बात कया हदें, चातु ते जड पदावें हें उन में जीवत्व वा चेंतनत्व का होना असम्मवत्र कथा नितान्तददी असत्य हैं । प्ग्न्तु प्रिय पौैठका | इस जात में तनिक भी सशय मत करें-यह् निस्स- न्देंद्द सत्य है कोर एऐसाकइो सत्य है पोसा कि उम में आप में कोच का होना सत्य हें। चमारें पजनोय अ्रेप्ठ ऋषियों ने ते दस- का निर्णय हजारचडा वए्ँ पहले कर लिया था, जिसको सचना उन्हेने आप दाशसिक यथों में बडो दुढता के साथ उम लोगेा 'का दी है। उसी सिद्दान्त वही पुष्टि अब जडविज्ञान द्वारा हुदे है जिसके वर्णन करने छ्ते अये यह लेख लिखा गाया हें । में उप ओर प्रफुलल्‍लचा के साथ पाठकी केः यह सख-प्तम्वाद सुनाता हूं क्रि इस वेज्नानिक अव्िि- प्कार का साभाग्य भी दसी पणय भूमि भारतवप के एक्त ससन्‍्तान हो को प्राप्त हुआ हे! इन मदहाशय का नाम बालन जगदोश चन्द्र जोस छहैं। यह ऋलकत्ता सनिववरसिटो में घिज्ञा नशास्त्र के गअचाय्य (/?/0४७६८55५०॥) है ओर इन के गवनेमेंगट से स्थी० आये डइं० की उपाधि भी मिली हैे। इन्दीने बेज्नानिक परोकत्चाद्वारा उक्त सिद्दान्त का पुष्ठट आर सिद्ठ कर दिया । उक्त बाबर साहब का यह आद्वुत्त आविष्कार चिरस्सर- णीय रहेगा । शेसेंडी संसन्तान से भारतवर्ष का गागरव हे। पश्चिमीय बेज्ञानिकों ने नाना प्रसार को ऋल्‍लपनाए दस “लोब जिशथिक्रम । ३३ ३३॥ ३६ अर रझाच ॥ 8 ॥ ६४ ॥ | मनन, समालाचक । डी समन नस प मम क > कम.» ००५» ७०० शक्ति ” के विषय में को हें पर किसो का परस्णिम सनन्‍्तेप दायक नहों हुआ | अब तफ दइसक्रो भो केडे रोति नदीं माजम थो कि किन किन परित्ता ओर जाच से जाना जा सकता है कि किसो वस्त में जीव हें वा नहों । अब- लक कोई ऐसो प्रत्यज्ष परीक्षा न थो कि जिससे यह भलो प्रकार जाना जासके कि अमुऋ वस्त में जीब हैं वा बच्द निजाव है। किसी समय स्वचचचलन उी एक मात्र जीव होने को जाच मानी गई यो पर जब यह ज्ञात चुआ बहुत से ऐसे भो जीवित जन्‍्त हे जिन में स्तवलन शक्ति नहीं हे ग्रार जीव के अन्य घम्मं उनमें प्रत्यत्त पाए जाते हे, सब से इस कल्पना का खबद् न द्वागया । पेड पल्ल वादि में तो चेतना का होना, सासलेना, सेना, जागना, खाना, पीना, चलना, सखो, दुखी होना इत्यादि भली प्रकार अब सिद्ध हो ही चुका हैं। (इस विपय के भी सत्तेप में लिखकर आप लोगों प्तो सेवा में शोज्ठ चडो उपस्यित ऋरूगा ) जैसे अब यह निणंय करना आवश्यक हुआ पि जोवत्व को पसरीत्षा च्फ श्र कफोानसी क्‍या हैं ग्रथात बह कफानसो बात 7. 9. 3 हे जिसके होने से हम जान से कि अमुक्त बस्त में जोव है ?। हमारे समसिद्द-आचारय्येबेस करा मत हे-ओऔर यद् ठोक भी है-कि जोवत्व की परोत्ता यह है कि “बाझछ्त प्रो साहन से किसी बस्ल में चेतनता और त्ञोभ (परण्ा ६७] 6ए) प्रगट चहो।” ग्रथात॒ जब उम किसी वस्तु में बाउर से क्ञोभ पहुचावे लो उत्त बघ्त में उसका प्रभाख 4--+» फ ्न्न ग्यिॉं वंसादी दे जेसा कि जावधारियों में छोता हे वा दूसरे शब्दो में ये कच्चे कि किसी बस्स वही 5० यान ध्य न प्र्शत्त और चेतनता से उसमें जीवत्व होने क्री जांच हो सकती हैं । उक्त बाबर साहेब ने इसो मत के अनुसार सिद्ध करदिया हें कि शक लोाहखरणड मे बेसोही चेतना आर प्रतत्ति का परिचय मिलता है जैसा कि किसो जोवित देह में । ग्रत्न हम आपके वे शसोेतियां बताते हे कि जिन से प्रोफेसर बोस ने उक्त सिद्दान्त को पुष्टि 3२४ हब नराबााा मारकर कारगर धरम णणा्णणा्णा॥॥४७ ० ्णणआ्एणणााणााणांण गण आकर आस ३ सा का का आम जा मी मा की हैं । यदि आप अपनी उंगली दबावें तो आपके पोडा दोने लगेंगी । अब यह समभकना हे कि यध् पीड़ा केसे होती हे? इस का उत्तर दम दंगे कि उंगलो से शिश (ज्ञानतन्त) दाथ, कान्धे ओर गरदन में से हाकर मस्तिष्क में चली गई है ओर उ्योाहों कि उंगली दबाद गद उत्त शिरश में कंरेभ हुआ और एक प्रकार को हा हरिसिस किया. तरंग के सामान कम्पन द्वाशा मस्तिप्सत तक उगलेी दबने को सचना पहुंच गई ओश आप के उंगली दबने को पोडा का बाघ हुआ | यच् बात भो अब सक यक्तिसिद्व कल्पना मात्र थी परन्त लिम्न लिखित यंत्र से दसव्ती बर भी पुष्टि हे। गई ! एक चातुस्यपेमय यंत्र द्वारा यह , देखाया जा सकता हें वि जोश घी शिराओं में भो चेंतनता है और बच शिरारं अपने आगाओ के कम्पनद्वारा दसकोीा प्रकट करतो है । यद परोत्षा विद्यत्तोनत्नतामान अ्रशञ् (2.8) ए870778९7१ ) द्वारा को गई है । वें पाठक कि लिन्होने समालाचक । मम यदूनइु्ई व "पद ह॒कमी*+ गए" पान शाह मोना महक पाइप पाक गो सदा गे दादा गेम भाषा धान पा हर गायब >*“ पद कुदाआम_प भय बाइुअ# 7 इक + "पदक नि भय हा#>* थक आम गये जहाक गन एक्शन क-#* उधार अडूरेंजी पदार्थे-धिज्ञान नडीं पढ़ा है अधश्य पूछेंगे क्रि यह यंत्र कैसा हैं ओर इसका नियम क्या है । मेरे बिचार में भी उच्त यंत्र का सब्रिस्तर वन यहां देदेना उचित था पर लेख बहुत बढ़ जाने के भय से छोड दिया,ग्राशा है कि आप लोग जमा फरेंगे । यदि अवसर मिला ते इस यंत्र का विवरण सर्विस्तर लिखंगा। हां आप लोगो के फरेखचल इतना समझ लेना चाहिए कि यद शक्त ऐेसा यंत्र हे कि जो स॒त्म से सत्म चिद्यतत (घिजलो) के तोब्नता व्ती सचना देता है । इस यत्र में सक चम्बकोय सह रहतो हे जो सत्म से सल्म विद्यत की तोद्नता से विपय देने लगतो है, छा यों करे व्मि स्दें में दिगर्रनमणा ( १6०- 60६07४ ) होने लगता दें । बि- लली न लगने पर सदे अपने स्थान पर रहती है। लजितनाही विद्युत ( बिज॒ला ) का प्रवेश अधिक्र उस यंत्र में दोता हें उतनाही से में दिगश्धमण देता है अथात उत- नाही सूद करा मुच् घमता जाता समालाचक । है ओर विद्यत प्रधेश क्रम दे।ने पर फिर अपनी सनिर्दि्ट दिशा को ग्रोर सर लाठ आती हे। रूम ऊपर लिख आए हे फि फ्िसी देंद में पीटा होती से तच वहां की शिराओ। में एक्क प्रकार का फरम्पन चेोने लगता हे-यह लो ग्रव तक शअनमान मात्र था धर वक्त यंत्र द्वारा प्रत्यत्त दुष्ठि- गोचर दोगया अथोत, नियमानु- सार, यदि शिराओं मे कम्पन कुआ तो यनत्र में सर्द के मडने से छाना गया, नहों हुआ तो से यथा स्थान रच्ो--जब जयक्त बाल साहेब का यह द्वात ज्ञात छदें तब उन्हेनें घिचारा कि देखें उन पदाथा पर जा जड कराते हे लोभ वा पीडा पहुचने से क्या प्रभाव पडता हैं 7 कुछ प्रभाव पडता है था नहों? । क्याकि परले जब यह बात न मालम थो ते यद्ध नहीं जाना जा सकता था कि किसो गरगे पश के किसी ध्यडः पर पोडा पहुचाने से उसे कितना दुःख होता हे पर इस 8२४ यत्र से उसका परिचय भलो भांतों मिलता है । जब यह देख लिया ते बस उन्होंने नाना प्रकार के घातुओ की पेक्षा प्रारम्भ करवरी लिसका परिणाम यधद् हुआ कि उनमें भो ठोक ठोक बेसादी न्नोभ देखा गया लेसा कि जीय- धारियो में हाता हें । पहले दसके फ्ि परोत्ताओं का चत्तान्त लिखा जाय इतना ओर उक्त यंत्र के विषय में जान लेना उचित हे कि बथक्त विद्यत्तोत्रमान -यज्र को सच्यता से ऋम्पन का द्वोना केसे जाना जाता हैं ॥ घित्यत्तीन्नतामान यंत्र को शिरा वा जिस वस्तु को पशेत्ता करनी देतती हैं उसके साथ लगा देते हे ओर चम्बकोीय सई के नीचे एक कागज रचता हें लो सगातार स्वथ खिसकता जाता हें ( यद एक पेंच के सहारे होता हिे)। पीडा पहुंचने पर ले। शक प्रकार का कम्पन होता है उस में विद्यत्त का अश भी रहता हे और इसों की न्यनाधिक तोन्नता के अनुसार उक्त ३२६ समालाचफ । से में भी द्विगश्रमण (तल००त०० की गदे जिनका वर्णोेन नीचे चोने लगता हे, जे उसके नोचें वाले कागज पर अंकित हो जाता है! सदे का मुख दधर उधर देने से काग़ज पर सपोक्तार टेंकी रेखा खिंच जाती हैं नहदों तेा सरल रंखा बनती हें ।! लितना हो चेोभ वा पीडा सें कम्पन ग्रधिक्त होगा उत्तनीरी चोडो सपेाकार रेखा बनेंगी ग्रार क्रम्पन कम होने पर कम चेड़ी सपाोकार रेखा होगी ओर कम्पन के न होने पर केवल सोधो रेखा मद्वित हें।गो क्योकि स॒ई में दिगश्रमण अजब नहीं साता ॥ सब से पहले यह देखा कि किसी घातु के ठुछडे केश यदि मसराडा जाथ वा उस पर गआधात पहुचाया जाय तो विव्पुत्‌-तीच्रता सान-यत्र में ठीक बसचो चन्‍्द बनते हें लेंसे कि किसो जीवघाशे में वेंसाहो आघात पहुंचाने से बनते हैं। इल्हों बाते को परोत्चा कह तरह से नाना प्रकाश के घातओ ओर छोथे पर - किया जाता है। (१)जीवधारी' और धातु में चेतना की शिथधिलता । आप लोगे के मालम कहे कि यदि किसी अडू का पु 7 वा शिरा किसी प्रकार कुछ देर तक्त पोडित क्रिया जाय ले। उसको चेतना शक्ति शाथिल हो! जाती है (दसी के साधारण लोग 'थक्ान बोलते है) ओर यदि कुछ देर तक्र उस अछः के खिश्राम मिला तो बची शक्ति पुनः जय को त्या उसमें डत्यन्न दी। आतो है । विव्यत तीब्रमान--यंत्र लगाकर जलब किसी जीोवधघारों का कोडईे अछू पीडित फिया गया से पहले जठे छेग से स॒द में कम्पन चोने लगा और यव्यपि बच अइड्' बेसादी पोडित क्रिया जारहा है तथापि थोड़ो देर बाद स॒ददे में दिगुश्रमण घटने लगता है और उस अ्ग की चेतना शक्ति भी घटती जातो हें, जेसे की चित्र न० १ में स्पए्ठ रूप से प्रकट देता हैं कि घाए-उाथ फो संम्राजाचक सका करममामपा सादर हा का गाय एक गदधकानन रूम पुर की करी रपआपुमि निया मुलरिि यु मम कम हुमा वटफूलागएमंवटुरायदक "फनी यपाउरजम पाक जरा जुदा अपितु सर तय कर राय जिसपर पवन पदक पिया कल किन रटसा४४पप जहर मत हु पपचगपूजदपथ ०० कापरममवय तक, बेर चाडार दिग्धमण देता शा ले क्रमश: घटने लगा ओर थोड़ी देर के उपरान्त अहुतदी कम छोगया जेसे कि दाहिनली ओर फो रेखाएं दिखातो हे । ऊपरवाला चिन्ह पुछ्ठें। से अद्धित हुआ है ओर नोदेश्वाला चिन्ह घातकोी परोत्षा से 000, ए//४७४५/४५४५४ चित्र न ० ? खना से। इसपे यह भी स्पष्ट मालम होता है कि दोनो तक चिन्ह एक समान हैं, दाना पर आधालत का भभाव समानचो पडता हे ( इसके अधतिरिक्त इमें दस सिट्दान्त का परिचय नित्य प्रति भी मिलता दे जेसे कभो कभी देखा जाता हैं कि छुरा लगातार फ्ाम में लाते लाते भाठा था ऋकंन्टसरीखा दें जआञाताहे | यव्यपि उसवी घार खिगडी नहीं ते भो खर् बेसा काम नहीं देंता जअंसा पहले देता था ओर सिल्‍लो पर छठ ३२७9 रगलसे से भो तेल नहों होता पर कुछ दिन बे छुटा अलग रख दिया जाय ता उसकी तोच्च- गाता आपसे आप फिर बाजातो है। दसी प्रकार हम लाय भी लगा- लार काम करतें २ थक्र जाते है ग्रार कक विश्ञाम करलेने पर फिर फरतोले हो जाते हैं| फम्पन ((र)घातओं मे तन्द्रा वा साना घब्घभी ऐसा भो देखा जाता हे कम्पन | कि यदि छरे से बचहत दिना तक काम न लिया जाय तो घद आप से आप कुन्द-सरीखा हेजाता हे गौर भली भाति क्राम नहों देता पश्क्वाम में लाते लाते वच्ध ग्राप हो तेज हो जाता हैं। यद्ध बात 'यकान' की ठीक उलटो दे। जेसे क्लि किसो अह्न या पट से कुछ दिनो काम न लिया जाये तो चचद्द रच लाते हैं” किसे 'पोजाना! 'ऋनकनों चढ़ना! वा रद नाना! हम लोग बोलते दें। ऊअधंबाह साध (ला अपना दाथ क्पर उठाए गरहतें हें) ता ग्राप लोगों ने अवश्यदी देखें धागे जिनका 3शए८ समाले/चक । 2... ७-3७. भ मानता पा ५५५७७» »+33५> से ५3+.3५७»++५+ ५ ३-3#न# 39७७५ 3५५७५ ५५3 33५++३५५3»++०ऑ७ ७५ ा७५०७४«++#०म+»ी५+>3स्‍+23+ मर न्‍वीड:पअ आना नर. किण्पादु#ः्यदहाभगाहा्ग दाह दाह पदक पा पपकण्प बन बा आम मारा ७७७/७७४७७४७४७४४७७७७/एे"ेशस्‍रश/॥र/शश॥श/॥॥॥र/॥ए्शशशशआशशाराशथशाशिशी। हाथ इसी नियम के अनुसार | निस्पन्द रहित दोजाता है ओर चेतनाडोन चोकर रह जाता हैं | | प्थ्ित्री के उत्तरीय भाग में ( जहा पर कक दिनो मलने से खुल | सदा बरफ पडती रहती है) घोर जाता है अथातु उसमे चेतना लाठ | _हउय पडने पर भाज़ आदि पशु आतो है ड्सो कार के तह | निर्जोब के समान शिथिल देकर ब्ेठ बरेंठे ठांगें सा जातो दे ओर शक लेक मलने से घा कुछ टहलने से फिए तनन्‍्द्रा में पड़े रहते हैं ओर योप्म काम देने लगती दे माने सोने से | तु के ग्राने प्र उनमें स्पन्दना आने लगती है ओर फिर व बेसेडी जाग उठों । मान्यवर बोस ने घातुओः में ऐसा होना भो पाया जंसा उछिछ् फुरतोले झोौर बलिष्ट होजातें दे । इसी प्रकार आप लोगें से छिपा निम्न लिखित चित्र सें प्रकट होगा नहीं है कि सीप्स ऋतु के अत्यन्त कि पट्टे और घात क्रमशः सोए से ताप में भो आलघ्य ओर तन्‍्द्रा केसे जागने लगते चले । प्रत्येक गाड कम (यदि धच्द पक दिन | ब हत ग्राती है । पर साधारण श्सदी बे काम पड़ा रहे) यह ऋतुओं में स्पन्दनशक्ति घृणे रूप से रहती हे। इन नियमों के तन्‍्द्रा पार जातो हे | - अनुसार जब घातओं पर अतिशय ४४५५७ | रह छलागना .. | शोत वा अतिशय ताप पहुचाया '७(७/)/)/४ 8 जवताब के क् कक एयिल या स्पन्दन चित्र न० रहित उसी रूप से दोने लगते हे ( ३) घातुओं पर शीत सिर जैसे ध्समि जोबघारो के अहछू, छह उच्णता' का प्रभाव | यह अवश्य छ्ोता है कि किसो गअतिशय शीत्त परें जीव को | घात में अधिकतर ताप वा शीत चेचना शिचथिल हे जाया करती हैं | से फाम लेता पड़ता है किसी में जेसे कि किसो अहछूु पर ढेण्सा फमती सें। यहो अवध्या जीव बरफ रखते तो घर अडू सना था | में भी दोती हे कराई जोब ते समालाचक । ३र< तनिकसी शीत वा ताप में शिथिल से हाजातें दे और कफिसो के लिए अधिक फी ग्रायश्यकता पडत्तो है। इनके चित्र देनें को आवश्य- कता नदों समझो पाठकऋगणा भली भाति अनुमान फरसकते हे। (४ )चघाठओं पर मदावह (2४०॥००(०८.3) और झआासेय (897्रपो"्मा85) झबैौाषध का प्रभाव | इन परीक्षाओं से एक आश्चस्पे- जनक बात यह ज्ञात हुई कि भदावर ग्राेपधि (“४०७7'००४28) जसोर अतग्रेप ओपधि(887 परोछा08) ब्सी क्रिया जेंसोी जीव्र -पर दोती है वेसीडी घातुओ पर भी होती हैं ग्रथात उनका प्रभाव जीव ग्रोर घातु देने! पर एक समान होता है । उदारदरण रूप में भांग, मद्य (.0.00)0)) इत्यदि क्ला प्रभाव जीव पर जेसा दाता है आप लोगो कला विदितदी ले कि थे मादऋ है प्रोर उनसे उत्तेजना बठतो चे। मित्र मित्र जीधा में उत्तेजना उत्पन्न करने छे अ्ये आगनेय ओपधियों को भिन्न ९४ मात्ाए देनी प्डतो हैं उसी प्रकार धातुओं में भी जान लेना । बोस मचाशपय ने शहु-सज्जीखार ((/छ770ग्रछा2 ० 800प7) > कारबे। नेंट आफ साडियम) से जो गक आरनेय ओपधि है, प्रा टिनम («ता पा) नामक घातु को उत्तेजना तिगुनों बी हुडें पादं पर उत्तनही माता से राग को उत्तेजना उत्तनी न बठी । पहले उन्होंने प्राटिनम (]७४07प77 ) घात॒ पर चाभ पहुचाकर यंत्र द्वारा चिन्द लिया, फिर “उन्होंने उस घातु पर उक्त जगोपध का प्रयोग करके चिन्द लिया (जिनका चिचह्ष नोचे दिया गया हें) इन के मिलान करने से घतिगन उत्तेजना क्का उत्पन्र होना पाया गया इसी परणरोकत्ता का | 4400५" ॥ ) ० चित्र न० ३ ध्यनेस धातुओं पर करके देखा तें। सब का फल लगभग ऐस्तादी पाया गया । पएफर उनन्‍्द्ानें मदायह (२५७7९०- (08) ज्ैपधि ( घिप दत्यादि जिन ३० से चेतना विनप्ट होती चले) का शा, सा. जा, ४७००. प्रयाग करके पशेत्चा फो | जेसें क्ोकि फोकेन ((०००७)7७) सामकऋा छे। शक्त विख्यात ओआपच हे लिस क्रे। फिसो अंग पर लगा देने से कक देर के रलिए बचा को चेतना छाती रहते दें-इस ग्रेपधि के मसर्खे लोग आजकल प्रायः खाते हे ग्रार ग्रपना स्वास्थ्य सदा के जिए लिगाड़कर डागर से हो जाते हैं ओर शोघ्रद्दी म्रत्य के प्राप्त चोले हे-सर्वेसाधारण के इससे सावधान रचक्रर बचना चाहिए । डाकुर लोग दस के प्रयोग द्वारा छाोटो मोटो चोर फाड तक ऋर डालते हें ओर इसका ज्ञान उस समय सनक भो पोष्ठित-व्यक्ति के नहों हाता -अरधाकि उतना अहूः उसका ला उक्त ओपषध लगादी जाती है चेतनाशन्य हे लाता है ! इसी के साथ यहा भो खआाप लेगे के छना देना उचित है कि क्रोसि ग्राम्नेध वा मदावद ओपरि को घोड़ी माजा देने से उत्तेजना समालाचकफ ! बठतोी है ग्रार अधिक्त मात्रा देने से मठता गअयात चेतनवथिद्दोनता उत्पन चोतो हें। ग्राप लोग जानते है कि अफोम वा सखिया को अधिक मात्रा प्राण नाशक होती हैं परन्त बेत्स लेग इन्‍्हों को सक््म मात्रा अत्ति रोगयस्त व्यक्ति के उत्तेजना बढ़ाने का अथे भी दिया करते हैं । रांग पर इन नियमो को परित्ता करने से को फल हुआ उनका चित्र हो देख- कर आप लोग समभ सकते हे। (क्र) रांग को |) (.(_ स्वदेलना 4।0 हा, सकते की स॒ध्म सात्रा द्वारा (ग) राग का चेतना क्रोन होना अधिक मदासद के प्रभाख सें- चित्र न० ४ पहले उन्होते रंग उ्ते टुकड़े पर जोभ पहुंचा कर यंत्र द्वारा उसको ऋफम्पन- क्रिया का चिन्द (क्र लिया, फ़िर उन्होने उसो टुकड़े पर पाठाश (720।85४) के एक्कत निदेप्ट माता का प्रयोग क्रिया जिससे उसको समालाचक ॥ कस कक आल या जा जा ्३०8३७७०७७७७७७७/एरर#/शश आरा जायजा जा इक जी भी न नाक नमन जज मम जन ह४३१ म॒द्रित होते हैं वेंसेंद्री चिन्ह बनने फिर घोरें घीरें चेतना कमती धोने को रेखाए अड्डित हुई अन्त के। बहुत कम चेतना रच गदें सत्र उन्होंने एक विपच्लन ओपधि का प्रयाग ऋया तो देगा कि चेतना पुनः लें टनें लगी ओर थोडा विश्राम देने पर फिर जो देखा तो उस घातु को चेतना बेसी ही पाईे गद लेसो कि दिए दलने के परले उस मे थी । उत्तेजना बढो हुडें पाई गई (ख- चिन्द देखे) अब पुनः उसो टुऋछे पर उक्त ऑआपधि को छक्त मात्र से दशगुण अधिक मात्रा दो जिस से राग क्री समस्त चेतना जातो रही ब्रार यज्ञ को से में कोई परिवतेन न दोने के कारण सोधघी रंखाही म॒द्वित हुई जैसा कि (ग) रेखा से प्रकट हैं। इस से यह सिद्दान्त निकला कि उपमें जब चेतना न रहो तो ज्ञोंग को चेतना केसे हो सकती हें | (५)घधात॒की विष दारा र्त्यथु आल एक्त जात और भी जाच करने पके रह गद हे-वह यह कि जीव विप से मर सकता हैं। यदि शीघ्रहो उसका उपाय किया जाय ज्ैीर विप्च ग्रापधि ठो जाय ते खच्द मरने स बचाया भी जा सकता फिर उन्होंने दुसरा टुकड़ा घात का शेसा लिया जो पुप्ट और स्‍्वस्य था ओऔआए उस पर आकचे- लिऋ एसिड की कडो माता दो पहले लें ऐंठन वा कडल प्रारम्भ हुई और अन्त का घखद घातु निजीबे होकर म्रत दोगदों | फिर ते। बांस मद्दाशय नें लाख लाख है। बास मदाशय ने आकुर्जेलिक सासड ((0>थगारट &टाठत) च्छा त्ना एक तीच्र छिप हें प्रयोग एक्त घातु पर किया ते उसमे जीव के समान पहले ऐठन ( जिसे कुडल पड़ना भी बालतें हैं) दोने के को चिन्ह उपाय कऋिए खिपप्न ओपधदिया दो पर सच्च निष्फल जान पड़ी ओर उक्त घाल खण्ड में चेलचना न लाटी पर न लोाटोी इसी प्रक्रार भिच घात॒- आओ के मिकत्र भिन्न दिए द्वारा परीत्ता क्षों परन्त परिणाम मसभो झे३२ >अमणमगक मर कननी--न-नाडानरी -+नहीरी पान न्‍्यक कान न दुा- "्काकी+ पानी" ानतग-+ 2० कप न काबू प॒॒मननथन- नम नमकीन ना ७ अप पान आप ना का जा फाकम+ मर्यादा "मन पान पानी" "न आना पान. न- था जन पााम नम ..#*-५७० >अआ. समालाचक । का शकही समान पाया। सत्र सें। में थे लिस कारण से उनकी चेतना अद्वत बात यह देखी गई फिवहुघा | मक हो! गई थी। मनुग्या में भो करके लिस थिप से जीव मरता है घही विष घातओं पर भो कराल प्रभाव बेंसाहो देंखाते चे अथात फोर्ड कद विष चातु ओर जीव दोनों का मत्य के मुख जया थास बना देती है। स्मरणा रहे फि सभो विप सें ऐसा नहों दोता। ग़क गंवधारोी फद्दावलत है दल “पक्ेसी के बेगन बावलाय किसी का जेगन पथ्य” । किसो २ विए से ता घात ऐपते मग् जाते हें कि उनका पुनः ओोबिल चेोना वा करना डो हो नहों सकता। किसो विप्रय से ऐसा भी चोता हे कि ज्त्र तक विष के साथ घातु का संसगे है वे मृतवत मुछित रहते हैं पर विप घोडालने से ग्रोर घिपष्ठन ओपधि द्वारा विए का प्रभाव दर करदेने से वे पनः जीथित हो जाते दे । इस से यह कल्पना को जाती हैं कि दे चात वास्तव में मर नहीं गए थे किन्‍्त प्रायः ऐसा दोता हे कि उनकी नाड़ी, स्वांस दत्यादि सब् बन्द हे जाते हे और उनके फ़ुछ भी ज्ञान नहों रहता ओर दे कभो कभो मृतक सममझ्ऋर जला दिए वा गाड दिए जातें हैं गर कभी वे लाग सस्‍्मशान तक पहुंचकर पुनः जीवित भो हो जाते हैं। जे। कुछ हो इस में सत्देंद् न रहा (त)घिप के प्रयोग ॥!(४"- अअकप के की (घ) विष के प्रयोग से चात॒ के चिन्द । चित्र न० ५ कि विष से घात मर जाते हैं । ऊपर के चित्र देखने से स्पष्ट हो जाता हें। अभी यह नहीं जाना गया हें कि दिप से समृत्य केसे होती हे अथात्‌ विप की बच कान क्रिया हैं जिस से मृत्य घा मा होती सज्ञा रदित होकर मृत अबस्या | है। किसी किसो में ऐसा भी समालाचऋ । 338 देखा गया है कि घातु के अशांग्या में विष मिलने से विघटन होने लगता है-यद ठीक मझत-शर्रोर की नया विगलन (-)०ए००४ए०8* ४४००) होने लंगता है। परन्तु सक्ष में यह बात पाई जातो है कि विष के कारण से घातु के भीतर के अगाओं ((४०)०५१५४) में एक प्रकार को रूक्तावट हो जातो है । घात के ऊपरो भाग में जहा लक कि विष ज्ञार वे! एसिड पेठ सक्री हे ज्ञार की क्षिया के चिन्ह लो विष-कोट इत्यादि से प्रकट दिखाई देंते है परन्त उसके भीत्तर उप्तक्ते अन्दर के अगाओं में कुछ गेललमाल सा हे। जाता है। मरा में यह अयाधों का गेलमाल चिरकाल तसक्र नहों रचता गसृत्य में यह गड़बड़ अगाओ में चिर- स्थाई दाती है। अभो अच्छी प्रकार नहों कहा जलासकता फि पच्द गाल- माल अगाओं में क्या होता हैं । इसों प्रकार कुछ कुछ बातें जानी गदे हैं और अभो बहुत कुछ जानने व्मा बाको है । आशा है कि अभी शहुत सी नई अद्वत बातें जानो छायगोीं यद् एक रेघा अयविपज्तार बिज्ञान शास्त्र में हुआ हे दि जिस से बढ़कर दूसरा दचोनः कठिन है।चाहे केदे नतन सिट्ठा न्‍्त का यत्र केसाही उत्तम छये न॑ जाना जाय पर यह सिद्दान्त सब से बठऋर माना जायगा । यदो लोव का प्रश्न (-77007०7) सब से ओप्ठ ग्रोर सब से कठिन था जिसका कुछ कुछ _ परिचय हुआ है आगे ओर भी मालम होने की सम्मवाना हें यदि कलाई प्रश्न करे कि भला उंसके जानहो लेने से क्‍या उपकार जगत का हुआ १ तो इसका उत्तर सच्॒ज हे-यह कि यह प्रश्न ऐेपा है जिसे अड्रेजी में 36607 ६7708 ( उचित समय से पचले ) कचले हें। रस समय यद प्रश्न करना ठीक शसेसाहों हास्यस्मपद हें लेसा कि बालद् के जनन्‍्मत्तेंद्री काई पछे फक्रि इस बालक से जगत का क्या लाभ दे। सकता है! जाए कुछ हो! इस अविप्कार से घिन्नान शास्त्र के लिए नया रस्ता 3३४ नाक संमालाचक ॥ सका खल गया है | इस परोत्षा से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्द द्वोगदे कि दस संपतार के समस्त पदाथा कफ्रा-फ्या स्थावर क्‍या जड्ूम- सारभत एक हो है। अब सन्‍्देह नहीं रहाक्रि''यथा निकरायम सखब्ें- भरलेपगठस ' के सिद्दान्त के जिसे हजारे वे पहले बछे बड़े ऋषियेा ने ओगगा तट पर गजथवा बन छानन में चार सपस्या फरके योगबल द्वाप्र जाना था आज उन्हों ऋषियों के एक ससनन्‍्तान जज ने उसको पुष्ठि कर अमृल्य यश लूटा हे । इस अद्गुत त॒तन ग्रेर स्वाद फल क्या मज़ा जे मुभे मिलन रदा है उसका स्वाद में अकेला ही लेना नहीं चाइता हू किन्तु आप लोागी के भो उसे च बवकर उसका स्वाद कहें गुण अधिक करदेने मे दस फल की-सुफल करता हू ५ ठाकुर प्रसाद, सिद्धेग्वरी-काझी, २६ फरवरी-१६ ०४ उताइ रा 3७ के ऋण. व्यञ्ञ, तत्न, सर्वेच्र हाहा ताता !! चार वर्ष हुए, जयपुर म्यजियम में एक इस- न्‍्यख शान्तमत्ति लेजेमय मचदापरुए के देखकर छा स्वाभाधिक्र भर हुई थी, वद्ध यह जानकर करें गुनो बठी थी, फ्रि यद महुल्‍्या- मनोहरा” मर्ति ऐतिहासिक उद्ारता के आधार ताला महाशय की ५ हो हे जो प्रिन्सिपल मंकमिलन फके साथ, वायसराय के बलाए, शिमले ॥ जा रहे है ले)! उनके प्रस्तोष्पमाण गर्वेपणाविद्धयालय के नियम बनाए हैं. कि बहो स्वदेश शिल्पा के तात, देशो घ्यापार के तात, और विदे- स्वगेंघासो हो गए। न मालम किस कम के घेर विपाक से ऐसे जगनन्‍म- | छुस मचहात्मा का अनिष्ट सनना ओर सनानां पा! निज्न भजापारजि;ित तीस लाख रुपये को प्रशस्त सम्पत्ति के जिस दानवोर ने भारतवपे पल [पु ध, >य ॥ बसे होले भी, संकल्प किया था, खद्द आब नहीं दे । सदा सावधान ॥ जा रहे है । आज यद् कहते उमारो जिहल्ठा के शत्त शत्त खण्ड देते है| | शशित्षित नवयुवक्का के तात जमशेदजी नोशेरवां जी ताता जमेनो में है 9 भर को वेत्नानिक उन्ति के लिए, गवेपणाधित्सालय के लिए, सन्ताने ४ है लटिश गचर्मेन्ट की सिवाय इतना चतुर और कान देता जे के के । है वे पर्येन्त नियमा को खटाई में इस दान के गदने के पडा रचने देता, प्रौर एक ला किक कच्चावत का पात्र बनता कि “द्वान के घोड़े के दात । | सहों देखने चाहिए??? ताता क्मो स्वर्देशो बस्कां को मिले स्वतन्त्र हे, हु उनका बम्बदे का द्वोटल प्रशघ्त है और यदि जगदोश्वर उस कर्मवीर है बे का प्राय देता ता बद्ध अपने इस अभिमान के सत्य कर दिखाता जज कि उनके मध्यप्रदेश के कारखाने के चल जाने पर भारतवर्ष को लाहे की एक प्र भो विदेश से न लेनी दोगो । गर्वेपणाविव्यालय $ की वो मरतिमान न देख सके, ओर यदि वें दानपत्र न कर गए हो ॥ तो थे मालम उमें उस के न खुलनें के लिए देव, ताता, उनके बंशल, | सरब्तार, या अपने भाग्य, किसका ऋयणों रद्ना पड़ेगा । ऋतु रे यत्रा नन्‍्दाश्य मोदाश्च यत्ञ पुण्याभिसम्मवाः है बेराजा नाम ते लोकाः शाश्वत्ता; सन्त ते शभा: ॥ शो जूः जञैः रे 4: -.. (४६ है 5 कक 0 या नि कमी हि 9-2० कु ड या वी आम (० मई “नासिक ी २ नि: मील जा ्ि | ह] ' इ-जक (2! /“+ 772 % आज मुझे बड़े हपँ का समय है | नए ठंग के लोग कितनो हो ओधो सोधी बातें करे श्रोबेड्ूटेश्वर समाचार के सम्पादक ऐसे चिकने घंडें हे क्रि अग्रेजोवाला फो युक्ति की बरसात उन्हें सखे का सखा छोड़ जाती है । भला, यह क्या कम चिम्मत को बात है कि युक्तियो के ठुकरा देना और च्मे के शास्त्रमलक्ष और अन्ध- विश्वासमुलक मानना ? यह क्या क्रम पण्खिताई हैं व्ति इस यग में भो तिलायत यात्रा क्षा बारंबार पाप कद्दतें रहना ? जहा नए समभदारों ने पुरानों के कुछ कद्दा कि उन पर, उनके फेशन ओर बक्वबाद घर टूठ पड़ना क्या कम बहादुरोे है ?- जे। नया सिद्धान्त उसने छहा हे, जिसे में हुये के मारे अभी नहों कहता, उसका सत्रण करना क्या देबोीर्शाक्त के बिना सम्भव हैं ? घन्य ! जिवार घन्य !। अआपचेो उमारे ठचरें हुए ओर टठरहस्नेवाले भारतवर्ष के लह्ढर हैं ध्रापके जिना यच् देश, आगे बढ़ी जाता ओर इसका करों पता भी न लगता ॥ घम्मे सारें मन्त का स्वाच्च भाव है। मन के एक झंय का उसपर इजारा नहों है। भाव, ज्ञान,ओर संकल्प तीनों उस में लगने चाहिण। बिना ज्ञान के भाव नहों लगता, ग्रेर न सऋल्पहा अधीनता स्वीकार फरता है। इम 'सप्तशट्द्पभ' में प्रेम नहों करते, ओर न उसके ध्धीन अपने सकलल्‍प के करते हैं, फ्शेक्ति हम उसे जान नहीं सकते । दच्दस्पति धक्का अचन है कि “क्रेबल शास्त्र क्ले मानकर नहों चलना चाहिए, क्योंकि युक्तिहीन विचार से घममे हानि चद्वोती दे?” । प्राचीन च्न्प बज समालाचक । ३३७ अल ए्लकाउतभक पाा माला ककाकक भा इ सा आ३ ३ ला कील लमददकीलकलकनल कमीशन लक कई ३ इन की जी मी >दशन्ल मदन ग्राचाय भो बेदशाघ्त्राविरोधी तक्के के। मानते हे । क्रिन्स से प्रछायड पशिडत से यह कन्र सहा ज्ञाय ? यद्दां ला गरटकलवालो के विरुट्ठ जेंडाद है, ओर ज्ञान (घा०ष्या४ठ) को कलोश में से निकालने का यत्र हैं! नहों लो डिपटोझलेकूर मित्र का 'रोर' का घोर! फल कचे।, और मीमासा के एक्र ८८थागांट्व शास्खाये व्की इतनी ख़शी क्ये। ? स्सघरणा र्ह्े, केवल जसापघ्वमलकऋ धर्म चाहयचघर €ाॉटा3] 5900707 0० 77०४५ हैं, ओर उस में परस्पर घिराोंघ, अपवाद, नईं च्यवस्थारं इन सब को टोक व्यव्षस्या जो यक्तिवाद से करते हें, वे सम्पादक के |. . 0 "वी १००. च्म्म्नन प्‌ ७०. नसापसन्द हैं| गतचबपरे के घमें कार्य की अलोाचना में आप फमातें ६5. बद प 8... ब्_्न्हैं पे पट 2५ हें कि परणिडता को सभा में सद्द हुत्रा क्नि धर्म शास्त्रगम्य है घनन्‍्य ) बोसवों शत्ताह्॒दी क्वा चाया बे इसी के इन्तिजार में बेठा था | धरम में अक्ल को गुजाइश नहीं यद् क्या आज सिद्ठु चुआ है ? शडूशचा पजी नें मन्दिर पर सोने का कलश चढ़ाया ! अब एच्ची आपनी घरो पर जल्दो चलने लगेंगी ! ! घिलायत यात्रा अब विवाद पाक. चुमिमन- अणक वाह... भान्‍ण्म ००, बा... हूँ5 . कण च्, के ल्िपयो में से उठऋर काम के अ्रेणी में आगईे हे, अब प्रश्न यह नहों है कि विलायत यात्रा की जाय, या न क्षी जाथ, किन्‍त यह हें कि कितनी अधिक की जाय, किन्त सम्पादकजी अभी इसे पाप? कहे चले जाते हैं । और जदा नये ने कुछ ऋचा कि तुम सुस्त । तुम फुज्ल खर्चे | तुम बक्रवादी ! बाबा ! उम जुट्डी से तो वे अच्छे हें कि अपने दे।पा का पहचानतें तो हें, ओर इमारो तरह टठरे में गाबरिया गणेश नहीं बनते। अच्छा भाद नया! हमारे भाग्पहदी ऐसे चाह चूक. चर ख्नक >> चु ब न क, रच है। तुम्दें यंद् गालियें न सननी दें तो उमें हमारे दिगविजयो सम्पादऋ के उवाले झेाड जाओ | जब दमें रेप बज्च का सहारा हे ता किसका भय हें? दे क्रिन्‍्तु सब से काम को बात एक ओर हो हैं। अभागे अदमदा- 85८ समालेाचक | अरकारभाकारकमाउर 2 बंका पाक बकाकथननककभ्ंभाभआआाककइबइइ लहर ल॒ ला छ.ाााााा82 डक. बी डंडा बादो पेपर ने लिख मारा था कि ज्ञांसति भोजन सें रुपया वचाकर स्कूल में लगाया जाय | सप्तार में छाटी बात से बडी घड़ी बातें हे। जाती हे। व्याघ के फक्राज्च पत्ती के मारने से रामायण बन गया । बंघेही इस छोटो बात से एक अधपगडनोय, अपने ग्रौर उदार सिद्दान्त मिला हैं, ज्ञिमकें निक्रलने से सम्पादक क्रा ओर भारतथधर्प का मोरव दे गया है| घह यह है कि " जातीय 'भेजजजन जातीघ एकता के सूल ्टं ”? बाचइ ! बोपवों शताब्दी में जातोींयतला का यद् सिद्ठान्त भारतवर्ष के एक्क प्रवीण सम्पादक ने निकाला, तो कही ते, यह भमि स्नगर्भा है क्रि नहीं । क्वायेंस ने मर्खता की। प्रलि वर्ष चन्‍्दा बटोरकर ब्रस्नभेज कर दिया करें। मर्मे से सख स्वप्न दोखता है कि एक दिन मथुरा के कलकुर ओर यक्तप्रान्त के शित्ताविभागाधष्यन्ष मथरा के सकल का लेकर, घाठा पर खीर लच्ाा दगे बार हम पशओ को तरह उसे पीठगे ! सरक्षार पेंच लाख रुपया यनिवर्सिटियों का न दे, किनत दक्तिशियां की कठोी झलार मागरो को इमली फको सबोले लगधा दे । क्ये। सिख लोग बीस लाख रुपया बर्बाद करते हैं 9 क्र दिन '" कड़ा प्रसाद ” खाकर 'साइ गुरुजी को फतच) कह डालें | व्यथेंही मार्वाडी चन्दा मागते फिरते हैं। राजपृताना के किसो गनन्‍दें शहर को गलियों में ब्राह्मण के बिठाकर लड़ स्वाहा कर डाले! हेाजाय, एक्र दफें तो घोक्ीी (५, नहंरें बह जाय | टठाठा के भी ताश दिया जाय कि जे द्था रुपया न्ञ नष्ठ करके लहु तड़बावे, ओर उक टोकरा उमारे दिग्गाज सम्पादटक के पास भेजदे । सुनते हे जयपुर में इतने हेंडे दाले हें कि उनके वर्ष भर के खच स॒ एक एसा क्रालेज चल सकत्ता है जिसे लिश्वविद्यालय के नयें नियम नहों डरा सकते | महाराज जयपर के चाहिए क्रि अपने कालिजा केा भो हेंडा के अधघोन करदें । जै ज़छुना मैया की ' आओ लड्डू! हाथ पेद ! जलिमज्कड । ती | ज्रजवचिलास | मनुप्य इंश्वरक्षी कल्पना मनष्यही के छूप में कर सकता है, ओर अपने अच्छे गा को अनन्तता तक्कत बढाकर इंश्वर को मरत्ति बनाता दें । यद्ि घेडा भी जगदोश्वर की कल्पना करंगा तो उसे घोडा ही मानेंगा, यदि दत्त इेश्वर क्री भावना कर सके ते। चच्ध उसे दत्त हो समम्पेगा । यही सिद्दान्त बे उदारभावसे हिन्दुओं को अवतार घलल्‍्पना में भरा हुआ है, ओर लेगेः की रुचि के अनुसार, विष्यापुराण ओर महाभारत के घ्रीक्षप्ण, भागवत्त और ब्रज- बिलास के श्री कृष्ण में परिणत हे! गए । अय्मयेजी पढे पक्षण्णभक्त “मद्रिक्यलेशन लीला” और “नक्तठाद लीलः” के ज्ञेपक्र ब्रजविलास में ज्ञाडंगे या नहीं यद्ध तो भधिष्यत के हाथ हैं, किन्त अपनी अ्रपनी रुचि के अनुसार भक्तों ने लोलाण बनाई हैं | हमारे सामने ले एस्तक हे बद शोकृप्याभक्ता ओर हिन्दी कविता के प्रेमियें! के ग्रादर को सामयो “ ब्रजवासी दासजी कृत बह्नजविलास ” का जेबी ससस्‍्करया है लिसे बम्जदे के निणेयप्तागर प्रेंस ने “अनेक पत्तको से प्रति शद्र कराकर ओर मुख्य मुख्य च्ेपका से अलक्षत ! ” किया है। लिल्‍द बहुत बढकिया है, छपाई बुत साफ है, आकार अच्छा हे, मलय बार्ड आने है| चेपके के प्रेमी पाठके के लिए च्षेपकत ख़ब रकक्‍्खें गए हें, क्िन्त भविष्पत्‌ सस्करणों में यद्धि प्रकाशक त्षेपक्कीं के घ्रसय छाप दिया करें, था भिन्न टाइप में दिया करे ते सारित्यप्रेमो ३४० सम्रालाचक | हि 2 20332023 3 53 जड़े प्रसव होगें | ऋटिन शच्दी पर टिप्पणी दो गई हैं । एप्ठ ३१ में ज्ञात कमे' को जाति कम! रकापऋर उसका अर्थ नानन्‍दी शआदु! लिखा गया है। क्या आजकल के बेश्ये। के त्विद्राह के एक दिन पहले गले मे रसससा डालने क्री चाल पर ब्जविरद ग्रोर सन्दलीला के पीछे ओर 'रक्मिणी चरित्र के पहिले 'यज्ञोंपवीत लीला, लिगी गई है? मद्ार८स भो ओर कुविज्ञाएचप्रवेश भी, और उसके पंछे जनेऊ! यह्द भी यहां पढा कि श्रीकृष्ण ग्रोर राधा क्नो सगाई! नन्‍द जो ने को थो ! यह संस्करण सनन्‍्दर ओर उपादेय हें । ऋश्वचिता क्री समालोच- ना यहां नहों । अं के झे करपछुची में हाथों से क्लात ऋगने की विधि, और शुघ्त॒लेस में अत्तरों के उलठ फेंर से अपना आभिप्राय द्रसरा न जान सके ऐसे हिन्दी लिखने को रोति है । दोने। पुस्सकें रोचक है । दसते में साइन्‍्स को भी बातें है । मलय प्रत्येक्त का रक्त आना । मिलनेका पता यन्यकऋार बात शिवप्रमाद झरन्र डोपाडे मेण्ट, रे आइ- आर- प्रयाग राज । श्र ऊँ कभी अ्मापिक व्याक्ररणशब्दावलो में अयेजी खालकबासे बद्धभ- कप के रचयिता परिडत ब्नक्तचल्लभ मिश्र ने अयेजी हिन्दी फोर उद्धे व्याकरण के समाताये शब्दों का संपद्द कप्ने का यज्न किया लें। अंग्रेजी व्याक्रया के शचक्ष्दां के जदा पूरे अनुवाद न मिल सके बचा , नश शब्द गे भी गए हैं। छिन्दी और उद्दे के! सब्स करनेवालों का यत्र यहां विफल देता है, क्योंकि किसी अयेजी शब्द का समानाये शब्द संस्कत में या अरबो में ही मिल सकता है । यक्ष बहुत अच्छा हैं। मुल्य चार आना कुछ अधिक है | छपाडें लच्यो प्रेघंत क्री है! " समालेचक ३४९ या ककभााकाा्भभाभाभभभस्‍ ५9 सा आह. लत. लत लल न. जल लव यन्यकार के पास, सामेद नरेश के प्ररदवेट से क्ेटरी, जयपुर के पते से मल सकती है । सह मर शः परसापच्छ प्रकाश-यव्यपिे कदे शत्ताष्दियाो से हम फारसो और अरबों भाषा पढठते रहे हैं ते। भो हमने उनके प्रचुर सारित्य से अपना उपक्तार न किया | जब द्ाराशिक्काह ने उपनियर्दों का अनुवाद कराया, ते करानशशेफ का संस्कृत में अनवाद क्या न छुआ ? हिन्दी साहित्य में भी फारसी का दिवान हाफिज नहीं है, हा, शाहनामा है । शेखसादो की “करोमा! फारसी प्रेमी मात्र के ग्रादर को वस्तु है, ग्रार उसको सरल किन्त्‌ भावमभय उपदेशा- वली सभो को मोक्तित करती है । दस य्रन्य में ब्रजमापा के दोहा चैापाइयो में करोमा का अच्छा अनुवाद हुआ हैं | * यदि यह्द अनुवाद खडी बोली कविता में दाता ते बहुत अच्छा चोता क्या कि ब्रजभाषा नोसिखुओ के हाथ में उच्छझूलता को पराकाप्डा के पहुँच जाती हें । “इक समर इक सिंपद घिलोना । इक सजीव इक जीवन हीना । इक निरोग दक्ष कृशत्तनु रोगो । स्थविर एक दक्क योत्रन भेगी । घर्मी एक्क एक्र रत पापा + फ्लाद शुभयुत्त कार छल व्यापा। इकऋ सुक्राजरत शुभमति घारो ।इक निमग्न अघ सरित मम्कारो” । बस, यही अनुवाद का नम्ना चें। तुकान्त के लिए शब्द मराठे तोड़े भी सह हें। अन्त में यन्यक्षार की सस्कव कविता जीवटुदेशाविशत, शेकविशति, आर सिद्दुनाथ प्रशस्लि हे। वे भी अच्छी हे । ज्खग जमा" कानगा-अ«मनपनन-गा/७०- ० ४०५०५०००- स्‍र्चिं3४»५५५>००- ० ..3-५३७--०-का-3-ऊ-क- मनन कमान पगाह ५ ०७००५००+० कद न+क ३००५५ ७०##3७७०७.+५७+५५++ मम +++++++५५+9०+++++-.++७+-३न-++---+++++-+-»9ल.>.4+३७8+8७)०५५३५++++9++++++ हक +++ मन े४१५ ५७५3७ +७+++++++५+७++आआभभष७-भ+++++++५3७.+७५भ+भ७आ «नमन «० ++++ मनन. + खाल परमानन्द, ससिप्टेन्ट चेडमास्टर, टाउनस्कल आरा ॥ खब्छिदावन्द- पछह एेघे बखारा + ९६ पृष्ठ | चार पहआने | ३७२ समालाचक । अदा पका -पहनार "लाना "पाता भा वादा भाव कथा ता न "आरा प्ररभ "घट पका ता 2 ५२ का वफादार धारा लानत कद किभक स्‍ो सन दक भावी तुलनापदवीं न कशञ्चन (|) त्तव झत्थे। छवि यातसीमश्वर:ः करुणारहिते विधे 'मवान चिघिना केवल साठतः पुरा | शः ऋ अं: मोजफ्फरपुर छिन्दो भाषा प्रचारिणी सभा का प्बलुर्थ याषिक सचिच॒रण (१८०४ डें०) | सभा के ६ अधिवेशने में लेख परे गए । प॒स्तक्रालय में ४८४ यन्य दे जिसके लिए मुकुट्धाण्णात्सव पर कुछ धन कलकर साहब ने भी दिलवाया है। सभा ने यनिवर्सोटो कमोशन के काल में कलकऋत्ते की सिशिडकेट में विहारियों के होने के घारे में मेंमेरियल दिया, ओर मेकमिलनी पुस्तक की दिन्दोी पर लिखा पढठी की । सभासद ४६, आय च्डसाल) व्यय सरर)॥। मन्ची नारायण पाये बी० ए० बीएल० हैं लो क्चहरोी काश बना रहे हैं । सभा के अपने नयर में एक्त अच्छा पुस्तक्तालय बनाना चाहिए, ओर काम तो देते हो रहेगे । ्ः के हन्दी व्याकरण | क्रेशबरामभद्द कृत । विहरबन्ध छापः- खाना, बाकोपुर ।|१९२ एप्ठ ॥। आठ आना | “पहन्दी व्याकश्ण पठने से छिन्दी ठोक ठोक बालना और लिखना आजाता है” इस परिभाषा से हिन्दो के पुराने लेखऋ भट्टनी ने आपने अच्छे व्याकरण का आरम्भ क्रिया है । एक्र परिद्यास प्रिय मित्रने, दसे देख कर, चिनन्‍्दी व्याकरण की यद परिभाषा बनाई कि भहन्दी व्याकरण धड मृगतृप्णा ते लिप्के पीछे 'डिन्दी ठोक ठोऋ लिखना और वबेलना जान! कर ही अच्छे लेखक देाडने लगते हैं” सस्ऊत व्याकरया के जटिल और सुशहूल नियमे को चालपर द्चिन्दी व्याकरण बनाने के पर्चे कई बातो का विचार कप्ना चाहिए । सत्कत का सब से प्राचीन और नियमित व्याऋरण ( लिये व्याकरण का आदर् भी कद सकते हैँ) पाणिति का व्याकरण दे । उस प्रापः समालाचक | ३४४३ ब-ननननभनगनग२रफ-2-2र202गगगागननगनगनगनगन#गएौ---क्‍-+-०%० ०० -०९९०लुल2ु३ु2ु8लुल2ल2ु4ंल408090औ / /ह“+“# परे व्याकरण में यदि समय भेद से प्रयोग भेद के कारण कुछ परिघतेन हुए ते वे कात्यायन और पतस्जलि ने जठा दिए, ओर वबेदे। के विरुद्ध इसे शास्त्र में यह घाकध चला कि “यथोत्तरं मुनीना प्रामाग्य”। इस तिहशे जक्रडन से संस्कृत भाषा का अड् भट्ट हो गया ओर पत्त- उ्जलि के पीछे के घेधाकरणों का इतिदास उन्नति का नहों, अचनति का चें। कई वेयाकरणा का यक्न पाणिनि के सक्तेंप सत्र को ओर भो संत्षिप्त करने में रहा, आधुनिक्र समय में न्याय को गोद लेकर नवीन बेयाकरणों ने बाल को खाल खेचना आश्म्म का, और यदि कार्ड चए रूपो के लिए नए स॒त्न बने ते। केबल एक यही क्रि “निर- हुशा; ऋवय:?” । भाषा को लहलहातो बेल के ध॒प पओऔ।र बरसात्त से घचाने के लिए जिस ग्लासकेस में बन्द किया था, उसने भाषा को सास घाट दी, वा ये। कहिए क्रि बढिया सस्क्कत भाषा व्याकरण क्रो लाठटो के इतनों अधीन हो गदे कि स्वच्छन्दला से चल फिर न सको + भट्टजी ठोक कचतें है क्रि यदि “ पघस्क्त भी आज प्रचलित भाषा होती ते। परायिनोय व्याकरण भी क्रभो ऐसा पत्यर की लकोर न होता” (भूमिका, ९) ओर प्रचलित हिन्दोभाषा में कोड घ्याफरण घेसा चोने का दाया नहीं कर सऋता | व्याऋरतणा को जल पर भाषा छठती हें सही, किन्तु यदि उन जड़े के गिनकर, नाप नैौलकर, जाचकर ब्ठने सें रोका जाय ओर अन्धकार में से निकाल कर सबत्ी उंगलियों के नोचे रक्सा जाय, तो लें न बढेगो श्रार घेल के बठने को भो थआआशा नहों करनो चाहिए | भाषा वच्ी जो बिना सीखे आने, जो व्याफरण क्रो अपना दास न बनाकर उसको छासी घन गई, ज़िससे ठाोऋएं से न गिर यह विचार ऋर ली हुई लकड़ी का अपनी अनण्थ आधारभता वेघायी बनाली, उसप्ते भाषा नहीं कहा जा सकता । लैटिन, प्रोक्त प्रह्ति भाषाएं अपने अन्‍्तल- ३४४ सम्रालाचऊ ! अमन _ बम ककक कक कक कनकनक नककन कक कक काका १ का १५9 ममम्म््य्य््य््य्क््ल्ज्ज--++ हिधा८ातर 2 कीच दाकाममपाइ॒अपकज काफी उटननननननननननननन नमन नमन वि ्शण कम मम] काल में व्याकरण के परवश बनों है, और इसके घविरुद्ठ अंग्रेजी, फ्रेंच प्रति भाषाएं व्याकरण की अपने साथ नचातो है। परिवर्तन संपतार का नियम है, गश्लेर हिन्दी भाषा अभी जितनी छोटो है उसके देखते जिन डेठ दर्नेन देशी और विदेशी वैयधाकरण सज्जनो के नाम भट्टजी ने अपने व्याकरण को भ्रमिका में दिए हैं, उनका होना कम नहीं मालूम देता ।, कहीं इस से बची बात न दे। कि जैसे नायिका भेंट के लक्षण यन्‍्य हिन्दी में बोसियों दाोसे पर भी कार्ड लक्ष्ययन्य महाक्राव्य सहों जिसमें उनका समन्वय हो सके, बसे ही व्याकरण के नियमशाःस्त्र तो रहें, किन्तु लक्ष्य के न होने से हमें भी “लक्तणे- ऊफचतुप्क” बनकर काना बनना पड़े। और हु आ भो कुछ कुछ ऐेसा ही है । भट्टजी लिखते हैं-“क्या करें, दिल्‍ली के प्रमाणिक क्रवि प्राय, सभो मुसलमान हैं| हिन्द कवियों का ते प्राधः खडो चोली भाती हो नहीं । दिल्‍ली क्का हिन्द भला गद्य लेखकरी प्रसिद्ठ ओर प्रामाणिक्त ले! कोई द्वोता तो उच्ती के लेख से दुष्ठान्त्र उद्गुत किए दोले अत एवं ्माके पात्र है (भ्रमिक्रा 9//अतणब भट्जों इस आधे नाणेश्वर साहित्य का ध्याऋरण बनातो बेर जा जे काल बदलता जाता है तो तो मापा भी बी उमग के साथ रोज़ रोज अपना संग बदलतो जातो है और अन्धाधुन्ध ( संज्ञा या क्रिया विशेषण ?) फैलती जाती हे” इस भाषा के जीधित होते के लक्षण के। आपद्‌! न माने ! लब थ्च्चा बठने लगे तब उसच्यो ठागें न बांधनी चाहिए, या बढठते पेरो का लोहे के ज़ूर्ते में बन्द फरके चीनी युवती की मयडूकग्यतिका श्रनक्रण न ऋस्ना चाहिए | आम, गक धात ग्रार भी है। जब कात्यायन ने सस्क्ल के शब्दाये सम्बन्ध का भी सिद्द और लेकगम्य माना है, तो हिन्दी ऋण फ जैक 2 न्‍्+ समालाचक । ३४७ व्याकरणके प्रचार के लिए (०७४६७/४४) 8०००४०॥) वाचह्य रक्षा भी नहों है। हिन्दी वाली के “निष्काश्ण घेदेाकोी रक्ता नहों करनी हे, उन्हें गआहितारिन हाऋश्ग्रपशब्द बालते हो प्रायश्चिच्त करने नहों दोडना पडता, ओर न उन्हें मद घमको है कि यदि प्रणाम के उत्तर में वें प्रत न बोलगे ता उन्हे स्त्ियाक्रो तरह प्रणाम क्रिया जायगा । उन्हें प्रयोग के लिए आप्तवाक्ध, ध्यवहार, सालिध्य आदि से शक्ति- यर हो सकता हें, ग्रार व्याकरण के वे उसका सहायक्र हो मानेंगे न॑ फि एक माज अधिकारों । हा, विदेशियों के व्याकरण जानने की बडी फिक्न रहती है। “ और और देंशाके लिए ले हो सो हे पर घिद्दारियाों के लिए ते बिना हछिन्दो पे ऋलयाण हो नहों । घंयाकि इनकी मातृभाषा कहीं मगहिया कहां भेजपुरिया कहों तिहुतिया है, और यह हिन्दो उन्हें सोखकऋर अपनो अपने मांतृ- भाषाओं से उलया कप्के बेलना पडता दें (भमिका,२) ? | आराकोी सभा शायद दस बात के न माने । भट्ठजी ने बहुत ठीक हिन्दो उद्धेक्रा एक्त भाषा माना हें, किन्तु मेलवी शिव्षलो नोमानो फरमातें हें व्लि मालबी फतक्ष महम्मद ने जे। उद्े व्याकरण लिखा हैं उसमें उद्धेका व्याकरण आरबो के सांचे में ठाला गया है । ज्था यच् घात सच है कि केंघल दसो लिए कि उत्तर भारत के मंसलमार उठे का बोलते है, उस (उद्वें) आये घराने को कुलबाला को सिमियातिक्रो घुक्का ओर पत्ञामा पिन्हाया जाता है? नागरी प्रचारिणी सभा के सैजबी साहब के इस कामसे रोकना चाहिए । भट जी व्याकश्ण के साथ “ भाषा के इत्तिदास का लिखना भी अवश्य” नहीं समभते, ग्रेर उनके मतर्भ छन्‍्द के व्याकरण से ऐपा कुछ लयाव-भो नहीं है ” (ए ६ भ्लू-) क्वाकि उनने पाणिनि ३४६ समालोचका । २-मम्पयअएन्याकरफपाल् “कामना न, बरपफाएञ "मी जे. "किए ेडकिककीड का ढरा यथा सम्भव अव॑लम्बन, किया है। किन्ते एक्त बात यह भा हैं कि हिन्दी भापा का इतिदास लिखना आसान काम नहीं है, उप्चके कई भाग अभी ऐश तसहासिकऋ खोजकी प्रतीत्षामें अन्धऋर फे काने उद्वर में छिपे हुए है । यद्दवि छिन्‍दी छनन्‍दकंोी भट्टणी लिखते भी ते। उसमें क्या क्या लिखते | सस्क्रत और प्राउतका प्रा छन्दः शास्त्र, फारसो ओर अरबी के परे घजन, ग्रोश अगरेजी के साधाप्ण छन्दीके गिनकर भो पियड़ नहीं छूठता, क्योकि खडी बेली के नए छन्‍्द बेंगला ओर मराठो छन्‍्द, शास्त्रतक के नहीं झे।डलें। पाशिनि ने ४०००५००४०ण नहीं लिखा, यद्द भी अंग्रेजी ध्याक्रणा की चाल है । भट्ट जो में उसे लिखा हे ( प८७-९८२ ) । उच्चारण के भेद पाणिनि ने शिक्षा # में लिखेंहे, किन्त भट्व तो ने इस व्याऋरण में लिखे हैं। ( पृष्ठ ४८ ) शब्दाका निरुक्त, उनका पभ्िज्र मित्च भाषाओं से आना, प्रभुति पाणिनोय में नद्दों हैं ता भी भट्ट जी के व्याकरण के २९-३० एप्टों में निरुक्त का आनन्द आता हैं । पद परिचय के माने 7»७मग४ पाजिंग ओर अन्यय बा अरे ४०४५७ ) अनालिसिस (९७० १६४) पाशिनोय में नहों जान पड॒ते। से। भट्टजी के व्याकरण में शिक्षा है, व्याकरण है, निरक्त सै, पाजिड है, अनेलिसिस है । तो फिय, छन्‍्द अऔ्रेर इतिहास के लिए पाणिनि जी दुच्दाद देना ठोक नहों । यन्य में सात गध्याय हैं | पचले में चरण विचार हें । छठे में घाक्य लबिचार ओर सातवें में चिन्द बिचार दोने से बाव्सी में शब्द बिचार है। दूसरे अध्याय में सस्कत, फारसी और अश्बी घातओ का, उनसे बने शब्दा की पहिचान करा, प्रच्छा उल्लेख हे । ठेठ डिन्दो के [ सत्सम ओर तद्गव |] घातु भी खब छठे हैं। तीसरे अध्याय में सज्ञाके सम्बन्ध में लिड, घचन, कारक, विभक्ति का विचार है | चाचे रू य्रयासाराष्ट्रिका नारो तसक्तर दृत्याभिभाषते । धृत्यांदि । समालोचिक । ३४5 ते शक्कर ७॥/७७७७७०७७७७॥७७एएशऑ/ंश॑#७शर्णा॥ण्ण आना ७४०७ थाम" आरा न बा बल आम न बा अल न में घातु, क्रिया, उनके रूप और वबाच्य का विचार है। पाचर्वे में व्योत्पसित्न और अव्योत्पत्तिक (सी। व्यत्यन्न आर आत्यत्पत्न क्ये नहों ? ) अव्यय, छत, तंट्टवित आदि का विचार हे | छठे में महावरे का भी दिगुदशेन कराया गया हें। क्या फ़म में, क्या विपयमे, क्या उदाहरण! को घुनावट में, यन्‍्य बहुत अच्छा बना है, ओर आज- तक के हिन्दी व्याकरण के दंक्षद्रे पठने पकाने योग्य हे । अपार भय जद न एन उ्करि पिप पिन पम पादप रबर € एृष्ठ से 'अत्तरों के हेरफेर! के नामसे सस्कत को सन्धिया, पत्व, णत्वक्ते नियम दिए गए हैं। हिन्दोंमे कोई सन्धि नहीं करता । सस्कत से जुडे जुदाये पद ले लिये जाते हैं। हिन्दो वाले घिव्रकुसा से विवत्ता नहों बनाते । अत एच हिन्दी में सस्कत को सन्धिया 7%४०॥०४० परिवत्त न माननोी च हिए, और सद्द शब्द ले लेने चाहिए । “और और भाषाओं से आयें हुए और विशेषतः देशन शब्द को व्यत्पत्ति “** विषय कोष का हैं, व्याकरण का नहों” (ए १७) नहीं यह्द व्याकरण का ही विएय हैं। यदि केापका अथे आधंनिक [)09०४ए७-४ हो थें। व्याकरण उसके पेट में आ जाता है । एप्ठ २७ बजन घणह्दुत आच्छे हें, किन्त थोदे दे । भटठजीने एक शुन्य प्रत्यय (४० ३४) ओर बुभक्कुइ गवदया प्रशति में अक्खडप ओर घदयाप्‌ प्रत्यय (ए- ७६ ) बनाए हें । यह बिलत्नणता विना प्रयोजन माल॑म दोती दे। सस्कृत व्याकरण को तरह मैपत्व' का क्या फल माना गया? विभक्तिया पाच मानो गई हैं-- कत्ता, का, से, का, में । उनके प्रथोगे का खणेन परा हैं। वाध्य, धात, और अव्ययो में कहें नई बाते हैं । एनेलिसिज शऔर पाक्तिह बालक के घड़े उपयोगी दोगें, क्वाकि उनसे घाक्ये को गठन चलल्‍दोी समभ्में आती होे। रोज़मरा और वाग्धाराके अध्याय कुछ बढ़ें हा।ने चाहिए थे । 3ध्ृ८ समालाचकऋ | दन्‍्हों पर जीवित भाषा का व्याकरण निर्भर है | “मुहावरा माने मनुष्य के शररेर में कादे सुन्दर अडू हें और रोज मो का ऐेंसा जानना चाहिए जैसे आज का तारतम्प मनृष्यके शेर पे” ( ए- १८४) भाष्यक्रास्ने लिखा हें कि लेसे घडेक्ो जरूरत पडने पर कुम्हार के यहां जाना होता हे, घबेसे वेयाक्रण क्रो यह केाद नहों करता कि हमें शब्द घना दोजिए हमें उनका प्रयोग झरना हैं। साधारण व्यवहार का माग दिखाने हो भर के लिये व्याक्रण की आवश्यकता है, ग्रोर हिन्दी को वर्तमान दशा में मट्ज़ी का व्याकरण प्रायः दस काम के लिए येग्य हे । मत भेंद तो सदा हो रहते हैं । भट्ट जी इसका मुल्य ॥) बतलाले हैं, किन्तु थे कहतें हैं कि पाठ्रपुस्तक होने पर दसका मल्य कम भो हो। सकता हैं। हम दस पुस्तक का महूल चाहते हैं । - श्र कं रच, पु नरल्स्च्् ८5 45% 42 " ह्छ्ः विज्ञापन । प० महावीस्प्रस्ताद द्विवेद्ी को कान नहों जानता? बच पनन्‍्दी के बड़े भागते कि हैं। उनकी कविता में जे शब्द का अल- डरार का, भाव का निभाव होता है घंह प्रोार जगह मिलना मश्किल है उनके कोई ३० क्राव्ये का मयह हमने 'क्राव्यमज्जपा नाम से छप्ाया हैं । टाइप, कागज, सन्च कुछ बहुत बठिया हैं । कविता के प्रेमियों का ऐवा मौका बहुत बिग्ला मिलता हैं नत्र वे उआच्छे कवि की अच्छी ऋविता का अच्छा सयह पा सके | अब उन का मेक्ता है उन्हे अपनो २ रुचि के अनसार बहुत बढ़िया क्िता मिल सकती हैं। उन्हें चक्रना नहीं चाहिए और टपट ॥) भेजकर एक प्रति खरोद लेनो चाहिए । पुस्तक मिलने का पत्ता- मेससे जैन वैद्य एण्ड का | जयपुर | जयपुर ण्जेन्सी । यदि आपके जयपुर को म्रसिद्गु दस्तक्रारी क्तो चीजे मगानों है। मे! उचित है कि औ्लोर जगह व्यथे ग्रधिक्र व्यय न करके हमारे यहा से अच्छी चीजें मगवालें। दाम उचित लगेगा, चीज सो मिलेंगी कि लिस से जयपुर की कारोगरी का नम्तना जाना नाय । सागानेते छीटे, पत्यर मकराने और पीतल को मृत्तिया शोर बर्तन, लकड़ी का काम्र, सोने को मीनाकासोी प्रभ्नति सब चीजे उचित मल्य पर भेजी ज्ञा सकतीं है। यदि आप यहा से मगवायेंगे ता हम घिश्वास दिला सकते है कि आप धोखा न खायेंगे ओर सदा क्रे लिए 7 विज्ञापन । गाउक सो जायेंगे । जयपर के सन्दर दृश्या के सन्‍दर चित्र अलम्य जार सेतिदासिक चित्र ग्रोर फोटेरग, हाथ को बनादे बलिया ससचोरें आपकी आज्ञानसार भेजी जा सकंतों हे । रक्त बार मगाइण तो! हमारे यहा के चित्र प्राय, इड्टडूलेंग्ड भों लाया करते हैं आर सुप्रासद्ु साचित्र पत्नां ने उनको अच्छी ऋदर को हें ॥ सेसस जन बेद्य एण्ड का, जाहरी बाजार जयपुर । ससालेंचद में विज्ञापन की दर । पहली बार प्रति पड्टिः _) छः बार के लिए ) छापे विज्ञापन की बटाईं ४» वर्ष भर के लिए एक्र पेज २०) आधा पेज १२) पेज ८) चीायाद पेज्ञ से कम का विज्ञापन सहों लिया ज्ञायगा । वकमण-+-पननमन नबी.) मपलि--ा०+-.”.००>२०-का बा बसाली पान का सखसाला :!! कंण्या, चना, सपारो, इलायची केादई चोज़ को जरूरत नहीं पान पर जलरासा मसाला डालकर खाने से सब चोज्ले का स्वाद आता हे मच्द लाल सुख चोता हें दाम ।) दर्जन का सा) थाक लेने से ओर भो ऋक्रप्मायत सेकऋडा अजोब चोजे से भराहुवा हमारा बडा सचोपत्र लछूर देखना-वेदाम भेजा जाता हें ॥ प्तू--जमजसम्ताहे न इनम्छिया एजनन्‍्सी कालवचा देवी रो वम्वहे साटिस यहा चर में मादा अफोम नीलाम का पटने का पेंटी तेजी मन्दी ग्रख्ण दडे का ज्ेता है । अगर फिसो वे कराना दो ले! हम के लिग्ब प्याकदत लेकर फायदे से ऋरदेगे ! तार चिट्ठी सेजने का पता-नेजपाल लछाहिया, सु० चुरुज़िला वीकानर शी समाठोचक्‌-बछम८-. भागर] *“त्मासिक पुस्तक> [ संख्या २३,२४० वार्पिक मूल्य १) ) जून, ज्जुलाईं १९०४ [ यह संख्या ।£) 90८० ७०- ५ 7४: ०-७ ० #७प-जको: 9२०७-०७ प- उप: सम हे बिपषय पृष्ठ पद '. ( ओरापाकृण दांस ) -«» ३४९ अन्न, तत्र, सबन्न, *- * ५१ व्यगार्थ कीमुदी ( मन्शी देवीप्रसाद सन्सिफ ) ३८५० सवासी वप पहिले अन्का भाव, ( भ्रीराधाकृष्ण दास ) “*- ३५८ हमारी आलमारी,(पं० गगाप्रसाद अग्निहोत्री) ३६० व्यय ( पण्ठित व्यामविहारी मिश्र एम० ए० _ और पण्डित शुकदे व विहारी पिश्र बी०ऐ०). ९-७८ पग्रीप्राइटर # प्रकाशक । समिए्टर जैन बेच, जोहरी बाजार, जयपुर । निशिमिवीननिमिलतीि कल मास मराभाराया्रऋानाभकप्महमगइभइम्णााहभयगंहममिकुकगवगइग्गइम यह का ग्गहन्पहम्गकमहमपकमइम्पकगक प्‌ <8....69-59-53-99-50-53-590-५२-७२-५जे-फदे-50->पे:-फवरे-5 के कयेफरे-क टेप दे-क दे के एशाबा5ह0 & 7प्द छा0089%8॥ ?६558 88#5865 >> समाऊोचक €< लशप/्यच्ि््््ााडिििॉिलिोोििडििििोडिड नल ल>2>+>>>>२२००२०२०० २ भाग । जून, जुलाई | २३, २४ संख्या पद । यह सुनिए विनय दया करि गिरिवरधारी | हम आइ शरण अब हल करि गद्यो तिहारी | मोहि बहुत दिवस जगर्मे भटकत ही घीते । बिन बात घजावत गाल सदा ही रीते ॥ पे छक्मो न कोऊ अपुने संचे मीते । दुख मोगत घीते सब दिन जितेक जीते ॥ भटकत भटक त सुनि नाथ विरह तुव भारी । हम आइ हारण अब हढ कारें गह्यो तिहारी ॥ पितु मातु बंघु दारा खुत संपत्त सेते। दुख सख प्रवाह अनेक सदाही खेते ॥ सबहीन टटोले रहे आंपुने जेते । तब अंत आइ हम अबहि कछुक यह चेते । तुम बिना ओर सवही हैं मिथ्याचारी ॥ हम आइ दारण अब इहइढ करे गद्यो तिहारी ॥ कि २५० समाठकोचक । अपनी अपनी विसि सघषही खेंचि बुलावें । सबही निज निज करतूृतन हमें छुभावें ॥ सुख सम्पाति में सब संगे बनें वलि जावे। डुख परै सै सुख मोरि तुरत बिलगावें ॥ तब तुमही एक विखालत नाथ दझुखहारी । हम आइ शरण अब हठ कररेि गछल्यो तिहारी ॥ सब्‌ मोहित स है तमकी रहे भुल्काई । तुव साया की सिरपर घटा रही है छा ॥ विनु रूपा तुछारे कछ नरहिं परत खाई । साया मद छके रहे सबे बोराइई ४ अब राखि लेह है नाथ ! विन्न सब टारी । हम आह शरण अब इहठ करें गद्यो तिहारी | १ ओई सु न मै ्ध कारे कृपा प्रेमरस अपुनो हमें छकाओ। मोहि देश अभ्यपद अपुनो करि अपुनाओ ॥ बहु भटक चुके अब हमें न प्रभु भठकाओं । जन जानि आपुनो अब पिय हृदय छगाओ ॥ तब राधाक्ृष्णलदास जाई बलिहारी । 8 आज. हम आइ शरण अब हढ़ करि गद्यो तिहारी ॥ सरीराधाकृष्णदह्यस । भेह भ्थ्ः रे रमॉः अन्न, तत्र, सवत्र । जब ऋषि मरने छगे, तब मनुप्यों ने वेंताओं से पूछा “हपारा ऋषि कोन होगा १?” ढेवताओं ने उनको तक ऋषि दिया। निरुक्त १९११२ सहयोतगे साहित्य-पहुमहिछा के तीत्र तथा सत्प छेखों पर जिन हिन्दी के पन्नों ने हरछा मचाया है उनकी योग्यता का अच्छा परिचय मिछ गया है। मनुष्यों के कार्मों के हिसाव में स्वाथ का इतना हिस्सा होता है कि पही मनृष्य जो समाछोचना का अगआ घनता या, और सर्मांछोचना की चर्चा से आकाश पताछ के पक करता था, घही, केवछ इस छिये कि छेसे घह ओरों को पृष्ठ अपशब्द कहता था, पैसे कोई दुसरा भी उसे कुछ सब्यी पात 'छुना सकता है, फहता है कि समाछोचना की अब हिन्दीमें जरूरत ही नही । औरों की अवस्था पर कहने धार स्वय अपना मई तो दर्षण में बेरें किये स्वयं॑ भी जरदूगव नहीं है। जिन के हाथ _ कीच में सने हुए हैं उन्हीं ने अपने द्वाथों को शुद्ध घताने का दावा किया है, भीषेफक्वटेशवरसमाचार के से निष्पक्षपात दर्शक ने अपना मत स्पष्ट ओर सत्य प्रकाश किया है। किन्त उन हठी और सत्यभीरु लेखकोंको इस क्या कहें, जिन ने कदय कुत्सित और जघन्य आक्रमणों से, बढ़महिलाके पृज्य स्त्रीत्व पर गहित आकर मण किए हैं ओर दाढ़ीमें तिनके की कहावत्‌ को चरितार्थ क्रिय ३५२ समालोवक ॥ अप मूह नाक मगर ५५ मम पक यह »-मम पाइुाआ# "पा... ..न-म..#आममीा आना. ममता या. अकमया बता ..नर मय .2० मम ुताभ०्य ००3... मी दाना नमक. कम «आर वनाारनी "पाकर क ५ हरा पायदान गया मनी ० --#ह मम कराए पका «मम जय... अन्‍्मम; अमयका सण. अगनएक ऑन उनमीजिआ-ौमीय- है | कहां हैं वे पुराने छोग जो कहते हैं कि स्ज्रियोंका हमारे यहां आंदर हे!वे इन मर्यादारक्षक सम्पादकों की (४7४०७ देखकर प्रसन्‍न हों । इस दःखदायक ओर उद्धवेगननक लेखप्रणाऊी से बड़ा खेंदतो यह है कि अपने हृदय को खोज कर,अनतापपुर्दक अपने अप- राध स्वीकार करनलेके स्थानमें ते गालियों के मुह आए है किन्त समाऊछोचक जब सत्य कद रहा है, तो चह कभी इन गालियों से:श्रनेवाला नही है। चढ़मभापा में चोरी की और अइछील पस्तके हैं, तो किस तक से थे हिन्दी में भी होनी चाहिए १ एक पीणे मशेद हमारा हाथ चूमने चछे थे कि किसीने उनकी आंख फोड्दी । ऐसे मौके पर एक ग्रामीण उपाय है कि थे अढ़ाई कदम उल्टे पेरो चर और ञअपनी सपिति से मिले । हमें अपना मरीज्ञ कहने को कई आगे बढ़ते हैं, किन्‍त समाकोचक की तपस्या यों नही च्यूत होती। सरस्वती अपनो[रोचकता रखती है किन्त धर्म के विषय में वेषेदंके छोटेफी शोभा पातों है। जब सरस्वती में माइकेक मधसुदनदक्त का जीवनचरित निकका था तब एक महा- शयने कहा था कि सरस्वती कृस्तान बनने का उपदेश करती है। ठीक ऐसीवी उदारता ऑर दुरदर्शिता पयाग समाज्नार “द्वत्त ' के इतिशासकी आहऊछोचना में दिखा रहाहै । हितवारता के चित्र केवल धयाही के एज होते हैं ओर उसकी भाषा नहीं सघरती। वबढ़ु- बसी अभीतक नही सधघरा । भारतमित्र छोकमिय होरहा है। देशयोपफारक और पिन्ने अच्छी उन्नत्ति की है राजप्त जी का लोश ठण्ढा होगया है मोहिनो नामकी भूखी है। सदर्शन के उठने की आश्ञानहदी , आनन्द कादम्पिनी ने च्ष परा किया, किन्‍्त पीने दो वष में हैं। फाशी संस्कृत यूनिवर्सिटी का काम उदारता से समाछोचक । ३५३ जममय शक. धाम्युश..समयाइमाआ॥» अवमा॥. "पाया. साकाममक. परम पाातनया!. खााजीक. सिवा. पादा-आक- "धाम. धाम. पायाकनआ. सशााओ.. स्‍आ नया. जाय पीमममाा- पॉकममा गोरा. मतयाड" “नाम पान निकााओी, गरियोकाला-नीकनाही सि-पाए- आरिााने वरयूदा माया प्दकमणया नवायाम्मके।. गराओ. ध्॑ाथ. *पममाकी. पममाको.. सावन. नरम चलना चाहिए। इन्दोर और पतञ्ञांव मे नागरीप्रचार के छिए छपदे- शक जानेके पहले, “कः काल: का नि मित्राणि, ' सोच लेना चाहिए। हम-पत्रकों समय पर न निकारू सकनेकी लछज्जाको हम अबके मिटाने का उद्योग करेंगे । केवछ समाकोचना साहित्य का पेट नही भरती इससे ओर और सर्वीत्तम छेखों को भी स्थान दिया जाता है। उच्च साहित्य की कमी से चाहे वहां समाछोचना का अवकाश न हो, किन्त उपन्यास ?४7०»४/०७७ के उच्चाटन की बढ़ी आवश्यकतों है।इस वर्ष इन लेखोंके छिए छेखकों को इस प्रकार उपहार दिए गए। से हृएम्‌ एक सोनेकी अंगूठी । खेल भी शिक्षा है एक वनारसी रेशमी थान । व्यय सेखकी १०० पति । लाखा फूलाणोी लेखकी २० प्रति । _ हि छेखकी रे प्रति । दिन्दो के ग्रन्थकार एक सांगानेरी साड़ी । भारत व्षेके इतिहास, की ँ पका छेखकी ७८प्रति। समाकोचक के ग्राहकों की सख्या कम हैं, वहुतही कम्है। उनके भरोसे और पनुष्य पत्र निकालने का साहस नही करता | पौने से अधिक ग्राहक जहां वी पी कोटावे वहां क्या आशा हो सक्ती है!तथापि माद भाषाकी सेवा के आग्रह से और विद्वानों के परितोषके छिए सम्पादक और प्रकाशक समालकोचक को यथावत्र घलानेमें उद्यत होते हैं। जगदी श्वर से प्रार्थना है कि आगामिवर्ष भी अपने गरु कतव्यके योग्य शक्ति सम्पादकों को मिले और जान्सन सांइवके 9५५ समाझो चक । पवित्र आसन के भूपषित नहीं दो दूषित करने का मौका तो न मिले। अन्त में सहयोगियों और सुयोग्य छेखकों से निवेदन है कि वे इस नौका के! पक्षघार छोंदकर प्रकाशक को दु-खित न करे । गतचर्ष कर्तव्य के आवेगर्मे, सत्य के पक्षमें, वा मनुष्यके स्थामाविक रागद्वेपसे, यदि किसी को ज्ञाव वा अज्ञात कुछ अनुचित कहा गया हो, तो दे मनुष्य जानकर क्षमा करें ओर आगामी वर्ष के लिए समाछोचक को आशीर्वाद वेवे' | संगच्छघ्वे संवदष्व से वो मनांसिनजायताम । देवा भाग॑ यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥ समानो मन्त्र; समिति; समानी समान मनः सह चित्त सेबास्‌। समाने मन्त्रममि मन्त्रये व। समाने न बोहविषा ज़होमि ॥ समानी व अकूृतिः समाना हृदयानि व१। समानसस्तु वो सनो यथा व सुसहासति | 3 ्वांति: धांतिः शांति: | व्यंगार्थ कौम॒दी धामहाराजा सवाई प्रतापसिंह छत नहीं हे वननीीतीीन्‍६€न्‍ई-न.नन_--स्श्ीऑिपकलणीकैनी : स्‍ क्‍इकद-'ई व्यंगाथें फोमुदी को बहुधा कावि कोवचिद जयपुर फे महा- राजा सवाई श्रतापर्सिह जी की बनाई मानते दें मोर शाजकोट फाठियावाड़ की छपी इुई प्रति के टाइटिल पज में भी यही लिखा डे, वबरन प्रस्तावना में महाराजा का बादशादी खिताब राजराजेन्द्र भी नामके साथ घढ़ाया दे जिससे पढ़ने घालों फो उक्त महाराजा फे कवा होने में संदेह नहीं रहता, परन्तु दतिद्दास घेत्ता ओर घ लोग के जिनको मद्दाराजा के रचे इृए प्रन्थों फे देखने का सोभाग्य प्राप्त इसा है इस प्रन्थ को राजराजेन्द्र महाराजा #ी सघाई प्रता- पासिह जयपूरनरेश का बनाया नहीं रुवीकार कर ज्लफते, चादे फीई कितनाही चाद विवाद टाइटिल, प्रस्तावना, और समाप्ति में उनका नाम लिखा हा देखफर, फ्योंन फरे। दां बादी यद घोका कर सकता है कि टाइटिल, प्रस्तावना ओर समाप्ति को जाने दीजिये जो बहुधा दूसरे पुरुषों फे लिएे होते हे पर सूल प्रन्थसें तो जगह जगह कती का नाम “ प्रताप ' सिछता हैं फिर कैसे यह मद्दाराजा प्रतापासिंह की यनाई नहीं दे ? हस शोफा का समाधान पुस्तक फो विचार पूर्वक देखने पर नीचे लिखे प्रमाणों से दो रूकता दे । स्प्द्‌ समाऊको चक । मय पम्प > >कमकाकपकपपायफकमपपफफपक लक मकान जकम्का पहपाग्फ कप कमइ०पाम्कमभकगनहमकम“उमपामपान्‍या पाक + “कया त कं गकपहम्यामकाा धन्य भ्यार पक भए+ पका प्पाभ यालूधआ भा न्यान काम यहण कम कक कक >फ थक कण कु १ प्रथम तो व्यद्धा्थ कोमृदी कतो ने भपना नाम “* अताप छुकाये ”” मड़का चरण में लिखा हे जेले-- ॥ छोड़ा ।॥! करि काविजनसो घीनती, सुकवि प्रताप सहेत | किय व्यंगारथ कोसुदी, व्यग जानवे हेत ॥ इस दोहे से इस प्रन्थ करा कर्ता कवि प्रवाप फोर साधारण पुरष पाया जाता है महाराजा प्रतापर्सिदजी पधतीत नहीं होते जो फरवियों का चिनतो फरने की जगद्द आश्वा कर सकते थे। ₹ भ्रन्थकी समाप्ति सेंघत १८८२ में हुई है जो इस मसान्तिम दोड़े में कही गद हे। सेवत सांसि वस्तु वसु सु छे, गिनि भषाड़ को सास। किय विंगारथ कोसुदी, सुकवि प्रताप प्रकास ॥ आर महाराजा प्तापासिहजी संबत १८६० में घाम भाप हो गये थे फिर २२ वर्ष पालछिे इस प्रन्थ की बनाने को कहां से आये जबाऊफे उनके पोते मद्दाराजा श्री सघाई जयासिहजी तीसरे, जयपुर में राज़ कर रहे थें। छापने चाले को राजपुताने का इतिद्दास मालकूस नहीं था जिससे पेसी भूल दाइंटिल मोर पस्ताववा में हो गई है| (३ ) राजराजन्द्र सद्दाराजाधिराज़ री सचाई प्रतापर्सिहजाी काचि झवच्ुय थे परन्तु कविता सें सपना नाम नहों घरते थे हमने जितने प्रस्थ, फुदकर कविता, राग, रामिनियाँ सथा रेखते, उनके बनाये देखे हैं किसी में भी अ्ताप वा सुकचि प्रताप नहीं है । नाम समालाचक । ३८७ दा! च्यदकगानममम७- आमनकमढ़ मरी. गम हज बोरदतक भा गत यह, "राम सा. - पका 3 मनन. [स्क छरताे एम्प्गोण बनने पशिममिगा औ-म ऋानओए। आगनडंे आम ब्आप्क जाय कि भा, कया... सनम, की जगह “ग्रजनिधि ” फी छाप हे # ०्रेर काश्विसमाज में भी घे प्रजानेधि हो कहे जाते ६ ( १ ) यथा नागर गोरव इश्क मधि, राम बहादुर राज | त्रजनिधि गोरबअ्थ घिच, रस गोरव रसराज ॥ इन प्रमाणों से यह श्रन्थ महाराजा संबादई प्रतापासिष्ठ अज- निधि रचित म्विद्ध नहीं होता। प्रताप नामके किसी अन्य कवि छा चनाया हुआ ४ जा संशत १८८६ में विद्यमान था | यद फोन था ! सो खदुत सी जोजना करने पर कारें कीत कफोस्ुदी की सूची में तुन्देल्खणड के अन्तगेत चरखारी निवाली प्रतापसाद्ट घेदी जन के रचे हुन्ने प्रन्थोंमे व्येगाथे कोसुदी का नाम निकलने से विदित हुआ कि इस प्रन्थ फे रचायता उक्त कांचि थे जिनका खमग्र उस सूची में संचत १८६० लिखा हैं पर इस भन्थ से उनका जीवितकाल संचत १८८२ के कुछ पीछे तक जाना जाता है। उन्होंने इसके सिवाय ये तींच क्‍्नन्ध और भी बनाए थे--- ९ काव्य चिलास २ भाषा भ्रूषणकी टीका हे खजभदू कृत नख शिखर का टीका देवीप्रसाद मुन्सिफ जोंधपर » इस दोदे में पाच राजों को झुण कहे हैं ३ भारर फयि महाराजा साथत सिंहजी उपनाभ सांभरी दास २ महाराजा वहादुर सिंहजी ३ महाराजा सम सिंहस्ती ५ जज निायें महाराजा सवाई प्रताप सिद्औआ ५ ग्स राज महाराजा मान तिहजी ना न० १-२-३ तो क्ृष्णगढ के राजा थ और न० १ जयपुर के प्यार न० ९ जोषपर के (१) ' करे भरथरी दइतकपर भाषा भली प्रताप ' हीहा ज्ञो शत्तक अयके धसवाद के शत में है, सिद्ध कर सकता हे कि स्थाई राजकसिकी छाप प्रताप भी थी | (से ध्से)ठ कह सवा सो वषे पहिले अन्नका भाव मिस्टर जे०रेजिनलूड हैण्ड लेटडिपुटी कलकवटर शाहावाद ने सन १८८६४ ०में आरा के सरकारी दफ्तर के यहत से पुराने कागर्जो को जांचकर एक अरनन्‍्ध श्थि7ए शा ट्/ीछा 3 वफ्रतआओऊाओं०ा 75 शिपिछर 4786-52 ( विहार से नवीन अंग्रेजी राज्यम्बन्ध सन १७८१-१७८२ ) नामक वनाया है और सन(९१८०४ में उसे बड़ाल गवनन्‍्मस्टने छपचा कर दास?) रू० रकखा था। इस प्रन्थ के देखने से उस समय रही देक् की स्थिति तथा ग्रवर्न्भेन्ट के प्रवन्धां की शेंली जान पड़ती है। श्रन्थ बड़ा कोतूहल जनक है। उसमेंस लेकर उस समय के थोड़े से अंग्रेज भफ- सरों के मासिक वेतन की सचा और अउरत्नका साथ पाठकों के चित्तविनोदा्थ यहां प्रकाशित किए जाते हैं । रेवेन्यू चीफ आफिस बाल साहवों का मासिक वेतन । कण 2 आस न न जाना ता आए जान. नम भा जा धमाका. यान गा «० पका]... न मिष्टर छुक--सेवेन्यूचीफ १२००) बंगले के लिये. ३००) सिष्टर रास-- सीनियर ऐसिस्टेैन्ट ५००) शमष्टर चडेसवर्थ--ज्ञनियर ऐंसिस्टैन्ट . ४००) मिष्टर त्राउन--थर्ड ,, ३००) सिचिलसाजेच ३००) वबद्धलेके लिये (५०) मिष्टर वाकर और मि. मेकेनजी ओपियम इन्सपेकदर ३००)३००) से० १७८२ में अन्नका भाव । नमक सम्॒दढ़ी रा-2 से २०) सन सरहर उत्तम ८४--४ , वड़ाल कारा।) से २-)मन » संध्यम ८९--४ चाचल चारसम तो पुराना दालयरहर उत्तम ५०९---८ ३४ सेर १२ छटांक ४ संध्यस ६१-०२ 3 ३ ४ ध्यंस हे५ श्र केसारी उष्तम १७०९-४७ »« नेया उत्तम ३८-०८ ४» समंध्यम न मकटक सपालोचक | ३६५९ चावल बार मती मध्यम '४४---८ दालकसारी १५९- ४ » तब पुराना उत्तम ५००--० फाचुलामटर उत्तम ११९-- ४ 9३ 9 में ध्यमस जनक >2 माध्यम १३१--८ 39 नोया उत्तस है. अइा ८ चना उत्तम ७२--४ 99 १9» * प्यस ७ «आयकर » मध्यम जर- ४ » खेला उत्तम पुराना ६4३-०--८ फाली मग उत्तम ५७५९-८८ 89 95 +ो ध्यस ६५--८ ७ भी प्यस - ६१--*< 0 आम नया ६६---८ मसूर २१२०-- ७ १ 9 # प्यमस ६५9०८ दाल ९ ९---८ » जाल उत्तम ६८- पट तोली १७०-- ० 43 ७ में ध्यम ६०-८2 सरसो उत्तम ४०,--१ २ ४ ७ निर्छे्ट ७२-४ ४ मेंध्यस ५२----४ 29009 घान पुरानी ११५--४ य्डी '७८---४ “उत्तम तिल ५०.---१ २ ७ ७ भज्यम ११७ ४ पासता ५०--- ० » नई उत्तप्त १२४---८ करथी की कद ६२१२---<« कीदीचावलः- ८०९--८ गेइं पुराना उत्तम ५४--८ कुटू ७९-- ० ही पल जा ड भिनडी ६५५०० हम 6 मम न सांचा चाचक._ १११--० बह नी न सांचा १६९--० 0 5 डक महा उत्तम १२०५--८ हे लक » मध्यम १३९- ० सकट्े १३४३-४९ भुद्दा १०६ ओ राधाकृष्णदास # रूस हिसाब में ९० रुपये भर का पकबरी सरही समझना चाहिए ध्स सं ) पी राजस्वमन्ती के वजट में प्राते वे बचत बढने पर भी दीन प्रज्ञा के प्यवहार में कुछ सस्तापन नहीं भाता, इसंस बिचारों को कदना पडता हैं कि “ हे सुक्षतर यरूण' जलम चेठने परभी तुम्होंर स्तोसा को प्यास मार रही है, दयाकरों, वयाकरयें (सब्स ) हमारो आलसारी। पनाम हलचल । ४ पूनामे हलचल ” इस्त भाम के उपन्यास को कार्शीके शक्रीायुत्त चालू गेगाप्तसादजी शुघ्तने लिखा हैं ओर वर्दी फे उपन्यासके व्यच- स्वार्यी त्रीयुत बावू विश्वेश्चर- प्रसादर्जी वम्मो ने इसे प्रकाशित कु हूं । चहा इसे |) में चचते इसके केखक उक्त गघजी ने हमको सूचित्त किया है कि आज फल इस पुस्तक का तसौसरा से- स्करण छप रहा है । यदि आप अपनी सस्माति शीघ्र प्रकाशित फरदें तो हम उसे उूतीय स्पस्क- रण के साथ छापेगे ॥ उक्त गुप्तजी न हमारे पास अपनो उक्त पुस्तक भेज कर हमें उस पर अपनी सम्माति मकाशित करते के योग्य जान तदथ झआाग्मह किया, पएतदथ हम उक्त गुघ्तजी स्‍्तो धन्यवाद देते है; और शाप्तजी की इस पुस्तक का इतना अधिक आदर देख कर हम उन्हें चधाई देते है । हमें आशा है कि उत्त- रोचर गुप्तज़ी को इस दिशा में इसी प्रचार यद्य ओर श्री की प्राप्ति दृप्ती रहेगी । इन पुस्तक की आलीचना हिन्दों के प्राय- सभी गण्यसान्य समाचार पन्नों द्वारा ही चुकी है ओर सच पत्रों के विद्धान सम्पा- दूकों ने इस्स उपन्यास को अच्छा कहा है । हमारी सम्माति भी उन लोगोमिे भिन्न नहीं है । पर हमारी समभ में, इस्त उपन्यास में जोजा श्व॒टा चोच होती हैं, उन्हें हम नीचे प्रकाशित करते हैं | भरोसा है कि याद बह उक्त झुप्तजी का यथार्थ जान पढ़े तों वह तदनुस्तार इस्प उपन्यास के तृतोय संस्करण फो छुघार ऊँ | ( १ ) इस उपस्यास के ऊ स्व अधिक भाग में इसके नायक सायिफा फे पूव्वोलुराग करावयणन है ओर शेष मे युद्धादि पलड़ो का यणणन हैं ) घणन के अनुसार यदि इस्त उपन्यास का नामामि- घान किया जाता तो अच्छा हाता | क्योंकि प्रंधथ का नाम ऐसा दीना चाहिये कि जिसके फणा- गत होते हो अन्ध के विषय का यथाथे ज्ञान हो सके । “पूनामें हल चल इस नामके श्रवणगत होते हीं यह अचुमान ऋरना पढ़ता हैं अयरञभा पाया मम ज काका. सपम्रालोचक । लि दस प्रन्ध में दंशं॑ विष्लव तथा राज्यक्रांति आदि के अति- रिक्त अन्य विषय का घण्णेन नहीं होंगा। पर शप्रन्थ को देखने सर अनुमान दीक नहीं निकलता | जान पड़ता है गुप्तज्ञी ने इतिहास प्रिय लोगों फा चित्त आाकृष्ट फरने के अभिषप्राय से ही अपने इस प्रशय-प्रधान उपन्यशस का सास इस प्रकार रक्‍्खा हे । (२)गुप्तजीने अपने इस्त उप- न्‍्यासकी खाशि म राठी के किसी श्रथ के आधार से की है। यदि गुप्तजा अपने उपन्यास के पात्रों के नाम मी हिन्दुस्तानी छोगॉके सचश रखते तो अच्छा होता, ऐसा करना यादे उन्हें अभीष्ट नहीं था तो दाक्षिणात्य नामदी छाद्ध रोतिले लिखते | पर न जाने आपने पएसा कया नहीं किया । नीचे हम शुप्त जीं के दिये हुए. नार्मो के समोप मराठी के छुद नाम देते हैं: -- पृष्ठ गुजी द्वारा दिए. मराठी के हुए नास शाद्ध नाम ६ फष्णपत कृष्णाजी पेत २६ रास भोली र्मा ७छ3छ. विष्णराव विष्णु पंत ध्यान रदि कि दक्षिणी लोगों में मराझों का नाम विष्णु बहुत कम रखा जाता है। यह नाम १६१ प्राय- ब्राह्मण का ही हाता हे ओऔर आदराथे इस नामके जेतमे ४ पंत ” जोड़ा जाता दे “ राव” फभी नहीं जोड़ा जाता। गुमज्ञी “ विष्णुराव ” के रुथानम अपने पाञ्र का नाम यदि “ खंडेराब रख देते तो वद्दट इतना भद्देस नहीं होता | (३) गशुप्तजी कमला करों कमलर्सिंह बनाने के पश्चात यदि उसका कमल सिंह के नाम से हो पाठकों को परिचय दिलाते वां ओर भी अच्छा दोता । प्रष्ठ ३४ में साधु के साथ चात चौीत कर- ते समय उपन्यास में जी कमला ताम लिखा गय़ादे बहुत बुरा जान पड़ता है। और साथ ही _थकार की असावधानी अ्द्शित करता ह्ठै। (४) पृष्ठ ३० में लिखा छे “युवक ने इतना कष्ट कर पासको खड़ी खुन्दरया छडकी की पकड़ कर गले से ऊरूगा लिया और बार बार उसके गुलावी गालोंकों चूसने लगा । लड़की ने भी प्रेम से उसके गले में घाँह डाल दी यहां ' लड़कों ४ के स्थान में 4 युवती ” शब्द का € याग चद्ुत्त दी ठीक होता । क्‍योंकि लड़की झब्द बाल्यावस्था की द्योतक है । ऑततशण्णाआीा स्प्रे "कु पृए.्रम॑ आगे चल कर लिखा | “ ओर चम चम चमकती तथा चक्षुओं मे चकार्चाध डालती हुई चपला ( बिजली ) तीर की तरह झपटती हुड आका- दाकी आर निकनन्‍ल गई ']) यहाँ ४ निकल गई 7 के स्थानर्म यदि चंपत हो गई लिखा जाता तो चद्द झेर भी शोसाप्रद होता | पृष्ठ ४० में लिखा छैः-- “ शिवाजी० | फिससे कद दिया था। घाजिराबव० | अश्रामात | यह जितने आदमी खड़े हैं सब फहते है कि माधवराव ने यही फहाथा जो मेने आपसे धयान किया दे! इस यबाक्य में शिवाजी फो एफ यार “ अश्रीसमान सम्योधन करके साथद्दी दूसरा बार उन्हें “ आप- से ” कहना शिष्टजन-प्रथान्षुमी- दित नहीं जान पड़ता | दूखरोा यार और जितनी चार कहना पड़े राजा लोगों के लिये * औओ- मान “ कृपानाथ ” था अन्य इसी जथ के व्यंजक सम्वोधन उचित जान पड़ते हे (५) नीचे ल्ौखे हुए वाक्यों में सवे नाम का लोप यदि न | या] किया जाता तो अच्छा होता:-- समालोचक | स््5 पृ ( रघ इतने सें कष्णपतका पय- डा भी आगया और अपने यज मानों को बेंठ जाने के लिये फटा | पछ ३० यवकने आइ- नें में मुंह देखा ओर झुस्कुरा फर कहनेलगा।। छछ ४7, चह उकताकर भासी जी के पास आई ओर आतेंद्दी पूछा | छझा० इसने में कृष्णपत का प॑ेँ डा भी आगया और उससे अ- पने यजमानों को देठ जाने के कहा! युवकने आइ- ने में सह देखा ओर वह घसुस्क रा कर कहने लगा । चह उकतण् कर साभीजी के पा स्॒ आई आओोर उसने आत्िेदों पूछा । इस्त उपन्यास में ऐसे स्थल ओऔर भी है पर विस्तार के भयरे उन्हें हम यहां नहीं लिखते ! (६ ) हिन्दी के लेखक लोग प्राय: एक वार दर क्र १39 का प्रयोग उस के स्थान में फिर हम का प्रयोग फरते हैं । आज दिन हिन्दी के लेखकों में पेले चडुतदी थोड़े छोग पायें जाते हे जो इसका अधिक विचार रखते दो | इस प्रकार के अधिचार से भाषा में जो असाधुतों हों जाती हैं, उर्ें समालोचक । न्ज््ज्+ज्ल््स्स्स्स्स्ल्स्स्स्स्ल्स्स्स्य्सस्ल्स्स्य्स्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्य्स्स्स्स््स्८ रुपए फरने के लिये इस उपन्याक्त से हम नीचे लिय्ला हुआ घाक्यारश उद्धत करते दैं।पृष्ठ २४में लिखादे- ८(..-+ फोई प्रेमी अपने होश रहा हो तो उसे माकछूम भी हों फक्लि नियम क्या है ओर हम कया कर रहें हैं घह तो चार आंख होते ही प्रेमके जाल और “इश्को की जंजीर में जकड़ लिये जाते हैं | यहां ' रद्ााहा ' और ' उस एक घचल में प्रयुक्त किये गये हैं। भाषा प्रणाली में इस प्रकार का असंबद्धता आ जान से शहह उद्चयश्नेणी की नहीं मानी क्‍ सकती | अ्न्थकार को, उचित है कि वह अपने अ्रन्थ की भाषा को ऐसे दोषों से बचा लेवें । ( ७ ) कोई भी भाषा तभी उन्नत होती हैं जब उस का फोश अपर भाषा के उपयुक्त शब्दों से अलेकत कियाजाता है और व्पन्यान्य सापाओं की भावप्रद- ईीन प्रधाओं का अपनी माषा में प्रचार किया जाता दहे। पर ऐसा करती बार इस बात का विशेष घ्यान रखना चाहिये कि अपनी भाषा की चतेमान उच्तमता विग- डुसे न पावें। इस उपन्यास में सं स्क्त के शब्दों के साथ उद फा- रसी के शब्द मिलाये सये हैं पर द्र्रें घह चविना कारण मिलाये गये है । क्योंकि घैसोी खिचड़ी न करने पर भी प्रेथकार बिना ऋण लिये अपनी भाषा के शब्दोंसे ही अपने भावकों व्यक्त कर सकते थे। एक दों उदाहरण नीचे दिये ज्ञति हैं । पृष्ठ १६९ में लिखाहेः-- यद्यपि वह बहादुर था लेकिन मरदर्ता की चाल से घट त प्रीशान ( परेंशान ) था यहां प्र “ यद्यपि, छेकित ” और परें- शान ” झावद का मेल बहुत दी वेमेलदै। यही वाक्य यदि या लिखा जाता दे तो क्या हानिथी! यचापे घह शुर था तथापि मरहठों की चालसे वहुत दुखी था | इसी प्रकार प्रष्ठ २१ मे ४ नाजुक समय * की ख्त्र्चिड़ी भी कर्णप्रिय नहीं जान पड़ती । ( ८) आज करू दम चेखते ६ कि प्राय- हिन्दी फे लेखक लीग अपने छेखेों तथा अशथोंर्मे न जाने क्यों मगरेजी फे शब्दों का प्रयोग हठात किए चले जाते हैं । हमारे हठात्‌ फहने का अभिप्राय यहहै कि अधैव्यड्जक शब्दों के भाषा मे विद्यमान रहने पर भी उन बापुरों के सुथानों में अगरेजी ही शब्दी को स्थान दियाजाता छठे र्प्टडं समालोचक । हस्त बात को धूम अच्छी नहीं समझतते। क्या प्राइवेट” “कसम्प ८ झेरों' सौर “ फुटनोट ' आदे के मभ को प्रदर्दीत फरने चाले शाव्द हिन्दी कोश में नहीं है! है सब कुछ, पर उनके रूवत्व पर लेखक गर्णोकी कृपा दृष्टि दो नहीं होत।। मारी इस्त सूचना पर, हमें भरोसा है, के आधुनिक बचेज्ञ लेखक आअवच्य विचार करेगें, ओर सावेष्यतमें उक्त जैसे स्थल्हों पर चह छोग इदिन्दी शाव्दो को अ्पकत नर्दी करेगे । इस्त उपन्याछ के पृष्ठ ५१ में जो ' छीरे। ? शब्द प्रयुक्त केया गया है उसके सरूथान में यदि गसऊजी अच तृतीय सस्‍सकरण मे “ ज्ञायक ? लिख दें ठं! दम सम झते हैँ कि हिन्दी उनकी बहुत ऊतक्षे होगी | ऐसाही चताव उन्हें « छंप ' आादि छशाच्दी के सरथान में भी करना चाहिए । (९ ) आजकल हिन्दी के ग्रेथों का प्रकाशित फरने का मधिकार प्राय. ऐलेही लोगों के द्वाथ में है जो अ्न्‍्थ लेखक पके यथाथे परिशञभ्रम का और उनके भन्थकी छाद्धाहुद्धता का ठीक ठोक अज्लु- मान नहीं कर सकते, किन्तु कसी प्रकार अन्थको छाप डाल नाही अपना अभीष्ठ समझते हैं । अन्य प्रफादारकों की बस उपक्षा से भ्नथों को जो हानि पहुंचती है उसे अन्ध लेंखक गणही जान सकते ह | इस्त उपन्यास की जो प्रति हसारे पास भंज्ञी गई हे उसे अन्थफार ने यथा शाक्ति बद्चुत कुछ शुद्ध करके धमारे पास भेजा है; पर तिस परभी उसमें अक्षर संकलन की वहुतसी त्रुटी वनी हुई हैं | झन्थ भकाशक लोग जिस प्रकार अन्थके देंच फर उससे लाभ उठाने की चिता किया करते हैं; उन्हें उचित है कि उसी प्रकार वह अ्रन्थ फो छाद्धा छाप कर ऊेखक के परिश्रम फी रक्षा की भी चिन्ता किया करें । हि ( १० )पएृछ १८ से छपे ड्ुए चेठे पहरा देरहेथे ” और । पृष्ठ 2८३ में छपे हुए “वेलों की त्गाम ?” जआादि कोभी छझुंद्ध कर देसा उाचित जान पडता हे । फ़्योकि पहरा खड़े खड़े दिया जाताहे बेठ कर नहीं दिया जाता चेलेद्दी लगाम घोंड़ों को दीजातो है, बेला को नहीं दी जातीं।! चैल जिस रस्सी से वांघिजाते हें उले रास ( नथनी ) कहते & ! पघए धद५ मं चलुराई के स्थान से ८ ज्यूल दावदक ओर भी अच्छा होता ! ४] फफिशगामजाी हमारी श्स सम्माते की दुपयोक्‍ल्लास "न समझ फं एस हमारी दृष्योदिरषह्ित एवं ठाद्ट हादिक सम्मति समझेगे ट्मिरिनी १२-१-०४ समालोचक । रे६ ५ हि ल #ग्गदक कर 40 आवारा तककलन्‍्आ ८ पा बाइक चमक मय मुमुका पाना पमकावाम का रन्‍्वीजुर:०पतक परम ३44८ य जब ाकक2- 5 आया 5 ताक २ ववपका जप मापा नकुमुधधजलथ ५-3 न्‍अदउक ६ ++पा लक मु 5५0: “हु. व त.3 ज॑म>-जाकज लक...» बनना गया ब्च्न- क् जाल ए्ल्‍॥७७७७ीीएछएा वक्त "रााओ.. भा 3०-+-ब्क-आ वन" व्कमननमाा ( ६६ ) हस भरोसा करतेह | ओर इसके साथ वह दोष / चेसाही घतांव करेगे जेखा होन- हार एवं सत्याप्रेय श्रन्धथकार की करना समम्रीचत हे | गंगाप्रसाद अग्निहोत्री अिज (०) अन्य देशों में दौल अपने छतो लबिक्तनो रूपी दस्त सें सि- परमे का प्रयत्न करते हैँ परनन्‍्त हिन्दू घसेशाखत्र में लिक्ति- यां दान का रूप ग्रहण करदे रक्षा चाहती थीं; जिम्र से अ्पष्ट है कि छसारे यहा दान देवा बछुत प्रचलित था और है। हनारे शास्कार लिखते दें कि पिता पुत्र को इच्छा के अतिकुल पैश्रिज्ष स्थायर सम्पत्ति को साथारणत। एथचफ नचध्तदी कर सकता परन्तु लकाकछ के सन्तय और सिशेषल; पु- गयाथ कर सफलता हे | फिर क्या फारण है कि अन्य देशो का दान उम्ततिका- से छोताः है परन्तु छतारा देश इतना दाकी दोलने पर प्री अचघोगदि को प्राप्त है १ दसो प्रश्च का उचर देनए इस लेख पा एक सातज्र सहेश्य दे । सहात्सा प्तृहरि ने कया ली सत्य कछह्टा छे-- ४ चिेचकञ्ञछामां कवालि विनिपात) शातसखः अ्थोकत्त विधेकच्यत छोगों का सी सौ भ्राति जधघःप- रन ऐसा हे। ऊक्ष यहू प्रश्न उठता है फि छद फोनसाद बिवेक है कि जिस से हम लोग च्युत्त दो गए छद्वे ? नोति शाच्य ने इसें एक अनसोलऊ उपदिश्ध दिया है “४ रा काल*! प्तानि सित्राणि ? को देशा। | छी व्ययागयपो १। को वाह ! काच से शक्ति | ररिलि चिप्त्व सुदुनछु। ॥ ” अधथाोत्‌ कैसा उखसय उपरिपत हे ! उसारे सलिच्न फोन है देश केयसा से ! जायव्यच मकेसः है ! छल फकीन हे ? छसारोी फिलसी शक्ति है ? इन सकछ बाली का बार कार खिचार करना चांद्विए सो हे चर ( ९० ) ८४ मुहुमेझुः ” की फील कहे हम इस मक्षा पर क्री भी खलिचार नपष्ठी करते घास याह्टी कुमारी विवेकमल्रष्टसर है | हसा- शे पूर्वपुछण छमार में अद्वितोय छोने पर फ्री अपनो यो: रघला के इसले अभिमानों न ये छितने आज छम इडोरशडे हैं | हस ऐसा कहसे को दो शोर हैं के इस यही हें जिमसे सखसत णनरस्‍छोक में उमभ्यता, रणित, एइशेल, उसे इत्यादि सीखा! परम्स हुस यह नहीं संरेखले कि फिस से अम्य जा- लियो ने ये गुप्प सोखे वे कैसे एुरूप थे ऊओऔश छस कैसे दें। विजालीव सत्यभिय सह्ठानुस्तादों को देखिए कि श्रेकिस रपाछतला से कांप को कूसतक्षता स्वीकार करते और प्माप के गुण ग्रहण ऋकरलेले हैँ पर प्वाप रुन्छहीं के फथयनों का आचार लेकर ऋह बेठले छहे कि समार छकोी पकेद्यपए सत्र हसारे ही य- छू को चेरोी है | छऊबतक ऊफाप किसे दा रपण्प स्वीप्कार चल क्गोजिएया लबतलक उसका ग्रद्दमण क्‍या फ(/जिएया 7 अभी शोदे दिन उ्लुए समस्त छाकूर ग्रियसेल ले वि- छायत में भछ्कत्सा सझसीदास जो पर एक ठयारूशान दिया जिसमें उन्‍होंने गोस्वारसीजी को जड़ी प्रशप्ता प्ती, खस इसी को खाध्यार पर झ्सारे यहट्दा पके फंछ समाधारपम्र फ्छगए ऊऔर,अग्रेज़ी पठित प्ारसवाखियों को फटकारें- बतलाएने लगे कि जहां विदेशों छोग हमारे कवियों की प्रशंसा फरते हैं दडां हमारे यहां के नवय॒वक विदेशी प्रायाओं के कंक- ड पत्थर लटोरने में पड़े रहते हैं ! |! | करा शइलसे को ब- खकर सूखेलता क्यो कोई दास कही जा सकतो ह ? यदि का- झकूर ग्रिय्सन को आप ही जैसे सकोणइद्य छोते सो वे (९९) तुलसीदास जी को कविता को मो ककड पत्थर कट्टने देर यदले ठसकी पक्‍्रशसाः कादे को करते ? सो डाक र सद्दीदय की उदारतर का अनुझरण करने झा परालएर देने को खपे- सा सस्प्रदक ऊे खिल कुछ जाने सूक्‍्ते फ्री यद्टध छक्का पोटने लगे कि क्ेजल छमारी साया में तो प्रस्थरत हैं ऊरेर विदे- शी अकारधषाओं में सिफ फल पत्थर [| वास्यत्र ने विदेशों भाषाओं में भी अनेकू झइन्धरत्न दतसान है पर छस से स- ने परखने की योग्पत्ता साच होनी चरद्विए | ढ जद छुमारा पूर्व समय नही रछ्ा | सस ससय छसारे घूर्वेपुरुपषगण समसस्य प्रदाय छापने हेतु रुवण बनाछलेदे थे पर धस विजातीय फकायफरताओ पफी बनाई झुद्दे पस्तक काम में छाते हैं | एक चसनार लक घिद्ल ग्रे खाडेछ रूपया धापिक आय छे होसे प्नी दस्छ विदेशियो के बनाए पहचतसा है आ- थोतु उस सूचल्‍्पआय मे से क्री कुछ न कुछ ऐसे पिदेशियरे फो देता दे जिन से से अधिफाश लोगो को भाय उस से सखोस गुनी है। फद्टासक कहें समस्त फ्रारतयपंलिगस्रासों एक दूसरे को बाल लक नहीं उमभ्य सकते ! “लिश्राणि?”! फेवलछ रषफुप्य हो नहों होते दारणय सड्गण भो मित्र एव दुगेण शत्र कड़े जा सफले है कृम प्यपनो करी- सियो की हूदय से स्थ'न देते दें पर हुरोेसलियां उस्यापपतलऊ फरने से ऐसा हरते हें कि सानी कोरेंदे उठा कर एस खर ही लेया! ४ की देश; ” का कली हम दियार ऋडझ्छी करते | अदषच् के नध्चतष्वर भरसुऊद भी धशाग्ड व्वादि के परपने सनन्‍तस्नों घ्ठ़ो दत्ति के बारे में रिश्चिस करने के निरित्त सरहझ्ाार अग्नेत् 3 अप दे के यहां फ् कईदे काल अर क बी गली कं 5० | पे तल 8 स्यापित फिया। थे खजाएउले होने री सिएशचन्‍तल एोचे रण उन्त मे धहा्मंण सथाागों उन्नति ख्ूश सपने परच्छ उस का परिणान चरप्दा जुझा लपान्सा फे उधस्समों की लिरजयफतदा आर धिच्र है। इस सदाशदपयों की सलियास दमीया वासुक कर लिने के कोर रूट कान दी चह्टी है ! इसी मव्वार छवारे देश ने हस स्‍ो ल्घूव बना दाला | इप से प्रत्थेक्त अकर की बस्त बड़ी झुग्नताः से उत्पनन्‍त छरेती है ओर यदां छा जछ दाय ज्ञी' एञऋाप उत्तस से | दर सक्तार पी वतक्रीपचियां खिला उतारे किये छ्यत्त से प्रसतुत्त हैँ सणियण, स्वर्०णी, इलत, झखादि के धचनेद्र खाकर च्ंसाच है करी संगप्ली का सर जल खसनरत्त पुचिदो के छलो से ओऑपएअसर खचिलाएसाश कररहा ले, गयक्- किक | | उच्च छिनाचक फी ईवेशारकू चोडियां दुक्षिपोय वाद्य द्वारर आए उुप्म सेघों कर सन्‍सान करके ईनेकफाशमित देश को अफरोका के बालूसय सहरए हे जांले से धछथाकर झूः पधक्तार के चाय छा सद्ार झछनए रड्ो ले फोर जलूयरच लुत्म, 3 वेसय अनेक्त देखदररू प्री उत्पन्य फरके पेचरश्छ सालो “छ उपदेश दे रहे दे कि इन सेचों की उछा्यतश् से झा प्रसार दो बदैनगिक छवब्लुयों उत्पन्त कर से प्रिर कुछ (| #०-हू ै। «४ न्न्ड़ कै 2/] रामायण. व्यय. नाश अपन आन... ैशाम-० का... -आन्मगाक, आीशे--जनध्णा अम्मा का म्पामा,. धनवान... रमन पाना." जन. -- सखनन्‍ऊ के सभी नंव्यावे कह्लाने वालों की पदढवी इरकार 4. चर है आप दःरती, जहांठऊहइ हमें ज्ञात है फेवल एक महाशय को प- हे. 73 प किला पी कक कक नेंन्च्‌ नकल आह सानदी है ओर ये महाशय किसी अश मे सी निमन्‍्ध नहीं [ ( ९३ ) खपन्ाा क्षी परिश्रम सिरझा फर खलेरे देखदृश्सशनिसिलत पोततों हारा एथियोसयल के सलमणझूल देशो मे अपना छयापार खिं- च्चत करो फ़िर सर गिरिर्ण खेचो द्वारा जल दाच देने से सन्तुप्ट न छ्ीकर अनेकाजेक सदियों से हमसे सर्वेधान्य-स- पाक जल घदान छझरता छे छोर रहने वे सिये उसने हमें एक छेसर रथशारन दिया है कि जिस के खिचय में उच्तों कहे लिखर छै--- “हर सोसतला जाने कि बकइमीर दर उायथद | गर छाथ ऋछवदाधस्त कि या बाला पर आयद ॥” प्राय, प्रत्येक देश को ऋल का आनन्द धवम घर बैठे लूटते हैं पर ऐसी एक त्ो ऋतु भही कि जिस में छसल फारू ज कर सकते | उज्छी प्राकृतिक सुधिचाओं के फारण हस न व्यातो की फ्ासि सालसी हरे गये हें । पुगलद में बहुमूल्य चातुओं प्ही कानों के रुथान कपोय ले ओर लोहे के आकर दे छौर बह ऐका चोर शोलस दछीो- ला है कि प्राथ। दो सास फोडे को कास करना कठित छो- जाता है | हलेंडदेश चसुद्र ले मिम्मतर सूखि पर स्थिल है ओर चह्चा के सिदासियईं फो जडो २ प्लीलि बनाकर ललछनिप्थि प्तो ऋलग रखना पछलता ले यदि यह पीलें लेशनात्ष भी टसक जाय तो ससदठ यहा फर सारे देश छघो ऊझपने विश लदुर लें घारण करले नानो बह देश कभी घर्दी जद्दी | देश करा चाल बहू जह कर घन्हों हु फ्रोतो के किनारे प्रकत्रित छोतः है और वर्हा से पमुपो होरए सरगर से उठच पियएर जाता है | जाफन सें ( जो ज़ेन्रपल से नट्रास के घरालर हु ( ९४ ) है) भवतिवय ३८० से अधिक सकरूप होते हैं और पति ६० वर्ष एक न एक ऐपर विषय हालाहेला ऊआाजहता है कि उससे देशको बहुद श्री हानि सद्दसफरनी पहती है फिए समस्त देश ज्वर्सामसरखी पह्ञालो&ं स्चें परिएणा है श्नसे तने अतिक श॒ ऋवश्यही अरिन दमन भहों किया करले परन्‍्त इरप- दाड़ ऐसे हैं जो इस समय सद्‌्र आग बरसा या करते हैं | सन्‌ १८३० पर सन्‌ १८५७४ में दो नवोच पद्धाड पायकोटगार करने लगे ओर पहले पर्टिठ सहस्जतो सनय्यों और सेकडो ग्र/में। का उदनाथ ,कर हात्डा, परन्त इन्हों लल्कट देशे। फे नियःसि- या चने प्राकृतिक कांठेदाइया से युंहु करते करते, ऐसपी कोरता और उदृडवा समसपादिस कर ली' है कि विजातीय शजत्रओं पर जो छमारे ऐसे नठ्व/|थय साहय डुए विजय पर लेनर त हें बाए हाथ का खेल समझ पहशतर है। प धघसारे पू्ेपुरुष छनारी भ्ासि नव्वाथ न केचे छि- वब्यत छीर मणच्य एशिया से जत्ए थे और बहुत काल पर्यत उन्होंने अपनी नैवर्शिक कार्यदक्षता के प्रताप से इस मपास्छलोय दशा को सचापा | इसी ऋारण उन में ज'ति भेद्‌ का ऐसा बड़ा विचार क्ष या | यदि हस ऊसय्योंससर- जियो का सत ग्रहण कर देदे। मे श्रष्ज्लण एव उपन्ियषदे को नरकत सान फेवल संछ्िला को वास्तविफ देद बतलाबें तो यह को सानला णएटगा कि बैेदिक फाल से जालिभेद लनन्‍्म से नही बरन फसे से होता था, परन्‍ल यदि ब्राह्मण भौर उपनिषद्‌ भी बेद ही साने फऊावें सो कभी यह प्रकट है कि उध समय जाएंत सें इतनो कडाहई न थी। दिश्वामित्र, ययाति ( १५ ) खंशीज्धव फोर सइालुभाव फैम्रिय से ब्रार्रण ही सतत्रियों को लड़कियां ती शब्राध्ययात को यराबनर ये याही जातो थों हो धरर दो एक द्राह्टूणंर को क- भी ( जैसे देखयानली शकन्तला इत्यादि ) छ्ात्िया फोे असम जुको हैं | जब उन पूर्वेजि| को स्थाप्नायिक कार्य 'कुछ घट चलो शायद त्तत्ी से उन्हें।ने इस नव्यावयो से मे के अभिप्राय से आठि में इतमो फड्ाद करदो | ऋथच पोपाजत का सार देशपों और शूट पर पड़ग्, क्षत्रिय 7 में प्रवृत्त डुए मर ब्राह्मण केवल घुद्धि से काम लेनेलने मर उन्हें ने देश डित्ेषी खण्लेर में अपना जीदन मसपंण फ्ि- ' गा | शिष्य को विद्या पढ्ाचा, उतमोत्तस एसतके रचना, आर । भटके राजा सहाराओ। को साय पर हूाना घ्ृस्यादि इत्यादि पन्के सभी परोपब्तारोे काम थे। रूस, मझ्नासि एक प्रकार खि- “>> उजित कार्यप्रकरण ( ५ए800 6६ #४०एए ) को अणगाली वयापित हु॥ई। अर्धशाक्त में इस प्रणारझी से अलेक्षां पकों का ह्ोला लिखा है पर कलाम सफ्रीसक ही सकतः है * लिघ्बतक प्रत्येक समनुध्य की सपनर भन्त सारूय ऋास करने फी क्वतत्रता ही, ऊो बाल जाएँ सेंद में नहीं हो सफतो | अस्त, उसी समय ज्ाहरणा को दान देना असत्यन्त एइरहाठय गिना जाने लगा कयेकि ठछ समय शिप्रा को दान देना रूपी प्रकार देशोपकार करता था| पर इसी के साथ यह भो फछ्ठा जा- सा था कि कुपान्न को दान देन वाला पाप का क्रागी होतर है | लिन फारणा से उस समय क्न हम गा को दान देना सचित च्या सन्ह्नों कारकों से अब सह अनुचित हे | छृद नत्राक्यश ( ९६ ) ले सब अपना रचेछय पारकन फरजा छोड पिपर खसिससे हमें दान देणप दो द्ामियाँ पहुँचाला है| एफ ली उतला चनत हुथर नए छोंतः है और दूसरे हच ( व्राहमण ) झछोग स्आालसरे छोफर परिखर फून्य छो जाते हैँ । कान्यकृठज ब्राह्मणों से प्तात्यायनयोत्रोद्ू चर सलिशे। ने मिश्र चिलतासणि जी के स- साथ से ( जरे कंदगचचिच्‌ संबत्‌ ९६६०० के लगमगन हुए छेएने ) दृरच लेन्‍पए छुक दूस छोड दियए और इसी डेत छस ससय के लोग कान्यकुठजेर से माय; सबसे ऊधिक व्यवसायी ओऔरर घनथास्‌ हे । हूत अधभिसानपू्रेक कहते के कि छच से च्चन्छरे सहानलचक्कद लिश्र चिन्‍तानाणि जो के बंश से वे | चऔीईदे चीोरे हवारी खघिसमाओऊित काय अजऊरप को मथा ले।गे फो बपीतो छेकर छानिकारदक छेगद । शदिवजों बुद्धि बाले देशेशपफ्रारों काल एव बनवास देने के ईदिला- जि दे ' बत्सन लक्सू ता सिक्‍खू? को फिवद्लती की च॑- रिला्थे कररहे है| छाब्िययण रक्षा करने का बल खे बेठे अजीर अब छोटे २ जिसीदूरर बलकर देश को उपजाएफ शक्ति के। कुछ मी लाभ पहुंचाए बिता और थेचपारे किसानों पर एक बोका बचकर केवल छाह्वा ठोठी झछुलजुल बेर णाएदि सें अपना समय नष्ट करते हैँ ( मोरखपुर के जिले में छुमने एक अग्नेज का इलाका देखा जिनदा चास ल्रिज्रघत साहू था इस सभ्य उसके जासाता सेजर होल्डूमसदयथे सी लाई- दे सनऊफिे रुथानापन्त है इन सलाशय के इलाके से सहरों का ऐसा सुन्द्र म्बन्ध सिया गया है कि जिससे चोर अफाल से भी उन के यहां उत्तत पेदावार छोती है छनते हें कि इन ( १७ ) घतरें के घतदाने में स्लितलर्रल साहब ने माय३ १६ लाख झूप- या ठयय किया था पर यह ऐणा छुब्यय था कि जिससे उन्हे पूरः उाक्ष होता है और सनके फिसाच की बढ़े छुखो & परण्तु आप- सलथासिया से ऐसी सुव्यबरूयर बहुत कस देखी ऋरती है ) धणि- छू महाशय जहे बड़े उयापारों और सिलेी के चकाने की योप्थ- सा रपएजेंच किये विरूए बहुचा दक्कोरोी हो च्ते सद्दारे फास बितरते हैं फिर वे लोग भो स्वथ ठघव साय न फर अब चर्िस _दल्छाली छक्बुघ करने लगे है। यहां जैसे फपड़ी की संग है उतवो नझकूने विदेश भेजरफर यह का कार ऋूष्ठ करने वार सितने पण्चे जार्चेंगे ठनके दकश्षझांस को ऐसे लोग सह जोर स्वय जैसे लगने स्वद्श ही से सैयार कराने का फ्रयत्क च्त्श | घाब “की व्ययागसी? पर छत विचार करते हे तरे खेद्की सोलर नली रह ली | उप्रय से उसकी फेशल साज्ना हो का ियार ले फरनर चरहिये बरण यह की सोचना चाहिये कियदयएछ किस मकार का हे | जिस देशो को छत क्षे लीस गली छान चित ऊझापथ हे दे को सपनर अस ऐेपी अलुण्योगी क्यो हाचि- कारक सोेलि पर नहों उछाले | छुष्ण्य कीर जाय से लद्ादफ छस सजघते हूँ फारण कावये का सस्चन्च ऐे सर्थात फाय उप्य ,छी के फ्ररण छोतो है | यदि कोई सकज्ुुष्घ ऋअतिद्विन ' खत सुद्र! उपाऊेच्त करे परन्‍लु उपघय छुछ सो उ छाशे करे परछ अवश्य खूखी सर जाय और उसकी समनसरत उपाजेक आ- स्ि नछ ८ जाय | यादि बह फेवऊ )।॥ के पते चदयाक्रर पफा- छपफ्तेप के सीकी उस का घ्रीर बरूदीन होकर घोड़े छ्ी दिझ्े।! से उसे काल फा आठ घना उाले,पर यदि बह अपनी रे ( ९८) भाय वा एक जड़ा प्तवाग किसी विद्यालय भथवा फष्ठाप्नघन के लिसमॉण फरने सें छगाधे तो उस सहल्ातमा फे ठयय से देश को सपजञाझू शक्ति फो बढ़ा लाभ पहुंचे | यदि यही सलुष्प सपता लिप्त ठययथे नष्ट कर देता अथवा उसे भूमि में गाड़े र- स्वता या फिसो एक आभादमी को दान कर देता कि या पृश्र- छीख होने पर भो फिसोी दशक पुत्र को सेंप देता तौ देश फी सपजाऊ शक्ति के क्या लाभ पहुंचता ? यदि लजापांभ के लेसिये लोग अपने रा्याचिकाश फा वयय मभ करते या सरवे भी किसी सिन्तुक के सबेदान फर देते सौ जापान साल घस सुलतावस्या में फिस मकार द्वाता ? सघ हमारे देश की माय ऐसी नहीं ले कि एम उसे वयथें खाते सें ठयय करें | रूस फो दशा ऐसी शे।यन्तीय है कि यदि एस लेएग सुष्पयय फा मबश्न्ध न करेंगे तो देश छी साय भौर उसी पे साथ हम लेगा की न जाने क्‍या गति ऐगश्ंयी | अबह्न फिघल “फो याउद्ध काच में शक्ति पर विचार क- रखा शेप थे | इसमें सन्देह नहों कि छस वही एँ जो एक समय समस्त पएथ्योतल पर पमद्वितीय थे। पर इस रामय छम प्रायः सभ्ो जातियों से सिकष्टसर हैं | अय हस यही है लिन्छें आस्टेलिया एवं विभदित साठच अफ्रीका लियासी , कूलिया सफ मे भरतोीं फरना भहों चाहते ! मौर फिरसी छम उन्एों देशशन्न था प्ते बनाये पदार्थ मोछ लेकर शमके सुख घणित फमाधरप्य फे पृरस्काराय उसे यहुतसा द्वठप खाम के स्यक्प में देते हैँ | शस छोगेा फो उचित है कि घफदसम इस देशा की बनी घस्सु साझ फा सेठ लता अनद ( ९१९ ) फछर उस छोगेा को मांखे खेल देँ। पर यहां तती अविद्या दा सनन्‍्चकार फेला हुआ ठएरर | फदारचित्‌ एक झलाहर सपु- उसे सें एक भी यह जानता ही घ छ्लोेगा कि एम लोगंप फे सखाप एज द्ेशा घे सिसासो छेसा झसम्प कझभचघवया पशुधत ठघलहपर कर रहे हैं । सार की वस्त सात्रक्वा बरतसा सौष्ठम खूब जरनते हैँ। एटली व पासर के बिपएकुट, छिषर फी प्विंध्फी, शहवासा सिंगार, राजसे के चाकू केची चत्यादि, हिंकस छेेे छालटेस, जेएन फेयर फी पेन्सिलें, छासन के सूसे, मिच्‌ल फेे निल्ल, पिरयीे एन्ड सन्‍्स छे फागुजा, सेस्स ब्रदयस प्के टेवेलिय टूफ ( छोड्टे बाले बण्च ) , फ्ेल्नर फे सोज्यपदा्े, एली ब्न- दुर्स के फारतूस, इस्रक्िश छोीघर घडियाँ, इरूम के क्िफेट पोरो जादि के ासमास, रोज़ फे छारसोमियस, पियानो चू- ल्यादि, ऐमिल्टन फे भाभूषण, ल्रेन्स जे सेशो को ऐनफे, लिप्टन की चाय, दो टाइसपोस, पियर रोप इस्यरदि २ सफ्री पदायथे हमें मायश्यक भीर सम्पता फे आचार तो बहुत सससरू पहले हूँ परन्तु उनका बनाना फकप्नी उपान में को सो जरतर ३ दिसी बढ़िया न चछ्ठी उनसे छुछ घटकर होगे धनाओ छीर ये घटिया एदाथे ह्वो फुछ दिन क्ास में छाझो तलब देखो बढ़िया से बढ़िया घल्सुए इसो देश में घनने रु गती छेँ कि सही। समझ, सुबारकपुर, लुधियाना, सुशिद्ााद, सागलूपुर, फनरनोर, फश्मीर, खप्तःरस, लखनऊ इत्शादि रुयाने पते दसे कपडे ययासाथध्य चारण छरो एऐिर दिसयों ऋसश; फपले के व्याणर में उस देश फी केसो उच्त ति छ्लीकलो है | पर सही यहा सी भष्ठा भकिघत ऐसे पर फ्री हभलेय झत्लियर्य कद फरेोड़ लुबार विदेशियेए् केए उनको फनेक दा प्तुए लेाललेकर सेट करते छू | फुछ छाय यह भ्ठ लंछे छ्वे क्ि क्ादझे छन लो एऋ ठ » उकेजे छसारे कछ करने से कया देश सकता हे । यछ ये मल ऐ जे थेजड़्ा ऐछो छिखररले पर रुपएताथा सासूस पायी “दुका दारर रस और टट्ट टू छग॒कार के सिलाय लेप है ई “रखत्लजी फेए द्खकर खबरसदानजा <च घपष्डठर- ला &”-- आपके देखकर बीख आादसी और उस छोम छ्वेत देख अरेर बहुतसे केन स्वदेशी उसत बरतने छू लगेंगे | आए उचेसे अछधुदव ले पर येलेर सभी लोग एकही एक हे । एफ सख्दत्य कवर ऐे २ है प्री 6 ब्ख्प.-. +१ ५ ४77 यू रे - उच छाले से शिदिल है कि व्यय पके सियण पर छक्च खेपपे केर पूर्णो प्यास देना चाहिये । असल) झा छल व्यण छे फुझप शिक्ष,शें पर छिचार छरते हैं | 2॥ लफथे देर घकार के द्वे ते हैं (१) डछ कि जिससे देश छी उ- सझ्ञा क्त शक्ति बढ़दकी 8 यधा-यदि छस स्वदेश का बना हु- जाप छपछा सेलले लेए छसारे द्वछञ् छा वयथय अआअवदय हे। पर साउसे छुतारे हो देश लके कारोगरी के लाभ हे, ऋठा। ऐपमएः हमे से छेसे सनुण्येत केश हापक्ष हा जे कि आाछसी चछ्टी हैं बवरल जे अपनी लोडिक व्यपोर वक्ो उन्तति करके सपलगव्य करते है फ़िर स्वदेशी छक्त बरतने से प्को श्पे छासि की सहीेें और घोडोसी द्ानि हु मो ती घास्ओे का सी थसलो ही से रहा कुछ उसारो सुद्दा सात अझुद्व पर तो ( ३९ ) लू गद्े ४ समसे ऐसे छोगों को सो खाफ्रल हुआ को छृसारर पथ शब्दी से शत्कार करते हैः-“यहस पएतखोरे , सककान, चुणाःप्पत्, अचधीोससूय, एशिनाडई लोय ? |] ४ एक फालतपे खीर फ्तली दस्त जिसे सकादे से कोड सम्बन्ध चद्दी झी- र॒ जिम का सास ऊछोग चुणित हिन्दू छडते हे ! | | “ले आ- पले अन्त'कर््ण से छहिच्दुओं की फोसता छूं सडियल कली लोग जिनकी जिहापर सर्देव स्तादे झा बास सके औीर सच को सब ऊकार दगाबनाज्णो के हू ” | [[ ५६ घहक्छर है छस लेये के जे ऐपे को घनादे बस्तर से।ऊ ऊेफकर उन्हे नालियें के छपलक्ष से सला प्यगा लापफर पहुँचाते हे | सरक्षार ऊ्ग्वेज के रानर/णज्य से को यदि हम ऐसेटी घने रछ्टे लेश कन्ी सचारफक ३ झाशा क्यर छो सकती हैँ ?(२३) प्रक्रारश को ठवय वह हे कि जिससे देश की उप- जास् शब्तित के! हाले पहुचती हैं। यथा ( फ ) चीन वासीे अफ्रीय सेफ लेते हैं। इमसे उनका व्घय दाता है ऋऔर उ- ससे ऊष्क्ष ऐसे ससव्या के द्वेतता है केतर एक हाशलिकारक वस्तु सत्पन्त करते दे | फिर अपफोन खाने से चोनोी छेपगेा फो च्इय्नदल्लता केत चुप पहुंचता है झीर इस क्ालि सभसस्‍स चीच देश को द्वव्येशल्पादक शक्ति फ्लो ऊनता लाती हेै। ( ख ) यदि हनने क्षेदे विदेशनिशसित वस्तु मे।ल लिया | ३: ६: पु ७४९ 7090॥ 487:08, ७7%, प्९४(.८.॥९पें, ८०॥7]-09 « 98770 08 #ैडागाॉ05, ,, ॥ घीताएओए 6 घनते शा छाएये 9 गाए फझगए श0तएओ ऐोल्या फ्रविटा 706ए ०१ ए॥6९ 0एटशः४८पे क्यातए,.. व हवा पघावए टा55 [6 स्यतंप, हवूपद्नादों 200९5 0७१70 ६7 707- ]055 60700 पड छ9ते &7॥0) ६४०58 ( २१२ ) ती स्वदेश का द्वव्प पन्‍य देश के। यया इससे छसारी देशो दृव्ये।ल्पादल शक्ति के! छातप्न नहीं हु ला पर उत्त विदेश के ठेयापारियें से छझ अपने परिश्रस का छससे पुरस्कार पा- या ञझोर कुछ लापम उठाया बये।क्लि लिन दामे पर वस्तु- व्शिष दिप्त्र हेश्ली है उन्हीं दामेर पर वह क्वापि ऊहों लिकती | से। यह लाफ़ ते केवल छसारोऐ सस्ता से घिदेश गया जिस दो मलीबार में इमने कुछ भोज पाया। सिर विदेशी छारीगरेों के परलस्रिसम का पुष्ल्क्यार देने सें सो छसने स्वर्ेशों रकय्यंकदोओं के साथ ऊचयाय किया, स्येके जब छहसारा एक का छेक्तायरी के सारे सरफक््त फो यं- ज्णा भेतग रहा है तल छस उसे सेाड सेटे खिंदेशियें/ से सा- स लेफर लोेश छमों से कऊड्ठे गुना अधिक चनवान फोर छुरबी हैं, घोर सन्‍याय ऊौर पाप के पाये हुए |! ( य ) यदि छहस- से किसे चटठवरिये केश दान दिया ले हमारे व्यय से एक घेसे ननुष्य को लाप्त पहुंच छो देशो ठ्यापार को कुछ भी सट्टायधलता नहष्टीं फरता भमौर जिघका जीवन देश को छारि- क्ौरफ द्वासे के अधिरिष्त किसो प्रकार लाप्तदश्यक नहीं । यदि छस उसे दश्न लू देते लो वह सद्रपालना्थे कोहदे न फोद व्यय्यगर अवश्य फरलाः जिससे देश को ऊाभर पहुंचतो | अत, ऐसे दून से स्लो देश की उपजाऊ शाह्ति चलती है। इन दो नो प्रकार के ठययों के अतिरिक्त एक तीसरे मक्ता- र॒ का उयय है कि जिससे देश की न कोर िशेष लात हो हेता है औरर न झहानि हो | इस के दिपय सें छसे कछ वि- स्तरर फरने की फ्ावयश्यकलर नही! ( ९३ ) प्रथम प्रक्ार फा खघा सुब्पय औीर दूसरे मार का अपष्यय है । द्रव्य को गाष्ठ रखने अथवा अन्यप्रफार ले उसे ठयापार सें न लगाने को को हम फ्पवयय फछ्ठते है | क्योकि उसमफे ठ्याज फो तो ह्वानि हेशयो ही है मरन देश उतनी सुद्राओ को फास में भी सलहीं छा सकता | मुद्रा ग्नाने का प्लेयर छ- तनाएी प्रयोजन है कि उससे ठयापार सुगस छे। थ्द्यपि अधेशारत्र का यह एक महाओ्टी सरल सिद्ठान्तल है तथापि उस शास्त्र से भनकिक्न पठको के टाक्षार्थ हम इसे क्चछ विस्तार पूर्येक लिखते हैं | यदि मुद्गा न छोते लो छझब किसी को कुछ सोलर लेना छोता तो यह ञो घबचलतु उस के पाल होती उसी से सोऊ क- रता | सान लोजिए कि फिसो लछोह्ार को एक टोपी चाहट्ठिए बह्द एक निज रकूत खुरपोी लेकर ब्राजार को चला कि उस से दोपी सोल छे अरे, एक दरज़ो छष्ट में टोपी बेचरहा है। लोहरर उस फो दूकान पर जाकर खुरपो देशर दोपो मोल लेना घाएता है परष्त द्रज़ी फो खुग्पी द्रकार नहीं यह गेहूं लेना चाहता है । झतः) उस ऊोट्टार और द्रजी का सीदा नहीं छो सकफ्तता | उसो छाट सें एक किसान गेह्न सेंय रछहर है । अस् द्रजी ठसफे पाघख जलाकर ढोपो के बदले गेहूँ लेना चाहता रश! परन्तु कंणषपिकार फो टोपी फो खाय- घयकता सहीं बच एक खुरपी लेना चाहता है| इस पविचा- र से वह लछोहार के पास गेहू लेकर जाता है औरर उन्हे दे- कर खुरपी केला चाहता है पर लोष्ठटाररास गेहूं चाहते ल- ( २४ ) छी थे को टोपी पी चुन हें हें सर थे गेहू लेझर ऋआपनो खुर- घी काछे को बेचने छूगे ! अत. ख़रपी, टोपी छरेर शेह सो- सोढी फदुप्ये खाजपर में मच्लथ इोनले पर भी उन के सारलि- प्हो के बीच आपस मे सौंदा होगा ला कठिन हे क्चधोकि कीच मई फोले ऐेलो वच्लस ( शद्वा ) चह्धों है क्लि जिस से सर- यत पदृष्य खर'दे सर सकते छोी | आप छडेगे फश्ि जे रसेल- फर सीदा छापने उछ्छी फकरलेलसे ? इस का उत्तर शत हे पफ्ि छूट में तोच ही झखनुण्य लो हे रही कि थे चढद एकलसितस छी-- जाश | फिर यदि बुत ढूढ़े छाड़े ले सब सिर फ्रो गए सी सोलो पद्ाथों का झसल्य एक लद्डी सरेदा कैसे हो | सादि श- रुपी लेझर फिसान ले लोहार की एक सेर गेह पदिए आर उ- सपफा सरोदर होगया लो कोछार ऊीर दरउते से माला जची क्योंकि दुरजी अऋपनो टोपी के लदुले छेढ सेर गेहूं 'वाहलएः हे अयजलार सानलिघर कि लीहछार को पदा ऐसर दरणाओ लिलनयसा कि छो ररुरपो लेकर दोपो वखिेचलएर चाहलाः हे ती भी सोदा छोछा कठिन है दथोकि स्ुत्पय' फौर टोपो के दास चरावर नहीं | रत. छूद दशा से सोदा ठफी ही सप्ता दे जब दो झूजुण्य ऐसे पदाचण बेचते लें! फि ईशेन फो एक दूरूरे पक अआलश्यकता है और उछ पर क्षी इतर दोने। पदाथों का शा- लय एक छवो होना चाहिए | इसी को ऊथेरशास्र से 72०00०१७ ९०ए९0र्च 000७ 309 उत7 ६07 (फदला अदल मे दोपरा सथीय!। घः- हले छ | इस कर होना ऐसा कठिन हे फि मुद्रा घलपए दिसार छाल नछो चलता | परन्त एस में छानि यह है कि जितनी चहुसूल्य चात का सुद्रा बनाया पातएर थे छरछ चात साले व्यर्थेंसी छेम्जाती हे स्पेफि इससे वध उस फासेके अयोग्य ( २३ ) ही झालो है जिरपर उच्चकी घबहुमुल्थसा भिक्षर है | यथा स्वर्ण इस देतु जहुछूल्य है कि उसप्ती पनी हुई बरस में चरक बहुत शुन्दर होती ऐश, पर सोरथः छहरें ऊगतर, उत्त में बढ़ने को लड़ी शक्ति है झयोत थाटे से सीचे से करे गज लम्बा सार खोया जां चफ्तसा है लगाया बुर लस्यः चरेछए पतन्न बन उफला है, उते फोछे एक छ्रादकफक गला बढ़ी सकता कोर छह्द पलाइंट्ेकएसशिह करेर छचड़ीक्ीएरफ्ाए- सिद्ध के सिझाने से ही गलछ चकता है, उस ले रब्सा छुभा खाद्य पदाय सखियटलता नहीं, उत्त के परत्र द्वारा दिपलिशिल याने को को परोक्षा हो जाती छे, तह कर दयाजों में घत्षा शुणक्वारी ऐ, उस के आभूषण बहुव छन्दर बनते हिं छ- त्थादिं २ ऊस में अनेक जुण है फि जिन फे कारण वए बहुसू- लय छोतर छे | परनन्‍्त ऐसे पघृूल्यवान्‌ पद्रथे ( रुवणे ) झा लिक्लाश छलार कर एस उसे उन राभेों थे. पडुचासे से बंस्चिज रखते हें कि जिन के कारण छह ऐसा जहुन्नूल्थ हे, घर शक चानदी प्ठा थे क्येकि चस के री वहसल्य दिरी के ख- बेफ फारण के । परनन्‍्त गचकाः सत्ता पशसो ८ल पन्मवया जाला &े कि बिना सत्ता के काम ही नहीं घर राफ्ला। इय छे स्पष्ट है क्षि पत्थेक देश सें रस से पण फ़ठले झुद्गर यो फास घलपने के सियए अल धघोसके बनाने चाहिए | 7द्र पादे शो प्रता पूर्वक अपने रवरसी बदुलऊता रुड्टे लो रूपया पाहिए फि उसने अपने ब्लेब्यपालान में दप्धि यहीं करे। जियना दो व्यप्पर जहा होगा वहां उसी छित्तान से छुत्ा फो लापवाशय- कता सैनी | सानऊोलिए कि अयोध्या से एझचपा व्यापार थे ( २६ ) छहै।लता हे फि एक लाख रजतमुद्रा हृप्रप बह भलीभा॑ति चल सकता हे पर यदि उद्दी ऊुद्रा द्विगणिच शीघ्रता से छाथ बदलने लगे सी घइ्ट व्यापर छेब्छ ६० दृजःर मुद्रा से चल सकता है भोीर शेप ५० 6णार सुद्राखर में छगी हुईं रजत अपने उन्त फायथ्यर में छगाई ऊा सकती हि कि जिनके लिए यह बहुसरनूप है और से देश को ५० छजा- र झुद्दः को रजस कास से छानसे झा लापर विसा फिर उन णय को झएनि के हेग, परमप्त यदि फोडई सनूपय ४० छजार सुद्गा लेकर पथचिदो में गाल रघसे तो इतने सका खपतनर क- चेल्य पारच में नितानत अखचयथे हेाजायं कौर उतने स- खोन सुद्गा बनने फी जायरुयकतसा उपस्पित छेोजाय, या कस से फनत्त देश के! उतने मुद्रा मे छगे हुए रत का उन्द सहले से लगाना अवश्य ही रूक जाय कि जिनके कारप्य उादी ऐसो मूल्ययान्‌ वस्तु छकै। क्षततः उतनी रकतस कर जेश छौप्कक'ररे फाले सें रगी घी पसचना ऊूग सकती थी झपपें छो सुद्रा का स्वकूप चरण झर अपने कलेब्यपत्फण में अससर्थ रहना पड़े | एचादला उस सम्पत्ति गाड़ने बाछे पुरुष से अपले ठवाजश को छहामसि की कौर देश को उतनी चांदी फास में छते से दचित रचूखा | सर द्ृ्य पक गर ड २र- खनार रवाश एवं देशहिलैषिता दोनो ही फ्े वेरूड है | छुप कह लछौगे को जानते हैं कि फिन्हेंने नव्यादी सनय के ली - ठो गोली वष्छी रुपये गाश्ध रूस्डे जिस से उत्त् दो एानचियेई के अतिरिक्त उन्‍हें एक तोसरी बहुत भारी हाति यह पहुं- जान (२७ ) घांदी क्ैजल ९४०) की रहगड़े | अब वे लोग ऊपनी भूल पर खूब पद्चात्ताप करते हैं पर तोजन्नी रजत के भाप बढ़ने की फोर्ड सस्स्षाघना न होने पर को वे छोग उस्त घांदी पो अआ- ह्नक्नीछास के गहए लाते ! छत स्थान पर शहर सी एड देना अनुचित न छोगए कि बेकों के नोट बरतने से सतने सुढ्वाणयो के स्थान पर छ्ते- पल कार्ज़से फ्ार्याधथन हो जातर है| यह एक बड़ी पी उत्तम रोति है दर्घोकि इससे बह्दी समुद्र दो दास देकर देश प्गो दोहरा ऊकाप्त पछुंचतता है। एक तो वह नोट का काठा छाप घारण कर द्यापार छो चलाता है कौर दूसरे स्बय॑ फिसो अन्यदेश की जाकर र«जदेश को उयाज दिरकाता हे अचपथवा स्वयं रजत या रवरणे छस्ते प्वरूप में रहकर कायथ्पों फा साधन करता ऐ फि जिन के हेत ये घातु घहुमूल्प हैं। छ- सी हेत ऊब दिखी व्यक्ति ले यह फहा था कि ४ जुद्गा उ- छुको के समांम है जो खेदो से थोही सो भसि लेकर उन फरे कुछ जैदावार बाजार लेजाकर उसे मलुण्यजआाति फा छित- फाररे खनाली हैं ? € तब एक दूसरे ने फहा कि ८ न्नोट 'फृरमा+-- पाल ुलननभ3०७+भ+म>»+» ना नानी ननन-+यान+ न तन न-+4+५++3. ५333७. ++ भा ना ++न+-तानान नाक ++पन++++>नहीयी पाना कक ५+3++ननन न नन-+ - +-3त3तल्‍मननमनन नन- म 3५ -< नल नमक ५५५3 >परनम+ 3 +पन-+पनननमा+3++3_--ननकककमन की ए...20.3- 3 4 39, यय.पर्यकरकम बह भुमि सड़क में व लगी होती तो उस में भी कुछ अन्न उत्पन्न होता | इसी प्रकार यदें वह रजत मुद्राझो के सदरूप मे न होती तो वह उन कामा में लगती जिन पर उम्र की बहुमुल्यता निर्भर ह-“पे- दावार बाजार लेजाने ” से यह तात्थ्य्य हैँ कि ज्सि प्रश्वर बिना स डक के खेतों का अनाम हाट तक पहुँचने मे बडी कठिन इ द्वा बसे दी विना मुद्रा के व्यापार चलना अति दुस्तर है । ( २८ ) देलूप ( एथरिल दाशुयाच ) के समान हें भो सड़क छ्ते हेतु उसको भी प्रासि ला लोएर च्ेन्रननित चान्य को सरक्ाध्छ लाये ले छुछ में णह्दुंडा देते हे ! झुण्णी झाप्टणा। से दगलेड में लोग द्रव्य प्राय; खेकों ६) सें पल रखते &। यदि बोदे उय्ति ९००० सद्बर सलशखिक घ्ात्र परे ले३े छठ पूरी सनखाछए बंदः में छासो फरदेगा। यथ- दि यु फीशे परएष्य सोल लेगा सो उत्तने का चेप्त देक् पे खो - पर लिएदेगा | ऋबदय लिसने उदचद्ध बेक परया लए की ऊझयएशय ही किसी दें से छितान रखता छोना झल; चेक व्यः सुद्रा खसूलछ पा परके बा केवल उतने सादा सपने छ्िसाव में जनता परी । बज को से लो छिसाष उसी दबाकर फरलिया जाथ्णागर दउयोंकि प्ररय+ सम लेक एक दूसरे से छिसाय रखते है | घच पशव्तार सोदे प्तः कासप्छागजो चोजें (रूघाोत चेक) हारा चठतएर है कीर यो जहां पचास लाख सुद्गा बर्तानने स्‍्तवो व्याधणयफतलर छोती बह्चा लेवल ९३-२० रा्य्स सद्गः से हीरे फाफ उलजरापर है | पिर यदि खाए उसपले तेरस काने ऊए च्लो- दे सदा छोजिए सो शेज ढाई जाने रषदण्यद्दी फटफर लौर पर उथथे व्यघ हो जायगणे | इयो हेतु जछुत कोन झद्गर खुलादे से रप्णा पेोछाण किया प्तरते हे जरेर झ्ाथ। सुद्गा स॒- चले ही सुदसे सू पेसे जान को णप्च में व्यय ही जादे हैं। परल्तु याद आपने ॥|“)॥ का चेक देदियार ठो रू शेष दाद ऋहष्ने मौप की पास फदकर बचेंगे ऊछौर ज दे वपर्थ व्यय टोगे । इस प्ञांति वष्टां बेंक हें सुद्बः रखने से सीन फायये सायच छोरते हे (९) उतने मुद्वाओों का कुछ न कुछ ठ्यश्ल कक कक १ जज च्छ््र्प््र्लप ( ९७ ) समा छरने वाले को मिलता है (२) द्रव्प का कास थेकरे ऊी- र नोटो ह्वाराा चछ जाता है और (३) फुटकर का अपदणशय प्र- दी होता | घथ॑ रोति ले जो एक घोंया फार्य साधन फोचाः छे बह बडाही लाभदायक है | बढ़ा गाघ याव की बेंके प्वपना दोष प्राल्लिक बको में जीर प्राज्तिक सके लखन बेक में जगा प्र देती हैं सो लगन देख किलछायत की बेको की बेक हे । ऊीद चिलए्यल चाशियों दा सघब्त संघरर से घतमाव्वापारिं- पा सम्बन्ध रहता है कि पएथयिदीसय्हल छण्इन लेक पर चेक्े सजझूर कर लेता हे और छरा पर चेके लिखला है। जो लणयछव खेक चससरत सस्लार फी खेल शो गदे है | इपत केक में जो छ- सन सह्ाान्‌ दृष्यसमसुदाय एकच्रित हवा है उस के ठुरिटियों को अधिकार छे कि उसे चाहे जिरे व्यापार से छगाये | अगेक लछाभकारोी ठ्यापारों ग्रे घन लगाने के अधिरिध्क दृष्टो छोग इस दहृठप को ऐसे २ अप्छे ठफापारियों को उ- चार जो देखे हैं जो व्यापार में बडे प्रवीण होने पर भो द्रष्पामोज से फकोदे ठघापार झुगनता से चलछा नही सकते | एस प्रकार दयापएर फो बड़े ही सच्नतलि हैलो दे भरेर उस वे कारण देश की कुछ भी दह्वानि नहीं ऐोली ब्पेाएकि सेदे दा फास नोटों! मीर चेके द्वारा चलता ही रहता डे । यही द्वष्प ऋण में देखे का फास ग्राज्य ज्लीर म्रान्लिक थे सो करती हैं| अब यह मस्त उठता है कि जब सियरालुसभार ब्ेको फो सुद्र। जमा करने घाले। को लाग पर उनका रुपया लीटाना पडला है तर उन्हें एूरा घन तेयार रखना पड़तःर हेशगए भौर इस फारण दे फुछ मो रुपया उचरर फैचे दे स- 57 ( ३० ) कती हगी ? प्राय। देखश गया है छि ऐसे नियम वाले शक की अपने क्ोप छा पर छिहाईे ग॒द्ढा सात प्रस्तुत रखने से सुयत्तता पूर्वेक्त सागफा मुद्रा चराबर देती रहती है | मत; सिलना सुद्बा/ उनमें जमा रहता है उसके पो लिट्दाई स्‍फे ठ्या चा का लाकर घन घस्का फी दाता हे |] हसारे यहां क्षी वेऋ हैं परन्तु वे कित्तकी द्वे ” उन फा लछाम्न अधिकांछ में (हूसे छेततर है ! हमसे दुःखपूर्वेक कहना पछता है कि विदेशियो छेप | केबल फेजाबाद गेररखपुर इत््यादि दे चार बैंको का लाच छुमें छोगो फो होता हि परन्‍त ऐसी केके दिदेशी केंको के सा- सने दुन्तावरलि में जिल्ला के समान दो पड्डी ऐं | छवा हून लोगों की बेंके खोलनी न चाहिये ! यछ्ट तो बेके में रूपया विशेषत; देही छोग अनार करते छू जो आालस के फारण को दे पास नही फऊर सकते फेघल सूद ाकर मेपटे छेनचा मोर दि- नल राल पड़े रहना अथवा गप छांकनाही उन्हें यहुत पसन्द है।दसा छेघा भो यहा केडे दिन खावेया जब हूस उस लिषय से दिल्ल(पत को रोघसि का अनुकरण करना सोखलेंगे २ इस लोग जेजे कयें नहीं सोलले ? छतारेढी यहा विदे- शिये। से इतनी रेलें खनवाई शोर बचवप्ले जाते हेँ पर तब भी हसारी खन्‍धाड़े एक भी दाये नहीं ? मेनचेस्टर केखकोला- हैं। का बनायश कपड़ा छस खूब पह्चिनते हैं परन्तु कानपुर द्टी में एल्गिन मिल्छ इत्पादि विदेशी सिले देखते हुए भी बहु- तसी मिले छहस ठोफ २ तौर पर कयपे नही चला पाते. ह- सारे चर्स कस आचार दिचार में बरस ध्नेक परिवतलेन हे। ुढे हें लिनसें से कुछ लाप्कारी ऋऔरैर शेष हानिकारी हैँ - ( ३९ ) रस्तु हम एक जातीय सद्दापत्ना कर सोच विचारानन्तर कुछ दुढ़ परियतेन कक्‍यें नहीं करलेते ? आस्ट्रेलिया और साउथ अफरोऐका सियासी हमको ४“ फाला” कहकर कुलियों तक में सरतो चहों करते बरन यहाँलफ कि “ काले ” मल्लाहेंप घाले घूधपोते को अाच्ट्रेलिपन लोग अपने देश के निञ्रद आने देना भो नहीं पसन्द करते परन्त छम भी सिलफर दृढता पूछेक यह जियस कक्‍्ये नहीं फरलछेते कि आज से इन देशें। का बनाया कोई पदार्थ द्वाथ से न छ्वेंगे ! इन सब भर ऐसे २ सष्ठस्त्नों पन्गछो का एकट्टी उत्तर ऐ अर्थोत्‌ फर क्या लें खाक ? छस से मिलफर फार्णे करने को शक्ति [ ८०० ०0९7705ए6 ८ [१४९०६ ५७ ) त्ती है ड्डो नहों | छम यद्ध लो जान- से छी नहीं कि ससदाध किस चिटड्ठिया का नास है। इस ले।गगे। में एक मसिद्दु कहावत है कि “ काणजी दुबले शहर के छदेदें। ”” बस अन्त हेगगया | | छाव हम शहर ही के छऊ न्देशे को इस कारण निन्दय समभते है कि समस्त शहर से एक आदसी को कपः वाह्टर * लब ससधह्त देश का अन्देशा कौन फरेगा ३ हनी लोग मिलकर एकट्टली घर नें उप्तर पार करदेते हैं और प्रादे पम्ाई जुदे नहीं छ्वोीते। कपः छोटे मेल से चबह्े मेल को शक्ति नद्ढी रह जातो £ कयः फ्वरण है कि टांसबाल सें संग्रात हो गहा था आर समाचार अत्ने से एक दिन का क्री विलम्घ छरोवा था तो रुसस्त अद्नरेज जाति ( न केबल यूद्ध में गए हुए लोये के भाई बन्घु ) बिन्‍ता से निसप्न हो जातो थी परन्तु छमारे दम हजार साइयें। का घोन की घोर समराग्ति मे पड़े रहने ( ३२ ) छा छूम लोगा। को प्रा लक जे था? जनरऊ हुएडटं पफ्नी छलतुर पर सवानत में इसलनो क्षारोे फोड़ हुई घथो ईके अमश्ेक्कत 7कहुण्य छठस में दल फार सर यए के छयर छन की कर्नेझ खर प्रतापसिषछ का लेसा हो शसालागत सहछेो फरला अप्िप्त च४१ जाना कि छनन्‍र सद्दोद्य का स्छागल सर- रलवष के देखते अच्छी घूल्र घास से छुला था पर क्या अ- जनरल छूए दठ दो संजागयस से किसी झऊदच्य में क्री उसको लुठना हो सकती है ! चीन में छेलनछ येफछे से रान्त्रिदुल, ठलापारों, घ पाद्रिया के चिर जाने से समलत घृरोघ पर फैली सुद नो छा गछे थी कि छाय छततारे छत लाइयों के कथा गदरन्‍ते छ्ोगी | परन्तु आप के यहां फ्री जन ऋद्दलदृशाह अवरइ्लो से दो छाख सरहदी को बैठा क्षर कलर छरा छाल था चन्र कली छुथर ऊझाप छे सिर पर जो रेयो थो ! जवदशय हरे अब यह उयणसपत्रा रझूणजो अन्धकार प्रारतवर्ण थ चीन की छोछ सप्ी सोर ससयलर के एफाय में पररेघतलित छोगया छे हमारे अध्य्योच्क्ते में की बह ऊंगछा हो गया है दर्वेरेंकि च- सरकार उयेज ने एलेक टिक लाइट द्वारप उसे छिल्न फिन्त कर अपने पास से हटा दिया है परन्‍ल मजा से व पलीनांदि तत्तेसान है | इसी छेतु एक दाग हुठले प५ क्री ऊर्ठ दमा चैर + लगा कर वह्द कूद रहा है और चीस लें लो राजा प्र- 0: न ७. मर बीच “ भफाकैंड उड्धार में सारी विलायत पागल होगई थीं (स०स०) + क्या अब भी सरकार को रामलीला, मुहरेम इत्यादि के क- गड़े निबटाना नहीं पडते ? अथवा “' याहत्या ” का पचड़ा इवर ” च बी क््ष ५ उधर नदीं डठ पडता है ? यही काठ छी टाग है | ( ३३ ) जा देानलो हो फो अपनाए है यहांतवक फि वहां जाने बाली सभ्य जातियों पर भो ऋपना प्रप्नाव कुछ न कुछ विर्तारित फर छी देता है सुनते दें कि अब बहा फी सहाराती भी उदाति की फुछ चेष्टा कर रही हैं । एफ प्रलिह्ु किवदुन्तोी सुनते थे कि नक॒छ राचे पझ्- कल ” परन्तु अब प्लारतवर्ष के सम्बन्ध में सारा विश्वास शस को सत्यता से भी खरवबश ठठा जाता है दयोकि छस लोग सुरोप थे लमसेरिका फो यनी साथारण वस्तु देख फर भो सन को नक्कल नहीं कर सकते | कुछ नकली साल से यार भी फिया ऊाता है ता वह उप्तम प्रकार का नहीं हो- ता कपोरियहष्टां के कारोगर घटिया से चटिया सार बना लेना शी! और उसे फस से फस दरसो पर बेंच सफना ही बहुत्त अच्छा समझते हैं | ऐसएण नहीं डोना चाहिये। सुना- सिब् यह है कि € खरा नाल चघोखा दास ” | यूरोप घ छले- मेरिफा की घास काने दीजिए अग्नेण छोग छनारे सासने हो उपस्थित हैं जौर हम उन के अवगुण तो खूब सोख लेते हैं पर गुण नही | ऐो सकता है कि चसे व चसे के भेद से ऐसा छो, पर जापान को देखिए जो छमारे हो समान फाला औौर जिसका घर्म छमारेष्टी चम्मेफा औरस सन्‍्तान दे और जो अप्ी सन्‌ १८४३ दे० में ऐसा खुद्धिसान्‌ था कि दिदेशिये/ से स्वदेश रक्षपार्थ उसने “ सूच्यदिधी ” #% को झाराचना साच्र एक * जापानी लोग “ सूय्येदेवता ” को “ सूख्येदेवी ” मानते थे! न जाने वास्तव में वह देवता हैं या देवी या एक जलता हुआ पिणएड मात्र | ( इ४ ) प्रभाघशाली जौर लखम्चित उपाय समझा था! परन्‍्त आपयान को घूर्ण उन्तलि कर लेते देख फर भी छहस च चेछे,| सीच दो छी ऊच्ते उठश फझर एिर ससरुद्ल रहए हे परन्तु एस छजारेिं लक उठाए फर भप्ोो सहेों सब्छुलते [| प्तार- लेन्दु छुरिश्चदू ने सच को है कि #“ जो जान दूक पर सोसला है उसे कोन जया सकता हे १ ' इस ले ऊअग्चेर्गो पर ही दोष देदेने से काल नहीं चलेया। जअग्नेजों जैसा फ्यायी रश्जा बड़े साग्य से सिलला डे पर यदि हम छ- पत्ते उत्तति की उस शामराज्य में की छुछ उसुचिल चेह्र न पार क्ेछल रचिल्लरपा छो छरते हे तो अग्रेज कया उन्कत्ति को छसे चघोरलकर पिछादे ? फिर सिलारेहिन्द राहत शिव- असाःद ने जज घिन्‍न्दृर्तानियों को फ्रेंड ? फडद्ाथा तब ले ग॒ उतर झघों बिगछ्े थे कि लचन के जोले जी उस फ्रे मर“ सिखए ऋज(पफर उघकोी दष्॒क्तलिया को ? सादि दिगले ये ते _ छझूछ सन्तति कर दिखाते | उच्त छपश्स में प्ली तो दियास- ऊाईे बिदेशछी वी बची ऊगाई छ्ोगी | तोच पहाड़ों में दू- छा हुआ छोटासा स्िविटजरलेंड तक तो आप छे वारुदे सा- रू >. जछुतसर' नाऊ चनाफझर झेजलाही छे | तब आप हस्रे सेजना सो दूर रहा स्वयं अपने खिए सब चीज़ें दयेए च- हो छूमला लेते ? छस लोन त्तो केवलछ “* छदछक लक्क ? क्र फे बेल फो पूंछ सरोडना जरनते है और सो को सिस मप्तार जाथर अभादस के ससय सें होता था ! के अआलब्य के कारण अपना मसबच्च न देखका री एक घक्तार कार मच्छन्तन सलपव्यय हो है| यह छमारे यहां क्ते ( ३४ ) राजा, सहाराजें, नव्वप्ये और लनन्‍्य आलशिये के यश बहुत लचालछित हे | हगलेंह में एक प्रसिद्ठ छहादल है कि ४ ॥० छा0786 वध्वा074ं (छा 7'879898 )॥5 €809९ ))०९६६९/' |))47 ६॥० (:०ए९ 77767 ? अ्पात्‌ निकृष्ट से द्िकए ज़िमीदार क्री अ- पने घइल'क़े का प्रशन्‍ध सरपफ्कतार फो अपेक्षा उचमदर फर स- छता है, परन्तु यहां सरकार की लोगें के इलाके फोटेआ- कक बाहूस सें लेने पछले हैं ! हम सुन्यपम खीर अपव्यय के विषय सें कुछ सिद्ठान्ल भकट करचमे हें | खब जिस प्रकार के वयथ इस देश से झ- खिकता। छ्ीते रे उन फो योग्पतला अथवा अयोग्यता पर क छ लिखना छहै। पहले छू अपव्यये कर दणेन करेंगे | ( १ ) कुपात्रों को दान देना। बूढ़े भीष्स पिदानह ने कहा है कि दृःः्म सर्वपाप भष्ट छरता थे । परन्त कैसा दान ? दान का सुख्य अक्षिप्राय रुवा- थेत्य(ग है जो “ सलामानानगोजेकयपो ब्राह्मरेमभ्पो5ह सम्प्रदू- दे ” सें घही हो सकता | विप्रदन्द्‌ फो पूर्वकाल छत्ारे यहा दान दिया जाता था परन्त क्यो ? केवल इसो छत कि दे सब्ंगणसमपन्न छ्रेने पर प्नो स्वाथत्यप्य फर छ्दे दे शो पका- पाये प्राय ससहूत विपकों पर सन्तेकानेक घिपयो को पल्ल- के रचते झौोर अन्य देशहितेषी फारस किया करते थे, सेसा 75 बस लेस के प्रथस प्राग में लिखा जा चुका दे | धत्ल प्रह्ठट में तो वे दान लेते थे परन्त वास्तव से संसार से सान चादर ( &प्र0डा8ड/०706 ४॥0927०७ ) को लेकर दे त्याग के सदेष्ट तब उदाहरण होते थे मरर ससारो जीव दी उलठे उचके ऋण) हि. ( ३६ ) रछते थे, पूना से फर्गेघन कालेज, दुयानन्द कालेज लागह्दीर, एवं सेन्ट्ल हिन्दू फाछेषणा बनारस के वे जच्यापक छोगय जो सेझकडहो छजारा झपसया सामिक को योग्यता रहते भी खाने साम्र को पचास पचास साठ साठ मुद्रा सहीने का खेलन ले- कर फास परते हें रया फोदई फहछए सफता हे कि वे दृष्न लेते हैं (से फालेज देखने में इन सह्ाशपो को दान देती हे क्यों कि दान फा साथ देना ऐे | सब फछ्टिए कि इस सें य(६- स्तविक दानी जीर स्वाथेत्यागी ये छोग हुए फि थे काले- ज ९ ऐसा डी दान उस समय छे ब्राह्मण लेले थे | परन्स थ- दि इचछड्ी सहाशयों की सतान पम्ारत फी छाभ पहुँचाना सोछद तो रूप हसन फालेखों प्कश फिर को उन्हें ट्रठ्य दे लाः उरचिल सासर ऊायगर $ कदएदित्‌ इन सहालनुत्तानों के लछ- फोों लक फो यदि ऊछ खाने के लिए दिया क्षी जाय सो क- हैँ अ्शों में यह्ठ उचित हो पर कया पुश्तद्र पृश्स सरन्‍्यतर सिस्टर गोखले, रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे, हात्मुर रिचर्ड- सन, परयथवा छाला हृसराज तफ के छपत सनन्‍्तानों को ( य- दि देश्वर न करे इन में से किसी के ऐसी सन्‍तति हो ) दए- न देते जाना इचल फालेजे! अजथदा अन्य किलो सलुष्य फो कुछ क्री सचिल कष्ट जार सकता है ९ अब आ'ऋ्नणों प्ो दूर- न देना बैसर छो पनुचित है प्थेरकि ले दान के प्रत्यपकार सें देश पफ्ो कुछ म्लो रास नह्टों पहुंचाते | देखिए आपकी फ्हे भोटलिफंर फ्पा ऋछते हें कृते घत्थपकारों थो छणिग्धों न खाछुता | तत्रापि ये न कुबन्ति पशावस्तले मन झानुणयाः ॥ कक ५ ( ३७ ) सो वर्तमान फाल के दृश्न लेने बाले ब्राह्मण सृदेख के पद से गिरकर पशु को पदवी की प्राप्त हे गए हैं | प्राचोत पाल के ब्राह्मण यदि याण्तव में भिखारो होते तो दे सम- रूत हिन्दूजाति में अग्नगण्य फप्तो न प्लो सकते | तुलसोदाउ घी कहते छे।--- ४ लुलसी कर पर कर करो कर तर कर न करो | जादिन कर तर केर करो तादिन मरन करो ॥ प्राचौन ससय द्ते प्राह्यण कर तर कर” करके उसके उ- परजक्ष में न जाने फितना देश का उपकार कर खाललें थे पर अब हस लोग सिया ऐसा करने के और कुछ जानतेही नह्ढीं यही परिणास देखकर फद॒रचितु तुलसोदासजो दान लेना सान्र ऐेसा निन्‍्चध फटद्टयगए हे । इसो कारण हस सहठ छहते डे कि घतेसरन काल के अधिकॉोंश दाता और दान पात्रदे- नों पाप के भागी देते हैं । यछ कपाओं का दान कितने दी रूप चारण कर छस लोग का सत्यानाश कररष्ठा दे। उत्तसें से प्रधान २ यह लिखे जाते हैंः-- (क ) सबसे प्रथम छ॒हे फटे फक्‍भेराों को दान देना छहै। एस रोति का आविभोबव इस प्रति छुआ कि छसारे पचमहरयक्षञों में मतिथिपुजा भी एक है| अतः गहरुष लोग अरूपागत का चथधासाध्य सतटकार करना अपना घर्ने ससमते हैं | यह बात वास्तव मे बहुत ादरणोय है परनन्‍्त 0९४5४ ०7७ ००7० €ए560पा 879णाते ठ6णफएप्ए६&॥ थी€ढ छापे अ४अर्थों्स भाखे सूद्‌ कर किसी उत्तल से उत्तम रीति पर च- लने से झो पएथ्यी का सर्वेचराश द्वाजायगा ”? के सनुसार इस ह ... (३८) । यक्नस रीति से घद्द होनि हुप्र कि गेसाद , साडउ , फझनफटें, जेश्छी, दंडी, बेरागी ( | ), नागा, पृष्घिद्यामिष्चझ, भाट्टीदाले फकीर, मुजाबर, उफाजो, ऊादि दिदनो हो ऐपी पाउदियाँ सत्पन्य छेप्गदे कि जिनका आधतिथि शनने के अतिरिक्त दूस- रा काम हो चहों | इस सध्ाायजक्ष का सुखय फमअम्रिप्ताए यह था कि यदि देवत। फोडे सलुप्य ऐसी हुघंदना में पड़जाय कि उसे भेजन सक का होल न लगे ले! वह क्िछी रहो के यहा छा अतिथि बन उसदरपाऊन करले झअथवबा जे सकत- प्य ऊंच, पगणगु या अन्‍य फिसो कारण पास फरन के सनिला- न्‍त झऊयोाप्य लेःजाय वह इस मप्तःर पापी पेट को फ्ररे | फिर प्रादीय काल में ऐसे २ परो/पकारी सद्दात्सा वर्लेसास थे कि उन्हें अपनी लिए फोडे फास फरना ही कठिन था । ऐसे लहानुचातो को सादर भोजन फराने से दाल्तव से एर- सिथिपूजद के फल प्राप्त हाते थे । महात्मा सेकक्‍्ससलर ( सेफक्षमूलर भ्षह्ठ ) ने छिखा है कि “ सुम्के इस क्ुट्ट लीवि- फा के अथे पत्नी अपने कद घठे इरित्य व्यथे ठपघय करने पट्ठल्ते हैं” | यदि छत्तारे यहाँ फो भारत अतिथिपूजन फा च््रा विलायतल में भो प्रचलित हेतला तो उपसशिेषक्त सह्त्सा को ऐला स लिखयदा पड़ला | परन्‍त पशु एवं असत्तथ सलुष्य की फौन फहे अब तो ६०० में ८० फक्तीर शक्तिसानू सिक्ष॒ुक्त ( 8006 90कालपे >*ए००४8 ) छदोते छे जिनका पेशाः छी पजोख सांगना है | कारलाइछ ने ऐसे प्िक्षकाके लिषय में बुत छूखछ लिखकर जअंतर्से कहा है कि रशथिबार को झौर को हे काम नहीं फियर जाता से! उसे ऐसे फ्िज्षुके) फो शिकार खेलछ- ( ३९) ले भें ठयतोत फरणा चाहिये | पुरक्षियो के यहा कट्ठाआता है कि “ भाई असुफ सनष्य के घर चार शैलियों चलती हैं ( अधथोत्‌ चार आदसी प्लोख सागते है ), वह बरयेंगच घन ससपनन्‍्त हो ! ” ऐसे फकोरा से खहुते! के परस चनके सर- ले पर चार घार सहस्य स॒ुद्रा तक निकले है। एक साज्य ब्रह्मचारों जो छुससे कहते थे कि उनके ब्रक्मचय्य ब्रत घार- घ फरने के पूर्व उनके यहा साधुओं के निरित्त जे। पचिक्ि- त्साछय था उपसें एक “ साधु ” की चिकित्सा छीली थी अन्त में जेच्य ने कहुरिया कि बचद्ध अच्छा सही हो सफतएः अतः दा एक दिन सपे इच्छामेजजन खिलाने का प्रथन्‍्च हु था | उसने पतलऊए छलुभा सांया और उसी के साथ एका- न्‍त सें बह अपने पचात स्वणे सुद्र खागया। उसे अपने सद्ाओं को अपने साथ लेजाना ही जच्छा छगा | “ अ- हु गछनी मेहमसहछिसा |! |” बहुतसे लेागे ने उसे “ प- हुंघा छुआ फुफोर ” खसफदार यह घनदिया होगा | | | छ- . लुआ झरने के पश्चात्‌ उस के पेट से शूछ छठी और उसोसे घख्ठ सरगधा | जब उसका दाछ्ठ कले हुआ तब वह सब स्व ण उसके छदर से चसचसाता हुआ निषछ्कछा। पाला भक्र फहिए कि-ऐसे 'स्िक्तके। को दान देने से क्या पुण्य. है? फिर कुछ “साथु” कोय ऐसे छोते हैँ कि पिक्षा ह्वारा घन पराजित , यकूर उसे भाग, प्परस, गाणा, अफोस, चाड़, शराब, आदि सें उद्ठाले और ऐसे २ घणिल फायणे फरते हे कि कहते नप्ठी ब- चला | जब हसारे पूर्वेपुरसय घन घानय से सम्पन्न होछ्र फ़ी ऐसा दास हिन्‍्य सनमभते थे | शो देश का किसी मफझार हित (४० ) फरना ए तो छस दरिद्रें। फो बैसा दान देना सूखेता फोर पराक्ताप्ता नहाों तो छया है * संठीो फी दान देना दो प्र- फार हासि परुंघाता है जैछा कि मधस भाग सें लिखा ज्ञा- सुक्का है | यदि एस छोग दिशेप स्वा्े त्याग कर देशहछििले- पिता न फर सके सब भी इतना तो प्वश्य पफरना चाहिए कि झो दान हम फरते हैं उसे इस प्रकार फरें फि वष्ट देश फा उत्तम से उत्तम टरोति पर द्वितससपादन फरे जौर फस से कस हाभि लो न पहुंचाये। ४ बारे बरसे न तो आभार जनि डारेरे ! ” छहे फट्टे छोगों की दरन देवा देश ओर उन सडों दो - लो डी फो हरतिकारफ हे | देश को एस मकार कि उसका उत्तनर घन 5पषयथें न होता दे और उसको द्वव्योत्पादुक श- क्हि (जो उन्नति की एक साक् चाननी है) चठती है खीर उन जिक्षुक्तें की ये। छानि है फि वे पुरुषाथ के निताल्‍त जयो- ज्य होआाले है | आप फहेगे कि कया फफक्तोरों फो सरजरे दें? इसक्षा उत्तर यही हे कि ऐसे फापुझया, प्घ/ जो देश पर क्ेदछ छोका सात्र है रर आजाना ही उत्तम है परन्तु आप देखिएगा फि वे सरेंगे सी नहीं क्येकि शूखे सरने के -एहले हो वे कुछ न कुछ काम अवश्य फरने लगेंगे लखनऊ के बादशाह के यहां छुछ “ अहदी ” छोयग हुघ्या करते थे जिन के फम्नोजनाचछादुन जौर छनन्‍्य सफ्री सुद्दिधाणों व्ला म्ृन्च बादशाह सऊलालतल के यहां से होातर था कौर घन खहृदियें| क्वरा एक भात्र गण यही समता जाता पा कि पाहे वे सर जांय पर चारपाईहे से न उठे! फिर कयर था ( ४६ ) जिसे देखिए बही भहदरीखाने में प्रप्ती हे'ने लगा | एक दिन हजरत सलामत ने इन को बहुन बढ़ती देख कर परोक्षार्थ आज्ञा दे दो कि अहदीखाने से जाय लगा दी जाय, ऐसा हो किया गया । सुनते है कि कोई एच छुजार आदसिये मे से केबल तीन यश चार एछेसे निकले कि जि- न्हे'ने कहा “ भाहई चाहे जले और चाहे बचे हम अहदी लोग लठ कर कछ जा सफते हैं | ”! शेष सब के सब उठ उठ कर सागे। बादशाह ने कहा कि तोन चार सनुष्प ही सच्चे झदददी हैं । थे आग से जीछे जागते निकाछ लिए गए और पुवेबत्‌ सुख ले रहने लगे, शेष बने हुए अदह्ददिये+ई के नास रजिहघ्टर से काट दिए गए | इसो भक्षाति यदि हमारे आजकल फे समथे झिक्षकेा को जिन का रोजगार छी फ्लोख सागना हे भिक्षा देना एक दम बन्द कर दिया जाय तो उन में से प्राय! सब के सब कुछ न कुछ फास अवश्य फरने लगें, जिस से देश की पेर्नवार लढ लाथ भीर जो ठ्घय इन 'ख्॒- हदियो ” के छफ्तकाने में छोतः है वह फिसी देशोपफारो फास में लगाने से देश फा फोर प्री विशेष ला्क्त हे! कयोाफि इन से को न देने से लोगा की दुग्नशीलता घट थेछे हरे जापगी ? अनुपयोगी दाल का प्रत्यक्ष परिणास यह छुआ कि छस लोगें ने ५२ लाख आलछलती संछेश! फो जोवित रक्‍्खए और रखते हे परन्‍्त वही हल झफ्राल के सम्रय छुघा पी- छित ससु चित दुश्नपात्रों का बहुत कम्त उदर प्र खसक्षते हैं कि जिस से कितने ही अनाथ बालक बालिफा तो भूरे छ ( २ ) कक >>प्नान नम जनक 3०>म आफ जज हक हक हल्मसहब किला कट सर छेंचलतीे दापटइन में एफ वयाण्यान मे घटद्धा घ्सर सा फाते 93 ?) पशण्प वही अपेक्षा रछदाचित्‌ पाप अधिक हॉलतश होगा | ( रस) इसी मझार का दास छूम कीय भनछ्ठान्नाह्मणों को देले हे | किसी दो सरने से उनके सिरलित झुछ द्वब्य पु- न्ण या रऊूगाचर अद्ृ्यही अरल्वन्त एलाधदीय है पर्च्चू चह्द ड्ढय पुण्यक्तायें फो छोड़ पापफारये से तो च लगे | पएफकिसी ऊापलगी सिखद्यप सल॒ण्यप को दान देने से फछ भो छु- रुथय चलह्ी दो उक्ततर है | छ्लेबल वही द्वव्घ पण्यक्ताय से सठगए कहा जा सकता ऐे जिखये चर सो किी ऊझससचे बा- रूचविक्त दूषम दरिया छा पेठ भरे या जिम से देश के परि- जगी छीोपगो को रूम पहुंचे अघदा जिस से देशोम सपलजएक शच्ति घो उद्धि छहो। फकहही ( सहत्नाक्षणो ) दव्वो दान देस्गे से इस लोलो बातरे मे से एक का भी साचन नही होता । पता यह जेता छल लोगो को ले देखकर किपधी देशोपकाररी कान में खतपुरुष के न्‍्ास से रूया देखए कही अच्छा हे। ले द्दे यें चर द्द् दे ( ग॑ ) चसो दान से सिऊलाः जुआ आह्वादिको से ब्ाए- पछ्कणो पे खसिलानर है। आह से प्राक्ष्लण छेंसे रिलसने चए- हिए जो सिद्व/ल्‌ हे | यह विचारना (के असुकर व्यफत्ति ने ( ४३ ) ९० ब्राह्मण खिलाए हैं अप; से ९०० सिलादूंगा अत्यन्त नि- सत्य है| यदि एक की सुपात्र श्राज्मण निल जाय तो उसे फो अद्धापूघछ चच्छाप्रोजन करा देना उचित है | “बेभन खसखियैघधर ” करने से एक भो ब्राह्मण्ण जिसा देवा शेण्ठतर है। खिलऊाना ऊसे छी सफर है जिय से देशहिलतेघिता आदि दे फाख सच्चे | यदि शदेवणी ने आप के यहा प्ोजन करके उह- पने पीसी से लहुबाजो को छीर उजका घन लूठछिया तो कया आप सो कुछ फाप के प्ायो न हुए ! च्ंशाव्व्रक्ारो ने सूखे, झूवामिय, भर्नेघाती, ग्रमसूरण, राजफूत्य, कपदी, पिशुन, क्रोधो, हलग्राही, शूद्गपुरेहित, सठपति, अछ॒डपोंपो आदि खिप्ना को अःप्हु से निसजलित दोने के अयोग्पय छिखः है और सत्यवादी, घर्मेशील, विद्यावालू, ब्रज्ञ दारो, सुक- सेरत, जितलेन्द्रिय, क्षमावानू, ऐतसे भ्रदेवों की परक्तिपावन कहा है | इस पर खवषय च्यान देना छाह्टिए। छनएरी उस में तो केशल प्रह्म चारी का खिलानए शेण्ठ हे। ( थ ) घटठवारिये।, पडों और गया वाले को मी दुएन्‍्र देखा हम चितानत व्यर्थ समफ्ने हैं क्योकि ये लोय को घटे कहे मिखारिया द्वी को पझाति है| एस उममते हें कि हमने पतना हृठय देववाओ पर चढ़प दिया परन्तु देवता सी उसे खा ही जहर लेले उसे चयते हे पद्ाणी। सुनते हैं कि एकल शसिद्ु देवप्रन्दिर की जाय किसी घबरील के यहा गिरणी है सो छन ऊछोग देवता पर जो कऊ चढ़ाते हि उससे पहाजी चहाराज का ऋण चुकता है | क्या दी आभाशचर्ये है कि उचार लें पछली कोर क़रज़ा भरे हस छोय | पिशल्न- ( ४४ ) साथजी फे सन्दिर का सुकद्सा हादेकोीट नांघ फर अब प्रिघोकीसिल जाने याला है | वक्कीलू बेरिस्टरो में छार्ें रूपये ठयय हो) चुके हे मब विलायत होने पर रूपया औरक्ो पानो को प्रांति उछ्ेगा | पर बाबा यह्ध कछ्े कौन कि बलि- धघ्ाथजी पर फुछ चदाना ठयथे है? देवसन्दिरों में सेट च- उप्ने को प्रथम छस फारण पी कि जिससे उसके सरक्षकेए फा प्तरण पोषण होता जाय पर उन्हें रजप बनपने को फकोदे आंवश्यकतर मतोत नहीं छद्ोती कि खलिनके गुज़ारेदारे के डेढ़ उेढु सी रूपया सासिक्त खदाऊत से बच खारय॑ | ” देदसजन्दिरिो की अन्य चघुणित लोलाणए जो यदः कदर देखने से लाजाती हैं लिखने सोस्य नहीं हें। सत्य ऐ शून्य सदन में प्रेतो छा अवश्य निवास रहता है | इन पड़े इत्या- दिकी को और कोड बात का ध्यान तो होता ही नही तब सनके शून्य हुदय में चुणित विचार क्ये।न प्रकट हुआ करे * उस आचरण थाले अश्ष को छोड़ कर क्रो इतने आरूसियेई के! लड्॒ पूडी छझ्षतते रहना फौन से अधेशास्त का अवलस्धन फरना हे ? हम छोागें केश उचित है कि देश की द्रव्येणत्पा- दुझ शक्ति के! जहां तक छहे! सके दिवह्ित कर भर यह शक्ति तप्ी यढु सकती हें कि जब अधिक से अधिक सलु- प्य उचित रोति पर फार्य करें। जितसे फसिकज्षुक, पंडे अशदि हल पते हें उतना दो देश ऊरूए चन नए्ट होता है। और उसके मत्युपकौर से इतने सनुष्य आलसी ऊओऔर निरुद्यस हेर जाते पे मौर देश की उपजाचकक शक्ति उत्तनी ही चठ जाली हैं| बडे शेषफ फी बात हें कि छमारी उदारतर पी ( ४५४ ) मारतवर्ष केश ल पहुंचाने के स्थान पर उसका मसूलेचडे- दुन कर रही है | इसीसे लो हजार बात बनने पर क्री उस की कुछ की उन्नति नह्ठीं देख पछतो। उदारता के उत्तर सागे पर रूकाना सो ती घिलायतगसन छथवा सहभफोज- न किवा विधवायिवाह की भांति सहों कहा जा सफता कि जिस के करने से कुछ फुदुम्ब के अदूरदुर्शों छोग बिरा- दरी से निकाल देंगे ” अत) यदि अमी आप जाति आर सासाजमझिक सुधार नहीं कर सकते तोव्ययसंशोचन तो अ- वश्य ही हीनर चाद्दिए । ( उ ) अब एस ( फुपात्रो को दान देने वाले ) विघय में हम फो स(फीदारों, और “ साधु ” जुसोदारा व तथ- ल्लुक़दारो पर कुछ कहना शेष छहै। जो लोग कफित्तोी कास फरने के उपलक्ष मे साफो पाए है उन के बिषय सें छथे- शास्त्र के विरुद्ु कुछ नही है परन्‍त जो लोग दांत में सा- फिया पाए हुए है उन के विषय मे वह्द सबबातें पूर्णतया चटित हो जाती हैं जो फि इहे कहे भिन्लुत्ते पर लिखी जा- चुको हैं । ऐसी माफ़ी ज़ब्त करके किसी देशोपकारी कास से लगा देनो चाहिए। “ साधु ” कझमीदार व ताल्लुऋदार हैने ही न चाहिए पर यदि ये हैं तो उन्हे और भी छम- घिक लचित है ७ जपनी भाय का छथिकाश देशोपकारी फार्सा में लगायें | भहारा फर देने से सिद्दधाय मूठा नास हे'ने के और कुछ छाभ नही, इन सहारों के फारण बहुत से ऐसे लोग सिर घृडा फर संन्यासी बच जाते हे कि फसि- न्हे विरक्तता तो दूर ग्ही जिहालोलुपता तक के। बश छ्- रसे छा झासच्य कर द्वात | ध्ूद एफ व्यू से केरल ९ 24 ने >> । ब्उत्च् बार जाएतच हू + पु सझ्ाबहांणस का छे सा उरक्षथा +> खत श्नू हु बन शम्ण््यमपाइ्नक 48 वूझाग_, अल आल अनार ह#9०-.] अिणय १ जहा 2 288-.. पर गण जज कमन्म्या रस जे सूंड सदपदाता, चेरए दा्ए झेरे आगे शादा $ * से हज 6 ्् के आगमन र< परप हक 5 "अधिक अऔाण्ण्क-ड0- मुकाम, कुछण्ए-ब्य ध्दपर उं६$7६5< ६-5 एन ध््त है ध्छडिगों हो पा अधिक पाह३- च्स्व “जप 38. चाहा-नन्‍्मा नमन "गाता. विषदारिना प्कन्जु अूत्क ड5, पक ४००. | साथ पतन पयप्णमनवमगदमाक तक 'परहन्यम्पाााोत+नवाओं): -पमाुानोआ से हिला छे!| छुत्ता माया हे एि आदिशतसरद, सिह्यस्र- कह ८०३० मल 8. क़+-बन्‍पछ. अामक्नममाइमफ' "चान्भाहन्क इ्पुझा तने डक छेक, सोलिपरायण, विय.रशोेहलछ, स्दृुणालझत, फऊशानप- वीकममा+-भा* मात. “मम न ० अप 3 अकम्ममकुनक, जब. मन्‍मे निगल मिल है -क : अन्‍ममामुक गा क्नदा यहब्म्याक 5582- ल्थूछर, झापए,च्ू चऊहाःाराला सदाहइइइाद भसाधकलकाएछ क्ष पघर- 0 बलिध कस > ्क गा ना ियाल भारप्तियां फल करदें उत्त से जी झाप हे उसे ल*च आर कप का रकम जब ह्ड़ लिप है जलकर आंबाा दृश्यक दिययोंँ पर व्यय करसे का हु विचार कर लिया कल है वा । जी ऋा्नीी अ्- सत्त है, देसे डो पक्ोल न्‌ घरेनलहरुर सहाराजा सायसोर छोरूतत- क्र फकाण्का 'मदान्मगागा अकअ पाहबूह़म-. आा०-७, -जाइाग्गल चिछ ऋारसकूपपफ, दाल्शरपेल, सहानाल्यचर धिस्टर जे-एच. ताला के शिलच केच्यानिझछ सिश्यसित्याकहूप क्यो परे ऋच्ाय- ञ् से क्री इन्हे'ले मपनोर उमपात्त का अचिक्रोश, किस को चसात्रा प्राय; ६३० ऊझाख रद है, स्वदेश रेलाथे ऊरूगर दिया | घचनय ईससिस्दर सासा | ह्यौर चऋम्य उच के पिता साला [! स्िस्टर लाता जाति व्ते पारसीे हे ऊीर छहच ध्राह्वण, पर ऊन के उ- दुगुणर पर छस ऐसे विसोद्धित हूँ कि जो चाहता हे उसका चरणास्त तक ग्रहण करले।| अद्वास्घद सिस्दर एच०पएुघ० ( ४७9 ) खालहिया ने खजपनए सदच्छजीा रूचभय श्र करोह के छेोतए है घसी प्ाति एक दुसरे झा ये के लिये दाल किया है। यद्यप्रि जिलछ कारें के लिए इस पा दाल उन्ना से उसे इन जैसा रुस्ायनी य कद्एपि क्तनह्व। का सकद जैसा कि सिल्टर सा्पा दो दाल ल- पय को, तथापि दाडिया सदाथपम का की दान देशे। पकारो सौर बहुत आदरणोय है| जब छमसाईे सभो दावोी इच सहादय। का सन्तुकरण फरने लगेणे तब प्लाश्त सौक्षाग्य के देन दूर नह्ठीं रछहृपकते | छने छुए साचुउर में बहुत से लेए एाथियें। पर चढ़े हुए याव याव चूत कर ऊपना कर बसूकछ करते फिरते हें और इन चर्तों के छहुम सहय दान देते पे पर झतनाथारूवे।, दचिक्तित्लालथे शीौर अन्य उपयोगी कामे मे एक पैता भी देना इसे अखर उत्तताहे | भरा जे छोप हवा- थी घोडों पर चले घातल बात में 'ध्रदस से हर बानी?! ५० कर- ते फिरते हे ऊग्दे कछ देने से वबया पदय दया! परत नहीं! सके पाच ते पुयय का अक्षय फीष लाख ऊाऊल फालो से दवा है | आाधघ घ्वाधला कमी उनको दिया कि रणयलेक मे उनदो प्रररत अश्झुण प्ररचादफक रखा छहतारे लिए चपक फ्ि- संच फरने से प्रदत्त होगए | एक टठके मे भवच्चक्त्सो ओर स- य देपनापही हमाओशे घबदे बच सकते है पर बह ठका ठोक स्थावच पर रबासन/श करन के 'पोधश्ठ फरौोमिस ? बष्टों (छू दम नेहरबानो” जी हैं | लगे पर सखुकरे अथवबरे कक फोडे छाप्त या हाति सही पडुचा रूफते | फेदलपवही- 2 गाना ४५4४४» पह७++५॥ ७५५०4 «३४33५ मम 3५++43५++++ पक पा -+-+- मा मप्र +++५ मना -नान--88880 ५ »+ ०७५४ भा ३७७५५ ५+#89+ मम कमी ०4५४-33 3+++न-++-+++व+3नढा हाय 3५ -++3+++ मान नुनर न न नतनन-+-ना थम पक "8808५ ++-+++ मय मा या “"+8७७०4४७ एम गाह५५०० मना ०2 नाथ, मै + * यह एक साधुनामधारी धूते का तक्ियाकलाम था | नी ( ४८) चुका चल टकऋर कनत्ता ८ साध्यप्दायका | टच; सचतन्न पूज्परत चने धक्का च्छ्ृटचनदासत | परन्तु इस मे आपचय्य की कीन सी बात है ? विद्या सवन सूरोप प्रदेश में क्षी तो. पेप्पसहरफ्ष की स्वर्ग और लरक वाली क किये $ का अप्ी कल तक जब इतना झ- तौप फेल रछएा था, दघ्च इस आअविद्याउच्छनत्त हसारे देश से छेतो बाते रस्वासाडदिक हो समन्‍्नो चाहिए । जहा एकन्रर भ्ी ठक्े में विछम्ण हुला कि उन्ही “४ ह- रदस सेहरछणानो ” छित्तरण करने वाले रूवर्गें के एक साजन्र सोप/न को काखि काल हीोयई सानो चन से किसो ने उल- टे घुछ छीन लिया हो । चन्य है ऐसे संस्यासी और चन्य उन के शर्त ! सेल से हसने देखा है कि बही “ पहुंचे ” सुन्यासी जी ऋपना दंड कौर फनछल एस फिनारे रख रूप से मूलनों पर जा मूलने लगते है और बेठते भी मायः ऐसे ० $ पोप यूराप के प्रधान पादरी हैं । _हन के पास एक सोने 9.३ बिक | ५ | ओर एक लोहे को कंजी रहती थी | लोगों का यह विश्वाप्त था हद पं,पजी चाहें जिस के लिये सोने की चाभी से स्वरम का अथवा है की कुंजी से नरक का द्वर खालदे ओर उसे वरबश वहीं जाना । इस उड़ाने से पोंपञ्ञी बड़ २ शक्तिशाली महाराजों तक को प्र- कृम्पित कर अपनी मुट्ठी में रखते थे ओर उन से मनमाना कर वसल रत थ परन्तु अब वहा के लोग ऐसे मूर्ख नहीं रहे है [कि इन ढकोंस- लें। में उलझे रई सायस के प्रकाशने वह्य यह तम मार भयाया हें । पर यहा साध नामघारी मद्धपुरुषों, पघरावनी प्रिय गेस्वामियों ओर भुंठे मदरतों से छुटकारा मिलना अभी शत्ाठिदयों का काम है । / तो 'ी., दी 4 ( ४४ ) सचानों पर हैं कि जिन्र के नि८्ट फोद नवयीषना बेटी आाखों के पटे चलातो हुईं अंचल की फद्ट रान द्वारा अपने पी- न उरोजे। की फपके से रसिकों का सर्नोंमोहन कररही हो | सत्य है इस से फीदे दृषण फ्री तो नहों है फयोकि त्याग का सस्घन्च पृथ्वी से ही है सला झन्‍्तरिक्ष में मिरवलस्ण बह फहे रुक सकता हे | पक्‍्षिक्षा सागने का एक यह भी ढंग है कि फिसी फन्‍्यर फी साथ लेलिया और लगे पुफारने कवि “ सहाराज | फ- ध्यादःन का फरऊू लोजिए ” | ठके दक्के पर कन्यादूएन फा अमूल्घ पुण्य गली २ थिफरद्वा है | चिक्कार है ऐसे दायज को | पर कुछ दुष्ट ऐपा तफ करते है फि बालक को कह्या- णोंक्तेबसत्र पहना फर इस बहाने भोले छोगां फो ठगते हैं। (२ ) कुपातओ्रा के दास का तो कुछ वर्णन छ्वी चुक्ता। हब उन अन्‍य रुपे का वयणन शेष दे जिन में हमारे यहां ठपव्यय अधिकतर पाया जाता है। इन सें नाघ, तसाशा, अआातिशबाजी एत्यादि हैं| गणिकाओ फा नृत्य देखना कि सी ऊश में क्षी ठाचित नहों | एक तो इन माजन्मकसभारि- ध्घाह्रनचारिणी अशुचधि जोवे द्वारा एक कति निनन्‍वृनोय हाठ स्थापिच है जिस से अनेक सशुष्यें के मआाचरण सिटी लें (मेल गाले हैं मोर दूसरे इन के संसगे द्वारा शुद्द सगोत- शास्त्र गीच दृष्टि से देखा जाने लगा है| हमारे यहा फि- सी समय घंगीत फो इतनी प्रशसा थो फि स्वय सहाट्सर भर्तंह्वरिजी ने फद्दर हैः-- ( ६० ) > झााहेत्यसंग्रीत्रकछाविद्दीन!, साचातल्‌ पशु! पुच्छ- विदाणंदीन! । दृसज्नखादक्लापि जीवसानस्तद्भागधेय परखे पशुनात्य । गणिकाओों के ऋाच से ही मिलता जुलका झांधें फा लसाशाः है | इन बाफछेर से रूपया सद्धाना अश्यच्त लिनन्‍्द्य है। माडेगा छा एक यह को सनियरूसा हे कि लिख के यहां शा करते से उसपर से परकमाचथ ऊतचती अतल्शय ऊ देते हैं | आतिशवाज यदि घोड़ीसी हो लो विश्लेष हानि लीं दयेकि यह एक मकार का कौलहइल है परनल इस मे रो झथिक्त द्ठय पएुँंकसा अलुचित है। ऊीचाने को दिचा- र॒सा चाहिए फि उच हे चनप्व्य दोने के प्लारश्ण सारा देश लेः देसः कऊश9षों। से। उच्दहे अधिकृत! चन उस कासे में व्यय पफरणा दाछिए कि जिनसे झुतोग्य फरे फ्राइयेर की उठदरज्बा- सर बात छष्चष्काए करे उपाय द्वै आर द्च्ध क्श्ने द्रचया त्पा दुकफ घ््च््छि ब्य्ड़ | छच्तन लछे,येंश फीो उाचत्त ह्लै ईके उत्सव च्हे काप्यों में ईजेल्नः घन स्थान चाहे उनके अनपफपयेगी चिघवया से कुछ फाद छाटकर सप यचर को देश छैे फकछित्तो उपयोगी छकरस मे लगाने + उस्थदे लो सुप्रश्धछि छाक्तर सर पज्ञालूचन्हू छण्य खा- ददू कशिपय देशाकुरामणिरयंतः ले थोड़े दिन से छुनते हे छुप्त (ीप) पाला दे फिससे छुपोच्य शिक्षा्थी घझिल्प फोर बा- णिजझव की शिक्षा पाने के लिए दास्पान, ज्रोप छोर अमे- रिंका देजे ऋवेगे | इस प्ाड से कछ सप्ठायथता करनार पाउछा धाघदा नाव ससाओे भर लातिशबाजी में रूपया पकताई ( ३ )झाय, लफीन, तन्‍्वाकू, गांजा, सपद्यादिक सेवन हे ( पर 3) फरमा सफी छक्तार से अत्वन्त निन्चधय है। इचके सेहन कर-- ले से सन॒प्य पुरा फास फरने के सोग्य नहीं रदालर शिलसे देश फो बढ़ी पझ्वारी दालि पु चती है। ८४ चोश्यी पडे कुए मे तो बह्ी चैन है ” इत्यादि शैकऋडों फटहावले इन्ही लोगो के विषय से प्रचलित है | नशेषाज लो- ग॒ एवं पाठ लिज्नक्ष पूर्वे कथित ४ अहृद्यों ! छे ससान हैं शिनकों हम लोग दषा को पाले हें | मेईइ पतचाही हे कि हम लखनण के नादशाह से भी बढ़कर हैँ और यह जानते मी नहीं कि हम छतने अएदिये को पाले हूँ !| सा- दक पदथा के उत्पन्न फरने ने जिदणा परिश्नत ठघस फिंया जाता है वह यदि इन पदारषा की खाग न होतो तो आअप- एूय हो फिसो लाऋदायक कास में लखगतर अत इनऊझा सेथ- ने शरोर एवं देश परिश्नस दोनो का हानिकर है। भाग द- त्यादि की जे! नप्ादिचणी र्ूय भास लेकर पान किया जाता है उसका कुछ कभी ठीऊ प्रसाण नहीं | इभ छिच्दुओं का य- ६ सोपना कि घिऊया सद्वादियजो चारण करते छे लत उचस्मे पोतचा शेंघ है क्षारो सूछ है | कियो प्रामाणिक पुस्दक में पऐैे- सा नहीं लिखा है | जानपद्धता है कि नशाप्रिय छोगेः के यह आत इस ऊाचार पर बनालो कि ह्ली भटादेवजी ने छूलाइछ की याय जिया है | पर यह सनगढ़य ितान्त व्यय है | छलाछलक पोने से सहादिेबती भनेठी अथवा गजे- ही नहीं दो उकते कि चरण को दूध छगाते छुपू छोयन पफछ उठे * ब भोलानाथ फो ! ? यहा पत्वेझ कान फरने के लिए फकिएे देवता की आाष्ठ छलेलेगाददी उचित उम्रकागातार है ! ( धर ) (४ ) मादक पदाथों से भमिलतो जुलती मुकझहमेयाजी आऔर ऐसे सनप्यों फो फजल खरची है जो फिंसो ससय से चघनयान्‌ थे परन्‍त अब दरिदरो होगए है। पनवारस से एक ४४ लक्खी चब्बतरा ” है। उत्त के भमासकरण का कारण यह है कि उस के लिए दी सहाएूुणे से जो अदालत हुई उस सें दोने। पक्ष के एक एक लोख रुपये खच हुए थे |! वह चद्चूतरा ५-६ गज लम्बा और ९ गज चौड़ा है भऔौर 'फिसीो बल्ले अच्छे सोके पर भी नहीं रिथित है। इधी से कहते हैं कि राघजो सासे के काशथ्विल सुक्टरमे पचायते द्वारा हो सिब- टसे चाहिएं । जो लीग किसी समृप घनसमूपन्त थे पर अब अक्किंचन छोगए हैं, उन्‍हें उचित है कि शोचर दही ऊखपना ठयय घटरत वही शप्द्र श्र उस्र पी सही सिलरट सकतो यह्ट बात उस दे अतिरिष्ठ सकी सनुण्य जानते हैं| यदि दे छोग प्लो इस सरल बर्त को उुदुयंगस कर सकते तेश ऐसी कहरवले' क्‍यों प्रचलित हो जाती एके * खर्चे का बढ़ना खुगत कर च- टना अगस है, ” “* उयय चलुष्य को तोड़ फर ठटता है” अधथरोत्‌ जब तक सलुष्य फे पास कुछ सी रहता है तब ' सक्क उस का चढ़ए हुआ व्यय नह्ढही चटता उस सन्लेष्य फो आय चाहे जितने चटठजाय | पत्वेक सनन्‍्ृष्यकी चनाठ्यता उस की वाश्लदिक झआाय पर निभ््तरहे। यदि फोडे उस फो अलुसार व्यय नही करता वह निराः सूर्ख है। भौर तुलसी- . दृषश्स छत के कथनालमौर--- ४धसो बहोरि दुख पाये सिर घुनि घुनि पछिताय | ( ४३ 2 कालछि कमेहि हंइचराहि सिथ्या दोष रूगाय ॥ ” ऐसे ही लोग लह्वणी पर अगुणन्नता का दोष सारोपण छरते है पर वास्तव में वह बड़ी ही गुणज्ञा है और निर्गणी के हाथ छगते हो उस से छुटकारा पाने के हेतु मयत्र फरने लगती है। (४) ऋपर सन छापठययों का उल्लेख किया गया है कि शिनसे देश फ्री उपत्तार शक्ति चघटतो है। अब उन का वर्संन किया जप्ता है कि जिनसे फोडई विशेष हानि तो नही है परन्तु कुछ लाभ भो नहीं | इचकफा घीना न होना देश की द्वव्योत्रादुक शक्ति पर क्रोध विशेष प्रभाव चहदें डालता परन्तु तो भी छहसमें उचित है कि ऐवी आर्थिक द- रिद्रताा फो अवरुषा में द्ृव्य को हानिकारक ही नही बरनच अलाभकारी कासे में क्री न नष्ट कर | ( के ) मथसत; छूम गरुणो और गुरुद्वरो के सरच्बन्ध सें अपने विचार ए्कट छरते हैं । हम नही कह सकते कि इस वबि- पय के इस पाग में रखना कहाँलक ससपेनोय है | यह वपघ देश्प्रकार का होता है एक उचित दूधरा अनुधचित। जिस प्रकार राजस घसे के बहुचां दे। स्वरूप हुआ फरतें है एक तासस फी ओर झरूफता हुआ जौर द्वितीय सात्विक की झोर। गुरुओं पर कुछ खर्चे तौ खुदपय दे लौर कुछ अपठयय, अत; इसको या तो दतोय भागसे रखना उचित ससम पड़ता है या पचस में परन्तु छसने इसे यहां यह समझ कर रक्खा है कि जब दूरेतों भाग इसे अपनो २ ओर पक्ाह्वान कर रहे हैं ती “विधि चु- सबक सोच फो लोही प्थये मन जाय रुक्ते ८ एइदते य उलते” के ह € प्ठ ) छलजुधार पएसे टांगानोचन को झआापच्ति से रक्षणयाथ सच्प छहो सें स्थान दे देने से कगडे का क्बिटेरर जाय पछतः दे। 'यद्ध वाल सर्वेंभान्य है कि कोई चसतहीन जाति ऊा- लोय होड़ में बष्ज़ी नहीं ले जा सकती, धमतः प्रत्येक जाति को सच्चे चम्सोंपदेशको की अआवष्यक्ता है | अब यह प्रश्न छीतला है कि इसारे गुरू छोग झपना कक्षेठय पालन फरते है थयप नट्ठटी £ इस हे उत्तर लें झां फौर नही दोनो फछनाः पड़ेगः | श्री स्वामी रानकूज्ण, विरजाननद, सलानक, दुधानन्द और ेवेकानन्द भोो गुर हो थे। ऐसे गुरओआं करा जितना सन्‍मा- सछ्ो थोड़प हे | परनन्‍लत अत्यन्त शोकपूबंक छमे यह भी लिखना पड़ता ले कि बहुत से चुर ऐसे जवे छोते हैं जो आअ- पनो पदुदो हे इतना च्यूत हे (े उब्छे गोरू (मर्थोत्त ए्छु) फछना क्रो अपने कथन से हअधिकोपसा दृरण लगाना हैं क्येकि दषतसादि पशु लो भला चारा खाकर प्रत्युपक्कार में सघार छा काम की करते हे परन्तु थे चनराचस घतनोी पूजा पाकर को अपने शिण्ये। का जाभ् तो दुःख नहीं करते घरन उलठे उन्हें चरंविषयक्त भी अनेक धछानिशणा पहुंचते हैं। सुक बार रू जाने किस गुप्त रहस्सेतं से भन्‍ा छुआ समस्त घर्स शास्त्र फा निचोह, पचोस प्ोढी पविन्न करने बाए्ठा, मन्त्र कान से फ फले हो शिष्य के छोक अर परलेफ देशे। अप गये | फिर क्या हे उमव्ठी सात पीढ़ी पर नुझजी और उन के सन्‍ताते। का आाधिपत्य अगद के पेर की भाति हुड़ औीर अभय दे सनान अचल छेायया | युरूुऔ छे उपदेशे से घनने प्रघत ये दे हि आया देखे जेत मे फछा खानपएरेा "५ ( १४ ) घर जे से जहूं से! करा! | नजाने ऐसे गशशर के उपदेश शि श्य पर कटा तक शक्ताव डाल सफते हें। गरुसी ती पचराए- घनी कराये मार शिण्य के। एकप्ल्ीत्रत, सिखावें ! सवय॑ ते एक दूं पर लदु छाई शिण्ये! से टके बसूल करते फिरतसे ऐ और उपदेश देसे छे स्व थेल्याय और उछदारताका सूनान के सुभसिद्ठ दशेनशाखतज्ञ खाक्रेटीज को देखिए। यद्यपि अशुणध्व सूखे सूतालमियों से उस के उपदिशेः के प्रत्युप- घ्वार में उसे प्ररणदूउछ दिया पर उस के उपदेशेा को थे छोग प्रणदछ नल देखसके । उस्छ्े परिश्नन के प्रत्यक्ष फछ उसके शिष्य झेटी और तच्च्चिप्य 'भारिस्ठ.उल ( झअरस्तू ) हुए जि- नहे।ले न्याय, नोति, यणित, दर्शेन, नेद्यक, ज्यॉतिव और अधंशास््रादि प्रायः सभी प॒क्‍्रह्िद्द शात्य्व मे उत्तन २ घिद्दा- न्‍त निकाले भौर जिन के नास साजलक पृथित्ो सडल पर प्रसिद्द दोरहे हैं | छमारे घह्ाँ इतने उत्तमोत्तन गुरु दी गए हैं कि जिस की चासावलको लक लिखना घक्क कठिन छाय्य है पर इस समय जलेसे गुर बहुत कसर पाए जाते हैं। साराश यहद्द है कि कोई जाति उच्चलि तभी कर सकती है उच्च उस से निरुच्यम पुरुषों को सख्या बछुतन फस हो | निरुद्यमता देश के बलफपो रुघिर की जोंक को प्राति पोलेतो है । यदि प- यहरापी बढ़े हुए चन ही को पीती तो सछ्न भी हो सकती थी पर “पपिये झंथधिर पथ ना पिये छगी पयोधर जोक |” यदि संसार से किपी के उद्रज्ञाला चने हीची और यो लिचर कुछ खाए पिए लोग झोवित रह सकते सो स्पक सा- परेर, ऊलघा श्येंन, सय शादूल में नेछगरिक शहुता च दीती, ( ४६ ) फोदे सनुण्य किसी का साच्यावर्तों न होता और न घझखपू लेक जूते खाफझर भो सेवारूपी श्वानछत्ति में कोई हुछ वि- शेष युग देखला । सारी सरूषता भी सिद्दी में मिल जातो ओर लखल सलाकूस व मोती सह्जिद किसो के देखने में ल जातो आर पा समचछल करे सप्च आच््यस्घे ( जछि&एरएआ एणगपे९॥8 0०7 &6 ७070 ) सम्तार को चकित करते | पृथ्वी का सारा व्यवद्वार पेंठ छी के सहारे चलता है | अतः जितने मनुष्यों को उद्रदचिनता का हम छरण करलेते हे उतने छीो आादु- समियों की आलतसी बनाने पको उत्तेजना देकर छूस रूसार प- ईेिचालन के सियरों का विरोच करते हें । ऐसो भचरुथा में उन्नति फा होनश अत्यन्त फठिच डैे। अतः जी सलुप्य भ ससर्थ नही उन्हे अपने २ उद्रपालन का ऊपाय फरने देसला चाहिए और उन्दछे सुफ्त में कुछ देकर आाऊूखी बच्चा देला दु- यथा नहीं घबरन देश छर सुकोच्छेदून करना ससलफिए | ( ख ) छसारे यहा शिवालय, ठाकुरद्वारे आदि बच- घाने की रीति बहुत प्रचलित है | छेल इस वो मिन्‍दा नछो फरते क्योकि ऐसे सन्दिरो से छभारे चित्त से अपने भत्तानु सार चर्स का फम से फस स्मरण आहएहो जाता दे । यदि कहें किसी कास को जाते है। खीर भाग में कोड़े देघमदिर प- ड ज्ञाय तो यदि दु्शेल करने न जायने तो भी एक चार शौ- श रूका छी देगे | मलिसापुमन की योग्यता या अयोग्यता पर यहई लिखने की जावश्यकता नही यहाँ इतना हो दे- खना है कि बहुत से लोग परतिसापूलत फरते हे ( अरेर हम पम्ली उन में से एक हे ) पर इस सात पर उपान रख फर था ( ४७9 ) की एस अवश्य कहेंगे कि इस धर्मेका्ण्य से देश फो कुछ मी प्रत्यक्ष छाभ; नही | अनेका घचम्मकाय्य ऐपेटि कि जिनसे देश को पूरा छाभ् पहुंचता है। क्या द्रवम्ठपय द्वारा विद्यादीन से क्षी बढकर फोई घर्मकाय्प सम्पादित हू! सफतर हे * देवालयो के बनने मे न तो किसी थि देशीय व्यापार की उन्नति छाती है और न देश ही फी द्रष्योत्णदुझ्क शक्ति बढतो है | चस के लिए एक दो देवा- लय घ॒ुक रूगर भें बस हे। दस, बीस, पत्रास सन्दिरो फो एक ही स्थान में कोड आवश्यकता नही | जहा दी देवालय॑ हे। कौर उनमें से एक गिरा जाता हे। नहा एक लीधरा स न्दिर बनवाने की अपेक्षा दूसरे का जोणोटड्रार करा देना छूत़े- बहुत अच्छा है | देवाछय तो देखशालय ही हें फिर एक को: गिर पड़ने देना औरर द्वितीय फोी न सिरे से बनवाने सें पूरए छम्त व्यय करना किस नोति क्वा अवलस्बन करना है * यदि कहिए कि सरस्मत कराने वाले का बंता साम नही द्ोतर जैसा कि सन्द्रिर घनवाने वाले का तो छम कहेगे कि चमकाये और साससे दया सम्ग्रन्थ? गिरते हुए सन्द्र के जीणोह्रार फरा देने से पूलन का चर्मकार्य तो चलता ही रहेगा झब रहा नास सी किसी पघनन्‍्यदेशोपकारोे कासूओ में शेप छृव्ध ऊगाकर खूब नाम क्रो लूट महते हैँ और स्वदेश फो उत्पादक अस्क्ति भी घढ़ा सकते है | छात्राहप बनदासे, लिज्ञामचार से उ्यय छपते, शिल्प, वाणिज्य, फरकाकींशल को संन्दति फरने, इत्यादि २ फासे! से कपा कस नाम होतलर ऐ ? एक मराचीन फहावत है कि “साथेः प्रूखे प्रगति न छेः ड़ प्‌ ( ३८) है” से। पहले देश का पेंट सरने झा प्रथत्न करिए | यदि आपने इतने देवालूय बनवा दिए कि जिन में कोई पूजा करने यारा लक नहा सिलता तो “ काशी के क्ंकर शिप्शेक्षर समान हैं ” बाली कहावत दी ले! सिद्ठ हुई ? ऐसी दुश्ा में फद्दीर दोौसली की निरूनलिखित कहावत ही क्लो सत्वता तो प्रकट हुउई कि; ४ झपने हाथे करें थापना, अजया का सिर का- दी । सो पूजा घर छेगो माली, सूराति कत्तन चादी ॥ “दुनियां झूसाड़े झ्षा्माड़ अदकी ॥ ” फिर बड़े भारो देवालपों के बनवाने से भी फोदे विशेष सास नहीं | प्रजंच का कास जैसे एक साधारण देवालय सें व्देश्पकता है बैसेही छेाटे से | केवछ सास के लिये बहुत बड़े२ देखालप बनवाने से चन सष्ठ फरना अर्धशारू के द्ि- - लकुछ प्रतिकूल है । यदि ञ्री वन्दावयन जी में रंगजी के स- ल्दिर फे स्थान एक साचारण मसन्द्रि द्वाता जिसको लागत एक या देश हरक्ष सुद्र! है।ती और शेष ६०--६० छक्ष सुद्गा खिद्य' थे शिल्ण को उन्नति से लगर दिया गया हेातर कि- ससे सेकड़ों उद्योगोी छोग लात्तष उठाकर प्ारत के ए्डे लिखे लोगों की संख्या मति सैकड़े १७ के स्थान श्पे कर देते फोर देश की उपजाकऊू शक्ति विवद्धित फर देते ते जज कैसे आा- नक्त्द का समय छोतला ? तब सेठ रलूद्ष्मी चन्दुजी का रू भी या न्‌ होता सारे देश को अवश्य छाप पहुंचातर ऊरर ,इससे उनका, सास शऐेसा होता कि लिसकी सीसा नहीं | रंगजी के सन्द्रि की कैबछ उस प्रान्त के निवासी, यात्रीलोग जौर ( ५७ ) थोड़े से अन्य जन जानते हें परन्‍त सौ दोसी ब्बे पोछे सि- सस्‍्टर ताला, सरदार द्यालसिए्ठ, सर सेयद अहमद, सिस्टर खारिया आदिफ के पंर्चित्र नाम कहा सक फैल जायंगे इचस_ फा पाठक स्थय अनुमान करले। अफ्ती इतने हो दिनो सें इन सहापुरुषों का कितना नाख टहोगया है ! कदाचित्‌ यही देखकर कि देवालयों के निमोॉण देने में इतना घन ठ्यथे नष्ट होता है भारतवर्षीतम लुथर स्वासी दृपानन्दजी ने मलतलिभापूजनसानर को जिन्ध ठहराया हो ! देवालयेत को अपेक्षा घर्मेशालाओं का बनवाना हर उच्तन तर ऊऋा नते हैं । (गे) तृतीय प्रकार फर छयय जो इस रुथान पर लिखने योग्प है वह' हानिकारक ग्रन्थों के दरचयित्ताओं को पुर- स्कार देना है। शक्भाररसपूर्ण पस्तकफे छमारे यद्दा बहुत आदर पाती हूँ पर घास्तविकर खसाभमदायक ग्रन्थों कार प्होईे पूछने बाला नहों | हमारे पहा कोड उत्तम इतिष्ठास ग्रन्थ प्रस्तुत नहों तथापि पज्नारतमित्र प्रर्लशित राजतरकज्धिणी के मथसऊकान का अनुवाद केडे द्वाथ से नहों छुता जिससे शेष ग्रन्थ का अन॒दाद्‌ कदाचित्‌ प्रकाशिल हो न देश रुके ! दघा भररतमसिन्न के सस्पादक सहाशय उसे उपहार, ग्रन्य न- हर स्थिर कर सकते ! एथ्थोराज रासे को प्रस्राशित करने का अबतक फिसो की उछाछरा' न हुआ बरबघ काशी क्ः गरीप्रचारणो सभा फंे' यह भार लेता पछा पर उपके याहके। को संख्या अत्यन्त अमन्तेयजनऊ है। क्षत्रियां की कीति का नुतम्भस्वक्त्प टाडराजइथान का सुनते हें किसी दि- ६ ६० ) द्वान्‌ ने ऊझाथे से अधिक छिन्दी से अनुदाद्‌ छकर डाला है पर उसे भी छोदे ध्रकाशिल करने बारहा नद्ठी देख पड़ता | सायथका्भेदू, नखश्िय, अलल्‍लड्ादर इत्वादि की कादफ्ष्यरूता से अआधचिक पस्तके बक्तेभान हैँ से) उनके बनाने व छपवा- ले से सलय व द्रव्प न करना अब शल की घात है| ऊा- सकररो ग्रन्थे। के कच्ोौंओेा। का परस्कार देना और उन्तर्ठे ग्रन्ये। करे प्रकाशित करना अब खझतलयनत सावश्यक से । लिस क्‍ह्पर के ग्रन्यों को जब जआातषयकता है वह छनमसे मसपनी “ छिनदी फाठय ( आलोचलार )३3: ” और ? हछिल्‍दी अप्रोल $ ” में लिग्सा हे | (था) झवब उच्तराखचिकारिया के विषय से कुछ कटकर कुछ पम्राग व्ही हल ससाप्त करते हे | इब्लेंड फोर खऊनन्‍य स रूय देश्येा मे यछ सियस है कि पमत्येक सनुष्य सरते सरूय अपनी सस्परत्ति के प्तद्विष्प सपप्तोय के दिषय में ऊपत्तो अं- सलिरू छुच्छा प्रकाशावयोें व्होडे चसोीय्ल अच्यशय करता च्जै + प्सच सें प्राय; खछू अपत्ती सम्पक्ति का सुख्याश अपने युत्र, पौच्र, स्त्री, भ्ादें, कन्या आदि को देजाता है परन्तु कुछ न कुछ स्वदेश चव्ले लाप्दायक किसी कास में अवश्य ऊछगालए हे पीर फदठिपय सछ्ठालुन्नाघ तो ऐसे उदारचेया छोते हे फलि खफ्नो संस्पत्ति छा झधिकाश के देशोपकषररे छासों में हो लगादेते अप रर कदम्बियों की बहुल कम देले हें | इस सनियसम के कारण बहुससार चन देश के छिलकारी क्यों में छय ही ..........9.0............-७-७.................७०-. »......न-ननन-न»नननमनमकानन+५नपिनान-१ननमनननननननननययाी 3ननानन-नन-पननामनननना- न लय तनमन +खयणरीघय य_णल व फनीनीनीनीययनन-ततनतत..8ञइ33 न ण िओिओ ऑल च ाक्‍ाौ शा डा खो रु ा ी 5 + सरस्वता भाग १ सख्या "(१२ दाखण | 8 नगगरीहितिपिणीसभा, जोनपुर द्वारा प्रकाशित ) ( ६१ ) जाता हे । यछ प्रणाली पूर्णेचया अनुकरणीय है क्योकि पघ- ल्येक सलुष्प पर उस के देश फा भो कुछ न कुछ श्वत्त आ- वबश्य ह्लोता है | फिर जब क्िसो के कोई पुत्र अधबा सिक- द व सम्बन्धी नही है तब दूरबाले को झपना सवध्य दे- जानश खथवा कोई कत्रिध पन्न ( दत्तकक अर्थोल योद बेठाया हुआ ) बनालेसा स्वेधा अनुचित है। दत्तर पुत्र प्रायः 'तुप्प्त्त्भिद जल ससमे रचथा तस्ले स्वघा तस्सेस्वघा! करने आर ४ लास स्थिर रखने ” के लिए लोग बनते है इस से सनिर्ेदल यहद्ध है कि जो सहात्यः देशोपक्ारी काया से अपनी समभ्पदों लगा देगर उसे जलदान से कही बढ़कर तृप्ति थोद्दी द्वोदी रहैगो । यदि नः्सत को कछिए तो एक ब- हछुल ठीफ ग्रासीण कहावत है कि “हाथी जाय गाव यात्र | जेद्धटि का हाथी तेद्दि का नाव ॥ ”? बढ़ एनच्च उभोी का बना रहेगा जिसने उसे जनन्‍स दिया। झोर फिर दुसक पुत्र अथरा फोरस पतन्न से भी सलाम छ्ी किस छघात का % | यह कि झभ- सुक नजुष्य अमुक का पत्र है ? तो इससे कर | ओर यदि तीस पास साल चाम थी रिपर प्री रा लो दया ? द८घर दृलबीर अप्गयरर कालेजा सब्यापक पं गगाप्चर शासच्त्री पट्ट- चह्ुंन, अथवा कायस्थक्॒ लाकर मु० काछोमसादं, या प- ४ ऋणगेद में दत्तक लेने का खण्डन है, देखो-““परिपच हारणस्य रक्‍्णो नित्यस्य राय, पतय स्थाम | नशेपों अग्ने अन्यजातमध्त्य चेता- नम्य मा पथों विदुत्त ॥ थे हि प्रसायारण मुशवों अन्योदयों मना मन्‍्तवा उ | अध।चिदेकः पुर्नारेत्स एत्यानों वाजी अभिषाकेनु नव्य, || ( स० स॒० ) ( ु२ ) चबण्या, किया सिस्टर ताता आदि के पवित्र समान सैकहों छुज्ारे वर्ष पय्येनल स्थिरन्त रहेंगे? न जाने जयनारायण या बाडइली फीन थे परन्तु जयनारायण कालेज और बाइलिपन पुस्तकालय के कारण उन फे नास सक्षो लोग जानते छे भऔो- र॒ उलकीो ओर सभे की पूज्यलुद्धि उत्पन्त होती है पन्‍न्‍त यदि इन्हों ले।गे ने एक एक दृषतक पत्र लेलिया हवाता ओर उन्हें ये अपना सर्वेस्त्र दे गए होते नो आज उन्हें कौन जानला ऊझोर उनस्तका कया नास छेःता ? राजा एरिश्नन्द्र, छलि, करो इत्यादि का पच्रित्तन नास आज इसकारण जग- त्म्रसिह्ठ॒ है कि वे बड़े खारो दानो थे अथवा इसलिए फि उनके पत्र ने ? अझत+ गेदू बिठला कर शिसी का क्षपनों सम्पत्ति दे क्षाना और देश के! उस के काभ से वंचित रखना खही स्खेता को बात हे | सुप्रनिद्ध सीसिल रोहस साएब रूरते समय तोन फरे(छ स॒द्रा केघल दुक्षिग अफरीका के खिल्याथियो के राफ्तार्थ य- सीयत फकरगए | उनके फोई पत्र न था परन्त उन्हें पतन्न कीं कसी परवा हुददेंढी नहीं, यछातक कि उन्देने भपना पियवा- ए ही नही किया । कुछ शक॒ह्ी आदमी पर नए, खिलाय- ल भीर समेरिका मे देशोपकारी दान की रीसिद्दी ऐसी हे कि शभिमससे बहां करोड़ों रूपया प्रतिवय पेसे कार्मे! में रु गजाता दे | तप्नी ले थे देश ऐमी चन्नतद॒या फे प्राप्त ४ | खाना गया है कि सन ९९०१ दैसवोी में फमेरिका प्रदेश में १४०००) से ऊपर वाले देशोषपपकारोी दालेश का कजोह १४ पक शेप मुद्रा होता है । | | अहाँ इसनार सुद्रा एफ एक द्प से ( ६६ ) देशै'न्नति फे फार्मा में लगजाथ वहा के लेगा फा प्राण्य चसफेया या छस नग्यघर्मा का ? जे दू निया सें पेदा द्वोाकर मूठ साँच कह, छल फरफनद कर, सिा अपने पापो पेट के परले अचथबा दान के चास पर भी महा अनुचित एव अ- नुपयोगी कौर धानिशारक दान करने के और फुछ घणानदे छीो नही | फ्रला जैसे घुरुषसिले! के सामने छम लोग कया व्यवसाय झकूर सकते हैं ! जब वे लोग इस विचारो से लगे रहते हैं कि हिन्दुस्तान की चोनी फो बाजार फपने धाथ से छऊ'ना (८६0॥प7० करना) चाहिए और पकमसुक देश को प्- सुझ हाट दुखा लेना चाहिए तहा हम लोग इच कपंडों मे भरे जाते हेँ कि “हसारा कुल तुम से ऊँचा है”, “हस उस के हाथ का जल तक न ग्रद्चण करेंगे ” इत्यादि इत्यादि | इसी का नास एका और सदव॒द्धि है ? फिर हम छोग दानो खनने का भो बहुत दम भरते हैं पर इस घास का विचार कितने सनुष्ये। ने किया है कि गत दर्भिक्ष में अमेरिका ने इसे फित्तला दान दिया * बहा के एक पत्चर ४ फकिशिचयन छ्वेपल्डछ ” द्वारा € जिस के ग्रोहछो को सख्यर लगभगण २॥ लाख के है ) चौदृह लक्ष सुद्रा भारतीय अकाल पीछितो के लापफ्राथे आए थे। ऐंड्र कारनेगी का चास हमारे अनेक पाठकों ने सुना है।गा | इस महात्मा ने अमेरिका में एक विशद्‌ क्लाप्षवन्र बनवाने का दृढ़ सफलूप फरलिया है फि जिस में शिल्प को प्रयसश्रेणो को शिक्षा दी जायगी और सनन्‍यान्‍न्य उपयोगी काम हें'गे। इस से एक लाख से ऊपर सलुष्ये के शिक्षा ( ६9 ) पाने का सथाक रहेगा | सौर दारसेगी सहाशप इस सें सटे झउनचराौस फरेजड़ सुद्दा लगबेगे || ' इस पर विशेष टिप्पणो लिखना ठघघे है, पाठक रूदय दिचारले कि इस से देश का फकिललना ऊलाफा होगा | छल्रा देश कष्प्रिधातत है लो क्री देरशिहिए कि जसेनों चोरे चघोरे हसारी इंज की खेती बरबघ उद्दाये देती हे! छलारो कोस घर सात सरुद्ध पार चद्ध चीची लाना कर यहां भेजती ओर उसे इतने सस्ते सात पर बेंचती हे कि हस यही छोर को ठीद चीनी दन्ादार ऊस प्राव नही लेच सक- ले क्योकि ऊछउस मे छसमे परता ठीक न बैठ कर उसलठला चांद: संछाना पड़े | जालनी हि जैसे घछ चीसी चने छगो है उसम- फ्ा ठथोरो की खविएिक् डे | बहा चालेफ दो। क्षय छुआ कि छत्प्री सेलजप थी दकीरला चटतको ऊातली हे | छठ ऊोग जांच रहे लिए एक फनीशव चैठायर गया औरर उन को रिपोर्ट ले छाल झछुआए कि सेलनिकफेा को चीनोे को समृचित साइा न सि- त्ठ्ने द्द को यघारण उनन्‍्दव्तो घारता कम पहली जातो दे [ देश में उतने चोनों तियार एठी हीती थी ऋोर विदेश से स- सारा भर जसेल ऊझोग केसे महन वार सयते ये ? देज्ञानि वे से रूछा गधपर कि चोली झमरने को कोले नये फोर सछ रीपलेे सनिकाऊोीो जाय। उस सकोगो ने अनेक छदाघेोें को परोक्षा फर यह पिह्ठ किया पि उकन्‍दर ( जोटरूद ) ने अच्छी चीनी बन सम्ती है और उसकी सैद्ाबार वदढासा अत्यन्त सहज ले ! यह जमेनती से उफप्जत्ण भी बहुतायत से के | झूम 'लम्मेन लोग उसकी चीनी दनाने छगे मौर चर सेमिकझती को ( ६५४ ) खिलारे जाने छगी जिस से समप्ती वीरता पुन जैसो फो तेसी लागत धो उठी। धीरे चोरे यछ घोनो यहां बहुत अधिकता से घनने फ्रौर विदेशों तप्ठ फो भेजी काने लगी यहां तक कि जाया फल घामेनो में २१ ऊाख टन ( भर्थात्त्‌ छगभ्नग पीने छ; फरोाड मन) चीनी प्रटिष्षे तैयार द्वेत्ती दै छिस सें 9) छाख ठन चहो खा साली जाती और शेष ९३॥ लाख ठम धन्य देशों को भेज दी जाती है| रस से करोडेए रुपये यहा लाप्त लसेसी फो डेरा है और इस चघीणी का प्र- चार द्नोदिन घ्रतना बढ़ता जाता है फि फदाचित्‌ फुछ दिनों से इखफी चोनी एक दस धनना हो घनन्‍्द हो जाय | ज्सेणो को देखरकर अन्य देश मी ऐसी चोनो घना बना कर फ्रारसदर्ष को चालान फरते जाते जौर यहाँ फा पेसा लूटते जाते हैं पर छस लोग इस सास पर कुछ प्री छपश्य लष्टी देसे कि स्वदेशी सो नीकी दैते बचाने मोर घपिदेशी फो सार फ्गाये | हमारे यहां सती सेमर फो धोरसर घटते देखकर यहो कह दिया जाता कि “पाई हस सोगों ऊफा भारप ही मब सन्‍द छोता जाता हे |!” घर शससम सींग सपतन्ष भाग्य पप्प ह्वी खा छेते सौर रुसे सल्द होने छो सही देते | ( ४ ) इस लेख से जएां देखिये यह लिगहा है कि स- कस्तम कार्मेः से द्ृ्य छगामा शचिल है | लब्ब यह प्रश्न उठ- ता है कि रुसस फास फौल है ? इसके उत्तर का सूलछ यएएगे है फि जिख कांय्यों से देश फो द्वव्योल्पादकफ शरित घहे छे हो उत्तम कास हें। छेसे फामीा को सूची लिखदेखग बहुत हुए - ठिन पहै। णी सलुष्य जिस विषय का ज्ञाता है यही कह न्जी ( ६६ ) उकता ऐ कि उस विषय में द्रव्य किस झाप में रकूगायर जाय घर फाॉलिेणय पाचास पिपवरेे छर छुझ एक सिणखलणे ऐ।--- ्ट ( का ) चब से प्रचाद विजय खेती छे, क्योकि हीरे से 39 से क्षी उझपादा सतुष्यों को गजर खियी ही पर सिकेद छे | अर यी सी प्रच्झन्त ज्वछवाः प्रकाश रीचति पर पेदी से खरव जय इखचे दवाएं सणस्ता के उंखया इज देश लें जरिश सी पर ६ घ्४-२ ट्रोगी ।| सणप्याईोओं फहरा, उालादार, साप्ाएुररइ) लिये, दकोलछ, खापछुकार, छडाद, घठ़यवे, घोची छादि सन्नी से किससे हो के घछुबछ, जेलेर फी जीएदट आर पृथ्णो सव्वायाशपि पर जीते हैं | खत) पबतसे कपिदा उसे इसी र लपाच पेतदा चाहिये। एक सुप्रत्त्ि उपक्ति में ढ७ुएर छे एि छा शलिप्र प्ररार सक्षजी के सम से खेली होली पी घेले ये उच्च क्री होती है ( फथांत्‌ उससे फिसी मफार पी उच्मति सही एुझे ले ) सुजीदुक सजानछेस सलासफ एफ पन्न पक्षी ऊपि दिला जि सम्वति के लिये लिकछतसा छे परनन्‍्च उससे ऊजाभ उठाने फा फोदई पघ्रण्ट्स नहीं धर | पिछले थटो करूपिहम्ध - रूपी सज्य घताएे नये छू पर सन्छेसो फोदे काम भेनही छाल |! खाद बपरने चर फेस सुस्तिस्त सिकाली हैँ पर झसारे कि साथ जऊोणषय उघब्ध फनले हो कही, जत्त- कृषि पाठ्या- ल्ाओए के रथाएिल हु ने की बछुद लड़ी आाधण्यकता है शि- सचसे क्सिेत के पउत्दी। दो छस सब्य बाधा का झान हो छत | छचित दोएरि एर खिलो फरलने से प्रात्ति छोचा अब से हे कञा गाज्ए सेदप्रधछार एापघिक छच्चण चफतसो हरे सफ्कला छे पर उस शोतलिया को कोडू ज 5 अआरेर पडर-जऊाप 7 ही नहों | /४9 ४] ] ( २ ) उपचधाएं दा ड्ित्रोध प्रधास दिपयध पी पान्य रेप से सदर राय पर छिद्त हू शोर जिले दु्ांध्य घग उनारे का पिषट्ह्षक्षरमा से घोदे रघधान जनिऊतया हे शिल्प णोर पाणिप्य ऐ एसारे या इन को पछ््ती प्ली सन्‍दरणा एे। के झीर प्रग कोर परधाति पाना फक्राशइसमश्तानों फा सथपवाक्ष तंब्य हे | बड़े छोक या घिपएण ऐ दि दस फफ्छाणंधय प छिस पात्र सेनचेरतर पिचए वे, पार, एचरनये एत्यादि शव फी- हे जो शा दिसायफाई के परःए स्िशिद्याता का घन छ, फायज़, छू, दुधात, कपठा, छत्ता, छोगा, जाप, टोपर? सीज़ा इत्थदि उचत्ती कायण्यक पद्ताशों के सिए पिदेश्दीय जि ल्यंया के आर पट ४0560 पीके छल नल अगले एस जप कि फोपदे गए पिच्द्ादे | चर को घाय जेर ्वि- हीं झच्छा ॥ ” ह्तुझेएड, फुपम, जेपनी शसानाएटे दल ( अमेरिका ), छाफिएउ, ले'ल्यदसम से सह प्रति रु प्य ४९३) की बाधिफ्ाय भोग करे भौर एसाएे अधाणे देश में छेडल १७) ३०) पाऊछ प्तों | घर दो जो अनीोर छपी छँ][]| आऔर हम फपडईे लत्तो पउने जोर चर में चिराग सके सांधी जएऊाबे जफ फि ३०० ) बधाएिक शाप नाला एछमादा सौक्कए पिल्माद और जे, लेऊ मोर जो द्घा हुसाईे लिए मे है 82] |[| |] स्गप रूजुछरा हे द्दे सूपया सर्वसक आअरथ देने पर सी ४०) सालिक घेलल पाला नॉक्षर रदसे उसके घर को जी पूछी ऊपदब घ्छ द्दो फाल में धख्दा हा पी जापपो ध्ीोर उस के शेर रे सस्घिपसे सात्ञ छोड और रछ्टी कया सकता दे ! पर छेपी हि "कक जा ञ्क जा ज__् ( ६८ 9) दुशा से क्री तो इस नहां सस्छुलऊते ! सत्य हे जेहि दिच- भा दारुण दुख देह ! तेछ्टि को सति पहले हरि लेडइ ॥ ” छूस छोगी को उचिल है कि एक दस स्ेत हो कर अपमे शिल्पवाणिज्य को उच्हति करें खीर फोरे राजकीय भाम्दो- सरूय ही में खपने कलेठय की इतिप्नी न सरनले | फासेस वा- ले इतने दिनों के पश्चात्‌ अब कुछ इस ओोर फ़्ली ध्यान देमे लगे दैं। यदि उनके उद्योग से शिल्प वाणिज्य की कुछ उकलति हुई तो छूम अद्दोस्ताग्य सानेंगे पर सम्मति इतना तो शोघ्र हो फरदेलएः चाहिए ( भोर समतसे हैं कि इस कर प्रबन्ध ही मरी रहा है ) कि एक हहद सूची छिनदी, कंगका, सराठो, उदूं और अग्रेज़ो में मरकाशित हो जाय जिस में क्षो लो य- रत जहां जहां बनले और सिख सकते ही चयनका पूरा य- शत दो | ऐसा छ्वोति डी हसे पूर्ण भाशा है कि वियारवान्‌ साञ् ऊल्ांसक समक्षव होगा स्वदेशीय पद्रर्थों के अरतने की शपयथसी फर लगे मौर उन्हें देखकर सव्ंताधारण भो गेसर ही करने रूगेंगे और यांही शिलपवाणिज्य फो सषरि ऊूमश। हो ही जायगो। एयमसस्त | उपज लीच प्रफार की हेपती है छ्ीयमाण छप्ज ()0- 7879 ॥'8077'05 4 सरिथर उपज ( (70708[9४४७६ #€(घए7०5 ») खपोर बहुँसान सपनजन ( [707"08509 7४775 ) ८४ ४ झीयसाण उपन! का यह सात्पयण्य है कि लियसिस सोसा के उपरान्त जितने डी मथिक सुद्र!' किसो पदार्थ के उपनतत में लगाए जॉंय रुतनाही उपज का परता मति सुद्रा कसम पढ़ें । सा- ले छो कि फिसी खेत के जोतचने, उससें खादू डालने भोर ( ६७ ) उसे समधर फरने घोर सीचने ,निकाने, बचाने, फाटने, साइने आदि में ५०) लगाने से उसमें ६० सन गेहूं उत्पन्त छोते हैं अर्थात्‌ प्रति सुद्र/ १ सच गेहूं हाथ लगते हैं। इस सापमले से यदि पूर्वोत्त / नियमित सोसा ” पहुंचगड़े है और फिर फ्री उस खेल के जोतने आदि सें हम ५०) फे स्थान में ८०) लगाकर विशेप सरहद !) क्र त्तो छ्में ( यदि ऊान्‍य सप- जाक्त दुश।ए जेैसीडी रहों ) उस खेत से ८० सन क्ते स्थान सम्मयतः केवल ६० सन गे हाथ रलूमगेंगे जिससे प्रति म॒द्रा १ सन फे ठौर फेवल ३० सेर उपज रशछ् जायगी | यदि छम उप्तो खेत से १००) लगादें लो शायद हमें पति मुद्गररा केदल २४--२५ सेर गहू भाप्त हें।। इससे यह सूपष्ठ छोगया कि लफक्त नियमित सीसा के खादू खेत पर सपघिक दयय फरने से उपज कुछ भवश्य बढ़ जाती है पर उसका परता मति सद्रूप कस छोता जाता है | “४ स्थिर उप" का यध् भ्िभ्राय छें कि चाए जितना न्स्नाधिफ ठपय किसी फार्य विशेष पर किया जाय पर उपज का परताः प्रति सुद्गा वही रहे। यथा यदि ५०) फो छागत में क्ञाथ से १०० चित्र अनरए जा सकते हैं! ते ८०) में १६० मोर १००) मे २७०) देसेह्ी चित्र तिपार हेगे जिय से उपकछण का परता मत्ति म॒द्ठा एक हो गहेगा। “बट्ुंसान उपज” रुसे कटदा्दते हें कि जिसमें जितना छी प्रचिक दृठय छगाया जाय प्रति सुद्र/ ठसनोही मभधिक्त उ- पक हस्तगत छे! | यदि किसी ८ पृष्ठ बालो पुस्तक फी छसू १०५० मियां छपवायों मौर हमारे ८) छपादे भौर कागप्त ( 99 ) सो द्वे पतल घछातसतया छण्छान से श्६) प्ले रुघाफकर फे ट््‌ च्छेछ्प्ठ ४२२) पट कास कि छ छारथ आर ५७:20) /& 8 है बन यई। जे सद्वित कराने से ४४) था ३०) थे दोर शायद १५ या २० शद्रर खजत्न उछ। छत. भषषसबरर प्रसि एपा। १४४ पावि- या पड, पेतगीय दशा में १६६ हे आअधियां औोर दटेय ने २७० , 9 या ऋएश घरलिपा-जिवले झऋति सद्दा उपण फा पघर- लर छधाछलता जापएता है। इस तोखरे अफार की उपचछ खिले। और पारी द्वारा उत्पा- दित मत्वेक्ष जस्त हे डेली हूं, झथा फपके दुपदे से सीपबकपण्पुक इत्यादि कराने में, पेनशिरे, फायज, स्िलीचा, शीशे, छरा- लात घत्यादि में। परणछ सोपी में शीयमाण हपण हिस्‍ती ६ | यह की सिथस हसररी दरिद्ध एक व्कारण एप छएस सीयसाणा उपज बाटी चाज््य ( जपवोत्‌ अनाज ) उलप्चता काले ओभऔर उससे विदेशियों के उहु सान चपन्च घाले पदा्घ सोछ छेते है | छियनी फाचिप्त धान सखझाणएा छुपा देण से छाती जाती हे इसे पय्यो से उपयी छी जविऊ उप भी पतली हे जोर ऐमएर ऋएने से उप दा पाला प्रति जुदा चरश्यर चघहला जाता है | एणसशे अतिरिच्छ छहु्म बछुतसा अनाज दिद्देशिए्य के फसिफितत दत्पत्म रछूरना पड़ना 8। हलसे शोर विदेशिपफो से शिपतना वयाधार चद्ृता पाता 9 उतनी शी हुसारी दानि छोटी है औरेर विदेशियों या एुका शी उस | ऊताग इस देश से शिल्प खालिएघ पते हम सदर घतलि झरना एसारए स्थन ऊर्चय है पीर खितया उछाल श- जसुचिद सोेदि पर होता ए उसे एस कोर गाने फा भप्तन्ध कह हि व द ( 9१ / फरना चाहिये रवर्ष फ्रगठरक् छेद पुकार पुकार कर जप्णा देते हैँ कि पदित्प प्रलि चबोद चदीचद विद्याओंं फो सीखो, ऊफपनो शिल्पथिद्या को उन्नति करी, शश्वि फोर छल दूप- रा धघियावादि बचाओ ऊीर छुखी रहो | पाप कह ऊछपते ही दि अश्ेर्किा की तो कृषिप्न चान देश हे फिर उक्तमे एसारी प्षालि दग्द्िता क्यो नहीं! इसका उत्तर यह छे कि जप्नी उस देश में पूररोक्त लि्थिसित सीसा चर पहुंची ह भोद सच सोना के पूत्र सम्ति से भी उप्थसाघ उछण्म छोतो ये फिर ८ट्ठा खिली धेशज्लानिक रोधिसे प्यी जातयो हे और कृषि के ऋतिरिफष्न छहा अनेदड मे- रा झोर दाप्योकछप की बचेसानस दे वह के ऊछोय खोरी खेती छी पर नही ऋसर करते । एसरे चहर॑ आाजप्तटल तोन छो पेशे विश्ेषतल। देखने मू॑ कझाते ऐ एक घसीकरे दमसरे चिकालत ऊआरर दीसरो खितो एमी छोर उपद्चाय पूथच फहछते है अगरेज़ी पे बादुओ को सि- लाया चिक्वालय या सेवा के और फोदई फाये फरना साला हो नहों | हसे ऐसा कहने के £थरा यह भी सीचलदा चाहिशे (कि उन खेहारोा को फिसो दपीय काण्यों को कुछ भी शिक्षा दी गे है कि ने सधे करएी सके | छुसम छोगा ने फोचसे ठणापार सिखने का रकूछ खोला छे जिससे वले सष्टी पढ़ते ? अप्नी लव॒युवका के जापान सेजलसे को छुक सज्जन ने छात्र दृतक्तिया स्यापपेल की जोर दी युवक जापान फो रखानार थी होयये व्यापार क्री छोखने ने छोीग जथघ दिदेशो को जामा चहउते है तथ एसी कोय उन्हें चछटा विरादुरोे से निकाल देने प्की ( 3२ ) चमफाये हैं | अन्य देशे में लिराद्रीके लोग उन्तलि फरने कहो प्तोट्साद्धित करते है परनन्‍्त छसारी बिराद्रो मत्येक्त सलुष्य फो बलास्‌ उन्‍नति के बदले अवनति फी शोर खींच रहो है ! लगन यों कहना चाहिए कि तरल से ततलातल फो चसेडे देती है । हम छोगो को उचित है कि चनह्टींन छ्लान- , छार नवय॒कको सो अनेक दुस्सफौरियां व व्यापार सोखने फे लिए विदेश भेजने के ख्र्थ चलन एकफत्रिस कर | जैसा कि छुस सपर लिख आए है बम्घदे के समसिद्ध सर भाल चन्द्रकृष्ण झत्यादि उन्‍नेक महानुभावे ने एक ऐसा फड खेल! हे जिस में हम लोगो फो पूर्ण सहायता देनी चाहिए | विना विदेश गए ले २ ठयापररो, सिलेश भौर काम्य्योलये के चलाने को घोग्यता नद्दी माप्त छा सकती । केवल सिद्दान्ते व्ते जान लेने से प्होदे मनुष्य ऐसे कारखाने नही घला सकतर | इस सोग्यता के लिए उनके प्रबन्ध की अपने नेप्रेः से देखने करे सायधघ्यकता है | सहाराजा सयाजो राव गायकशलाड़ ने एफ िद्धान कफ सेचारो को चल पेरिस प्दर्शिनों से इस हेसू भेजा था कि ले सहाशय इस शात पर विचार करें कि कौन फकौस विदेश ईज्लेसिस बस्ल यहाँ फ्री बन सकतो हैं | वास्तव में महाराज यद्ठादुर को जितनी अशसा को जाय थोड़ी दे | यदि सभी आओमानू्‌ व्यापारोधक्कतसि की खोर इन सझालुभाव का चतुर्थाश नो धयाच जथवा दान देते ते। कपा यहा का व्यापार इस कीनदशा में कम्मे रह सकता थार ? बछ्े शोक को बात तो यह के कि इन एक साभ्र इतने दिचारशील भौर देशहितेच्छ ( ७३ ) सहारालज ही फो हसारे परानी लफीर के फफ़ीर चर्सहीन और खरा बतलाने से लज़्छित नहीं होते | हम छोगें। फो सचित है कि उन सहाशप फी रिपोर्ट पर जिन्हें दूरदर्शों महाराज ने पेरिस भेजा था विशेष ध्यान दे । सत।ः कृषि और शिल्प, घरणिज्य पर हस छोगें को पूरा लयान दे फर इन फो खूब उन्नति करना चाहिए | ( ग॒ ) छसारी दरिद्वतर का सब से बड़ा कारण यह्ट है कि छस प्रति वष फरोडी मुद्रा विदेशिये! फो उन के बनाए डुए विविच पदा्थे मोर लेकर प्लेट फरते हैं जिस से हसाराः देश चनहीन हिाता जाता है। आय फे लेखे मे छहसारे यहां मर्येक भजुष्य की वाषि क आमदुनो १७) से ३०) तक कूती जाती है | इतनी रुवल्प प्याय वाला फोई देश पएथिवी भ- णश्डल पर नहों दे । तथ इस से खढ़ फर और कपा सूर्खता दे। सकती है फि छसम फिर की घिदेश च्लिसित पदा्थे सोल लें? यह विचारना नितरलत श्रसमूलक है कि सदि हम विदेशो पदार्थे एक दुस लेना बन्द फरदे तो विदेशों लोग हमें फछे हत्यादि जी यह नही बन सफती हैं सौर जिनसे छस देश में वे पदाथे बनाए जा सकते हैं न देंगे मोर इस तरह स्वदेश में फोई क्री वस्तु बनही न सक्केगो | बाल यद्ट है कि जहा छस छोगें में इतनी दृढ़ पम्रतिन्नता प्ौर स्वदेशानुराग आागया कि हस विदेशो साहढ़ लेना एकद्स बन्द करदें तब फास पूरा छोजायया । यदि विदेशों छो ग हमें कलें न देंगे तो कुछ दिन सपनो आधश्यक पदाथ छाथों से ही तियार दोगे जौर फिर ऋसशः_ यछ्ली के फ्री २० ( 9४ ) घनने उगनी। फिर गेमा शदादस पी की चहष्ों सफलता कि समाणज्य ए्रपियों सर के देण एस शे इतना सिरोच छरने लगने फि फीड देश शम कछ देहीगा नहों | थे विदेशी जी एंगी से मलिवयण इसनसा चन लेते $, छस से तोसगणा जाचि- कफ चसवान ए | सार फर एक नेयम छे फि घरुदान भऊझु ध्य घच्शीन लोगे से काम लेते & हर उज्दे छत की भ- ज़ादुरी देते हे पए एस छीोग द्रिद्र ऐोेकर हो चन्ततन्पत्न जा- पियें से कान लेक्तर उन्‍्8 द्वव्प देते ० | तथ छस लोगों पी यदि प्छीडू बारूफ पो पदयों दे सो कथा फलचिल / यथा- ४ शस्लाधदसधथानासारम्ये कम्मपणा फलओ दापंदचा यो न जानाति रह याल हादे होच्यले || सब चलतरदइए के एक सज्नुण्य सही ससख्त भारत सनन्‍्लर- नस प्ाबतप लछके बने रहिणे ? छहसारे ही सादे कय्ये के झ- साथ से रखें रर रहे है| साथ यहा अक्कताछ पछता छे सो कल चह्का | भ्ाश्त के सद्य प्रानदे! से छक दप दष्छाल कऋष्नो उठतलर छही नही + फोर कपर कहें अनाह्ीकी प्रत्यक्ष जा खटी हुऑदं और सालवा गुजरात लक में बराबर छोग झकाल से पीड़ित हर रहे हें ! परनत छहस क्लेश क्या ?* हन तब ही फऊां खें सृंदे छिदेशिये से काम के रहे है। रवदेशी सोद्ायरो फप्फो इस ने ऐसी ऐसी चोटिले मकाशित कराले फझफसर देखा डे कि असुझछ सार “ हसने खश्स जिलायत हें सगवाया हे | ( 9४ ) छा |! घिठायती कारीयरे फो चन्य है कि जिन्हें ने सेल साल तेपार फिया |?” ज्ञा शोक | उच्च सूख सौदरगरों त्ह्ो ऐसे विज्ञापन प्रफाशित करते कुछ थी रूज्जा नही आती! आले झा से ? स्वदेशहिलत छझरीर स्वदेशाय्लिसान ले उस छोगे। से रहो न चया | | ! लकी ते इस देवसूसि की ०८ एछ दर्गेलि | यधए सत्य घ्े दि छा हसारर देश चच उसत्य प- दार्थ छही उत्पन्न फरता कि जिस से अचीर गरीब स्तर सुखपूर्वेक जपन्ता काश 'रऊा सके पर लेक्षी उस में अप्ती मन्ते- क लतस पदारय घनते है भरर एस चनन्‍डे सोललेकर देशीका री यरे। के। बिलकुल मेल्पाट्वित चड़ी करते | ढाका, सकू, लुघियाथा कनानोर, ज॒शिद्रबाद, दे।डा, रहलदाबाद, जालघर, छुरा- दाबाद, नेरठ, रूखनऊ!, जवारस, दिल्‍की, कालसपुर, कश्मोर आदि अनेक रपानो में कपछए, वरतन इत्यादि अनेझ पघ- दार्थ बनते डे प# उम्दें € छंद रोशनो के अ्ष्दोी ”? की छोड़ पराने छचवाले छोग बहुर कम फ्ाम से लाते हैं [हमलों के! चाहिए फि फा््रेल हारा प्रकाशित हानेबालो देशी परदष्योकी सूची के तैयार छ्लोजायं पर जहातझक होशच्े देशीय वस्त॒णों झा जरतना पआलारक्म्ष करदे। जे सनुष्य देशी वल्तु छेते भी दिदेशी चीजें कास ले छावे वह सवश्य ही स्वदेश घत्र है। झब इसमें कुछ काययें क्रमा चाहिए । बादें ठदाले भौोर समीरच करते बहुत दिन छेगए | शक बेटे २ फास नष्टीं चलेगा | ( 3६ 9) ८ उद्यमेन हि सिध्यन्ति कायधाणे न सनोंरधेः । नहि रसुप्तस्थ खिंहस्प प्रतिदालनित छरे माई! ॥ सुल।--- “क्ांदर मन कर एक झअझधारा देव देव खआालखसी घुकारा | ४ जब तुछसीदरसजी ऐसे सह्ात्सा का यह वधन हैतेा इसे पौन खयठन फरसकता है ? छयोंकिवह पूर्णतया सत्य-भोहे। झूथपासथधिहारी मिक्र झभीर छाकदेवपिहारी सिश्तर ! प्रेरितपत्र । प्रिय सम्पादक महाशय, नमस्कार; श्री चेड्डटेश्वर समाचार फहता है कि डाक्टर गणेशप्रसाद को जाति से च्युत फरना, फायरथों की सच्ची जातीयता का, सच्चे स्थधर्म प्रेम का काम हैं। सम्पादक फी जातीयता ओर धमनिष्ठा की परिभाषा जैसी श्लाध्य है उससे मालूम होता है कि यदि कायस्य छोग ( कुछ पत्र सम्पादकों के साथ 2 बम्बर में जद्दाज से उत्तरतेही डाक्टर साहब को समुद्र मं ढकेल हते तो उनके लिए भगवान बेकुगठनाथ अपना आसन छोड़ फर भाग जाते । प्रह्मदत्या वा श्रुण हत्या करके, ग्ुरुपत्नी चा विधवागमन कर ओर न साहुम कया फ्या पेशाचिफ दुराचार करके मजु॒ष्यजाति में रह सफत्ता है । फाछे पानी में अपराधी ही, रह कर, लोट कर सी जाते में मिलता दे । इसके सिवाय दुराचारी दास्मिकों के रोच के रोरब में डूबा समाज यह नहीं पूछता कि “उनके संह में के दांत है” - डाक्टर गशणोझप्रसाद ने क्या पाप किया हे? उनका कोई दोष है तो यही है कि उनने दस्त क्तन्न देद्ा में जन्म लिया, ओर जमेन परिडतों में काली कायस्थ जाति का नाम किया। इशस पाप पर पाप यह है कि उसे अभी अपने को भारत चासी फहने की छत है वह इस कुछ जाति ओर नाच देश फो “तं देश परिवर्जयेत्‌ ? नहीं फद्दता | इस पाप फा यह प्रति फल है जिस कायस्थ जाति में कोई सजालिस और भोजे खुलमख़ुलला “ मद्यपान था मांसमोजन के बिना प्राय नहीं होता सुना जाता, जो खुधारकों में आगे बढ़ती थी उसमें यह ब्लुढ़ियापुराण के रस्मों से लिपटना कैसा मालूम देता है । या वे भी इन बेतुफे सस्पादकरों की तरह आनन्द से गद गठ हो रहे है? जंप्ममा्परयिकोु हैंड ८० ्तबीकि, असकी पान का मसाका !! ; चूना खुपारी इलायची की जरूरत नहीं पान पर स्या सस्राला डाल कर खाने से सवब चीजों का स्वाद ज्ञाता लान्य खुरध होना हे दास |) दइलन का जा) थोक लेने से आा फिफायत | न्‍ सकड़ें अजीय +े चीज़ों सर भरा डुशा दसारा चड़ा स्वर जरूर वपरसा चेदाम भेजा ज्ञाता दें ! परता---जसमाईन इन्ठिया एमन्सो काल्याद वा रोौट बम्पर नोटिस । प्तों चुस से सादा सफाम सीलाम का पदने का पटा लेजा : जखर द८ कऋोटलाहश पगा ईकमरी फोी कराना हो तो हमयो। व्यास नफार फायदे कर समर सिर । हपक इ्यदा ा।, नजन सात फ्लो नेजया छ लोडिया १